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( १८२ ) १३ केवलज्ञानी ग्रह शास्त्र सु मंगति धर्मम देवकी निंद कर है दर्शन मोहनीकर्म को प्राश्रव होते मदा नर नाहि डरे हैं ।१०। १४ कपायोदय परिनाम तीव्रतं चारितमोहनी कर्म बन्चे है। १५ बहु प्रारम्भ परिग्रह कारन नर्कके प्राश्रव फद फसे है ।। १६ माया स्वभाव तियंचगती अरु १७अल्प परिग्रह मानुप जानो अल्पारम्भ २१८ कोमलभाव यह सब प्राश्रव मानुष मानी।११। १९वत शीलरहित्यपनोंम लखौ गति सबको पाशव होयम् वीरा २०सराग मुनि अरु पाश्रवके व्रत जान अकाम सु निर्जरघोरा । नप अज्ञान रु २१ सम्यक हूँ लख देवगती को प्रात्रव नोरा । २२ योगनको कुटिलाई कुवादसु नाम अशुभको प्रास्रव तोरा१२ दोहा-२३ जहं जोगन को सरलता, शास्त्र कहे ते जान । प्राधव है शुभ नाम को, या विघ सूत्र बखान ।१३।
चौपई २४ सम्यकदर्शन निरमल जान, तीन रतन जुत पुरुष बखान ताकी विनय कर वह भाति,शील विरत पाल चित शाति।१४ ज्ञानी योग निरन्तर साघ, भव भयभीत रहे निरबाध । शक्ति समान दान तप सार, साधुपुरुष को विधन निवारा १५ सेवा श्री सुश्रूषा करे, सोई वयावत अनुसरै। अरहन्त श्राचारज मनलाय, बहुश्रुत प्रवचन भक्ति कराया१६ छ श्रावश्यक किरिया कर. हर्ण प्रभावन मे जो घरै । करि सिद्धांत विष जो प्रीति, यह षोडभावन को रीति ॥१७ जो नर ध्यावे मन वच काय, तीर्थङ्करपद श्राश्रव थाय ।