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मेरी भावना जिसने राग द्वेष कामाविक जीते, सब जग जान लिया। सब जीवो को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो। भक्ति-भाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसीमे लोन रहो । विषयो की प्राशा नहि जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं। निज-परके हित साधन मे जो, निशिदिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ-त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं । ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुःख समूह को हरते हैं ।।२।। रहे सदा सत्सग उन्हीं का, ध्यान उन्ही का नित्य रहे। उनही जैसो चर्या मे यह. चित्त सवा अनुरक्त रहे ।। नहीं सताऊं किसी जीवको, झूठ कभी नही कहा करूं। पर धन वनिता पर न लुभाऊ', सतोषामृत पिया करूं ।। अहङ्कार का भाव न रक्खू , नहीं किसी पर क्रोध करू। देख दूसरो की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या-भाव धरू । रहे भावना ऐसी मेरी, सरल-सत्य व्यवहार करू । बने जहा तक इस जीवन मे, पोरो का उपकार फरू ॥४॥ मंत्रीभाष जगत मे मेरा, सब जीवों से नित्य रहे। दीन-दुखी जीवो पर मेरे, उरसे करुणा स्रोत बहे ।। दुर्जन कर-कुमार्ग रती पर, क्षोभ नहीं मुझको प्रावे।
* महिलायें "वनिता" के स्थान पर "भा" पढ़ें।