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साध्वी डा.दिल्य प्रभा
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अरिहंत
अरिहत)
(स्वरूप-/साधना-/आराधना)
लेखिका
आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी म. की आज्ञानुवर्तिनी स्व. महासती उज्ज्वल कुमारी जी म. की शिष्या साध्वी डॉ. दिव्यप्रभाजी (एम. ए., पी-एच. डी.)
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रायगयययययन
अरिहंत (स्वरूप-/साधना-/आराधना)
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आत्म-आनन्द दीक्षा-जन्म शताब्दी : समारोह के शुभ उपलक्ष्य में ...
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प्रवचन : साध्वी डॉ. दिव्यप्रभाजी प्रवचन-स्थल : जयपुर वर्षावास सन् १९८९ प्रकाशन वर्ष : १९९२ वि. सं. २०४९, प्रकाशक : प्राकृत भारती अकादमी एवं उमरावमल चोरड़िया अध्यक्ष : अ. भा. श्वे. स्थानकवासी जैन कान्फ्रेन्स (राजस्थान संभाग) १३, तख्ते शाही रोड, जवाहरलाल नेहरू मार्ग, जयपुर : फोन : ५६१९४३ : ५६३७०४ प्राप्ति स्थान : जैन पुस्तक मन्दिर, भारती भवन, चौड़ा रास्ता, जयपुर : मुद्रण व्यवस्था : प्रेमचन्द जैन, प्रेम इलैक्ट्रिक प्रेस, १/११, साहित्य कुँज, आगरा - २ फोटो टाइप सैटिंग : दिवाकर टैक्सटोग्राफिक्स, आगरा। लागत मात्र मूल्य : एक सौ रूपये
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अरिहंत
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन को
(पी-एच. डी. उपाधि हेतु प्रस्तुत शोध प्रबन्ध )
1981
डा. बी. बी. रायनाडे आचार्य एवं अध्यक्ष दर्शनशास्त्र विभाग माधव महाविद्यालय, उज्जैन (निदेशक)
साध्वी दिव्यप्रभा
एम. ए. ( शोधकर्त्री)
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डा. बी. बी. रायनाडे
एम.ए., पी-एच.डी.
माधव महाविद्यालय,
उज्जैन (म. प्र.)
प्रमाण-पत्र
प्रमाणित किया जाता है कि साध्वी दिव्यप्रभा ने "अरिहंत-तत्वः एक समालोचनात्मक अध्ययन" शोधप्रबन्ध विधिवत मेरे निर्देशन में लिखा है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध मौलिक है तथा श्रम एवं निष्ठा के साथ उपस्थित किया गया
(बी. बी. रायनाडे)
उज्जैन अप्रैल, 1981
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अरिहंत की परा वाणी के कुछ शब्द
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वत्स ! तुम में आर्हन्त्य विद्यमान है, अपनी अर्हता का अभिनन्दन करो ! तुम ही प्रभु हो, उठो, अपनी प्रभुता को प्रकट करो ! तुम सिद्ध स्वरूप हो, अपनी सिद्धता को सम्पन्न करो !
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आत्मप्रिय ! जिसे तुम नमस्कार करते हो, वह तुम ही हो, मैं तो तुम्हारी अनुभूतियों में व्याप्त हूँ, उठो,जागो और इन अनुभूतियों को अभिव्यक्त करो ! यही मेरी संबोधि है, यही तुम्हारी निधि है !
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अरिहंत
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अर्पण
मेरे प्रिय आराध्य; परम अरिहंत !
तेरा तुझको अर्पण,
तुझे सदा नमन ! सहजात्मस्वरूप परम आर्हन्त्य से आलोकित निर्ग्रन्थ देव ।
इस ग्रंथ को स्वीकार करो,
अक्षरों के अनुबंध को आकार दो ! यह तो तेरे अनुग्रह की अनुभूति है, तेरी ही सचेतन अभिव्यक्ति है।
तेरी कलणा से ही तो लिख पायी, .
तुझमें मुझे और मुझमें तुझे देख पायी । तेरा ही है फिर भी तुझे देती हूँ, इसी बहाने तेरे नाम का अमृत पीती हूँ।
-दिव्या .
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नमो अरिहंताणं
प्रस्तुति प्रत्येक दर्शन का उद्भव किसी एक निमित्त से होता है। भारतीय दर्शन का उद्भव दुःख-निवृत्ति के उपाय की जिज्ञासा से होता है। पाश्चात्य दर्शन का उद्भव संशय से होता है। इसमें भी यूनानी दर्शन का उद्भव आश्चर्य से होता है। ___जैन दर्शन ने आश्चर्य, संशय और कौतूहलादि को दर्शन विकास के निमित्त माने हैं। इसीलिये गौतम स्वामी को "जाए संसए जाये कोउहले"१ .......... जैसे विशेषण लगते हैं। सर्व गणधर "भगवन् ! तत्त्व क्या है?" की जिज्ञासा रूप त्रिपदी से प्रश्न करते हैं। उत्तर में अरिहंत समस्त धर्म-दर्शन की प्रतिपादना करते हैं।
दर्शन का अर्थ है तत्त्व का साक्षात्कार या उपलब्धि। सब से प्रमुख तत्त्व आत्मा है। दर्शन के प्रवेशद्वार पर पहले ही यह प्रश्न होता है-मैं कौन हूँ? कहां से आया हूँ? मेरा पुनर्जन्म होगा या नहीं? यहाँ से फिर मैं कहाँ जाऊँगा?२ प्रवेश हो जाने पर ये प्रश्न जिज्ञासा बन जाते हैं। ____ इन जिज्ञासाओं का समाधान है अरिहंत-दर्शन। “अरिहंत के दर्शन, अरिहंत का दर्शन, अरिहंत से दर्शन" इनके द्वारा आत्म-दर्शन है अरिहंत-दर्शन।
जैन दर्शन में युक्ति और प्रमाण पुरस्सर श्रद्धा को अधिक महत्व दिया गया है। केवल अगम्य और अचिन्त्य तत्व को परमाराध्य मानकर विविध विधियों द्वारा कल्पना मात्र से समर्थन आज के बुद्धिप्रधानवर्ग को संतोष प्रदान नहीं कर सकता। नित्यमुक्त देव, अवतारी देव, लीलाधर देव आदि देवों की, देवदूतों की या देव-पुत्रों की निरर्थक कल्पनाओं से नास्तिक बनते चले जा रहे आज के युग में अरिहंत-दर्शन आत्म-विकास का सन्मार्ग प्रदर्शित कर सकता है। . . अरिहंत परमात्मा सर्जनहार हैं, पर मोक्षोपयोगी धर्मशासन के। पालनहार हैं, पर धर्मगुण के और अभय के द्वारा समस्त जीवराशि के। संहारक हैं, पर पापमार्ग, दुःख
और दुर्गति के। सर्वव्यापी हैं, पर ज्ञान से। मुक्त हैं, पर बद्धमुक्त हैं अर्थात् सकल-जन-प्रत्यक्ष बद्ध अवस्था से मुक्त है। अरिहंत परमात्मा अवतारी, लीलाधारी या इच्छाधारी देव नहीं, पर सकल अवतार, लीला और इच्छाओं से सदा मुक्त हैं।
१. भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक १। २. आचारांगसूत्र श्रुत. १, अ. १, उ. १, सूत्र १ ।
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प्रयोजन-अभाव के कारण लौटकर पुनः कभी संसार में नहीं आते हैं। इनके लिये देवदूत या देवपुत्र की कल्पना असंगत है क्योंकि ये तो देवों के पूज्य, आराध्य और उपास्यरूप देवाधिदेव की अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं।
प्रस्तुत महानिबन्ध में तीन खंड और ९ अध्याय हैं। शब्द-दर्शन, संबंध-दर्शन और स्वरूप-दर्शन।
प्रथम खंड में अरिहंत शब्द की समीक्षा, व्युत्पत्ति, विश्लेषण, व्याख्या तथा इसकी प्राचीनता सिद्ध कर आगम, प्राचीन जैन शिलालेख, आगमेतर और जैनेतर साहित्य में यह शब्द किस समय कैसे प्रयुक्त हुआ था, उसका स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। दर्शन . क्षेत्र में जैन-दर्शन की अरिहंत सम्बन्धी मान्यता और साथ ही भारतीय दर्शन के .. अनुसार ईश्वर सम्बन्धी विचारधारा की विभिन्न मान्यताएं प्रस्तुत की गई हैं।
दूसरे खंड में तीन अध्याय हैं। इसके प्रथम एवं द्वितीय अध्याय में वैज्ञानिक संदर्भो से अरिहंत की आवश्यकता समझाई गयी है। कम से कम प्रवृत्ति द्वारा अधिक से . अधिक शक्ति सम्पादित करने के विशेष प्रयोग हमें अरिहंत द्वारा मिले हैं। सृष्टि के . प्रति अरिहंत का यह अत्युत्तमं विशिष्ट योगदान संसार का एक अनोखा रहस्य है। हम जो कुछ करते हैं-खाना, पीना, चलना आदि। इन प्रत्येक प्रवृत्ति के विधान हैं एवं प्रत्येक विधानों के विविध परिणाम हैं।
तीसरे अध्याय में अरिहंत की आराधना के कारण, विधि एवं संबंध बताकर मंत्रचैतन्य की आवश्यकता और उसके द्वारा जप में प्रतिष्ठा की विधि बताई है। अरिहंत ध्यान के द्वारा आर्हन्त्य को प्रकट करने की विधि एवं सिद्धान्त भी इसमें प्रस्तुत हैं।
चतुर्थ अध्याय में आराधक से आराध्य बनने के विविध स्थान और इस पद की प्राप्ति के उपाय और कारण दर्शाये हैं। इन कारणों में प्रत्येक कारणं की अपनी विशिष्टता हैं। तथाप्रकार के भव्यत्व वाले साधक आत्माओं को इसके एक या अन्य अथवा सर्व कारणों की उपासना आवश्यक है। कारणों में प्रथम सात तो वात्सल्य के हैं
और शेष ज्ञान-दर्शन और चारित्र के प्रतिपादक हैं। ___अब आता है अंतिम खंड-अरिहंत स्वरूप दर्शन। इस में पांच अध्ययनों द्वारा क्रम. से अरिहंत की पांच विशिष्ट अवस्थाओं का क्रमबद्ध विस्तृत वर्णन है। अन्य मनुष्यों की भाँति अरिहंत भी माता के गर्भ में आते हैं, जन्म लेते हैं, गृहवास भी करते हैं, राज्य भी चलाते हैं, कुछ शादी-विवाह भी करते हैं; परन्तु उनका सब कुछ अन्य मनुष्यों की अपेक्षा लोकोत्तर और साथ ही आसक्ति रहित होता है। इसका महत्वपूर्ण कारण उनकी पूर्व जन्म की उत्कृष्ट आराधना है। अरिहंत बनने के पूर्व तृतीय भव में साधकरूप में ये विशुद्ध सम्यग्दर्शन और निरतिचार शील-संयम को पालते हैं। ज्ञान और वैराग्य में
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• मग्न रहते हैं। स्वयं की सर्वशक्तियों का तप और त्याग में उपयोग करते हैं। संघ और
साधु की सेवाभक्ति करते हैं। विश्व के सर्व जीवों की शान्ति और समाधि चाहते हैं। जिनाज्ञा का अनुसरण एवं आचरण करते हैं। प्रवचन की प्रभावना करते हैं। शासन की उन्नति करते हैं। औचित्य का पालन करते हैं। विश्व-यात्सल्य को धारण करते हैं और ऐसी उत्कृष्ट आराधना के योग से उत्कृष्ट पुण्य प्रकृतियों का उपार्जन करते हैं। इसके पूर्व यदि नरक गति का आयुष्य न बांध लिया हो तो बाद में वैमानिक देवलोक का ही आयुष्य बांधते हैं।
इस प्रकार बांधे हुए नरक या देवगति का सागरोपम का आयुण्य पूर्ण कर वे मनुष्य गति में राजकुल में उत्पन्न होते हैं। उसी समय तीनों लोक में उद्योत होता है। माता विशिष्ट प्रकार के १४ स्वप्न देखती है। इस अवस्था को च्यवन कल्याणक कहते
हैं।
यथासमय गर्भकाल पूर्ण कर जन्म लेते हैं। इस समय भी उद्योत आदि होता है। ५६ दिक्कुमारिकाएं सूतिकर्म करती हैं। इन्द्रादि देव मेरु पर्वत पर क्षीरोदधि के निर्मल जल द्वारा अभिषेक करते हैं। अंगुष्ठ में इन्द्र अमृत का संक्रमण करते हैं। तीर्थंकर कभी स्तनपान नहीं करते हैं, अरिहंत की इस अवस्था को जन्म कल्याणक कहते हैं।
कुछ बड़े होकर समानवयवाले बालकों के साथ क्रीड़ा करते हैं किन्तु उनका ज्ञान और बल, विवेक और चातुर्य अपूर्व होता है। गुरु को मात्र साक्षीरूप रखकर ही सर्वविद्याओं को ग्रहण करते हैं।
विरक्त होने पर भी भौगिक कर्म-क्षय हेतु गृहवास करते हैं, माता-पिता के आग्रह से पाणि-ग्रहण करते हैं, किन्तु विषयों के प्रति अन्तःकरण से विरागी रहते हैं। इस प्रकार के निकाचित कर्मों का क्षय होते ही दीक्षा हेतु तेयार होते हैं। ... अवसर को बधाई देते हुए नव लोकांतिक देव जीताचार हेतु प्रतिबोध करते हैं
और सांवत्सरिक दान कर अरिहंत परमात्मा दीक्षा ग्रहण करते हैं। इस अवसर को प्रव्रज्या-कल्याणक कहते हैं। विशुद्धि द्वारा नियमतः उन्हें मनःपर्यवज्ञान होता है। अरिहंत परमात्मा की प्रस्तुत अवस्था बहुत महत्वपूर्ण है। कैवल्य उपलब्धि के पश्चात् तो इनकी आराधना उपासना बहुत होती है, उनकी विपाक में आती पुण्य लक्ष्मी का लाभ जाने-अनजाने में सभी को मिलता है किन्तु इन सब के पूर्व आत्म-विकास की उपलब्धि रूप प्रबल पुरुषार्थ की यह उचित बेला जिसमें इनका हेतु मात्र-"पुण्णकम्म खयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे" से सूत्रान्वित होता है। विविध आसनों में ध्यान करते हुए अनेकानेक उपसर्ग-परीषहों पर विजय प्राप्त कर अपूर्व विशिष्टता प्रस्तुत करते हैं।
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अप्रमत्त रूप से संयम चर्या का पालन करते हुए घातिकर्मों का क्षय कर केवलज्ञान को प्राप्त होते हैं। यह है केवलज्ञान-कल्याणक अर्थात् अरिहंत की विपाकोदय पुण्यमयी बेला। इसी समय देवों द्वारा जीताचार-रूप समवसरण (विशिष्ट धर्मसभा) की रचना की जाती है। उस समवसरण में बारह प्रकार की पर्षदा के बीच अष्टमहाप्रातिहार्य से युक्त अरिहंत परमात्मा देशना देते हैं, गणधर त्रिपदी का श्रवणकर द्वादशांगी की रचना करते हैं और देशना के पश्चात् साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ तीर्थ की स्थापना की जाती है। ___ सप्तनयगर्भित धर्मदेशना प्रतिदिन सुबह-शाम प्रहर पर्यन्त दी जाती है। कर्म, कर्म-बन्ध, कर्मक्षय, मुक्ति-स्वरूप, एवं उसकी प्राप्ति के उपाय, आत्मा का ज्ञानगर्भित . स्वरूप आदि इनके प्रवचन के विषय होते हैं। देशना श्रवण के फलस्वरूप कई आत्माएं .. सम्यक्त्व, देशविरति या सर्वविरति धर्म को अंगीकार करते हैं। इस प्रकार अरिहंत तीर्थंकर नाम-कर्मरूप पुण्यलक्ष्मी स्वरूप सहज प्रवचन दान करते हैं। .
