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तमहर उज्ज्वल ज्योति जगाय, दीपसो पूजो श्रोजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ।। पानो० ॥६॥ ॐ ही पंचमेरु सम्बन्धि जिन-चैत्यालयस्थ-जिन-विम्बेन्य दीप नि । खेऊ अगर अमल अधिकाय, धूपसो पूर्जी श्रीजिनराय । महासुख होय, देले नाथ परमसुख होय ॥ पाचो० ॥७॥ ॐ ह्री पचमेक-सम्बन्धि-जिन-चैत्यालयम्प-जिन-विम्वेभ्य धूप नि.। सुरस सुवरणं सुगंध मुभाय, फलसौं पूनों श्रीजिनराय । महासुम्य होय देखे नाय परमसुख होय ।। पांचो० ॥८॥ ॐ ह्री पचमेरु-मम्बन्धि-जिन-चैत्यालयस्य-जिन-विम्वेन्य फन निन पाठ दरवमय अरघ वनाय, "धानत' प्रजों श्रीजिनराय । महासम्व होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों० ॥६॥ ॐ ह्री पंचमेरु-सम्बन्धि-जिन-चैत्यालयम्य-जिन-विम्बेभ्य अध्यं निका
जयमाला-मोग्ठा प्रथम सुदर्शन-स्वामि, विजय अचल मन्दिर कहा। विद्युन्माली नाम, पंचमेर जगमे प्रकट ॥ १० ॥
वेसरी छन्द
प्रथम सुदर्शन मेरु विराज । भद्रशाल बन भूपर छाजे । चैत्यालय चारो सुखकारी । मनवचतन कर बन्दना हमारी॥ ऊपर पांच शतक पर सोहै । नदनवन देखत मन मोहे ।चैत्या. साढे वासठ सहस ऊंचाई । बन सुमनस शौम अधिकाई ।। ऊँचा योजन सहस छत्तीसं । पाडुकवन सोहैं गिरिशीष चि.। चारो मेरु समान वखानो । भूपर भद्रसाल चहुँ जानो। चैत्यालय सोलह सुखकारी । मनवचननकर ववना हमारी १६