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को मन मन्दिर में ध
प्रहित्र र पागमनाय लगत हिकारी हो स्वामी तुम के धारी। सुर नर असुर करें तुम सेवा, तुम हो सब देवन के बेडा || तुम से करम रात्रु भी हारा हुन को जान निष्टारा। अश्वमेव हे राज कुमाों के बारे || बागी हो के राव कहाए सारी परा उडाए । इक दिन बित्रों को लेकर को वन में पहुँचे | हाथी पर बारी इक जंगल में ईसा । एक पत्री देख वहां पर उससे बोले जब सुना कर ॥ तपनी ! पाप कमाए. इस लक्कड़ में जीव उन्नए । अनु मे उभी कुद्दा निकले नाग नापनी कारे मरने को ये fिree विचारे । रह के दिन में आया. उभो नत्र तवार सुबाया || मर कर दो ताल मिधाए, पहनावती इन्द्र म्हारे तरसी भर कर देव न्हाया, नाम कम प्रत्यों में पाया ॥ एक समय श्री पारस स्वामी, गव छोड़ कर वनको तप करके ऋद्र करम उपाए, इक दिन कन् वहीं पर फौरन ही प्रनु को पहिचाना, बदला लेने को हिलाता ॥ बहुत अधिक वारि बरसाई, बादल पर ने बिल्जि पिराई । बहुत अधिक पत्थर बरसाए स्वामी उन को नहीं हिलाये ॥ पद्मावतो घरणेन्द्र भोये, प्रभु की सेवा में वित पनावती ने फल फैलाया, उस पर स्वानी को बंगरा ॥
उठाया. लक्कड़ को चोर
॥