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________________ १३६ । यह विधन मूलतरु खण्डखंड । चितचितित आनंद मंड मंड११ (घत्ता)-धीशांति महता, शिवतियकता, सुगुन अनंता, भगवंता। भव भ्रमन हनंता. सौल्यअनता, दातारं तारनवंता ।१२। ॐ ह्री श्री शान्तिनाथजिनेन्द्राय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा । छन्द रूपक सवैया ( मात्रा ३१ ) शान्तिनाथजिनके पदपंकज, जो भवि पूजे मनवचकाय । जनम जनम के पातक ताके, ततछिन तजिकै जाय पलाय ॥ मनवांछित सुख पावै सौ नर, बांचे भगतिभाव अति लाय ! तात "वृन्दावन" नित बन्दै, जातै शिवपुरराज कराय॥ इत्याशीर्वाद । परिपुष्पालि क्षिपेत् । श्री नेमिनाथ जिन पूजा ( छन्द लक्ष्मी, तथा अई लक्ष्मीधरा ) जयति जय जयति जय जयति जय नेमकी, ___धर्म औतार दातार शिव चनको' । श्रीशिावनन्द भौफन्द निकन्द की, ध्यावै जिन्हे इन्द्र नागेन्द्र प्रौ मैनको ॥ परम कल्याणके देनहारे तुम्ही, देव हो एव तातै करो ऐनको । थापिहोवार त्रय शुद्ध उच्चारके, युद्धताधार भवपारकू लेनकी।। ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिन । अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । १ मानन्द की । २ हनने वाले। : कामदेव । ४ पूगे।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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