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नाथ तिहारे नाम ते, सो छिन माहि पलाय । ज्यो दिनकर परकाशते अन्धकार विनशाय ॥४२॥
मारे जहाँ गयन्द, कुम्भ हथियार विदारे, उमगे रुधिर-प्रवाह, वेग जलसम विस्तारे, होय तिरन असमर्थ, महाजोघा बलपूरे ।
तिस रन मे जिन तोर, भक्त जे हैं नर सूरे । दुर्जय परिकुल जोत के, जय पावै निकलङ्क। तुम पदपङ्कज मन बस, ते नर सदा निशबू ॥४३॥
नक चक्र मगरादि, मच्छकरि भय उपजावे, नामे बड़वा अग्नि, वाहत नीर जलावै । पार न पावै जास, थाह नहिं लहिए जाकी,
गरजे अति गम्भीर, लहर की गिनती न ताकी। सुखसो तिरे समुद्र को, जे तुम गुरण सुमहि । लोल कलोलन के शिखर, पार यान ले जाहि ॥४४॥
महा जलोदर रोग, भार पीडित नर ने हैं, वात पित्त कफ कुष्ट, आदि जो रोग गहे हैं । सोचत रहैं उदास, नाहि जीवन की आशा,
अति घिनावनी देह, घरै दुर्गन्धि निवासा । तुम पद-पडूज धूल को, जो लार्वे निज अङ्ग । ते नीरोग शरीर लहि, छिच मे होहि अनङ्ग ॥४५॥
पांव कंठत जकर बांध सांकल प्रति भारी, गाढी वेडी पैर माहिं जिन जाघ विदारी।