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________________ ( ६२ ) पणमामि-भत्ति-जुत्तो, सुदणाणमहोवय सिरसा ॥२॥ अक्षर-मात्र-पद-स्वर-होनं व्यञ्जन-संघि.विविजत-रेफम् । साधुभिरत्र मम क्षमितव्य को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्र । दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषित मुनिपुङ्गवैः । ४॥ तत्त्वार्थसूत्रकरिं गृध्रपिच्छोपलक्षितम् । बन्दे गरणीन्द्र-संजातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ॥ ५॥ जं सक्का त कोरड, ज पुण सक्का तहेब तहहरणं । सद्दहमारगो जीवो पावइ अजरामरं ठाणं ॥ ६ ॥ तवयररणं वयधरण, सञ्जमसररण च जीवदयाकरणम् । अते समाहिमरण, चउविह दुक्ख रिणवारेई ।। ७ ।। इति तत्त्वार्थस्त्रापरनाम तत्त्वार्धाधिगममोनशास्त्रम् समाप्नम् । भक्तामर स्तोत्र भाषा (स्व०प० हेमराजजी कृत) दोहा-आदि पुरुष आदीश जिन, आदि सुविधिकरतार । घरमधुरन्धर परमगुरु, नमो प्रादि अवतार ॥१॥ चौपई १५ मात्रा सुर-नत-मुकुट रतन छवि करे, अंतरपापतिमिर सव हरें । जिन पद बन्दों मनवचकाय,भवजल पतित उघरन सहाय।११ श्रुतपारग इन्द्रादिकदेव, जाकी युति कोनो कर सेव । शब्दमनोहर प्ररथ विशाल,तिस प्रभु की वरनो गुणमाल ।। बिबुध-वद्यपद मैं मतिहीन, हो निलज्ज युति-मनसा कीन । जल-प्रतिविम्ब वुद्ध को गहै, शशिमण्डल नालक ही चहै ।३।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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