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________________ १६) - प्रभु कर्म अघानी घात कीन पद्धम गति स्वामी प्राप्त कोन । हरि पान चिता रचि दाह कीन, परि नार मीश सुर गमनकीन । ह्या मो औरह मनि मुजान, हनि कर्म लह्यो है मोनयान । गिरि को वेढे खातिक मुजान, अरु माननगेवर झील मान । तानो यात्रा है कठिन जान, नहिं सुलभ चिनी दिगमो बनवान । हैं प्रा० नहन्त्र पेडो प्रमान नामो अष्टापद नाम जान ।। मुत कन्हईलाल भगवानदान कर जोरि नमै पल गिव निवान । मागत जिनवर मनिवर दयाल, भव भ्रमण काटद्यो शिव विठाल प्रादोश्वर घ्यावे, भाव लगावे, पूज रचावे चावन मो। नो होय निगेगी, वहृनुज भोगी, पुण्य उपावे भावन हो । ॐ ह्रीं श्री कैलान पर्वत ने श्री आदिनाथ भगवान तथा नाग कुमारादि मुनि मोक्षपद प्राप्तेभ्य अर्घ्य निर्वपा० ॥ जे पूजे कैलाश यादि जिन राय को, पढे पाठ वहुभाति नुभाव लगाय को। ते वन धान्यहि पुत्र पौत्र नम्पति लहै । नर नुर मुन्वको भोगि अन्त शिवपुर लहे। इत्यागीर्वाद । - चम्पापुर सिद्धक्षेत्र पूजा दोहा-उत्सव किये पनवार जह, सुरगरण युत हरि प्राय । जजो सुपल वसुपूज्य सुत, चम्पापुर हर्षाय ।।१॥ ॐ ह्री वासुपूज्यनिर्वाणक्षेत्र श्रीचम्पापुरसिद्धक्षेत्र अत्रावतर २ संवौषट् इत्याह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनं.अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् । परिपुष्पालि क्षिपेत् ।। अष्टक । चाल-नन्दीश्वर पूजन की। सम अमिय विगन-वस वारि, लै हिम कुम्भ भरा। लख सुखद त्रिगद हर तार, दै त्रय धार धरा ।
SR No.010298
Book TitleJain Stotra Puja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeer Pustak Bhandar Jaipur
PublisherVeer Pustak Bhandar Jaipur
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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