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( १२ ) मोतं न्यारे जानि जथारथल्प करगे गह ।१४। मैं अनादि जगजालमाहि फमि रूप न जाण्यो । एकेन्द्रिय दे प्रादि जन्तु को प्रारण हगण्यो । ते यद जीवममूह सुनो मेरी यह प्ररजी। नवनव को अपराध क्षमा कीज्यो करि मरजो ॥१५॥
अथ चतुर्थ स्तवन म न ऋषभ जिनदेव अजित जिन जोत कर्मको । संभव भव-दुरुहरग करण प्रभिनन्द शर्मको ।। नुमति नुमतिदातार तार भवसिंधु पार कर । पनप्रन पघाभ भानि भवभीति प्रोतिघर ।।१६।। श्रीसुपार्श्वकृत पाप नाश भव जास शुद्ध कर । श्रीचन्द्रप्रभ चन्द्रकांति सम देहकांति घर ।। पुष्पदन्त तमि दोषकोष भावि पोष रोषहर । शीतल जीतल करन हरन भवताप दोपहर ।। १७ ।। श्रेयरूप जिन श्रेय ध्येय नित तेय भन्यजन । वासुपूज्य शतपूज्य वासवादित भवभय हना विमल विमल-मति-देन अतगत हैं अनन्त जिन । धर्म शर्म शिवकरन शातिजिन शांतिविधायिन ।१८। कुन्यु कुन्थ मुखजीवपाल प्ररनाथ लालहर । मल्लि मल्लसम मोहमल्ल मारनप्रचारघर मुनिसुव्रत व्रतकरण नमत सुरसंघहि नमि लिन । नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरथ मांहि ज्ञान धन ।१६। पार्श्वनाथ जिन पार्श्व उपलसम मोक्षरमापति । बर्द्धमान जिन नमूवम भवदुःख ककृत । याविध मैं जिनसंघरूप च उदीस सल्यघर । स्त नमूहूं बार बार बन्दी शिवसुखकर ।२०।