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११० । तागिरि पूरव-पश्चिम जु ओर, शुभक्षेत्र विदेह बस जुठोर ।। ता दक्षिण क्षेत्र भरत सु जानि, है उत्तर ऐरावत महान । गिरि पाचतनै दश क्षेत्र जोय, ताको वरनन सब सुनो लोय ॥ है भरतक्षेत्र दक्षिण जु व्यास, ऐरावत ताहि प्रमारण भास । इक क्षेत्र बोच विजयाद्ध एक, ता ऊपर विद्याधर अनेक ।। इक क्षेत्र विष षट खड जानि, तहाँ छहो काल बरत महान । जो तीन कालमे भोगभूमि, दस जाति कल्पतरु रहे झूमि ।। जब चौथो काल लग जाय, तब कर्मभूमि वर्ते सुभाय । तब तीर्थङ्कर को जन्म होय, मुरलेय जज गिरि पर सुजोय ।। बहु भक्ति करें सब देव पाय, ताथेई थेई-थेई की तान लाय । हरि ताण्डव नृत्य करे अपार, सब जीवन मन आनन्दकार ।। इत्यादि भक्ति करिके सुरेन्द्र, निजथान जाय जुत देव वृन्द । याहीविधि और कल्यान जान, हरिभक्ति कर अतिहर्ष ठान ।। या कालविर्ष पुण्यवत जीव, नरजन्मधार शिव लहै अतीव । जे त्रेसठ पुरुष प्रधान होय, सब याही काल विर्ष जु होय ।। जब पञ्चमकाल करे प्रवेश, मुनि धर्म रहे कह कह प्रदेश । बिरले कोइ दक्षिन देश माहि, जिनधर्मी नर बहुते जु नाहिं ।। जब षष्ठम काल करे प्रवेश, दुख ही दुख व्याप सर्व देश । तब मासभक्षी नर सर्व होय, जहँ धर्म नाम सुनिये न कोय । या विधि दशक्षेत्र मझार सार, इहकाल फिरन सब एकसार । हद पर्वत नदि रचना प्रमान, पागम अनुकूल लखो सुजान ।। इक क्षेत्र चौबीसी तीन जान, प्रागत नागत अरु वर्तमान ।