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भय सप्त जुगुप्सा स्त्रीय वेद, पुनि पुरुष वेद अरु क्लीव वेद ।४। अरु क्रोध मान माया रु लोभ, ये अन्तरंग मे करत क्षोभ । इमि अन्य सबै चौबीस येह, तजि भये दिगम्बर नग्न जेह ।५। गुरणमूल धारि तजि रागदोष, तप द्वादश घरि तन करत शोष । तृण कंचन महल मसान मित्त, अरु शत्रुनिमे समभाव चित्त।। अरु मरिण पाषाण समान जास, पर-परणतिमे नहिं रच वास । यह जीव देह लखि भिन्न-भिन्न, जे निज स्वरूपमे भावकिन्न ।७ ग्रीषमऋतु पर्वत शिखर वास, वर्षा मे तरुतल है निवास । जे शीतकाल मे करत ध्यान, तटनी तट चोहट शुद्ध थान ।। हो करुणासागर गुण अगार, मुझ देहि अखय सुखको भडार। मै शरण गही मुझ तार-तार, मो निज स्वरूप द्यो बारबार ।। । घत्ता-यह मुनि गुरणमाला, परम रसाला,जो भविजन कंठ धरही
सबविघ्नविनाशाह, मंगलभातहि मुक्तिरमा वह नर वरही ॐ ह्री भूत-भविष्यत्-वर्तमानकालसम्बन्धि पचप्रकारऋषीश्वरायाध्यं । दोहा-सर्व मुनिन की पूज यह, कर भव्य चित लाय । ऋद्धिसिद्धि घर मे बस, विघ्न सबै नशि जाय ।।११।।
इत्याशीर्वाद । श्री वर्द्धमान जिन पूजा
मत्तगयन्द । श्रीमत वीर हरे भवपीर भरै सुखसीर अनाकुलताई। केहरि अडू अरीकरदंक नये हरि पति मौलि सुनाई। मै तुमको इत थापतु हौं, प्रभु भक्ति समेत हिये हरषाई । हे करुणाधनधारक देव । इहाँ अब तिष्ठह शीघ्रहि आई।