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गत वर्ष दश कर तप विधान । दिन शित वैनास दमै महान । रिजुकना सरिता तट स्व सोच । उपजायो जिनवर चरम बोध ॥५॥ तवही हरि अाना गिर चटाय । रवि समवनरण वर वनदराय । वासघ पति गौतम गनेन । युत तीस वरप विहरे जिने ॥६॥ भवि जीव देशना विविध देत। पाये वर पाबानगर खेत। कार्तिक अलि अन्तिम दिवन ईश । कर योग निरोध अघाति पीस ॥७॥ है अकल अमल इक मनय माहि । पचम गति निवते श्रीजिनाह । तव सुरपति जिन रवि अन्त जान । आये जुरत स्वस्व विमान ।।८।। कर वपु वरचा थुति विविध भात । लै विविष द्रव्य परमल विख्यात । तवही अग्नीद्र नवाय शीन । सत्कार देह की त्रिजगदीश ॥६॥ कर भल्म वन्दना निज महीय । निवने प्रनु गुन चितवन बहीय । पुनि नर नुनि गनपति याय प्राय । वदो सो रज सिर नाय नाय ॥१०॥ तबहीसे सौ दिन पुज्यमान । पूजत जिनगृह जन हर्ष मान । मैं पुन पुन तिस भुवि गोग घार । वर्दी तिन गुणवर उर मंझार ॥११॥ जिनही का अब भी तोर्थ एह । वर्तत दायक अति शर्म गेह। अरु दुखनकाल अवसान ताहि । वर्तगो भव थित हर सदाहि ॥१२॥ ॐ ही श्रीवर्धमान जिनमुक्तिधान श्रीपावापुरक्षेत्राय पूर्णाऱ्या ।
कुसुमलता छन्द । श्री सन्मति जिन अघ्रि-पन्न युग जजै भव्य जो मन वच काय । ताके जन्म जन्म सचित अघ नावहिं इक छिन माहि पलाय ।। बनधान्यादि शम्म इन्द्रीपद लहै सो शर्म अतीन्द्री याय । अजर अमर अविनाशी शिवथल वर्णी 'दौल' रहे शिर नाय ॥
इत्याशीर्वाद ।
श्री बाहुबली स्वामी पूजा दोहा-कर्म रिगण जीति के, दर्शायो शिवपंथ ।
प्रथम सिद्धपथ जिन लियो, भोगभूमिके अंत ।।