________________
। १६३ कटै अनादिकाल के पाप । भगे सकल छिनमे सन्ताप । नरपति इन्द्र फणीन्द्र जु सबै । और खगेन्द्र मृगेन्द्र जु नवै ॥ २६ ॥ नित सुरसरी करै उच्चार । नाचत गावत विविध प्रकार । बहुविधि भक्ति करें मनलाय । विविधति वादित्र वजाय ॥ २७ ॥ हम ममता बजे मृढग | घनघन घट वजे मुहचग | भुनभुन झुनझुन भुनिया भुनै । सरसरसर सारगी धुनं ॥ २८ ॥ मुरली बीन बजे घुनि मिष्ट । पटहा तूर सुरान्वित पुष्ट | सब सुरगण थुति गावत सार । सुरगण नाचत वहुत प्रकार ॥ २६ ॥ झन नन नन ना नूपुर वान । तन नन नन ना तोरत तान । ताथेइ थेइ थेइ कर चाल । सुर नाचत गावत निज भाल ||३०|| नाचत गावत नाना रग । लेत जहाँ सुर प्रानन्द संग | नितप्रति सुर जहं वन्दन जाय । नानाविधि के मंगल गाय ॥ ३१ ॥ अनहद धुनि की मोद जु होय । प्रापति वृषकी प्रति ही होय । ताते हमको सुख दे सोय । गिरवर बन्दों करधरि दोय ॥ ३२ ॥ मारुत मन्द सुगन्ध चलेय । गन्धोदक जहं नित वर्पेय । , जियको जाति विरोध न होय । गिरवर वन्दो करधरि दोय 11. ३|| ज्ञान चरन तप साधन सोय । निज अनुभवको ध्यान जु होय । शिवमंदिर को द्वारो सोय । गिरवर वन्दो करवरि दोय ||३४| जो भवि वन्दे एकहि बार । नरक निगोद पशू गति टार । सुर शिवपढको पावै सोय । गिरवर वन्दो करघरि दोय ॥ ३५ ॥ जाकी महिमा अगम अपार । गणधर कहत न पावै पार । तुच्छबुद्धि में मतिकर हीन । कही भक्तिवश केवल लीन ||३६|| धत्ता - श्री सिघखेत प्रति सुखदेत, शीघ्रंहि भवदघि पारकरं ।
अरिकर्म विनाशन शिवसुखभासन जय गिरवर जगतारवर । ३७ ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्राय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा । ( दोहा - ) शिखर सु पूजे जो सदा, मनवचतन हरषाय । दास 'जवाहर' यो कहे, सो शिवपुर को जाय ॥ ॥ पुष्पाजल क्षिपेत् ॥
1