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विषय कषायन के वश होकर, देह प्रापनो जान्यो । कर मिथ्या सरवान हिये विच, श्रातम नाहि पिछान्यो । यो कलेश हियधार मरणकर, चारो गति भरमायो । सम्यग्दर्शन- ज्ञान चरन ये, हिरदं मे नहि लायो ||६|| अब या नरज करूं प्रभु सुनिये, मरण समय यह माँगो | रोगजनित पीडा मत होवे, प्ररु कषाय मत जागो ।।
ये मुझ मरण समय दुखदाता, इन हर साता कीजै । जो समाधियुत मरण होय मुक्त, श्ररु मिथ्यामद छोजै ||७|| यह तन सात कुपातमई है, देखत हो घिन श्रावं । चर्म लपेटी ऊपर सोहै, भीतरु विष्टा पावै ।
अति दुर्गन्ध अपावन सो यह, मूरख प्रीति बढावे । देह विनाशी जिय श्रविनाशी, नित्यस्वरूप कहावै ॥ ८ ॥ यह तन जीर्ण कुटी सम श्रातम, याते प्रीति न कीजै । नूतन महल मिले जब भाई, तब यामे क्या छोजे । मृत्यु होन से हानि कौन है, याको भय मत लावो । समता से जो देह तजोगे, तो शुभतन तुम पावो ||६|| मृत्यु मित्र उपकारी तेरो, इस अवसर के माही | जीरण तन से देत नयो यह, या सम काहू नाही ॥ या सेती इस मृत्यु समय पर, उत्सव प्रति ही कीर्ज । क्लेश भाव को त्याग सयाने, समता भाव धरीजै ॥१०॥ जो तुम पूरव पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई | मृत्यु मित्र बिन कौन दिखावे, स्वर्ग सम्पदा भाई ॥