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प्रभुजी नरक निगोद मे भव भव मै रुत्यो । जिनराज सहिया छँ दुःख अपार महाराज ॥ यो मन० ॥ प्रभुजी अब तो शररणोजी थारो में लियो ।
किस विधि कर पार लगावो महाराज || यो मन० ॥ प्रभुजी म्हारो तो मनडो थामे घुल रह्यो । ज्यों चकरी विच रेशम डोरी महाराज || यो मन० ॥ प्रभुजी तीन लोक में हैं जिन विस्व ।
कृत्रिम प्रकृत्रिम चैत्यालय पूजस्था महाराज ॥ यो मन० ॥ प्रभुजी जल चन्दन अक्षत पुष्प नैवेद्य ।
दीप धूप फल अर्घ चढ़ाऊ महाराज || जिन चैत्यालय महाराज, सब चैत्यालय जिनराज ॥ यो मन. ॥ प्रभुजी अष्ट द्रव्य जु ल्यायो बनाय ।
पूजा रचाऊ श्री भगवान की महाराज || यो मन० ॥ अरिहंता छियाला सिद्धट्टा सूर छत्तीसा । उवज्झाया परणवीसा साहूरण होति अडवीसा ॥ ( निम्नलिखित अर्घ्यं बोलते समय जलधार छोडते रहना चाहिये ) ॐ ह्री श्री अरहन्त सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय सर्वसाधु-पचपरमेष्ठिभ्यो नम दर्शन विशुद्धयादि - षोडशकारणेभ्यो नम, उत्तम क्षमादि दशलक्षणधर्मेभ्यो नम, सम्यग्दर्शन- सम्यक्ज्ञान - सम्यक् चारित्रेभ्यो नमः, भूत-भविष्यत - वर्तमानकालचतुर्विंशति-तीर्थङ्करेभ्यो नम सिद्धक्षेत्रेभ्यो नम अतिशयक्षेत्रेभ्यो नम मद्य संवत्
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मध्य जंगल की
पक्षे तिथौ समये पूजाया सकलकर्मक्षयार्थ अनर्घ्यपदप्राप्तये जलाद्यध्यं महार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । भाव पूजा वन्दनास्तवसमेतं कायोत्सर्गं करोम्यहम् |