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॥ जयमाला ॥ दोहा-पोडशकारण गुण करै, हरै चतुरगति वास । पाप पुण्य सब नाश के, ज्ञान भानु परकाश ॥
॥चौपाई॥ दर्श विशुद्धि घरे जो कोई, ताको आवागमन न होई । विनय महा धारे जो प्राणी, शिवबनि ताकी सखो बखानी ।। शील सदा दृढ जो नर पाले. सो औरन की प्रापद टाले । ज्ञानाभ्यास करे मय माहीं, ताके मोह-महातम नाहीं ॥३॥ जो सवेग-भाव विस्तारै स्वर्ग-मुक्ति-पद प्राप निहारै । दान देय मन हर्ष विशेष, इह भव यश परभव सुख देखे ।४। जो तप तप खपै अभिलाषा, चूरे कर्मशिखर गुरु भाषा । साधुसमाधि सदा मन लावै, तिहुं जग भोग भोगि शिवजावै ।। निदिन वैयावृत्य करैया, सो निश्चय भवनीर तिरेया। जो अरहत-भक्ति मन पाने, सो जन विषय कषाय न जाने ।। जो प्राचारज-भक्ति कर है, जो निरमल प्राचार धरै है। बहु श्रुतवन्त-भक्ति जो करई, सो नर संपूरण श्रुत घरई ७। प्रवचन भक्ति कर जो ज्ञाता, लहै ज्ञान परमानन्द-दाता । षट् प्रावश्य काल जो साधे, सोही रत्नत्रय आराध ।।। धर्म प्रभाव करै जो ज्ञानी, तिन शिव-मारग रीति पिछानी। वात्सलअंग सदा जो ध्यावै, सो तीर्थङ्कर पदवी पावै ।।६।। दोहा-ये ही षोडश भावना, सहित घर व्रत जोय ।
देव-इन्द्र-नर-वंद्य पद, 'द्यानत' शिव पद होय ॥