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जानी ।।८।। इन्द्रियलम्पट होय खोय जिन ज्ञान जमा सब । अज्ञानी जिम कर तिस विधि हिंसक ह अब ।। गमनागमन करन्तो जीव विराधे भोले । ते सब दोष किये नि मन वच तन तोले ।। ६ ।। पालोचनविधि थकी दोष लागे जु घनेरे । ते सब दोष विनाश होउ तुमते जिन मेरे ।। बार बार इस भाति मोह मद दोष कुटिलता। ईर्षादिकतै भये निदिये जे भयभीता ॥१०॥
अथ तृतीय सामायिक कर्म
सब जीवनमे मेरे समता भाव जग्यो है । सब जिय मो सम समता राखो भाव लग्यो है ॥ आर्त रौद्र द्वय ध्यान छांडि करिहूँ सामायिक । संयम मो कब शुद्ध होय यह भाव बधायक ।।११।। पृथ्वी जल अरु अग्नि वायुचउ काय वन. स्पति । पंचहि थावरमांहि तथा अस जीव बसै जित ॥ बे इन्द्रिय तिय चउ पचेन्द्रियमांहि जीव सब । तिनतै क्षमा कराऊ मुझ पर क्षमा करो प्रब ॥१२॥ इस अवसर मे मेरे सब सम कचन अरु तृण । महल मसान समान-शत्रु अरु मित्र ही सम गण । जामन मरन समान जानि हम समता कोनी। सामायिकका काल जितै यह भाव नवीनी ॥१२॥ मेरो है इक प्रातम तामै ममतजु कीनौं । और सबै मम भिन्न जानि समतारस भीनौ । मात-पिता-सुत-बन्धु मित्रतिय प्रादि सबै यह