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तो रोंगटोका छिद्रगरण कैसे नहीं खो जायगा ॥२७॥ संसाररूपी गहन मे है जीव बहु दुख भोगता,
वह बाहरी सब वस्तुप्रो के साथ कर संयोगता । यदि मुक्ति की है चाह तो फिर जीवगण ! सुन लीजिये, ___मनसे, वचनसे, कायसे उसको पलग कर दीजिये।२८। देही! विकल्पित जालको तू दूर कर दे शीघ्र ही,
संसार-वनमें डोलनेका मुख्य कारण है यही। तू सर्वदा सबसे अलग निज प्रात्मा को देखना,
परमातमा के तत्त्वमे तू लीन निजको लेखना ।२६। पहले समय में प्रातमा ने कर्म हैं जैसे किये,
वेसे शुभाशुभ फल यहां पर सांप्रतिक उसने लिये। यदि दूसरे के कर्मका फल जीवको हो जाय तो,
हे जीवगण! फिर सफलता निज कर्मको खो जाय तो।३० अपने उपाजित कर्म-फलको जीव पाते हैं सभी,
उसके सिवा कोई किसीको कुछ नहीं देता कभी। ऐसा समझना चाहिए एकाग्र मन होकर सदा,
'दाता अमर है भोगका' इस बुद्धिको खोकर सदा ।३१॥ सबसे अलग परमात्मा है, अमितगति से वन्ध है,
हे जीवगरण ! वह सर्वदा सब भांति ही अनवद्य है। मनसे उसी परमात्माको 'ध्यान में जो लायगा,
वह श्रेष्ठ लक्ष्मीके निकेतन मुक्ति पद को पायगा ।३२॥ पढ़कर इन द्वात्रिंश पद्यको, लखता जो परमात्मवन्धको । वह अनन्यमय हो जाता है,मोक्ष-निकेतन को पाता है ॥३३॥