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श्रीकलिकुण्ड यन्त्र को मै, अध्यात्म प्रेम मे पगा हुआ। नमस्कार करता हूँ मन मे, भक्ति रंग से रंगा हुआ ।।४।। पडे जेलखानो मे जो हैं; या बन्धन में बंधे हुये । ज्वर अतिसार ग्रहणी रोगो मे, प्रारणी जो हैं फसे हुये ॥ सिंह करी साग्नि चोर प्रक, विष समुद्र के कष्ट अनेक । राज काज के सभी उरो को, यन्त्र दूर करता है एक ॥५॥ वन्ध्या स्त्री बहु-पुत्रवती हो, सुख का अनुभव करती है । सर्व अनर्थ दूर होते हैं, शान्ति पुष्टि नित होती है ।। सुख पर यश बढता है उनका, जो नित पूजन करते हैं । श्रीजिन के मुखसे निकले, कलिकुण्ड यन्त्र को भजते हैं ।।६॥ सब दोषो से रहित तथा, इन्द्रो से सम्पूजित हैं वे । सर्व सुखों के दाता है अरु, विघ्न विनाशकर्ता हैं वे ॥ जो जन परम भक्ति से पढते, और अर्चना करते हैं । पूर्ण सुखी होते हैं वे फिर, मुक्ति रमा को वरते हैं ॥७॥
परिपुष्पाजलिं क्षिपेत् । अय जयमाला। दोहा-जिनवर के सुमिरण किये, पाप दूर हो जाय । ज्यों रवि किरणो से सदा, अधकार नशि जाय ॥
पद्धरि छन्द । जय अजन पर्वतसम जिनेश धन गर्जन सम तव धुनि बहेय। . मदमत्त शात होता गजेश, मनमे भजते जो जन जिनेश ॥१॥ अति क्रुद्ध जीभ मुह दांत फाड, यमराज समान रहा दहाड। मृग सम होता है वह मृगेश, मनमे भजते जो जन जिनेश ।२।
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