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[ १६६ सुनिये जिनराज त्रिलोक धनी । तुममे जितने गुन हैं तितनी । कहि कौन सर्फ मुखसों सयहो । तिहि पूजतही गहि प्रघं यही ॥ ॐ हो श्रीवृषभादि योगन्तेभ्यो चतुविदा तिजिनेभ्यः पूर्णाध्यं निर्वपा०| कवित
यभ देवकी आदि प्रन्त, श्रीवद्ध मान जिनवर सुखकार । तिनके चरण कमलको पूजं, जो प्रारणी तुरगमाल उचार ॥ ताके पुत्रमित्र घन जोवन, सुख समाज गुन मिलं प्रपार । सुरपदभोग भोग चक्री ह्व, अनुक्रम लहे मोक्षपद सार |२|
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प्रत्याशीर्वाद
महा श्रघं प्रभुनो प्रष्ट द्रव्यजु ल्यायो भावसो ।
प्रभु थांका हवं हर्ष गुरण गाऊ महाराज ॥
यो मन हरस्यो प्रभु थांकी पूजाजी के कारणे ।
प्रभुजी थाकी तो पूजा भवि जीव जो करें ॥ ताका पशुभ कर्म कट जाय महाराज || यो मन० ॥ प्रभुजी इन्द्र घरन्द्रजी सब मिलि गाय |
प्रभु का गुरगा को पार न पायो महाराज || यो मन० ॥ प्रभुजी थे छो जी प्रनन्ताजी गुरुवान ।
थाने तो सुमरघा संकट परिहरे महाराज || यो मन० ॥ प्रभुजी ये छो जी साहिब तीनो लोक का ।
जिनराज में छू निपट प्रज्ञानी महाराज || यो मन० || प्रभुजी थाका तो रूप को निरखन कारणे ।
सुरपति रचिया छै नयन हजार महाराज || यो मन० ॥