निश्चित समय पर अंतिम देशना देकर विशेष आसन में योगविधि द्वारा अयोग की ओर चलने हेतु योग निरोध की प्रक्रिया में प्रयुक्त होते हुए गुणश्रेणियों द्वारा अघाति कर्मों का भी क्षय कर सर्वथा मुक्ति स्वरूप सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं। इसे निर्वाण-कल्याणक कहते हैं। __सामान्य मनुष्यों की अपेक्षा तीर्थंकर परमात्मा के विशिष्ट व्यक्तित्व, का निखार ही प्रस्तुत खंड का मुख्य विषय है। मनुष्य होकर भी देवाधिदेव की स्थिति को प्राप्त कर इस अंतिम जन्म में लोकोत्तर स्थिति को सम्पन्न कर सिद्ध अवस्था को प्राप्त होने के पूर्व शासन में बड़ी विरासत अर्पित करनेवाले मात्र अरिहंत ही हैं, ऐसा स्पष्टोल्लेख ही इस खंड का उद्देश्य है।
इस प्रकार तीन खंडों के द्वारा अरिहंत के अखंड स्वरूप की हमें उपलब्धि और अनूभूति प्राप्त हो सकती है। तात्पर्य यह है कि तीनों खंड हमारे अखंड आर्हन्त्य को आविर्भूत करने की अक्षय साधना विधि हैं। __ अरिहंत परमात्मा विशेष समय और विशेष क्षेत्र में ही होते हैं। जिस क्षेत्र और जिस काल में होते हैं उस क्षेत्र को कर्मभूमि और उस काल को चतुर्थ आरा कहा जाता है। वहां सदा काल धर्म की प्रवर्तना होती रहती है। जैनों के परमात्मा दुःखमय विश्व का निर्माण नहीं करते हैं पर दुःख-मुक्ति के मार्ग को प्रदर्शित करते हैं। उनकी उत्पत्ति भी विश्व रचना के स्वाभाविक क्रम में से ही एक क्रम है। जगत में यदि दुःख हैं, दुःख के हेतु हैं तो उन दुःखों से मुक्ति पाने के हेतु भी होने चाहिए। इन हेतुओं की उत्पत्ति अरिहंत से ही संभव है।
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अज्ञान जगत में मोक्ष और उनके मार्ग को बताने हेतु सर्वज्ञ और उनके वचनों की महत् आवश्यकता है। प्रत्येक दर्शन शास्त्र में किसी न किसी प्रकार से सर्वज्ञता और उनसे प्रकाशित आगमों की उत्पत्ति को मान्य करना ही पड़ता है। अन्तर मात्र यही है कि जैन दर्शन में सर्वज्ञता दोष-क्षय-जन्य है। वीतरागता की प्राप्ति का यही सरल और सीधा परिणाम है। राग-द्वेष-मोह-काम-क्रोध-लोभ से प्रत्येक जीव ग्रसित है। तज्जन्य दुःख से मुक्ति जीव मात्र को अभिप्रेत है। जो इसको सिद्ध करता है वही दोष-क्षय-जन्य सर्वज्ञता को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि जिनको सर्वज्ञता अभिप्रेत है उनको दोषनाश के उपाय भी अभिप्रेत होने चाहिए। अरिहंत के जीवन में सर्वज्ञता तो होती है पर साथ ही दोष-क्षय-हेतु-अविहड़ साधना भी होती है, उनकी साधना पूर्ण वीतरागता पर्यन्त होती है। पूर्ण वीतराग, बीतद्वेष और वीतमोह होने तक अविरत साधना में वे लीन ही रहते हैं। उस साधना का नाम है-रत्नत्रय की आराधना। इस साधना मार्ग पर अरिहंत स्वयं चलते हैं, दोष-क्षय को सिद्ध करते हैं, वीतराग होते हैं, और वीतराग भाव के परिणाम से अवश्य प्राप्त होने वाली सर्वज्ञता को पाते हैं। जैन मत से सर्वज्ञता आत्मा का निज स्वभाव है। आवरण रहित अवस्था जीव का अपना मौलिक स्वरूप है। प्रत्येक जीव आत्म स्वरूप से सर्वज्ञ है। परन्तु वह कर्मों के आवरण से आच्छादित है। आवरण के दूर होते ही मूल स्वभाव प्रकाशित हो उठता है और ज्ञान स्वरूप आत्मा में सकल विश्व ज्ञेय रूप में प्रतिबिम्बित हो उठता है। उसमें तीन काल और तीन लोक के सर्व पदार्थों की सर्व पर्यायें एक साथ झलक उठती हैं। ऐसा विराट इस निरावरण ज्ञान का स्वरूप है। इसे ही केवलज्ञान, पूर्णज्ञान, लोकालोक-प्रकाशकज्ञान और समस्त द्रव्य-पर्यायों को जानने वाला ज्ञान कहा जाता है। _ ऐसे पूर्ण ज्ञान का दान-प्रकाशन करने हेतु वाणी में अतिशय चाहिये। वाणी का जोश पुण्यबल है। यह विशिष्ट पुण्यबल मात्र अरिहंत केवली को ही होता है। इसी कारण अरिहंत की तुलना किसी से नहीं हो सकती है। ज्ञान स्व का हित करता है और पर के हित हेतु ज्ञान के साथ वचन प्रयोग की आवश्यकता है। परोपकार का अनन्य साधन ज्ञान के साथ वाणी का व्यापार है। इसी कारण अरिहंत विश्वोपकारक, सकल जीव रक्षक, विश्वव्यापी अहिंसा के प्रचारक, तीर्थ के स्थापक हैं। प्रतिबोध द्वारा अनेकों जीवों को दया-दान, दाक्षिण्य, ज्ञान, ध्यान, शील और समाधि के साधक बना सकते हैं।
अरिहंत पद की सत्यता अरिहंत का उपदेश है और उपदेश की अनुभूति अरिहंत का जीवन है। उनका उपदेश प्रत्यक्ष से अबाधित है। जैसा विश्व है वैसा ही प्रतिबिम्ब उनके ज्ञान में झलकता है, और उनके ज्ञान में जैसा प्रतिबिम्ब झलकता है वैसे स्वरूप का वर्णन उनकी वाणी से निकलता है। पुण्यबल से उपलब्ध उनकी विभूतियाँ और
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ऐश्वर्य को कोई अस्वीकृत कर भी सकते हैं, और अन्यों में उनका सद्भाव या स्वीकृति मान सकते हैं परंतु उनके जैसे प्रमाण से अबाधित उपदेश का प्रदान अन्य से असंभव है। अरिहंत के ज्ञान और उपदेश में वस्तु स्वभाव का वास्तविक निर्णय है, विश्व की व्यवस्था और पदार्थों के धर्मों के यथास्थित विचार हैं।
“अरिहंत" विषय की पूर्णता उनके पूर्णत्व की आभारी है। वरना अपूर्ण शक्ति एवं अपूर्ण दृष्टि से पूर्णत्व कैसे प्रकट हो सकता है ? कई विद्वानों ने मुझे कई बार कहा भी कि संशोधन का यह विषय नूतन होकर भी गहन अधिक है इस पर अधिक से अधिक क्या काम हो सकता है?.......परन्तु मेरा प्रेरणा दीप वैसा ही निर्विवाद जलता रहा, विघ्नों के कई झंझावात आये पर गुरुकृपा एवं अरिहंत कृपा का यह अबूझ प्रेरणादीप वैसे ही जलता रहा। कई बार समस्याएं आती थीं, पर उनका स्मरण समाधान देता था। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि यह प्रबन्ध भक्तिवश मुझसे लिखा गया है। मैं इस की सम्पन्नता में निमित्तमात्र हूं। आज शुक्लध्यान की उज्ज्वल श्रेणी में विराजित कल्याणमूर्ति कैवल्यप्रभु अरिहंतस्वामी को शतशः वन्दन कर, प्रबन्ध अर्पण करती हूं। जो लोकोत्तर होने से भार को कम करने का उपकार करते हैं उनका लौकिक दृष्टि से औपचारिक आभार क्या मानूं?
इस प्रबन्ध की पूर्ण आहुति तक जिनकी पुनीत प्रेरणा. का अजम्न स्रोत बहता रहा वे मेरे गुरु-युगल परम उपकारी आत्मार्थी मोहनऋषिजी म. सा. और विनयऋषिजी म. सा. तथा गुरुमाता शासन प्रभास्वरा उज्ज्वलकुमारीजी म. स., माणेककुंवरजी म. स.
