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[ १८३ अडिल्ल छन्द--सूर्य चन्द्र मंगल बुध गुरु अरु शुक्र है,
राह केतु शनिश्चर नवग्रह चक्र है। इनकी शान्ति हेतु मै शान्त जु भाव से,
पूजू श्रीकलिकुण्ड प्रभु ! अति चाव से । ॐ ह्री श्री ऐ अहं कलिकुण्ड-श्रीपार्श्वनाथ धरणेन्द्रपद्मावतीसेविताय अतुल-बलवीर्य-पराक्रमाय सर्वविघ्नविनाशनाय हम्ल्व्यरूं म्ल्यूस म्म्ल्व्य रम्ल्व्यसम्ल्व्यर्स इम्ल्व्यरूं स्म्ल्व्यरूं साल्व्यस अनर्थ्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्तुति। देवेन्द्रो से पूजित हो, सर्वज्ञ जिनेश्वर हो भगवान । सदुपदेशक हो जिनवर तुम, मै प्रणाम करता गुणगान,।। सर्व विघ्न विनाशक हो प्रभुवर तुम हो सद्गुण को खान । विनती करता नाथ आपको, हो नायक कलिकुण्ड महान ॥१॥ नित्य भक्तिपूर्वक निज मनमे, याद किया जो हैं करते। अपनी शक्त्यनुसार प्रार्थना, करके मन्त्र जपा करते ॥ पूजा करते भक्तिभाव से, यन्त्रराज की जो गुणगान । पूर्ण हुमा करती है उनकी, मनोकामना निश्चय जान ॥२॥ भक्ति जिन्हो की यन्त्रराज मे, है उनको सब सुख मिलता। उनके घर मे कल्पवृक्ष, मानो उत्पन्न हुआ करता ।। अथवा प्रकट होत चिन्तामरिण, रत्न चिन्त्य वस्तुदाता । या फिर मानव मनोरथो के, हेतु कामधेनु पाता ॥३॥ देवासुर से वन्दित है जो, रत्नपात्र में लिखा गया । रत्नत्रय पाराषन का कारण है जो सुना गया ।।