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सब दोषनमाही जासम नाहीं, भूख सदा ही मो लागे। सद घेवर बावर लाडू बहुधर, थालकनक भर तुम आगे ॥प्र. ॐ ही अष्टा० श्रीजिनेभ्यो क्षुधारोगविनाशाय नैवेद्य निर्वः। प्रज्ञान महातम छाय रह्यो मम, ज्ञान ढक्यो हम दुख पावै । तम मेटनहारा तेज ,प्रपारा, दीप सवारा जश गावै ।।प्र. ॐ ह्री अष्टा० श्रीजिनेभ्यो मोहान्धकार-विनाशाय दीपं निर्व। इह कर्म महावन भूल रह्यो जन, शिवमारग नहिं पावत हैं। कृष्णागरुधूपं अमल अनूप, सिद्धस्वरूपं ध्यावत हैं ॥प्र. ॐ ह्री अष्टा० श्रीजिनेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूप निर्व। सबतै जोरावर अन्तराय करि, सुफल विघ्न करि डारत हैं। फलपुजविविधभर नयन मनोहर, श्रीजिनवर पद धारत हैं। ॐ ह्री अष्टा० श्रोजिनेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्व० ।
आठौं दुखदानी पाठ निशानी, तुम ढिग प्रानि निवारन हो। दीनन निस्तारन अधम उधारन, 'धानत' तारन कारन हो । ॐ ह्री प्रष्टा• श्रीजिनेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं ।
जयमाला दोहा-गुरण' अनन्त को कहि सके, छियालीस जिनराय । प्रकट सुगुन गिनती कहूँ, तुम ही होहु सहाय ॥१॥
चौपाई । १६ मात्रा.) एक ज्ञान केवल जिनस्वामी, वो पागम अध्यातम नामी। तीच काल विधि परगट जानी, चार अनंतचतुष्टय ज्ञानी ।। पञ्च परावर्तन परकासी, छहो दरव गुण परजय भासी। सात-भंग वानी परकाशक, पाठो कर्म महारिपु नाशक ॥३॥