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दशक्षेत्र सातशत जोडबीस, नित नन्दनकरूं कर जोडशोश ।। सबही जिनराज नमो त्रिकाल, मोहिंभवसागरसे लेहु निकाल । मम हृदयमध्य तिष्ठो जिनेश, काटो भव फद जजो जगेश ।। रविमलकी विनती सुनहु नाथ, तुमशरणलई कर जोडिहाथ । मनवाछित कारज सार-सार, यह परज हिये मे धार-धार ।। पत्ता-शत सातज़ बीसं, श्रीजगदीशं, भागत नागत वर्ततु है ।
मनवचतन पूज, शुध-मन हूनै, सुरगमुक्तिपद धरतजु है ।। ॐ ह्री पञ्चमेरु सम्बन्धी दशक्षेत्र विष तीस चौबीसी के सात सौ बीस जिनेन्द्रेभ्य नम अध्यं निर्व. दोहा - सम्वत् सत उन्नीस के, ता ऊपर पुनि आठ ।
पौष कृष्ण तृतीया गुरू, पूरन भयो जु पाठ ।। अक्षर मात्रा की कसर, बुध-जन शुद्ध करेय । अल्पबुद्धि मोहि जानके, दोष कबहुं नहिं देय ॥ पढयो नहीं व्याकरण मैं, पिङ्गल देख्यो नाहिं । जिनवारणी, परसादतै, उमंग भई घट माहिं । मान बड़ाई ना चहूँ, चहूं धर्म को अङ्ग । नित प्रति पूजा कीजियो, मनमें धारि उमङ्ग । ___ इत्याशीर्वाद. । पुष्पालि ।
रविव्रत पूजा यह भविजन हितकार, सु रविनत जिन कही।
करहु भन्यजन लोक, सुमन देके सही। पूजो पार्श्व जिनेन्द्र त्रियोग लगाय के।
मिटै सकल सताप मिले निधि प्रायके ।।