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(१३३ ) सहा जाता नाही, अकल घबराई भ्रमण में। करू क्या माँ मोरी बलत वश नाहीं मिटन का करू।।२॥ सुनो माता मोरी अरज करता हूं दरद में। दुखी जानो मोको डरप कर पाया शरण में। कृपा ऐसी कोजे, दरद मिट आये मरण का करू।। ३ ॥ पिलाये जो मोकू, सुवुद्धिकर प्याला अमृत का । मिटाचे जो मेरा, सरव दुख सारे फिरन का ।। । पडू पांवां तेरे हरो दुख सारा फिकर का करूं ।। ४ ॥ (सवैया)-मिथ्यातम नासवे को, ज्ञान के प्रकाशवे को।
प्रापा परकासबे को, भानुसी बखानी है ।। छहों द्रव्म जानवे को, बसु विधि भानने को। स्व-पर पिछानबे को, परम प्रमानी है। अनुभो बतायवे को, जीव के जतायचे को । काहू न सतावे को, भव्य उर मानी है। जहां तहां तारचे को, पार के उतारवे को।
सुख विस्तारवे को, ऐसी जिन वारणी है ।। योहा-जिनवाणी की स्तुति करे, अल्प बुद्धि परमान । वितवश पन्नालाल' विनती करे, वे माता मोहि ज्ञान ॥६॥
हे जिनवाणी भारती, तोहि नदिन रैन । जो तेरा सरपा गहे, सुख पावै दिन रैन ॥७॥ जा बानी के ज्ञान तै सूझ लोकालोक । सो वाणी मस्तक चढो, सदा देत हो धोक ।।