और प्रभाकुंवरजी म. स. का पुनः पुनः स्मरण करती हुई उनके प्रति सविनय भक्ति प्रकट करती हूं। न केवल मेरे शोध कार्य में ही अपितु पूरे व्यक्तित्व निर्माण में ही आपका विशेष योगदान एवं वरदहस्त रहा है। संसारी पिता श्री चीमनभाई, और माता शांतादेवी द्वारा जलाये गये मेरे श्रद्धा-भक्ति-दीप में आपने ही अवसर-अवसर पर वात्सल्य और कृपा का स्निग्ध डालकर इसे अखण्ड जलने दिया है। आज अफसोस मात्र यही है आप के प्रत्यक्ष रहते हुए, प्रबन्ध सम्पन्न कर अपार ऋण में से इस आंशिक ऋण को भी अदा न कर पाई।
सर्व शुभभावों को स्वयं में सुनियोजित कर सदा स्वर्णदीप की भाँति शासन को । आलोकित कर प्रेरणास्रोत को अविरल बहाते रहने वाले वर्तमान शासन में जन-जन के भगवान आचार्य प्रवर १००८ पूज्य आनंदऋषिजी म. सा. की अनुकंपा से यह प्रबंध-ग्रंथ गरिमायुक्त और रसमय बन पाया। प्रणत भावों के साथ समस्त सफलता उन्हें मुबारक करती हूं। जिनके शुभाशीष से मेरा जीवन है ऐसी मेरी गुरुभगिनी बा. ब्र. मुक्तिप्रभाजी म. स. के अनुग्रह, विद्वत्तापूर्ण निर्देशन और पुनीत वात्सल्य के कारण उनके प्रति आजन्म कृतज्ञ हूं।
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मेरे धन्यवाद के पात्र परम सहयोगिनी भगिनी साध्वी बा. ब्र. दर्शनप्रभाजी और बा. ब्र. अनुपमाजी हैं, जिन्होंने मेरी सामाजिक प्रवृत्तियों को सम्हालकर अध्ययन का अवसर प्रदान किया और समय-समय पर कार्य-प्रगति में योग्य सहयोग दिया। अपने शुभाक्षरों द्वारा इस प्रबन्ध को सजाने वाली बा. ब्र. साध्वी भव्यसाधनाजी को भी धन्यवाद देना उचित समझती हूं।
शोध कार्य में आने वाली अनेक प्रतिकूलताओं को दूर कर अनुकूलता बनाए रखने हेतु अनेकों संघों और व्यक्तियों का अवसर-अवसर पर सहयोग मिलता रहा है। सहयोग प्रदान करने वाले कांदीवली और कांदावाड़ी श्री संघ, गिरीशभाई, किशोरभाई कोठारी आदि की सहृदय आभारी हूँ। विशेष-विशेष आभारी तो मैं अंधेरी के प्रतापभाई मेहता की हूं जो पुस्तक आनयन की प्रवृत्ति में प्रारम्भ से लेकर पूर्णाहुति तक सेतुबंध रूप रहे हैं। उन्होंने निबन्ध कार्य की विधि में आने वाली विशेष समस्याओं में मुझमें विशेष निष्ठा जगाकर सत्परामर्श द्वारा समस्याएं सुलझाने का हार्दिक प्रयास किया है। - अंत में मैं उन सभी सन्तों, महानुभावों, इष्टमित्रों, लेखकों को धन्यवाद देती हूं जिनकी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सहायता मुझे सदैव प्राप्त होती रही तथा जिनकी रचनाओं का उपयोग शुभ आशीर्वाद एवं शुभकामनाओं से मेरा यह शोधकार्य सम्पन्न हुआ है।
महानिबंध की सम्पन्नता के बाद (१९८१) से अनुयोग .प्रवर्तक पू. कन्हैयालालजी म. सा. 'कमल', उपाचार्य पू. देवेन्द्रमुनिजी म. सा. आदि की प्रेरणा और अनेक व्यक्ति एवं संघों के अत्याग्रह के बाद भी इसे प्रकाशित करने के विचारों के प्रति मैं उदासीन रही क्योंकि प्रारंभ से ही उज्ज्वल-समुदाय प्रकाशन के प्रति विचार निरपेक्ष रहा है। आज जयपुर श्री संघ के अध्यक्ष एवं अखिल भारतीय कॉन्फ्रेन्स के उपाध्यक्ष श्री उमरावमलजी चोरडिया ने मेरी इस विचारग्रंथि का विमोचन किया और अखिल भारतीय कॉन्फ्रेन्स के अध्यक्ष श्री पुखराजजी लुंकड की प्रेरणा से परम निर्ग्रन्थ आचार्य युगल आत्म-आनन्द शताब्दी वर्ष में इस प्रबंध को ग्रंथ का रूप और आकार मिला।
परमात्म कृपा से प्रस्तुत इस ग्रंथ में छद्मस्थता के कारण मुझसे कोई भी त्रुटि रह गई हो तो सर्व प्रवचनदेव-शासनदेव और श्रुतदेव से. क्षमा याचती हूं। . अरिहंत का अनुग्रह, महापुरुषों का योगबल आपके जीवन का सफल वरदान बन जायं और परमात्मतत्त्व की खोज में भक्ति और आराधना के सम्यक् पथ पर सहायक सिद्ध हो जाय ऐसी शुभाशा के साथ विराम लेती हूं।
-साध्वी दिव्यप्रभा शरद-पूर्णिमा-आत्म-आनंद शताब्दी वर्ष
. आत्म नगर, लुधियाना
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प्रस्तावना
बीज से महावृक्ष की यात्रा अर्हत आर्हन्त्य है। बूंद का सागर हो जाना अर्हत-वत्ता है।
चेतना के चिद बिन्दु का परम विस्तार ही अर्हत दर्शन है। जहाँ जाकर शब्द ठहर जाते हैं भाव सागर लहलहाने लगता है, वहीं से चेतना अर्हत भाव की ओर अग्रसर होती है, जहाँ जाकर अहम् ठहर जाता है और विराटता के प्रति चेतना समर्पित हो जाती है, वहीं से वीतरागता का पदन्यास होता है। ___अरिहंत होने का अर्थ, अपने आपसे जुड़ना ही नहीं अपितु अपना वह विस्तार करना है, जहाँ व्यष्टि और समष्टि के भेद मिट जाते हैं। सागर और बूंद के विभेद सिमट जाते हैं, रह जाती है मात्र महाविस्तारी जलराशि चाहे उसे बूँद कहें चाहे सागर। पानी तो मात्र पानी है। इस बोध से जुड़ना ही अर्हत भाव की आराधना है।
साध्वी रत्न डॉ. दिव्य प्रभा जी का शोध प्रबन्ध इस बोध से जुड़ने का इंगित प्रदान करता है, यह शोध ग्रन्थ एक दृष्टि देता है क्योंकि आलोक छितरा हुआ है, पसरा हुआ है। आलोक का लोक यात्री सूरज अवनी से अम्बर के बीच का भेद मिटा रहा है, किन्तु फिर भी उजाले का अहसास भीतर के स्व से नहीं जुड़ पा रहा है, क्योंकि हमारी आँखें स्वस्थ नहीं हैं। अर्हत दर्शन उजाला नहीं देता है, अपितु हमें वह
आँख प्रदान करता है, जिससे हम अंधेरे में उजाले के शिल्पकार बन सकें। अगर सिद्धान्त की भाषा में कहें तो यह अवस्था सम्यक् द्रष्टा की है; सम्यक् द्रष्टा होने का अर्थ वीतराग भाव या अर्हद भाव का पहला स्पर्श पा लेना है। सम्यक् द्रष्टा बूंद है और अर्हद भाव सागर है। भला सागर बूँद की सत्ता को कैसे नकार सकता है, और बूंद सागर के लिए कैसे चुनौती बन सकती है? __इसी भाव भूमि के इर्दगिर्द जो विचार अपनी कमनीय कल्पना के साथ तथ्यों के आलेखन के द्वारा साध्वी रत्न प्रस्तुत कर रही हैं, वह एक अभिनन्दनीय प्रयास है। अर्हन्त्य ज्ञेय होकर भी अज्ञेय है। ज्ञेय और अज्ञेय के बीच के द्वंद्व को अनावृत्त करती यह अक्षर आराधना हमें उस सम्बोध से जोड़ती है, जो आज के तनाव और संत्रास ग्रस्त मनुष्य के लिए अप्राप्य है। मैं अनुभव करता हूँ कि आज सारे संत्रासों और तनावों के बीच व्यक्ति के बाह्य केन्द्रीयकरण में है। अगर व्यक्ति अपनी परिक्रमा को अन्तर-यात्रा की ओर मोड़ ले तो उसका इस संक्रमण से निष्क्रमण हो सकता है।
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अर्हत भाव चेतना को विखण्डन की प्रक्रिया से बचाता है। यह रूपान्तरण की वह सशक्त प्रविधि एवं प्रक्रिया है, जो अहम् को तोड़ती नहीं है अपितु अपने भीतर के “मैं” को फैलाती है। भीतर का “मैं" जब फैल जाता है तो कोई पराया नहीं होता। अपने-पन के जो सपने हम मिथ्याबोध या मिथ्यात्व के कारण ले रहे हैं, उसे भी यह तोड़ता है। वीतराग होने का अर्थ किसी का त्याग नहीं करना है, अपितु स्वयं को सर्वात्ममय बना लेना ही वीतरागता का पहला चरण है। राग को विश्व-वात्सल्य या प्राणी-वात्सल्य में विस्तृत करना ही वीतरागता है। यह शोध प्रबन्ध उसी दिशा की ओर आत्मा को अंगुली पकड़कर ले जाता है। इसी भाव को अपने स्वभाव के सांचे में ढालकर वे लिखती हैं
“आर्हन्त्य अगम्य है परन्तु अरिहंत से अवश्य ही जाना जाता है। अनिर्वचनीय है परन्तु परावाणी के स्तोत्र में प्रकट भी होता है। अव्यक्त है पर अनुभूति में यह व्यक्त अवश्य होता है। आर्हन्त्य आर्हता है, योग्यता है, क्षमता और समर्थता है।" (पृ. सं. ५) ।
अपने आपका अवलोकन ही अर्हद की आराधना है। स्वयं को आदम कद आईना बनाकर उसके सामने खड़े कर देना ही इस साधना की प्रथम शर्त है। हम एक अंतहीन भीड़ लेकर जीते हैं, एक भी क्षण एकाकी नहीं होते। एकाकी होने पर भी हमारे भीतर समाज, परिवार व राष्ट्र के इर्दगिर्द उमगने वाले प्रश्न इस तरह से तैर आते हैं कि हम स्वबोध से जुड़ नहीं पाते। स्वबोध से जुड़े बिना किया गया विश्व बोध परिक्रमा का पथ है। परिक्रमा और यात्रा के बीच एक महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि परिक्रमा की कोई मंजिल नहीं होती, जबकि यात्रा का एक निश्चित लक्ष्य होता है। चेतना जिस परिक्रमा से गुजर रही है, उस परिक्रमा को किसी लक्ष्य से जोड़ देना ही वीतराग मार्ग का वैशिष्ट्य है। इसी पथ को खोजते उनके ये शब्द पथ भ्रान्त मानव को एक दिशा बोध देते हैं- "बिना आराध्य के निष्पत्तियाँ तो रहती हैं पर प्रक्रियाएँ खो जाती हैं। अरिहंत बिना भी मंजिल तो रह जाती है, रास्ते खो जाते हैं। शिखर के देखते रहने से काम नहीं बन पाता। शिखर तक पहुँचने के लिए पगदंडी भी मिल जाए तो काफी है। वह शिखर स्वप्नवत् है जिसकी सीढ़ियाँ दिखाई न दें। वे मंजिलें व्यर्थ हैं, जिनका मार्ग दिखाई न दे। वे सारी निष्पत्तियाँ बेबूझ हैं जिनकी प्रक्रिया न मिल पाती हो।
अरिहंत वे प्रक्रियाएँ हैं जो निष्पत्ति पाने तक साथ हैं। मार्ग पर हाथ पकड़कर साथ देते हैं। सीढ़ियों पर आरूढ़ आराधक की प्रत्येक धड़कन में वे प्राणों का आयोजन करते हैं। सब कुछ होता है फिर भी वे कुछ नहीं करते हैं। क्योंकि अरिहंत
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एक पद है, किसी व्यक्ति का नाम नहीं है। इसी कारण यह संस्कृति की सीमा और बन्धन से परे है। अरिहंत स्वयं एक अंतिम मंजिल है, जिसके आगे कोई यात्रा नहीं।" (पृ. सं. ५३)
वृति की प्रवृति को प्रकृति के साथ जोड़ना ही अध्यात्म की निष्पत्ति है। इस निष्पत्ति तक पहुँचने के लिए कहीं बाहर की ओर चलना नहीं अपितु भीतर में स्थिर हो जाना है; भीतर में स्थिर होने का अर्थ प्रतिक्रमण है, धर्म है, स्वभाव है। इतर दर्शनों की आध्यात्मिक प्रविधियाँ किसी को केन्द्र बनाकर उसकी ओर पहुँचने का इंगित करती हैं, जबकि वीतराग का पथ पुनः लौटने का आमंत्रण देता है, उसी तरह से जैसे किसी थके हारे राही को उसका घर विश्रान्ति के लिए पुकार देता है, इसी विचार को व्यवहार के धरातल पर जीना ही अर्हत भाव की अर्थवत्ता है।
प्रत्येक विचार को वैज्ञानिक निकष देना आज के परिवेश में आवश्यक माना गया है। जिस तार्किक युग से आज मानवता गुजर रही है, वहाँ सत्य को तथ्य के रूप में प्रस्तुत करने की उपादेयता स्वीकार की जा रही है, इस परिवेश की पुकार के प्रति अनुसंधातृ सचेष्ट है। उनके वैज्ञानिक नजरिए को यह पंक्तियाँ स्पष्ट करती हैं- ...
