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( १४१) प्रेम का मन्दिर बनाकर, ज्ञानदेव कूदू विठा। और प्रानन्द शान्ति के घडियाल घण्टे टू बना ।। अरु पुजारी बनके हूँ मैं, सबको प्रातम रस चखा । यह करूं उपदेश जग मे, कर भला होगा भला ॥६॥ प्राय कब वह शुभ घडी, जब वन विचरता में फिरूं । शान्ति से तव शान्ति गङ्गा का मै निर्मल जल पीळ ॥ 'ज्योति' से गुणगान की, प्रज्ञान सब जगका दहूं । होय सब जग का भला यह, बात मैं हरदम चहूँ । १०॥
___ श्री जिन सहस्त्रनाम स्तोत्रम् स्वयम्भुवे नमस्तुग्यमुत्पाद्यात्मानमात्मनि । स्वात्मन्येव तथोद्भूतवृत्तयेऽचिन्त्यवृत्तये ॥१॥ नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मीभर्ने नमोस्तु ते । विदाम्वर नमस्तुभ्य नमस्ते वदतावर ॥२॥ कर्मशत्रुहन देवमामनन्ति मनीषिणः। त्वामानमत्सुरेन्मौलि-भा-मालास्यचितक्रमम् ॥३॥ ध्यान-दुर्घण-निभिन्न-धन-घाति-महातरुः । अनन्त-भव-सन्तान-जयादासीरनन्तजित ।।४।। त्रैलोक्यः निर्जयावाप्त-दुर्दप्पमतिदुर्जयं । मृत्युराजं विजित्यासीज्जन्म-मृत्युञ्जयो भवान् ॥ ४॥ विधूताशेष-संसार-बन्धनो-भव्य-बांधवः । त्रिपुरारिस्त्वमेवासि जन्म-मृत्यु-जरांतकृत ॥६॥