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गुणसमुद्र तुम गुरण प्रविकार, कहत न सुरगुरु पावं पार । प्रलयपवन उद्धत जलजन्तु, जलघि तिरं को भुज-बलवन्तु।४। सो मैं शक्तिहीन युति करू । भक्तिभाववश कछु नहिं उरू। ज्यो मृगि निजसत पालन हेत, मृगपति सन्मुल जाय प्रचेता। मै राठ सुधी हंसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलाव राम । ज्यो पिक अम्बकली परभाव, मधुऋतु मधुर करे भाराव।६। तुम जम जपत जन छिनमाहिं, जनम जनम के पाप नशाहिं। ज्यों रवि उगै फट ततकाल, अलियत् नील निशा-तम-जाला। तव प्रभावत कहूँ विचार, होसो यह थुति जन-मन-हार । ज्यों जल कमलपत्र पे पर, मुक्ताफल की दुति विस्तर की तुम गुण महिमा हत्त-दुख-दोष, सो तो दूर रहो सुख-पोष । पापविनाशक है तुम नाम, कमलविकासी ज्यो रविधाम II नहि अचम्भ जो होहिं तुरन्त, तुमसे तुम गुण धरनत सन्त । जो अधीन को प्राप समान,फरे न सो निन्दित धनवान ।१०। इकटक जन तुमको अविलोय, और विर्ष रति करे न सोय । को करि क्षीर-जलधि-जलपान, क्षारनीर पीवै मतिमाना११॥ प्रभु तुम वीतराग गुरगलीन, जिन परमाणु देह तुम कीन । हैं तितने हो ते परमानु, यात तुम सम रूप न पानु ।१२। कहं तुम मुख अनुपम अविकार, सुर-नर-नाग-नयन-मनहार। कहाँ चन्द्र-मण्डल सकलंक, दिन मे ढाकपत्र सम रक ।१३॥ पूरणचन्द्र-ज्योति छविवंत, तुम गुरण तीन जगत लघत । एक नाथ त्रिभुवन प्राधार, तिन विचरत को करे निबार १४