“वर्तमान युग की एक बात से तो हम बहुत परिचित हैं कि गोलाकार वस्तुओं की । सतह का क्षेत्रफल सबसे कम होता है और इसी कारण उनकी सतह की ऊर्जा निम्नतम होती है। इसी निम्नतम ऊर्जा या अधिकतम स्थिरता को प्राप्त करने के लिए वस्तुएँ गेंद जैसा आकार धारण करने की कोशिश करती हैं। यही कारण है कि सूरज, चाँद, तारे, धरती और दूसरे सभी खगोलीय पिण्डों की बनावट गोल होती है। ___ अध्यात्म मार्ग में नमस्कार मुद्रा, वंदना, प्रदक्षिणा आदि प्रक्रियाएँ वृत्त-परिवर्तन द्वारा वृत्ति परिवर्तन के माध्यम हैं। इसी कारण वंदना से पूर्व दोनों हाथों को दक्षिणावर्त घुमाकर फिर पंचांग नमाने के विधान के पीछे महत्त्वपूर्ण कारण वृत्ति परिवर्तन भी रहा था।" (पृ. सं. ४१)
आर्हती साधना संकल्प-धर्मा है। समर्पण से परे हटकर पुरुषार्थ के पंथ पर चेतना के चरण न्यास करने वाली यह विशिष्ट साधना पद्धति भीतर से बाहर और बाहर से भीतर की ओर चंक्रमण करती है। जीवन के अनन्त विस्तारी आयामों में अपने महत्वपूर्ण अनुस्पर्श से यह प्रक्रिया एक अनूठा रस रहस्य बरसाती है, वही चित्त वृत्तियों का परिशोधन कर एक अनूठी रचनाशीलता की ओर भी इंगित करती है। अपने हाथों से अपने निर्माण का एक रचनात्मक अनुष्ठान करने वाली श्रमण-साधना ने ईश्वर के उस विधान को नकार दिया जिसने मनुष्य की गरिमा को छीनने का प्रयास किया है। अर्हत वाणी में मनुष्य का निर्माण ईश्वर नहीं करता अपितु मनुष्य
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ईश्वर का निर्माण करता है, इसी आराधना भाव से प्रेरित होकर साध्वी रल ने अपनी शोध आयोजना में एक दृष्टि बिन्दु दिया है
"आराधना करने से आत्मोत्कर्ष की भावना जागृत होती है। इसमें आराध्य की इच्छा शक्ति की आवश्यकता नहीं है। किसी कार्य का कर्ता या कारण होने के लिए यह जरूरी नहीं कि उसके साथ इच्छा, बुद्धि या प्रेरणादि भी हो। निमित्त से, प्रभाव से, आश्रित रहने से, सम्पर्क में आने से, अप्राप्य की प्राप्ति और आवृत का अनावृत होना सहज हो सकता है।''(पृ. सं. ५४)
मंत्र विज्ञान के संबंध में भी एक सृजनात्मक विचार प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में प्राप्त होता है। जैन अध्यात्म विदों ने मनवंतर से त्राण करने वाले विधान को मंत्र कहा है, यहाँ पर मंत्र किसी लौकिक लाभ का हेतु नहीं होकर पारलौकिक अनुष्ठान के रूप में उपचरित है। मध्यकालीन तांत्रिक मतों एवं मंत्र यान, वज्र यान आदि बौद्ध गुह्य-मार्गियों के प्रभाव से जैन साधना इसीलिए अप्रभावित रही, क्योंकि उसने अपनी धार्मिक मंत्र प्रक्रिया को साधन केन्द्रित नहीं मानकर साधना केन्द्रित माना है। परम् परमेष्ठि नवकार-मंत्र में व्याप्त अर्हद तत्व को विश्लेषित करते हुए अनुसंधात्री का यह दृष्टिकोण सम्यक् ही है-"अ" यह वायु बीज है। वायु हल्की होने से ऊपर उठती है। यह शब्द ऊपर उठाने में सहायक होता है। "रि" यह अग्निबीज (दाहबीज) है। इसका काम है जलाना। इसे रूपान्तरित करना चाहिए। इसमें मन्त्र को हमारे भीतर गतिमान किया जाता है। (पृ. सं.. ५८) "हाँ" यह व्योम बीज है। यह आनंद का प्रतीक है। इसका काम है. विचरना, विस्तार करना। "त" वायु बीज है, इसका काम पुनः "अ" की तरह ऊपर उठाना है। (पृ. सं. ५९) : अनुभव एवं अनुभूति के बीच के सूक्ष्म अन्तराल को शब्द की झीनी चदरियाँ
ओढ़ाकर अनुसंधात्री ने एक विलक्षण. मेधा का परिचय दिया है। वास्तव में अनुभव अनुभूति का सतही व स्थूल रूप है, जबकि अनुभूति की गहराई व सूक्ष्म संवेदना है। भाव और अनुभाव के इस अन्तराल को मापदण्ड की भाषा में कहें तो अनुभव में विस्तार है, वही अनुभूति में गहराई है। अनुभव ज्ञात मन की सतह है, वही अनुभूति अज्ञात के अनंत रहस्य का एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनावरण है, अनुभव चेतना का प्रस्थान केन्द्र है, वही अनुभूति उसका चरम अधिष्ठान। इसी अवबोध को "ध्यान" शब्द से व्याख्यायित करते हुए अनुसंधात्री ने ध्यान को दिक्काल से परे निरन्तर चैतन्यशील असीम निर्बन्ध मनोदशा बताया है। ऊर्जा का संचरण विचरण जब ध्यान की गहन गूढ़ गुहा में से होता है तभी आत्म साक्षात् का अनुस्पंदन साधक कर सकता है। इसी सत्य को स्वर देता उनका यह कथन संगत ही है
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"शब्द में, विचार में, तरंग में भावों को संग्रहीत कर समाविष्ट होने दीजिए। उस महाधारा में हमारी शक्ति सम्मिलित हो जाएगी। आकाश में जो तरंगें संग्रहीत हुई हैं, अरिहंत के आस-पास जो-जो आभामण्डल निर्मित हुआ है, उन संग्रहीत, निर्मित तरंगों में हमारी तरंगें भी चोट करती हैं। अपने चारों तरफ एक दिव्यता का, भगवत्ता का लोक निर्मित हो जाएगा।" (पृ. सं. ६५) ___ श्रमण सृजना-साधना का अनुपम संगम है, यहाँ भावात्मक साधना के साथ साधना के रचनाशील पक्ष की ओर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया है। पिछले दो दशक से इस गौरवशाली संघ में निवृत्ति के साथ प्रवृत्ति परक अध्ययन गवेषणा की ओर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया है। साध्वी डॉ. दिव्य प्रभा जी इसी परम्परा की गौरव-गरिमा हैं; उनके शोध प्रबन्ध से भारतीय वाङ्मय को तो एक नया दिशा-दर्शन मिला ही है, साथ ही श्रमण परम्परा भी गौरवान्वित हुई है। मैं उनके इस रचनाशील प्रयोग को अभिनन्दनीय मानता हूँ। मेरा आत्म विश्वास है कि वे इसी तरह रचना-मूलक प्रयोग . धर्मिता के द्वारा न केवल जिन-शासन की प्रभावना करेगी अपितु भारतीय चिन्तन के. नवोन्मेष में अपना अनुपम योगदान देती रहेगी, इसी सदाकांक्षा के साथ उनके तन,. मन और जीवन के समुत्कर्ष का हार्दिक शुभाशीर्वाद ।
-आचार्य देवेन्द्र मुनि
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प्रकाशकीय :
अर्हत् शब्द यों तो भारतीय वाङ्मय एवं संस्कृति में आदिकाल से एक महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण किए हुए हैं, किन्तु जैनों की समस्त चिन्तन-धारा तथा जीवन प्रणाली में यह शब्द रचा-बसा है। अरिहन्त जैन तीर्थंकर का भी नाम है। सभी जैन अरिहन्त को नमस्कार करते हैं, उनकी आराधना करते हैं। पर, सभी यह नहीं जानते कि इस छोटे से शब्द का अर्थ कितना व्यापक है। प्रस्तुत शोध ग्रन्थ इस शब्द के पीछे रही विशाल विचार सामग्री तथा अवधारणाओं पर आधारित है।
जैन आराधन वस्तुतः व्यक्ति की नहीं गुणों की आराधना है। अरिहन्त जो गुणों का पुंज है, एक धनीभूत पुंज, उसके गुणों से भली-भांति समझे बिना यह आराधना अधूरी है। आत्मा सुख और शान्ति की खोज में जब विकासोन्मुख हो परमात्मा या विशुद्ध आत्मा हो जाने की. यात्रा पर चल पड़ती है, तब सृष्टि की प्रत्येक वस्तु को निरावरण, अपने मूल स्वभाव में देख पाती है। यही याऋ क्रम अरिहन्त का गुण दर्शन है। बाहर से भीतर की या भीतर से बाहर की इस यात्रा को सम्यक् रूप से समझने व उस पर चल पड़ने का प्रयत्न ही साधना है।
यह शोध ग्रन्थ इस शब्द से जुड़ी. उस दीर्घ परम्परा में उन गुणों और संदर्भो की खोज है। यह खोज़ अतीत के गर्भ में ही नहीं जाती अपितु उसमें से प्राप्त सामग्री को वर्तमान से जोड़ने का सफल प्रयल भी करती है।
भौतिक जगत का विज्ञान आज के भौतिक जीवन का ही अंग नहीं बना है, वह हमारे विचारों पर भी प्रभावी रूप से छा गया है। विज्ञान की भाषा व तर्क-प्रणाली में ढाले. बिना हमारे पुरातन मनीषियों की उपलब्धियाँ अपनी उपयोगिता खो देने की स्थिति में आती जा रही हैं। इस दृष्टिकोण से इस ग्रन्थ की विशेष उपयोगिता है तथा पुरातन उपलब्धियों को विज्ञान सम्मत शैली व तर्क संगत रूप में प्रस्तुत करने का साध्वीश्री का प्रयल सराहनीय है। ___ हमें हर्ष है कि हम अपने यहाँ से प्रकाशित शोध ग्रन्थों की परम्परा में यह ग्रन्थ अपने पाठकों को प्राकृत भारती पुष्प ९३ के रूप में उपलब्ध करा रहे हैं। हमारा विश्वास है कि इस चिन्तन विधा व सामग्री से वे लाभान्वित होंगे। आराध्य के गुणों से परिचित होना आराधना के नए सोपान खोलता है और विकास का मार्ग प्रशस्त होता जाता है।
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साध्वी श्री दिव्य प्रभाजी ने वर्ष १९८१ में डॉ. बी. बी. रायनाडे के निदेशन में प्रस्तुत शोध प्रबन्ध की प्रस्तुति की जिस पर विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन ने आपको पी-एच. डी. की उपाधि प्रदान की है। ___ हम साध्वीश्री डॉ. दिव्य प्रभाजी का इस ग्रन्थ के प्रकाशन का दायित्व प्रदान करने के लिए आभार व्यक्त करते हैं। श्रमण संघ के आचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी के प्रति भी हम आभारी हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की प्रेरक प्रस्तावना लिख भेजी। वे सदा ही ऐसी सृजनात्मक योजनाओं के प्रेरक व प्रशंसक रहे हैं।
(उमरावमल चोरडिया) (म. विनयसागर) . (देवेन्द्र राज मेहता) .. अध्यक्ष निदेशक
सचिव अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेंस प्राकृत भारती अकादमी प्राकृत भारती अकादमी
राजस्थान संभाग .. जयपुर
जयपुर
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अर्हम
जैन दर्शन में योग एक समालोचनात्मक अध्ययन विषय पर लिखित शोध प्रबन्ध मैंने पढ़ा। मैं अपनी पूर्व धारणा के अनुसार ऐसा ही समझता था कि योगाश्रमों में आसन, प्राणायाम आदि प्रेक्टिकल रूप में करवाये जाते हैं इसका विषद विवेचन इस कृति में होगा किन्तु जैसे ही शोध प्रबन्ध में योग की रासायनिक प्रक्रिया प्रयोग और परिवर्तन के रूप में पढ़ा तुरंत ही मैं अपने आपको भीतर ढूँढने लगा और एकाएक मुझमें परिवर्तन हो गया। पढ़ते-पढ़ते मैं उस क्षितिज तक पहुँच गया जहाँ अन्तर उद्भूत आनंद ही आनंद था। मैं आज दिन तक जिस विषय में अज्ञात और अबूझ रहा वह यहाँ आकर ज्ञेय और स्पष्ट हो गया। समय ने कैसे करवट बदल दी इसका अनुभव प्रत्यक्ष हुआ और मैं मन ही मन साध्वीजी के प्रति श्रद्धा विनत हो गया। क्योंकि साध्वीजी ने वर्तमान समस्याओं के संदर्भ में जिस विषय का मूल्यांकन किया है उन्हें समाहित करना युग की अनिवार्यता है। तनाव से मुक्त होने के लिए आज योग
और तत् सम्बन्धी प्रयोग की नितांत आवश्यकता है। वैज्ञानिकों के माध्यम से सुख-सुविधा के अनेक साधन उपलब्ध होने पर भी शान्ति का अभाव सर्वत्र छाया हुआ है। नैतिक चेतना ने तो हमारा सहयोग ही त्याग रखा है, अध्यात्म- भावना, ध्यान समत्व और वृत्तिओं के क्षय की साधना ने हमें भयभीत कर रखा है। इसके समाधान के लिए बौद्धिक विकास का संतुलन इस शोध प्रबन्ध से सहज मिल सकता है। ____ हमारे निषेधात्मक और विधेयात्मक दृष्टिकोण का नया क्षितिज इस शोध से खुल सकता है, ऐसी मेरी धारणा है। मैं सोचता हूँ कि इस शोध प्रबन्ध के माध्यम से न केवल जैन ही किन्तु. शान्ति के इच्छुक सभी जन लाभान्वित हो सकते हैं। यह कृति हृदयस्पर्शी है, जीवन परिवर्तन शोधन में सहयोगी है और शान्ति, प्रसन्नता का आनंद देने वाली है। ... यह शोधकृति पाठकों को एक नयी दिशा, एक नया जीवन का मूल्यांकन और एक नयी खोज, भीतर के द्वार को खोलने की खोज, उत्पन्न करती है। भीतर के रासायनिक रहस्यों का आमूल परिवर्तन अनेक जन्मों का परिश्रम होने पर भी नहीं होता है। जनम-जनम से इस शक्ति का स्रोत बहाने पर भी योग के बिना इसकी उपलब्धि नहीं हो सकती आज यह योग का प्रयोग आपके द्वार पर स्वयं चलकर आया है। मुझे आशा ही नहीं विश्वास है कि यह कृति देश-विदेश और समूचे विश्व में पढ़ी जायेगी।
डॉ. दौलतसिंह कोठारी भू. पू. कुलपति जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय
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| खंड
अरिहंत-शब्द-दर्शन
-पृष्ठ १-२६
३-२६
अध्याय-१ अरिहंत का तत्व-बोध? १. अरिहंत
अरिहंत और आर्हन्त्य
अरिहंत बनना ही अरिहंत की पूजा का परिणाम है। २. अरिहंत-दर्शन
शब्द-दर्शन, सम्बन्ध-दर्शन, स्वरूप-दर्शन ३. अरिहंत-शब्द : एक समीक्षा
अरिहंत-शब्द-विशेषार्थ अरिहंत शब्द की व्युत्पत्ति अरिहंत शब्द के तीन रूप अस्हंत-अरिहंत-अरुहंत अरहंत शब्द की प्राचीनता आगम, जैन शिलालेख, आगमेतर साहित्य,
जैनेतर साहित्य ४. भारतीय दर्शन में अरिहंत शब्द की दार्शनिकता
ईश्वर शब्द की व्याख्या एवं व्यापकता .जैन दर्शन और ईश्वर शब्द
वैदिक परम्परा, सांख्य दर्शन, योग-दर्शन, न्याय-दर्शन, वैशेषिक दर्शन, अन्य दर्शनों की मान्यताओं पर जैन दर्शन का निराकरण, ईश्वर के तीन रूप निराकरण के अमोघ उपाय
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खंड २
संबंध-दर्शन पृष्ठ २७-१२३ |
अरिहन्त और हम अध्याय-२ अरिहंत की आवश्यकता : वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में २९-४९ १. हम कैसे चलें ?
