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ताको जु उदय अब प्रायो, नानाविधि मोहि सतायो। फल भुञ्जत जिय दुख पावै, वचते कसे करि गावै ॥२८॥ तुम जानत केवलज्ञानी, दुख दूर करो शिवथानी । हम तो तुम शरण लही है, जिन तारन विरद सही है ।२६। जो गावपति इक होने, सो भी दुखिया दुख खोवे । तुम तीन भवन के स्वामी, दुख मेटहु अन्तरजामी ।३०॥ द्रोपद को चीर बढायो, सीताप्रति कमल रचायो। अजन से किये प्रकामी दुख मेटहु अन्तरजामी ।३१। मेरे अवगुण चित न चितारो, प्रभु अपनो विरद निहारो । सब दोषरहित कर स्वामी, दुख मेटहुँ अन्तरजामी १३२॥ इन्द्रादिक पदवी न चाहूँ, विषयन मे नाहि लुभाऊ। रागादिक दोष हरीज, परमातम निज पद दीजै ।३३। दोहा-दोषरहित जिनदेवजी, निज पद दीज्यो मोय ।
सब जीवन के सुख बढे, प्रानन्द मङ्गल होय ॥३४॥ अनुभव मारिणक पारखी, जौहरी पाप जिनद ॥ ये ही वर मोहि दीजिये, चरण शरण आनन्द ।३५॥
भाषा सामायिक पाठ
अथ प्रथम प्रतिक्रमण कर्म काल अनन्त भ्रम्यो जग मे सहिया दुख भारी । जन्ममरण नित किये पाप को ह्व अधिकारी ।। कोटि भवातर माहि मिलन दुर्लभ सामायिक । धन्य प्राज मैं भयो योग मिलियो सुखदायक ।। हे सर्वज्ञ जिनेश, किये जे पाप जु मैं प्रब । ते सब मनवचकाय योग की गुप्ति बिना लभ ॥