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छन्द पद्धरि (१६ मात्रा) • जय शातिनाथ चिद्रूपराज । भवसागरमे अद्भुत जहाज ॥ तुम तजि सरवारथसिद्धथान । सरवारथजुत गजपुर महान।। तित जनम लियो आनन्द धार । हरि ततछिन आयौ राजद्वार इन्द्रानी जाय प्रसूतथान । तुमको करमे ले हरष मान ॥२॥ हरि गोद देय सो मोदधार । सिर चमर अमर ढारत अपार।। गिरिराज जाय तित शिला पांड । ताप थाप्यौ अभिषेक मांडा३ तित पचमउदधि तनो सु वार । सुरकर करकरि ल्याये उदार । तब इन्द्र सहसकर करि पानंद । तुम सिर धारा ढारयो सुनंद४ अघ घघघघघघ धुनि होत घोभिभभभभभ धधधध कलशशोर हमहमहमहम बाजत मृदंग । झन नननननननन नू पुरंग ।। तननननननननन तनन तान । घननननन घटा करत ध्वान । ता थेइथेइथेइथेइथेइ सुचाल । जुत नाचत नावत तुमहिं भाल६ चटचटचट अटपट नटत नाट । झटझटझट हट नट शट विराट इमि नाचत राचत भगतरग । सुर लेत जहा अानन्द सग।७। इत्यादि अतुलमगल सुठाट । तित बन्यो जहां सुरगिरि विराट पुनि करिनियोग पितुसंदन प्राय। हरि सौंप्यौ तुम तितवृद्धथायद पुनि राजमाहि लहि चक्ररत्न । भौग्यौ छखण्ड करि धरम जत्न पुनि तप धरि केवलरिद्धिपाय । भवि जीवनको शिवमग बताय शिवपुर पहुचे तुम हे जिनेश । गुनमंडित अतुल अनन्त भेष । मैं ध्यावतु हो नित शीश नाय । हमरी भवबाधाहरि जिनाय१० सेवक अपनो निज जान जान । करुणाकार भौभय भान-भान