ईर्यासमिति ईर्या विधान ईविधान की वैज्ञानिकता हमारी आंखें हम कैसे देखते हैं मस्तिष्क के तीन प्रकार चलने का मस्तिष्क के साथ सम्बन्ध चलने का हृदय के साथ सम्बन्ध
चलने का रीढ़ की हड्डी के साथ सम्बन्ध २. हम कैसे खायें ?
आहार चर्या संतुलित आहार खाने की वृत्ति रस ग्रन्थियां आहार चबाने की विधि हमारी जीभ
आहार चर्या और पाचनतन्त्र ३. आवर्त-आवर्तन और परिवर्तन
कम प्रयल से अधिक बल प्राप्त करने के उपाय गोलाई और सृष्टि गोलाई और विज्ञान गोलाई और वृत्ति मूलशक्ति केन्द्र से शक्ति का विकास दो आवर्त-उत्तरावर्त और दक्षिणावर्त
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प्रदक्षिणा की विधि और परिणाम अरिहंत स्वयं प्रदक्षिणा और नमन क्यों करते हैं ? प्रदक्षिणा और प्रदूषण नाश प्रदक्षिणा द्वारा वृत्ति परिवर्तन
वंदना की वैज्ञानिकता ४. कायोत्सर्ग मुद्रा
कायोत्सर्ग की दो विधि बैठकर किये जाने वाले कायोत्सर्ग की वैधानिक प्रवृत्ति .. और वैज्ञानिक परिणति खड़े रहकर किये जाने वाले कायोत्सर्ग की रीति और
हृदय रोग की निवृत्ति कायोत्सर्ग के मनोवैज्ञानिक प्रभाव ५. आभामंडल
आभामंडल के दो प्रकार महान व्यक्ति का आभामंडल . महान व्यक्ति के आभामंडल का आवर्त-आकार-रूप-रंग और प्रभाव
हमारी भावधारा पर परमात्मा के आभामंडल का प्रभाव ६. समुद्घात.
समुद्घात क्या है? समुद्घात के प्रकार समुद्घात की वैज्ञानिकता प्राण ऊर्जा और पदार्थ ऊर्जा दो प्रकार की विद्युत स्त्री और पुरुष में वैद्युतिक अन्तर के कारण और परिणाम स्त्री और पुरुष में वैद्युतिक अंतर का मनोवैज्ञानिक परिणाम स्त्री और पुरुष में वैधुतिक अंतर के कारण दैहिक अंतर तरंगात्मक और कणात्मक विज्ञान चरणस्पर्श के वैज्ञानिक कारण और वैधानिक परिणाम :
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५१-६६
७. कषाय-विजय क्रोध आने के कारण वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा क्रोध से होने वाले नुकसान आध्यात्मिक विश्लेषण द्वारा क्रोध निरोध के उपाय तनाव के समय होने वाले ग्रन्थियों के कार्य
तान्त्रिक संस्थान से तनाव की निवृत्ति अध्याय-३ अरिहंत परम ध्येय १. हम क्यों आराधना करते हैं?
हमारा और अरिहंत का क्या सम्बन्ध है?
क्या अरिहंत हमें कुछ देते हैं ? २. मन्त्र और चेतना का सम्बन्ध
बॉडी के तीन प्रकार वाणी के चार प्रकार वाणी का ग्रन्थि पर प्रभाव वाणी से ग्रन्थि भेद और अपूर्व आत्म दर्शन अरिहंत-मन्त्र : जप ध्यान अरिहंत-मन्त्र और अक्षर विज्ञान
अरिहंत-मन्त्र और मनोविज्ञान ३. अरिहंत ध्यान दर्शन
ध्यान और कायोत्सर्ग शक्ति और अनुभूति अस्तित्व और व्यक्तित्व कल्पना और भावना
चेतना के ३२ केन्द्र स्थान अध्याय-४ आराधक से आराध्य १. आत्मविकास की प्रथम भूमिका
सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात् भावी अरिहंत की भावना
६७-१२३ ।
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तीर्थकरत्व एवं तीर्थकर नामकर्म
आराधक से आराध्य २. अरिहंत पद प्राप्ति के उपाय
श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा की विभिन्न मान्यताएं अरिहंत बनने के २० उपाय वात्सल्य सप्तक-अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, तपस्वी-वात्सल्य। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, दर्शन, विनय, आवश्यक, निरतिचार शीलव्रत, क्षणलव, तप, त्याग, वैयावृत्य, समाधि, अपूर्वज्ञान ग्रहण, श्रुत-भक्ति, प्रवचन-प्रभावना।
खंड ३
-स्वरूप-दर्शन
पृष्ठ १२५-२६१
अध्याय-५ च्यवन कल्याणक
१२७-१३८
. १. कल्याणक का स्वरूप, महत्व एवं महोत्सव
'मनाने का उद्देश्य और परिणाम २. च्यवन
च्यवन से पूर्व की गति अद्वितीय-असाधारण विशेषता उच्चकुल-प्रधानता-ज्ञानत्रय से समन्वित त्रैलोक्य में अपूर्व प्रभाव
अन्य वातावरण की अनुकूलता ३. रहस्यात्मक-स्वप्न
निमित्तशास्त्र में स्वप्न विद्या का स्थान भारतीय स्वप्न शास्त्र में स्वप्नों के कारण स्वप्न फल स्वप्न के विभिन्न प्रकार एवं स्वरूप
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अरिहंत की माता को चौदह स्वप्न एवं सोलह स्वप्न
स्वप्न-फल, स्वप्न रहस्य ४. कल्याणक महोत्सव
इन्द्र द्वारा शक्रस्तव इन्द्रागमन-द्रव्यवृष्टि
अष्टान्हिका महोत्सव अध्याय-६ जन्म कल्याणक
१३९-१५८ जन्मावस्था उत्तम योगों में जन्म जन्म प्रभाव से उद्योत तीन लोक में आनंद-अन्य वातावरण पर प्रभाव दिशाकुमारियों का आगमन-उनकी प्रवृत्ति
इन्द्रागमन २. जन्माभिषेक महोत्सव
इन्द्र के पांच परिकल्पित रूप, मेरु पर्वत पर गमन, गमन की अवधि-मेरुपर्वत पर इन्द्रों की संख्या, अभिषेक हेतु आवश्यक उपकरण-कलश के प्रकार, अभिषेक विधि-मेरु पर्वत से निर्गमन
परमात्मा को दिव्य वस्तुओं की सौगात-दिव्यवृष्टि-अष्टान्हिका महोत्सव ३. परमात्मा का स्वरूप एवं सौन्दर्य
जन्मकृत चार अतिशय-अपूर्व सौन्दर्य पांच अप्सराओं द्वारा लालन-पालन अंगुष्ठ में देवों द्वारा अमृत स्थापना देवकुमारों के साथ क्रीड़ा-अबालभाव सर्व कला-विज्ञान निष्णात यौवनकाल-आश्चर्यकारक रूप यौवन भोगों में अनासक्त परमनीति द्वारा राज्य करना और सर्व प्रजा को सुखी करना, विशुद्ध अध्यवसाय
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अध्याय-७ प्रव्रज्या-कल्याणक
.. १५९-१७६ १. वैराग्य भावना
अनासक्तभाव-प्रव्रज्या की आवश्यकता स्वयंसंबुद्ध अरिहंत लोकान्तिक देवों का आगमन
सांवत्सरिक दान २. प्रव्रज्या महोत्सव
महायोग के महापथ पर अभिषेक विधि निष्कमण ३. प्रव्रज्या विधि
वस्त्राभूषणत्याग-पंचमुष्टिलोच-सिद्धों को नमस्कार - सावद्ययोग के प्रत्याख्यान
निर्मल विपुलमति मनःपर्यवज्ञान का आविर्भाव
कर्मक्षयज एकादश अतिशय ४. साधना
संयमानुष्ठान विधि एवं हेतु-स्वाश्रित साधना अनुत्तरयोग विधि वीरासन, पद्मासन, गोदोहासन आदि विविध आसनों में ध्यान अरिंहत का ध्येय एवं तपश्चर्या .
उपसर्गविजेता अरिहंत .. .. ५. ध्यान का स्वरूप
धर्मध्यान
१७७-२५१
शुक्लध्यान अध्याय-८ केवलज्ञान-कल्याणक . १. केवलज्ञान का स्वरूप
क्षपक श्रेणी मोहनाश केवलज्ञान की उत्पत्ति
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घातिकर्मों का क्षय
अरिहंत और सामान्य केवली २. समवसरण
समवसरण का अभिप्राय समवसरण के प्रकार प्राकार-निर्माण में नियोजित देव एवं द्रव्य प्राकार-त्रय के स्वरूप एवं मान समवसरण सोपान एवं वापिकाएं दिगम्बर-मान्यता तृतीय प्राकार का आभ्यंतर स्वरूप नव सुवर्ण-कमल, चतुर्मुखत्व अरिहंत द्वारा प्रदक्षिणा-विज्ञान को दक्षिणा अरिहंत द्वारा नमस्कार : सृष्टि में शुभ का आविष्कार बारह पर्षदा : श्वेताम्बर-दिगम्बर मान्यताएं साधु-साध्वियों के आगमन की आवश्यकता बालविधान समवसरण कब और कितने समय में रचा जाता है? अरिहंत का बाह्यवैभव १८ दोष रहितता १२ गुण अष्ट महाप्रातिहार्य ३४ अतिशय
वाणी के ३५ गुण ४. देशना
देशना समय देशना की आवश्यकता एवं परिणाम
देशना का स्वरूप ५. त्रिपदी
त्रिपदी का स्वरूप
[३०]
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२५३-२६१
गणधर नामकर्म गणधर का महत्व गणधर की प्रवृत्ति दार्शनिक परम्परा में त्रिपदी का महत्व एवं गौरव त्रिपदी की दृष्टि से पदार्थों का पर्यवेक्षण गणधर पद प्रधान-विधि तीर्थ और तीर्थकर विश्व व्यवस्था
संघ व्यवस्था अध्याय-९ निर्वाण कल्याणक १. अंतिम देशना एवं अनशन
अंतिम समवसरण : अनेक श्रमणों के साथ किसी विशेष पर्वत पर गमन
पर्यकासन में योगविधि __. अनशन का स्वरूप २. योग से अयोग की ओर
योग-निरोध की प्रक्रिया शैलेशीकरण-गुणश्रेणी सर्वथा मुक्ति : सिद्ध स्थान की प्राप्ति
सर्वलोक में अंधकार ३. निर्वाण महोत्सव
इन्द्रागमन-तीन चिताएँ-जिन-शिबिकाअग्नि संस्कारअवशेष वस्तुओं का ग्रहण और ग्रहण के उद्देश्य अरिहंत विरह-असह्य शोक
दिगम्बर मान्यता-देह अदृश्य परिशिष्ट सहायक-ग्रंथ-सूची
२६३-२७६
[३१]
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खण्ड -१
अरिहंत - शब्द दर्शन
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अध्याय १
। अदिति का तत्व बोय
अरिहंत का तत्व बोध
१.• अरिहंत २. अरिहंत दर्शन ३. अरिहंत शब्द : एक समीक्षा ४. भारतीय दर्शन में अरिहंत शब्द की दार्शनिकता
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॥१. अरिहंत का तत्व बोध
अरिहंत ___ अरिहंत अर्थात आर्हन्त्य की अभिव्यक्ति। अरिहंत का अभिप्राय है आर्हन्त्य की अनुभूति। अरिहंत का अर्थ है आर्हन्त्य की उपलब्धि। जो सर्व में विद्यमान है उस आर्हन्त्यअर्हता को जो प्रकट कर सकते हैं वे अरिहंत हैं। आर्हन्त्य अरिहंत की अभिव्यक्ति है। आर्हन्त्य प्रकट कर हम सब अरिहंत बन सकते हैं। यह अरिहंत की हमें चुनौती है। अरिहंत बनकर ही अरिहंत को जाना जाता है, पाया जाता है और पूजा जाता है। ___ “अरिहंत बनना ही अरिहंत की पूजा का परिणाम है।"
इसका सम्बन्ध किसी व्यक्तिविशेष से बँधा हुआ नहीं है। यह निबंध तत्व है। समस्त अस्तित्व से इसका अनुबंध है। यह स्वयं में पूर्ण है और अन्य अपूर्ण के पूर्ण की अभिव्यक्ति का उद्घाटक है।
आर्हन्त्र्य अगम्य है परंतु अरिहंत से अवश्य ही जाना जाता है। अनिर्वचनीय है परंतु परावाणी.के स्रोत में प्रकट भी होता है। अव्यक्त है पर अनुभूति में यह व्यक्त अवश्य होता है। आर्हन्त्य अर्हता है, योग्यता है, क्षमता और समर्थता है। महावीर की वाणी में यह “संधि' है, अवसर है जब इसे खोला जाय, प्रकट किया जाय।
: आर्हन्त्य की अनुभूति और अभिव्यक्ति को प्रकट करता है-अरिहंत का तादात्म्य। तादात्म्य अर्थात् अरिहंत के साथ एकरूप बन जाना। .. आचारांग सूत्र में कहा है
उनकी दृष्टि उनका स्वरूप-ज्ञान उनका आगमन उनकी चेतसिक अनुभूति और उनका सान्निध्य।
इन पाँच प्रकारों से अरिहंत के साथ तादात्म्य होता है। तादात्म्य तत्रूप और तत्स्वरूप बनाकर पूर्ण आर्हन्त्य प्रकट करता है। इसीलिये आनन्दघन जी ने कहा है
"जिनस्वरूप थई जिन आराधे ते सही जिनवर होवे रे.... .........
