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दव पूजा दोहा-प्रभु तुम राला जगत के, हमें देय दुख मोह ।
तुम पद पूजा करत हूँ, हमपं कवरणा होहि ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टादश-दोष-रहित-पवलारिखद्-गुण-वहित-श्रीजिनेन्द्र भगवन् ! अबावतरावतर संवापट् । ॐ ह्रीं अष्टादश-दोष-रहित पद चत्वामित् गुणसहित-श्रीजिनेन्द्र भगवन् अत्र विष्ट विष्ट 6:01 ॐ ह्रीं अष्टादन-दोप-रहित षट्चत्वारिंशत्-गण-सहित श्री जिनेन्द्र भगवन् ! अत्र मम सहिहितो मद मद वपद।
छन्द त्रिमंगी बहु तृषा सतायो अति दुख पायो, तुमपं पायो जल लायो। उत्तन गंगाजल, शुचि अति शीतल, प्रासुक निर्मलगुन गायो। प्रनु अन्तरजामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी दोष हो। यह अरज सुनी ढोल न कीज, न्याय करीज दया परो॥ ___ ह्रीं अष्टादश दोप-रहित षट्चत्वारिंशद् गुण-इहित श्रीजिनेन्द्र भगवद्भ्यो जन्ममृत्यु-विनाशनाय जलं निर्दपामीति स्वाहा । अवतपत निरन्तर अगानि पटतर, मो उर अंतर खेद करयो । ले बावन चंदन दाहनिकंदन, तुम पदवदन हरख घरो॥ ॐ ह्रीं अष्टा० श्रीजिनम्यो भवतापविनाशाय चन्दनं निव। .
ओसुन दुखदाता कहो न जाता, मोहि प्रसाता बहुत करें। तंदुल गुनमंडित अमलमखंडित, पूजत पंडित प्रीति घरं . ॐ ह्रीं अप्टा श्रीनिनेभ्यो अमयादप्राप्त प्रमतान् नि । सुरनर पशुको दल कामनहाबल, बात कहत छल मोह लिया। ताके शर लाऊल चढ़ाऊँ, भगति बढ़ाऊँ खोल हिया टही असा श्रीजिनम्यो कामबाणविनाशनाय पुपं निर्वा