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जयजय श्रीचम्पापुर सुधाम, जहँ राजत नृप वसुपूज नाम । जग पौन पलासे धर्महीन,भवभ्रमन दुःखमय लखि प्रवीन ॥१॥ उर करुणा धर सो तम विडार,उपजे किरणावलि घर अपार । श्रीवासुपूज्य तिन तने बाल, द्वादशम तीर्थक्र्ता विशाल ॥२॥ भवभोग देहसें विरत होय, वय बाल माहि ही नाथ सोय । सिद्धन नमि महाव्रत धारलीन,तप द्वादशविध उग्रोनकीन ॥३॥ तहँ मोह सप्तत्रय प्रायु येह, दशप्रकृति पूर्व ही क्षय करेह । श्रेणोजु क्षपक प्रारूढ होय, गुण नवम लाग नवमाहि सोय ।४। सोलहवसु इक इकषट इकेय, इक इक इक इम इन क्रम सहेय । पुनि दशमथान इक लोभ टार, द्वादशमथान सोलह विडार '५। है अनत चतुष्टय युक्त स्वाम, पायो सब सुखद संयोग ठाम । तह काल त्रिगोचर सर्व ज्ञेय, युगपतहि समय माहीं लखेय ।६। कछु काल दुविध वृष अमियवृष्टि कर पोर्षे भविभुवि धान्यसृष्टि । इक मास प्रायु अवशेष जान, जिन योगनकी सुप्रत्तिहान ।७। ताही थल शुक्ल ध्यान ध्याय, चतुदशम थान निवसे जिनाय । तहँ दुबरम समय मझार ईश,जु प्रकृति बहत्तरतिनहि पीस ।। तेरह को चरम समय मॅझार, करके श्रीजगतेश्वर प्रहार । अष्टमअवनी इकसमयमद्ध, निवसे पाकर निज अचल रिद्ध है। युत गुरगवसु प्रमुख अमित गुणेश, हरहे सदाही इमहि वेष । तबहीसे सो थानक पवित्र, त्रैलोक्य पूज्य गायो विचित्र ।१०। मै तसु रज निज मस्तक लगाय, बन्दौं पुनि २ भुवि शीशनाय । ताही पद वाछा उरमझार, घर अन्य चाह बुद्धी विडार ।११।