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। ॐ ह्री मध्यलोकसम्बन्धि चतू शताष्टपञ्चाशत श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अध्यं निर्वपामीति० ॥२॥ अडिल-ऊर्ध्वलोक के माहि भवन जिन जानिये,
लाख चौरासी सहस सत्यानव मानिथे । ताप धरि तेईस जजो शिरनायके,
कंचनथालमझार जलादिक लायक ॥३॥ ॐ ह्री ऊर्चलोकसम्बन्धि चतुरशीतिलक्ष सप्तनवतिसहस्र-त्रयोविशति श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अध्यं ॥३॥
गीता छन्द बसुकोटि छप्पन लाख ऊपर, सहस सत्यारणव मानिये । शतच्यार में गिनले इक्यासी, भवनजिनवर जानिये ॥ तिहुँ लोक भीतर सासते,, सुर असुर नर पूजा करें। तिन भवनको हम अर्घ लेके, पूजि हैं जगदुख हरै ॥४॥ ___ॐ ह्री त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि षटपञ्चाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहस्रचतु शतकाशीति-अकृत्रिमजिनचैत्यालयेभ्य पूर्णायं निर्व० ॥४॥
अथ जयमाला। दोहा-अब वरणू जयमालिका, सुनो भव्य चित लाय । जिनमन्दिर तिहुँ लोकके, देहं सकल दरशाय ।
पद्धडि छन्द। जयप्रमल अनादि अनंतजान । अनिमितज़ प्रकीर्तमप्रचलमान जय अजय अखंड अरूपधार । षट् द्रव्य नहीं दीसं लगार ॥ जय निराकार अविकार होय । राजत अनंत परदेश सोय ।