१. आचारांग श्रुतस्कंध १, अध्ययन ५, उद्देशक ४, सूत्र ५४७ ।
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६ अरिहंत-शब्द दर्शन
अरिहंत-दर्शन अरिहंत-दर्शन अर्थात् अपने आपका अवलोकन। “दृश्यते अनेन इति दर्शनम्'जिसके द्वारा देखा जाय वह दर्शन है। यह व्याख्या हमें इस प्रश्न की ओर ले जाती हैकिसके द्वारा देखना और क्या देखना ?
__ आगम हमें इस प्रश्न के उत्तर की ओर ले जाता है-“एगमप्पाणं संपेहाए"१ एक मात्र आत्मा को देखना है। मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? यह समाधान भी प्रश्नपरक हो गया। आत्मा को देखना है; पर वह कैसे ? उसकी कोई विधि और मार्ग तो निश्चित हो। इसका समाधान प्रस्तुत गाथा में हैजो जाणादि अरिहंत दव्वह-गुण-पज्जत्तेहिं । .
. सो जाणादि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्सलयं ॥ जो द्रव्य-गुण और पर्याय से अरिहंत को जानता है वह स्वयं के स्वरूप को जानता है।
हमारी अपनी आत्मा जिसे हम स्वयं नहीं जानते हैं। जो निरंतर अनुभवयुक्त होने पर भी अगम्य है। अपना निज रूप होने पर भी जिसे हम देख नहीं सकते हैं। उसको जानने, देखने या समझने के लिये हमें उसके पास जाना होगा जो इसे जानता, देखता और समझता है। जिससे देखा जाता है वह दर्शन है।
किसने ऐसे दर्शन को प्राप्त किया और किसने संसार के जिज्ञासु जीवों को दर्शन प्राप्त करवाया। इसका उत्तर अरिहंत की अभिव्यक्ति है। परमात्मा के दर्शन-प्राप्त स्वरूप का निर्देशन शास्त्र में इस प्रकार है।
“एगत्तिगते पिहितच्चे से अभिण्णाय दंसणे संते २ । एकत्व भावना से जिनका अन्तःकरण भावित हो चुका है, राग-द्वेष रूप अग्नि का जिन्होंने शमन कर दिया है अथवा “अर्चा"अर्थात् काया को जिन्होंने संगोपित कर लिया है, वे दर्शन को प्राप्त हो चुके हैं; वे स्वयं साक्षात् दर्शन हैं। क्योंकि वे “ओए समियदसणे"३ वे सम्यक्दर्शन में ओतप्रोत हैं।
हम उनके दर्शन में निज-दर्शन करें। या उनकी दृष्टि से हम अपने आपको देखें। अरिहंत का दर्शन अर्थात् अरिहंत का पथ, मार्ग। इसीलिये कहा है-“मेधावी पुरुष को
१. आचारांग-श्रुतस्कन्ध १, अ ४, उ. ३, सूत्र-१४१ २. आचारांग सूत्र-श्रुत. १, अ. ९, उ. १, सूत्र-२६४ ३. आचारांग सूत्र-श्रुत. १, अ. ६, उ. ५, सू. १९६ ।
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अरिहंत का तत्व-बोध ७ क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेषादि का वमन करना चाहिये, उनसे निवृत्त होना चाहिये-यही परमात्मा का दर्शन है, पथ है, मार्ग है।
अरिहंत का समस्त दर्शन-शब्द दर्शन; संबंध दर्शन एवं स्वरूप दर्शन द्वारा अरिहंत दर्शन को पूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान करता है।
अरिहंत से क्या अभिप्राय ? अरिहंत शब्द : एक समीक्षा ___“अरिहंत" शब्द हमारी स्वरूप चेतना के हस्ताक्षर हैं। साथ ही यह जैन पंरपरा में मान्य “नमो अरिहंताणं' मंत्र के परम आराध्य के लिए प्रयुक्त एवं प्रसिद्ध शब्द है। यह शब्द जैन-जेनेतर साहित्य एवं परंपरा में अनेक अर्थों में विश्रुत रहा है।
किसी भी शब्द की विश्रुति मान्यताओं में रूपान्तरित होती है। मान्यताएँ ही कभी विविध परंपराओं का रूप ले लेती हैं। परंपरा, व्याकरण, नियुक्ति और व्याख्याओं के आधार पर किये जाने वाले अर्थ-विन्यास किसी भी एक अर्थ की सर्वोपरिता से अनछुए-से रहते हैं। विशेषार्थ के कारण विश्रुत शब्द किसी विशेष व्यक्ति का परिचय शब्द न रहकर भाववाचक संज्ञा बन जाता है। अरिहंत शब्द भाववाचक संज्ञा बनकर, भावों से जुड़कर पूज्य अर्थ का द्योतक बन गया। इस प्रकार इस शब्द की विश्रुति अनश्रुति बनकर शास्त्रों से लेकर साहित्य एवं संस्कृति में अनुस्यूत हो गई एवं परंपरा में प्रश्रुत हो गई। . - अरिहंत को आराध्य के रूप में मान लेने पर यह शब्द प्रस्तुत विश्रुति और प्रश्रुति से भी ऊपर उठ जाता है। शब्द मंत्र बनकर भावों के द्वारा प्राणों में तरंगित होता है और आगे कभी तरंगातीत निर्विकल्प अवस्था विशेष की परिणति बन जाता है।
आगंम और आगमेतर साहित्य में तीर्थंकर शब्द के अनेक पारिभाषिक शब्द हैं, जैसे-अरिहंत, अरहंत, अरहा, अरिहा, जिन, केवली, भगवन, वीतराग, पुरुषोत्तम, अणंतनाणी, अणंतदंसी आदि।
इनमें से जिन, केवली, वीतराग आदि शब्द सामान्य केवलियों के भी वाचक रहे हैं। तीर्थंकरों में भी वे गुण प्रतिपादित होने से वे भी जिन आदि कहलाते हैं परंतु प्रत्येक जिन आदि तीर्थकर नहीं कहलाते हैं, क्योंकि तीर्थंकर वह पद है जो तीर्थकर नाम कर्म रूप विशेष प्रकृति से जुड़ा हुआ है। जिनकी तीर्थ स्थापनादि रूप विशेष प्रवृत्तियाँ उनका अपना परिचय हैं।
अरिहंत शब्द अनेक अर्थों में व्यापक रहा है। कई जगह वह तीर्थंकर शब्द का पर्यायवाची शब्द रहा, कई स्थलों पर वह सामान्य केवलियों का वाचक रहा तो कई १. आचारांग सूत्र-श्रुत. १, अ. ३, उ. ४, सू. १२८, १३० । .
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८ अरिहंत-शब्द दर्शन स्थलों पर वह पूज्य अर्थ का अभिभावक बना। विशेष तौर पर आगम-प्रमाण से वह तीर्थंकर शब्द का पर्यायवाची रहा है। इसी कारण यही शब्द मंत्र बनकर "नमो अथवा अरिहंताणं" द्वारा अरिहंत अर्थात् तीर्थंकर अर्थ में गूढ़ होता गया। । शब्दों का उद्भव धातु निष्पन्न माना गया है। धातु निष्पन्न शब्द को सत्यार्थ और अकाट्य प्रमाणरूप मान लेने पर “अरिहंत" शब्द को “अर्ह" धातु से निष्पन्न माना जाता है जिसका अर्थ योग्य होना और पूजित होना है। "अर्ह" धातु के ये दो मुख्यार्थ हैं। इन दोनों अर्थों के अधिकारी स्वामी ये “अरिहंत' हैं। इस धात्वर्थ से अरिहंत शब्द : के वाच्य स्वामी अष्टमहाप्रातिहार्य के योग्य और पंचकल्याणक पूजा के स्वामी"तीर्थकर"-अरिहंत होते हैं। इस अर्थ के अनुसार तीर्थंकर और अरिहंत के अर्थ में कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। एक का अर्थ है-तीर्थ की स्थापना करने वाले और दूसरे का अर्थ है-योग्य होना, पूजित होना। मात्र किसी भी प्रवृत्ति को प्रधान मानकर उन-उन आवश्यक शब्दों के यथोचित प्रयोग से शब्द वैविध्य माना जाता है। अतः “प्रत्येक तीर्थंकर अरिहंत हो सकते हैं, परन्तु प्रत्येक अरिहंत तीर्थकर नहीं हो सकते"-ऐसा मानना यह एक बहुत बड़ा भ्रम है।
अरिहंत शब्द का मुख्यार्थ तीर्थंकर मान लेने पर इस शब्द की सिद्ध व्याख्याएँ आगम, नियुक्ति, चूर्णि एवं वृत्ति के द्वारा परंपरा में प्रसिद्ध बन गईं। आगम के कुछ पाठ, इसकी प्रामाणिकता के साक्षी हैं। जिसको प्रत्यक्ष बनाने से इस शब्द के बारे में रहीं कुछ वैकल्पिक धारणाओं का अपने आप समाधान हो जाता है। आगम के अनुसार अरिहंत शब्द के अर्थ की प्रामाणिकता .
कथानुयोग में और खासकर भगवान महावीर और परमात्मा मल्लिनाथ के चरित्र में उल्लेख मिलता है कि उन्हें जन्म से अवधिज्ञान था और दीक्षित होने पर मनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ।२ तीर्थंकरों का जन्म से अवधिज्ञानी रहना और दीक्षित होते ही मनःपर्यवज्ञानी होना नियम है। तीर्थंकर के इस विशेष गुणधर्म को अरिहंत शब्द से उल्लेखित करता हुआ एक पाठ स्थानांग सूत्र में इस प्रकार है
तओ अरहा पन्नत्ता तं जहा
ओहिनाण अरहा, मणपज्जवनाण अरहा, केवलनाण अरहारे १. जं रयणिं च णं समण भगवं महावीरे जाए, तं रयणिं च णं बहूहिं देवेहिं देवीहिं य
उवयंतेहिं उप्पयंतेहिं य देवुज्जोए एगालोए, लोए देवसन्निवाया उप्पिंजलमाणभूया कहकह भूया यावि होत्था।
-कप्पसुत्तं-पत्र-१४२ २. जं समयं च णं मल्ली अरहा सामाइयं चरित्तं पडिवने तं समयं च णं मल्लिस्स अरहओ
माणुसधम्माओं उत्तरिए मणपज्जवनाणे समुप्पन्ने! -ज्ञातासूत्र अ. ८, सू. १८ ३. स्थानांग सूत्र अ. ३, उ. ४, सू. २२० ।
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अरिहंत का तत्व-बोध ९ ......................................................
