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भवि भीत कोक' कोनो अशोक, शिव मग दरशायो शर्म थोक । जय २ जय २ तुम गुरण गभीर, तुम आगम निपुरण पुनीतधोर।४ तुम केवल ज्योति विराजमान, जय जय जय जय करुणानिधान। तुम समवसरण मे तत्त्व-भेद, दरशायो जाते नशत खेद ।। तित तुमको हरि प्रानन्द धार, पूजत भक्ती जुत बहु प्रकार । पुनि गद्य-पद्य-मय सुजश गाय, जय बल अनन्त गुणवन्तराया जय शिव शङ्कर ब्रह्मा महेश, जय बुद्ध विधाता विष्णवेष । जयकुमति मतंगन'को मृगेन्द्र, जय मदन-ध्वान्तको रविजिनेंद्र।७ जय कृपासिन्धु अविरुद्ध बुद्ध, जय ऋद्धि सिद्धि दाता प्रबुद्ध । जय जग जन मन रजन महान, जय भवसागर महसुप्ठयान १८ तुम भक्ति करते धन्य जीव, ते पावै विव' शिवपद सदीव । तुमरो गुण देव विविध प्रकार, गावत-नित किन्नरको जु नारद तुम भक्ति माहि लवलीन होय, नाचे ताथेइ-थेइ थेइ बहोय । तुम करुणासागर सृष्टि पाल, अब मोको नेगि करो निहाल।१० मैं दुख अनन्त चसु करम जोग, भोगे सदीव नहिं और रोग। तमको जगमे जान्यो दयाल, हो वीतराग गुरण रतन माल।११ तातं शरणा अब गही पाय, प्रभ करो बेगि मेरी सहाय । यह विघन करम मम खड खड, मनवाछित कारज मड मंड।१२ ससार कष्ट चकचर चुर. सहजानन्द मम उर पूर पूर । निज पर प्रकाश वुद्धि देह देह, तजिके बिलम्ब सुधि लेह लेह१३ हम जांचत है यह बार बार, भव सागर ते मो तार तार । नहीं सह्यो जात यह जगत दुःख, तातै बिनवो हे सुगुन मुक्ख१४
१ चकवा । २. कुमति रूपी हाथी । ३ सवारी । ४ स्वर्ग ।