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(झडी) है जग मे असाता कर्म, बडा बेशर्म, मोह के मर्म से धर्म न सूझे। इनके वश अपना हित कल्याण न बूझे। जहाँ मृग तृष्णा को घूर, वहां पानी दूर, भटकना भूर, वहाँ जल भरना। निर्नेम नेम विन हमे जगत मे क्या करना।
कार्तिक मास (झडी) सखि कार्तिक काल अनन्त, श्री अरहन्त की सन्त महन्त ने प्राज्ञा पाली। घर योग यत्न भव भोग की तृष्णा टाली। सजे चौदह गुण प्रस्थान, स्वपर पहचान, तजे मक्कान महल दीवाली। लगा उन्हे मिष्ट जिन धर्म अमावस काली ॥ झर्व-उन केवल ज्ञान उपाया, जग का अन्धेर मिटाया।
जिसमे सब विश्व समाया, तन धन सब अथिर बताया । (झडी) है अथिर जगत सम्बन्ध, अरी मति मन्द जगत का अन्ध है धुन्ध पसारा । मेरे प्रीतम ने सत जान के जगत बिसारा । में उनके चरण की चेरी, तू प्राज्ञा दे मा मेरी, है मुझे एक दिन मरना। निर्नेम नेम विन हमे जगत मे क्या करना ।
अगहन मास (झडी) सखि अगहन ऐसी घडी, उदय मे पडी, मैं रह गई खडी, दरस नहिं पाये । मैं सुकृत के दिन विरथा यो ही गवाये । नहिं मिले हमारे पिया, म जप तप किया, न सयम लिया, अटक रही जग मे। पडी काल अनादि से पाप की बेडी पग मे ।। झर्व-मत भरियो माग हमारी, मेरे शील को लागे गारी ।
मत डारो अजन प्यारी, में योगन तुम संसारी॥ (झडी) हुए कन्त हमारे जती, मैं उनकी सती, पलट गई रति, तो