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नवों पदारथ विधिसौं भाख, बन्ध दशौं चूरन करन । ग्यारह शंकर जाने माने, उत्तम बारह व्रत धरन । तेरह भेद काठिया चूरे, चौदह गुण थानक लखिय । महा प्रमाद पवदश नाशे, शील कषाय सवै नखियं ।। बन्धादिक सत्रह सब चूरे, ठारह जन्म न मररण मुन ।। एक समय उनईस परीषह, वीस प्ररूपनि मे निपुनं । भाव उदीक इकोसौं जाने, वाइस प्रभखन त्याग कर ॥ अहमिदर तेईसौं बन्दै, इन्द्र सुरग चौबीस वर ॥५॥ पच्चीसो भाषन नित भाव, छब्बिस अङ्ग उपग पढे । सत्ताइससो विषय विनाश, अट्ठाईसौ गुण सु बढे ।।६।। शीत समय सर चौहटवासी, ग्रीषमगिरिशिर जोग घरै । वर्षा वृक्षतरै थिर ठाडे, पाठ करम हनि सिद्धि वरै ॥७॥ दोहा-कहों कहा लो भेद मै, बुध थोडी गुण पूर । __हेमरान' सेवक हृदय, भक्ति भरी भरपूर ॥ ॐ ह्री प्राचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो अध्यं निर्व० ।
अकृत्रिमचैत्यालय पूजा
॥चौपई । पाठकरोडरु छप्पनलाख । सहस सत्यारणव चतुशतभाख । जोड़ इक्यासी जिनवर थान । तीनलोक पाह्वानकरान ॥१॥ ____ॐ ह्री त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटि-षट्पञ्चाशल्लक्ष-सप्तनवतिसहस्रचतु शतकाशीति-अकृत्रिमजिनचैत्यालयानि अत्र अवतरत २ सवौषट् । अत्र तिष्ठत २ ठ ठ । अत्र ममसन्निहितानि भवत २ वषट् ।