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मिथ्यात महातम, छाय रह्यो हम, निजभव परगति, नहिंतूझ। इह कारण पाकै दीप सजाक, थाल घराक, हमपूजे ।। वसु०। ____ॐ ही त्रैलोक्यसम्वन्ध्यप्टकोटि-पट्पचाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहवचतु शतकाशीति अकृत्रिमजिनचंत्यालयेभ्य दीप निर्व० ॥ ६ ॥ दशगध कुटाके, धूप बनाके, निजकर लेके, धरि ज्वाला । तसु धूम उडाई दश दिशि छाई, बहु महकाई अति आला वसु०
ॐ ही त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि-पटपंचागल्लत-सप्तनवतिसहत्रचतु गतेकाशीति-अकृत्रिमजिनचैत्यालयेन्य धूप निर्व० ॥ ७॥ वादाम छुहारे, श्रीफल वारे, पिस्ता प्यारे दाखवरं। इन आदि अनोखे लखि निरदोखे, थालपजोखे, भेट घरं विसु. ___ॐ ही त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि-पटपचाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहत्रचतु गतः शोति अकृत्रिमजिनचैत्यालयेभ्यो फल निर्व० ॥८॥ जल चदन तदुल कुसुम रु नेवज, दीप धूप फल, थाल रौँ। जयघोष कराऊ बीनबजाऊं, अर्घ चढाऊं, खूब नों।। वसु.
ॐ ही लोक्यसम्बन्ध्यप्टकोटि-षट्पंचाशल्लक्ष सप्तनवतिसहत्रचतु शतकाशीति अकृत्रिमजिनचंत्यालयेभ्यो अर्घ्य निर्व०॥६॥
अथ प्रत्येक अर्घ ( चौपई ) अधोलोक जिन आगमसाख । सात कोडि अरु बहतर लाख । धीजिनभवन महा छवि देइ । ते सब पूर्जी वसुविधि लेइ ।। ___ॐ ह्री अधोलोकसम्बन्धि सप्तकोटि-द्विसप्तति-ल, कृत्रिम श्री जिनचैत्यालयेभ्यो अर्घ्य निर्व० ॥१॥ मध्य लोक जिन मन्दर ठाठ । साढचारशतक अरु पाठ। ते सब पूजो अर्घ चढाय । मन वच तन त्रयजोग मिलाय ।।