· अरिहंत के मुख्य तीन प्रकार हैं-अवधिज्ञानी अरिहंत, मनःपर्यवज्ञानी अरिहंत और केवलज्ञानी अरिहंत। अरिहंत के गमनागमन से लेकर निर्वाण तक के मुख्य पाँच अवसर होते हैं, जिन्हें कल्याणक कहा जाता है। अरिहंत अवस्था के ये पाँचों अवसर उपरोक्त तीन प्रकारों में इस प्रकार विभाजित होते हैं
अवधिज्ञानी अरिहंत ___ -च्यवन कल्याणक एवं जन्म कल्याणक मनःपर्यवज्ञानी अरिहंत -प्रवज्या कल्याणक केवलज्ञानी अरिहंत -केवलज्ञान कल्याणक एवं निर्वाण कल्याणक
अरिहंत का उपरोक्त विभाजन-उनकी पूर्वनियोजित रूपरेखा है। सिर्फ केवलज्ञान के बाद ही उनका आर्हन्त्य प्रकट नहीं होता, परन्तु जन्म के पूर्व ही यह निर्धारित रहता है। इसी कारण सामान्य केवली और अरिहंत में अन्तर है। मोक्ष पाने की योग्यता वाले अर्थ से तो सामान्य केवली अर्थ भी बैठ सकता है परन्तु योग्यता के साथ पूज्यप्ता वाला अर्थ यहाँ अन्तर स्पष्ट करता है।
सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली में वीतरागता की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है, परन्तु बाह्य दृष्टि से बहुत अन्तर है। यह अन्तर अरिहंत के पूजित होने के अर्थ से सिद्ध होता है।
दूसरा आगम प्रमाण इस अर्थ की और पुष्टि करता है किअरिहंत के व्युच्छिन्नं (मुक्त) होने पर, अरिहंत प्रज्ञप्त धर्म के व्युच्छिन्न होने पर और पूर्वगत (चतुर्दशपूर्वो) के व्युच्छिन्न होने पर। इन तीन कारणों से मनुष्यलोक और देवलोक में अंधकार होता है। इसी प्रकारअरिहंतों के जन्म होने पर, अरिहंतों के प्रव्रजित होने के अवसर पर और
अरिहंतों के केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में किए जाने वाले महोत्सव पर मनुष्यलोक और देवलोक में उद्योत होता है। देव समुदाय मनुष्य लोक में आता है, देवों में कलकल ध्वनि होती हैं; देवों के इन्द्र, सामानिक देव, त्रायत्त्रिंशक देव, लोकपाल देव, लोकान्तिक देव, अग्रमहिषी देवियाँ, सभासद, सेनापति तथा आत्मरक्षक देव तत्क्षण मनुष्यलोक में आते हैं। __इस सूत्र में अरिहंत धर्म-कथन के साथ चार कल्याणकों का कथन प्रस्तुत किया गया है।
१. स्थानांगसूत्र-अ. ३, उ. १, सूत्र १३४ ।
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१० अरिहंत-शब्द दर्शन
जन्म, प्रव्रज्या और केवलज्ञान में उद्योतादि होना और निर्वाण के समय अंधकार होने का उल्लेख है।
कल्पसूत्र में इसका स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार हैचइस्सामि त्ति जाणइ, चइमाणे न जाणइ, चुए मि ति जाणइ।"
भगवान महावीर के चरित्र में अवधिज्ञान के कारण गर्भ में माता के भावों को समझने का और “जब तक मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक मैं मुण्डित होकर गृहवास का त्याग कर प्रव्रज्या स्वीकार नहीं करूँगा" ऐसा अभिग्रह-संकल्प करने का । उल्लेख भी मिलता है।३
स्थानांग सूत्र, ज्ञातासूत्र और कल्पसूत्र में कथित उपरोक्त उल्लेखों में प्रति स्थान पर तीर्थंकर की जगह अरहा, अरहंत और अरिहंत शब्द का प्रयोग हुआ है। दूसरी एक यह भी बात है कि देवागमनादि उद्योत, अंधकार आदि अरिहंत के अतिरिक्त अन्य किसी पूज्य पुरुष के किसी प्रसंगों में होने का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है।
पूजा के अर्थ में सिर्फ देवों द्वारा पूजे जाने के बल पर इस व्याख्या को महत्व नहीं दिया गया है परन्तु अरिहंत सम्पूर्ण सृष्टि के मंगलमय पूज्य तत्व हैं। इनसे धर्म की उत्पत्ति, परमार्थ की परिणति और मोक्ष की निष्पत्ति उद्घाटित होती है।
किसी भी स्थिति को प्राप्त कर लेना निजस्थिति से सम्बन्धित है, परन्तु स्वयं प्राप्त करके साथ में प्राप्त करने योग्य आत्मा में योग्यता प्रकट कर परमार्थ का निमित्त बन जाना एक विशेष अवस्था मानी जाती है।
कर्मबन्ध या कर्मक्षय रूप मोक्ष प्राप्ति में प्रत्येक जीव स्वतंत्र है। निमित्त कारण उपादान कारण के आगे गौण इसलिये है कि जहाँ उपादान विशुद्ध नहीं होता वहाँ निमित्तजन्य अभिव्यक्ति सफल नहीं हो पाती है। उपादान की विशुद्धि के लिये कर्मबन्ध के कारण और निवारण रूप उपाय जानने आवश्यक हैं अन्यथा वह जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट नहीं सकता।
परमाराध्य अरिहंत मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। यह मार्गदर्शन इनकी सर्वोपरि विशिष्टता है। इसी कारण वे तीर्थ की स्थापना करते हैं, प्रवचन करते हैं और पूजे जाते हैं।
प्राकृत भाषा में मूलतः दो शब्द हैं अरह और अरहंत। इसका विस्तार रूप है अरह, अरिह, अरुह और अरहंत, अरिहंत, अरुहंत। कोशकार के अनुसार इनके विभिन्न अर्थ इस प्रकार हैं१. कप्पसुत्तं-सूत्र ३ २. कप्पसुत्तं-सूत्र ८८ ३. कप्पसुत्तं-सूत्र ९१
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अरिहंत का तत्व-बोध ११ अरह । -अर्हत्-पूजा के योग्य, पूज्य अरह -अरहस् प्रकट-जिनसे कुछ भी न छिपा हो। अरह -अरथ-परिग्रह से रहित। अरिह -योग्य होना, पूजा करना। अरुह -जन्म रहित, मुक्त आत्मा। . अरुह -पूजा के योग्य, पूज्य। अरहंत -अरहोन्तर-सर्वज्ञ-सब कुछ जानने वाला।
अरहंत -अरथान्त-निस्पृह, निर्मम। • अरहंत -अरहयत्-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ने वाला। . अरिहंत -रिपु-विनाशकं।
अरुहंत -अरोहत्-नहीं उगता हुआ, जन्म नहीं लेता हुआ। संस्कृत भाषा के अनुसार अरिहंत शब्द की व्युत्पत्ति
अर्ह धातु ‘स्तुस्यकर्ता और योग्य होना दो अर्थ में प्रयुक्त होती है। इस धातु को "सुगद्विषार्ह सत्रि-शत्रु-स्तुत्ये" सूत्र से अतृश् प्रत्यय, अनुबन्ध लोप हुआ और व्यञ्जनाद-दन्ते से "न्त" का आदेश हुआ “उच्चाहति" सूत्र से संयुक्त व्यंजन "ई" के पूर्व में स्थित हलन्त व्यंजन "र" में क्रमशः विकल्प से "उ-अ और इ" का आगम होता है और अरुहंत, अरहंत और अरिहंत ये तीन रूप बनते हैं।
इन तीनों रूपों में कुछ विभिन्नता दर्शित होती है किन्तु वस्तुतः इनके मौलिक अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। केवल नियुक्ति पद्धति के अनुसार जो अर्थ-वैविध्य होता है वह इस प्रकार हैअरिहंत शब्द के तीन रूप
अरहंत-अरहंत-अर्थ वैविध्य की दृष्टि से शब्द वैषम्य में अन्तर पाया जाता है परन्तु स्वरूप से सब कुछ समान है। धात्वर्थ की दृष्टि से शब्द प्रयोग में अरहंत शब्द उपयुक्त रहा है। . कल्पसूत्र में अरह शब्द की व्याख्या में रह शब्द को महत्व देते हुए रह का अर्थ रहस्य करके प्रकट अप्रकट सर्व रहस्यों के ज्ञाता अरहंत ऐसा अर्थ किया गया है। अर्थात् परमात्मा से कोई भी रहस्य अज्ञात नहीं है। अरहंत शब्द की प्रस्तुत व्याख्या में सर्वज्ञत्व की विशेष विलक्षणता बताई गई है।
- आवश्यक नियुक्ति में योग्य होने के अर्थ में “अरहंति" शब्द दिया है। यहाँ योग्यता के तीन अर्थ अभीष्ट हैं__१-वन्दन नमस्कार के योग्य
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............................ १२ अरिहंत-शब्द दर्शन २-पूजा-सत्कार के योग्य और ३-सिद्धिगमन के योग्य।
इसमें अर्ह धातु के योग्यता अर्थ को प्रधानता देकर इन तीनों प्रकार की योग्यता से समर्थ अरहंत ऐसा अर्थ किया है।
इन्हीं अर्थों को विशेष रूप में विज्ञापित करते हुए मूलाचार में नमस्कार के योग्य, लोक में उत्तम, देवों द्वारा पूजा के योग्य और तीसरा कर्मरूप रज एवं शत्रु का हनन करने वाले अरिहंत ऐसा अर्थ किया है।" वृत्तिकार ने "रजहंता" शब्द से ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय रूप कर्मरज का नाश करने वाले और “अरिहंति" शब्द का मोह और अंतराय रूप शत्रु का हनन करने वाले अरहंत कहलाते हैं, ऐसा अर्थ किया है।
स्थानांग सूत्र की टीका में भी योग्यता अर्थ को ही प्रधानता दी है और योग्यता में भी अष्ट महाप्रतिहार्य विशिष्टता को महत्त्व देते हुए कहा है-“उत्कृष्ट भक्ति के लिए तत्पर, सुरों और असुरों के समूह द्वारा विशेष रूप से रचित, जन्मांतर रूप महा आलवाल (क्यारी) में उपार्जित और निर्दोष वासना-भावनारूप जल द्वारा सिंचित पुण्यरूप महावृक्ष के कल्याण फल सदृश अशोकवृक्षादि अष्ट महाप्रतिहार्य रूप. पूजा के योग्य और सर्व रागादि शत्रुओं के सर्वथा क्षय से मुक्ति मंदिर के शिखर परं आरूढ़ होने के योग्य को अरहंत कहा जाता है।
भगवती सूत्र में वृत्तिकार इसके तीन अर्थ इस प्रकार करते हैं- .
“अरहोन्तर'' से अरहन्त-रहः याने एकान्तरूप गुप्त प्रदेश और अन्तर याने पर्वत की गुफा आदि का मध्यभाग। जगत् में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सर्वज्ञ भगवान् से गुप्त हो अर्थात् रहस्य तथा अन्तर न होने से अरहोन्तर अरहंत हैं। __दूसरा अर्थ “अरथान्त'' से अरहंत कहा है-रथ शब्दं का यहाँ उपलक्षण से “सर्व प्रकार का परिग्रह" ऐसा अर्थ समझना। अंत अर्थात् विनाश तथा उपलक्षण से जन्म-जरादि समझना। रथ अर्थात् सर्व प्रकार के परिग्रह का अंत करने वाले और जन्म-जरा-मृत्यु यह सब जिन्हें नहीं हैं वे अरथान्त-अरहंत हैं। १. अरिहंति वंदण नमसणाणि. अरिहंति पजासक्कारं ।
सिद्धिगमणं च अरिहा, अरहंता तेण वुच्चंति ।-गा. ९२१ २. मूलाचार-वृत्तिसहित -गा. ५०५ ।।
अर्हन्ति अशोकाद्यष्टप्रकारां परमभक्तिपरसुरासुरविसरविरचितां जन्मान्तरमहालवालविरूढानवद्यवासनाजलाभिषिक्तपुण्यमहातरुकल्याणफलकल्पां महाप्रातिहार्यरूपां पूजा निखिलप्रतिपन्थिपक्षयात् सिद्धिसौधशिखरारोहणं चेत्यर्हन्तः। -अ. ४, उ. १, पत्र ११६
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अरिहंत का तत्व - बोध १३
तीसरा अर्थ करते हुए कहा है-रह् धातु देने के ( त्याग के ) अर्थ से सम्बन्धित है। प्रकृष्ट राग तथा द्वेष के कारणभूत अनुक्रम से मनोहर और अमनोहर विषयों का संपर्क होने पर भी वीतरागत्व को, जो स्वयं का स्वभाव है, त्याग नहीं करने वाले अरहंत।
उपरोक्त अर्थ प्रतिपादन में दर्शित विभिन्नता - शब्द-सादृश्य या अर्थ-वैषम्य के कारण है।
अरिहन्त
अष्ट प्रकार के कर्मरूप शत्रु को मथित कर देने से, नाश करने से, दलने से, पीलने से, भगाने से अथवा पराजित करने से परमात्मा अरिहंत कहलाते हैं, अर्थात् अष्ट प्रकार के कर्मरूप शत्रुओं का नाश करने वाले अरिहंत होते हैं । '
दूसरा अर्थ करते हुए नियुक्तिकार ने शत्रु अर्थ में न केवल कर्मों को ही प्रधानता दी है, परन्तु उपलक्षण से इन्द्रियविषय, कषाय, परीषह, वेदना, उपसर्गादि सर्व आभ्यतंर शत्रु भी ग्रहण किये हैं और उनका नाश करने वाले अरिहंत ऐसा अर्थ किया है। कर्मों का नाश करने से इन्द्रियविषयादि का नाश तो सहज ही समझा जा सकता है, उसके स्वतंत्र निर्देशन की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि जिनके कर्मों का नाश हुआ माना जाता है उनमें इन्द्रियविषयादि कैसे पाये जा सकते हैं ? परन्तु निर्युक्तिकार अपनी पद्धति के अनुसार अरिहंत शब्द की व्याख्या में इतना विशेष कहते हैं । २
इससे आगे की गाथा में नियुक्तिकार " अरिहंत" शब्द की व्याख्या में तीनों स्वरूपों को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-सुर, असुर, मनुष्यादि द्वारा की जाने वाली पूजा के अरिहा - योग्य, शत्रुओं का नाश करने वाले तथा कर्मरूप रज अर्थात् मैल का नाश करने वाले अरिहंत होते हैं । ३
उपरोक्त तीनों व्याख्याओं में अरिहा - योग्यता अर्थ को प्रस्तुत करने वाली व्याख्या ही अधिक अर्थसंगत प्रतीत होती है, क्योंकि अष्ट प्रकार के कर्मों का क्षय तो सिद्धों के होता है, अरिहंत तो चार घातिकर्मों का क्षय किये हुए होते हैं। इन्द्रियविषय में, 'शातावेदनीय का उदय होने से वेदनादि का नाश भी उपयुक्त नहीं है।
षट्खंडागम के मंगलाचरण में " णमो अरिहंताणं" शब्द की वृत्ति में धवला टीकाकार "अरिहंत” शब्द के चार अर्थ प्रस्तुत करते हैं।
अरिहननादरिहन्ता–‘‘अरि" अर्थात् शत्रुओं के " हननाद् " अर्थात् नाश करने वाले। यहाँ पर "अरि" शब्द का विश्लेषण करते हुए मोह को शत्रु माना है। केवल
१. श्री महानिशीथ सूत्र ।
२. आवश्यक निर्युक्ति-गा. ९१९
३. आवश्यक निर्युक्ति-गा. ९२२
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१४ अरिहंत-शब्द दर्शन मोह को शत्रु मान लेने पर शेष कर्मों के व्यापार की निष्फलता मानने की शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है
समस्त कर्म मोह के अधीन हैं। मोह के बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं। जिससे कि वे भी अपने कार्य में स्वतन्त्र समझे जायें। इसलिये सच्चा अरि मोह ही है और शेष कर्म उसके अधीन हैं।
मोह का नाश हो जाने पर भी कितने ही काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है इसलिए उनको मोह के अधीन कैसे माना जाय?
