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२१२ । 'झर्व-मैं पुण्य प्रताप तुम्हारे घर भोगे भोग अपारे ।
जो विधि के अह हमारे, नहिं टरे किमी के टारे । (झडी) मरी सखी सहेली बीर, न हो दिलगीर, धगे चित वीर, में क्षमा कराऊं। में कूल को तुम्हारे फवह न दाग लगाऊ । वह ले प्राज्ञा उठ खडी थी मगल घडी, जा बन मे पडी, मुगुरु के चरना। निर्नेम नेम बिन हमे जगत मे क्या करना ।
जेठ माम (झडी) मजी पडे जेठ की धूप, गडे सव भप, वह कन्या स्प, मती वह भागन । कर सिद्धन को प्रणाम किया जग त्यागन । अजि त्यागे सव ससार चुडिया तार कमण्डल घार, के लई पिछौटी । अरु पहरक माडी श्वेत उपाडी चोटी। झवटे-उन महा उग्र तप कीना, फिर अच्युत्येन्द्र पद लोना ।
है धन्य उन्ही का जीना, नही विपयन मे चित दीना ॥ (झडी) प्रजी त्रियावेद मिट गया, पाप कट गया, वढा पुरुपारथ । फरे धर्म अरथ फल भोग रुचे परमारथ । वो स्वर्ग सम्पदा भुक्ति, जायगी मुक्ति, जैन की उक्ति मे निश्चय घरना । निर्नेम नेम विन हमे जगत मे क्या करना ।। जो पढे इसे नर नारि, वढे परिवार सर्व मसार मे महिमा पावें । सुन सतियन शील कथान विघ्न मिट जावे । नहि रहे सुहागिन दुखी होग सब सुखी, मिटे वेरुखी पावे वे पादर। वे होय जगत मे महा सतिया की चादर । झर्वटें-मै मानप कुल मे पाया, अरु जाति यती कहलाया। है कर्म उदय की माया, विन सयम जन्म गवाया ।
झडी-ग्राम, सवत्, कवि, वश, नामहै दिल्ली नगर सुवास, वतन है खास, फाल्गन मास, अठाई आठ । हो उनके नित कल्याण छपा कर वाटे। अजी विक्रम अब्द उनीस पै धर पैतीम, श्री जगदीश का ले लो शरणा। कहै दास नैनसुख दोष पै दृष्टि न धरना। मै ल गी श्री अरहन्त सिद्ध भगवन्त साघु सिद्धान्त चार का सरना, निर्नेम नेम बिन हमे जगत मे क्या करना ।।
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