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वीर, हरी सब पीर, वधाई घोर, पकर लिये चरना । निम नेम बिन हमे जगत क्या करना ॥
फागुन मास (झडी )
मखि ग्राया फाग वडभाग, तो होरी त्याग, अठाई लाग के मेनासुन्दर । हरा श्रीपाल का कुण्ट कठोर उदम्बर । दिया घवन सेठ ने डार, उदधि को घार तो हो गये पार, वे उस ही पल मे । श्ररु जा परणी गुणमाल न डबे जल मे ।
भर्वर्ट - मिली रैन मजूपा प्यागे, निज ध्वजा शील की धारी । परी सेठ पे मार करारी, गया नर्क में पापाचारी ॥ ( झडी) तुम लखो द्रोपदी सती, दोप नहि रती, कहे दुर्मती पद्म के दन्छन । हुप्रा घात की खण्ड जरूर शोल इस सण्डन । उन फूटे घडे मार । दिया जल डाल तो वे श्राधार थमा जन भरना । निर्लेम नेम विन हमे जगत मे क्या करना ॥ चैत्र मास (डी)
सम्वी चंत्र मे चिन्ता करे न कारज मरे शील मे टरे कर्म की रेखा | मैंने शील से भील को होता जगत गुरु देखा । सखि झील में सुलसा तिरी मुतारा फिरी खलामी करी श्री रघुनन्दन । प्ररु मिली शील परताप पवन से श्रञ्जन ||
भवरें-गवण ने कुमत उपाई, फिर गया विभीषण भाई । छिन मे जालक गमाई, कुछ भी नहि पार वमाई ॥
(डी) मीता सती ग्रग्नि मे पड़ी तो उम ही घडी वह शीतल पडी चढी जल धारा । सिल गये कमल भये गगन मे जय जयकारा । पद पूजे इन्द्र, धर्मेन्द्र, भई शीतेन्द्र, श्री जैनेन्द्र ने ऐसा बरना । निर्नेम नेम बिन हमे जगत मे क्या करना ।
वैशाख मास (झडी)
सखी श्राई वैशाखी मेख, लई 'देख, ये ऊरध रेख पढी मेरे कर मे । मेरा हुआ जन्म यूं ही उग्रसेन के घर मे । नहि लिखा करम मे भोग, पडा है जोग, कगे मत शोक, जाऊ गिरनारी । है मात पिता अरु भ्रा से क्षमा हमारी ॥