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हरी मणी काच, काचकू मरगी रटत है । ताकी बुधि मे भूल, मूल्य मरिणको न घटत है ॥२७॥ ने विवहारी जीव वचन मे कुशल सयाने ।
ते कषाय करि दग्ध नरनको देव बखाने || ज्यौ दीपक बुझि जाय ताहि कह 'नन्दि' भयो है । भग्न घडेको कलस कहें ये मंगलि गयो है ॥२८॥ स्यादवाद समुक्त अर्थको प्रगट बखानत । हितकारी तुम वचन श्रवणकरि को नहिं जानत दोषरहित ये देव शिरोमणि वक्ता जगगुरु । नो ज्वरसेती मुक्त भयो सो कहत गरल सुर ॥२६॥ बिन बांछा ये वचन आपके खिरं कदाचित् । है नियोग ये कोपि जगतको करत सहज हित ॥ करै न बांछा इसी चन्द्रमा पूरो जल-निधि । सीत-रश्मिक पाय उदधि जल बढे स्वयसिधि ॥३०॥ तेरे गुरण गम्भीर परम पावन जग माई | बहु प्रकार प्रभु हैं अनन्त कछु पार न पाई ॥ तिन गुरणान को प्रन्त एक याही विधि दीसं । ते गुरण तुझ ही माहिँ और नाहि जगीसं ॥३१॥ केवल युति हो नाहि भक्ति पूर्वक हम ध्यावत । सुमरन प्रणमन तथा भजनकर तुम गुरुप गावत ॥ चितवन पूजन ध्यान नमस्करि नित प्राराधे । को उपायकार देव सिद्धि-फलको हम साधै ॥३२॥