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(१८) दहि विवि दुबर नप तप, तीनो लालमन्सार । लागे नहज मल्पमे, तनी नमत निबार तेि 1201 पूरव भोग न दिनदै प्रागम बांटा नाहि । च९ गति के दुबत्तों डर, मुन्त लगी शिव माहि दि.1 1११॥ रङ्ग महन्न मे पोहने, कोमल मेज बिठाय । ते पच्छिम निशि नृमि में, मोदै नंबरि काय ते ॥१२॥ गन चटि चलते गग्बी , नेना मजि चतुरङ्ग। निरवि निरन्त्रि पर दे घरै, पानं करणा अन ति ।। वे गुरु चरण जहां घरे. जगमे तीरय नेह । सो रन मम मस्तक चढो, 'नूघर' मागे येह ति०।।१४
श्री शांतिनाय स्तोत्र भये माप जिन देव जगत मे मुत्र विस्तारे।
तारे भव्य अनेक तिन्हों के नंकट टारे ।। टारे पाठों कम मोस मुख तिन को भारी ।
भारी विरद निहार लही में शरण तिहारी। चरणन को सिर नाय हूं, दुख दरिद्र संताप हर। हर सकल कर्म छिन एक मे, शांति लिनेश्वर गाति कर ।। दोहा-सारङ्ग लक्षरण चरण मे, उन्नत धनु चालीस । हाटक वर्ण शरीर दुति,नमूशांति जग ईश ।।
॥ठन्न जगप्रयात ॥ मनु पापने सर्वके फंद तोडे, गिना कछु मैं तिन्हो नाम गोड़े। पढ्यो अधिवीच श्रीपाल राई, लपो नाम तेरो भएये सहाई ।।