इस शंका का समाधान करते हुए कहा है मोह-रूप अरि के नष्ट हो जाने पर जन्म-मरण की परंपरा रूप संसार के उत्पादन का सामर्थ्य शेष कर्मों में नहीं रहने से.. उन कर्मों का सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता है; तथा केवलज्ञानादि संपूर्ण आत्म-गुणों के आविर्भाव को रोकने में समर्थ कारण होने से भी मोह प्रधान शत्रु है। इस प्रकार । यहाँ अरि से शत्रु और शत्रु का नाश करने वाले अरिहंत कहलाते हैं,ऐसा अर्थ हुआ। '
दूसरे अर्थ में "रजोहननाद्वा अरिहंता" ऐसा अर्थ किया है। रज का अर्थ यहाँ आवरण कर्म रूप ज्ञानावरण एवं दर्शनावरण किया है। ये कर्म रज अर्थात् धूलि की. तरह बाह्य और अंतरंग समस्त त्रिकाल के विषयभूत अनन्त अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय वस्तुओं को विषय करने वाले बोध और 'दर्शन के प्रतिबन्धक होने से रज कहलाते हैं। मोह को भी रज कहते हैं। ___ मोहनीय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के ही विनाश का उपदेश देने का कारण समझाते हुए कहा है-शेष सभी कर्मों का विनाश इन तीन कर्मों के विनाश का अविनाभावी है। अर्थात् इन तीन कर्मों का नाश हो जाने पर शेष कर्मों का नाश अवश्य हो जाता है।
तीसरा अर्थ करते हुए कहा है-रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता। रहस्यमन्तरायः-रह से रहस्य और रहस्य से अन्तराय अर्थ को यहाँ अभीष्ट माना है। वस्तुतः यह व्याख्या 'अरहंत" शब्द की हो सकती है "रहस्याभावात्" से “अरहत" ऐसा शब्दसमायोजन ठीक है; परन्तु यहाँ पर रहस्य का अभाव है जिनको वे 'अरिहंत" ऐसी व्युत्पत्ति दी है। ___ अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन घाति-कर्मों के नाश का अविनाभावी है। अन्तराय कर्म का नाश होने पर अघाति कर्म भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं। इस प्रकार यहाँ अन्तराय कर्म का नाश करने वाले अरिहंत ऐसा अर्थ होता है। ___अरिहंत शब्द का चौथा अर्थ करते हुए कहा है-अतिशयपूजार्हत्वाद्वार्हन्तः । स्वर्गावतरण-जन्माभिषेक-परिनिष्कमण-केवलज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाणेषु देवकृतानां पूजानां देवासुरमानवप्राप्तपूजाभ्योऽधिकत्वादतिशयानामर्हत्वाद्योग्यत्वादर्हन्तः।यहाँ पर स्थानांग १. षट्खण्डागम-धवला टीका-मंगलाचरण, पृष्ठ १
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अरिहंत का तत्व-बोध १५
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सूत्र की तरह पाँचों कल्याणक पर्यों पर देव, दानव एवं मानव द्वारा पूजा रूप अतिशय के योग्य अरिहंत ऐसा अर्थ कर योग्यत्ना अर्थ की प्रधानता प्रस्तुत की गई है।
इन अर्थों का सम्पूर्ण तारतम्य “अरहंत" “अरिहंत" दोनों अर्थ का तात्पर्य प्रस्तुत करना है। रह से रहस्य, रज आदि से अरहंत और अरि से अरिहंत शब्द, शब्द का अर्थ-विन्यास प्रस्तुत किया गया है। उपचार से बीज-नाश की बात कर अरुहंत शब्द का अर्थ भी गर्भित हो जाता है। अरुहंत.
अरुहंत शब्द का विन्यास "अ + रुहंत" और "अरु + हंत" ऐसे दो प्रकार से होता है। प्रथम विन्यास "अ" अभाव अर्थ का द्योतक है और “अरुहंत" शब्द “रुह" धातु “रुह" शब्द से बना है। - रुह जन्यवाचक धातु है, क्योंकि जनक कारण-वाचक शब्द योनि, ज, रुह्, जन्मन्, भू, सृति आदि शब्दों को “अन्" प्रत्यय लगाने से वे जन्यवाचक शब्द बनते हैं। अतः पुनः जो जन्म धारण नहीं करते हैं, पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं, और संसार के कारणरूप कर्मों का निर्मूल नाश करते हैं वे "अरुहंत" कहलाते हैं। महनिशीथ सूत्र में प्रस्तुत शब्द विन्यास को भावार्थ के साथ घटाते हुए कहा है-असेस कम्मक्खएणं निद्दड्ढभवांकुरत्ताओ न पुणहे भवंति जम्मति उववज्जति वा अरुहंता-समग्र कर्मरूप अंकुर के जल जाने से, क्षय हो जाने से जो संसार में पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं ये अरुहंत कहलाते हैं। तत्त्वार्थ कारिका में कहा है. दग्धे बीजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः।
कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ॥१ __ जिस प्रकार बीज के जल जाने से अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार कर्म रूपी बीज के जल जाने से भव (जन्म-जन्मांतर) रूप अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। - दूसरा विन्यास है-अरु + हंत। अरुष-स् शब्द घाव अर्थ में प्रयुक्त होता है। यहाँ उपलक्षण से पीड़ादि के हेतुभूत रोग और उनके कारणभूत कर्मादि का नाश करने वाले अरुहंत ऐसा अर्थ होता है। “अरुहंताणं" का एक संस्कृतरूप “अरुन्धद्भ्यः" भी किया गया है। अरुन्धद्भ्यः शब्द से आवरण के अभाव के कारण उनका अवरोध नहीं होता है, अतः वे अरुन्धद् (अरुहंत) कहलाते हैं।
अरहंत शब्द की प्राचीनता ____ अरहंत, अरिहंत और अरुहंत-इन तीनों शब्दों के स्वरूप में अन्तर है परन्तु तात्पर्यार्थ तीनों का एक है। “अरहंत" शब्द सर्वाधिक प्राचीन रहा है। १. . भगवती सूत्र-मंगलाचरण-वृत्ति
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१६ अरिहंत-शब्द दर्शन
आगम
आचारांगसूत्र में श्रमण भगवान् महावीर के लिये प्रयुक्त विशेषणों में “अरहं"१ शब्द मिलता है। सूत्रकृतांग सूत्र में जिनधर्म हेतु “धम्म अरहंताभासियरे -शब्द का प्रयोग किया है। स्थानांग सूत्र में देवोद्योत, लोकोद्योत, लोकान्धकार आदि प्रसंगों में . तीर्थंकर के विशेष कल्याणपर्यों के अतिशय वर्णन में “अरहंत"३ शब्द का ही प्रयोग हुआ है। समवायांग सूत्र में अरहतो", अरहा५, अरहओ६, और अरहता" शब्दों का उपयोग हुआ है। भगवती सूत्र के मंगलाचरण में नमस्कार महामंत्र है और इसके प्रथम पद में “णमो अरहंताणं" दिया गया है। नायाधम्मकहा में तीर्थकरत्व प्राप्ति के उपायों का कथन करते हुए प्रथम उपाय में “अरहंत सिद्ध"८ शब्द का प्रयोग हुआ है। राजप्रश्नीय सूत्र में महावीर स्तुति के प्रकरण में अरहंताणं शब्द का प्रयोग हुआ है। कल्पसूत्र में भगवान् महावीर के विशद वर्णन के बाद पार्श्वनाथादि जिनेश्वरों के लिए अरहा शब्द का प्रयोग किया गया है। जैन शिलालेखों में अरहंत ___ कलिंग के चेदी राजवंश के महामेघवाहन मूल के तृतीय सम्राट खारवेल ( ईसा पूर्व प्रथम शती; एक अन्य मत, जिसकी शुद्धता की संभावना कम है, के अनुसार . ईसा-पूर्व दूसरी शती) के हाथी-गुफा (भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि पहाड़ी की गुफाओं में से एक) के शिलालेख में मौर्यकाल के १६५वें वर्ष के शिलालेख में "नमो अरहंतानं" लिखा है।
उदयगिरि : वैकुंठ-गुफा, मौर्यकालीन प्रायः १६५३ वर्षीय एक प्राप्त शिलालेख में 'अरहन्तपसादनं' शब्द का प्रयोग किया है।
प्रथम या द्वितीय ईसवी पूर्व (क्यूरर) पभोसा (इलाहाबाद के पास) में सम्राट आसादसेन द्वारा अंकित शिलालेख में ‘वश्शपीयानं अरह' शब्द का प्रयोग हुआ है।
१. श्रुत. २, अ. १५ २. अ. ६, गा. २९ ३. अ. ३, उ. १, सू. १३४, पत्र ११६-सटीक ४. सम. १६, पत्र ६२/१ ५. सम. ३५, पत्र-१२९; सम. ५४-पत्र १४७; सम. ६३-पत्र १५१/१; सम. ७०-पत्र
१६३/१, सम. ७१-पत्र १६४ ६. सम. ३७ पत्र १३२; सम. ५० पत्र १४३; सम. ५५ पत्र १४८/१; सम. ५६, पत्र ____१४९; सम. ५७, पत्र-१५५/१; सम, ६६-पत्र १५८; सम. ६८, पत्र १६१। ७. सम. ६८-पत्र १६१ ८. अध्य. ८, पत्र १२८. सटीक ९. मलयगिरिकृत वृत्ति सहित पत्र-३९
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अरिहंत का तत्व-बोध १७ . महाक्षत्रप शोडाश के ४२वें वर्ष के आर्यावर्त स्थापना की स्मृति हेतु अंकित मथुरा के शिलालेख में “नमो अरहतो वर्धमानस' लिखा है।
मथुरा लैणशोमिका नाम्नी एक उपासिका द्वारा मथुरा में अंकित एक प्राकृत शिलालेख में “नमो अरहतो वर्धमानस' लिखा है, आगे जैन मंदिर हेतु "अरहतायतन" और "अरहतपूजाये" लिखा है।
लगभग १४-१३ ई. स. पूर्व के गौतीपुत्र की पत्नी कौशिक कुलोद्भूत शिवमिज्ञा द्वारा मथुरा में अंकित शिलालेख में “(न) मो अरहतो वर्धमानस्य" लिखा है।
मथुरा १४-१३ ई. स. पूर्व के गौतीपुत्र इन्द्रपाल द्वारा अंकित एक शिलालेख में "अरहतपूजा" शब्द का प्रयोग हुआ है।
हस्तलिखित पत्र (बलहस्तिनी) श्रमणोपासिका द्वारा मथुरा में अंकित शिलालेख में “अरहंतानं" लिखा है।
फगुयश की पत्नी शिघयशा द्वारा जिन-पूजा हेतु निर्मित आयागपट्ट पर अंकित मथुरा के शिलालेख में “नमो अरहंतानं" लिखा है।
मथुरा निवासी लवाड पली द्वारा अंकित मथुरा के शिलालेख में “नमो अरहतो" लिखा है। ___ मथुरा में हैरण्यक देवकी पुत्री हेतु निर्मित महावीर की प्रतिमा के नीचे “नमो अर्हतो महावीरस्य सं. ९0 ३(व). "इस प्रकार अंकित किया है।
मथुरा में वासुदेव.सं. ९८ से आर्यक्षम के नाम से निर्मित शिलालेख में "नमो अरहतो महावीरस्य" लिखा है। ... सिंहनादिक द्वारा मथुरा में अंकित शिलालेख में “नमो अरहतान" लिखा है। - शिवघोष की भार्या द्वारा अंकित शिलालेख में "नमो अरहताना" लिखा है।
भद्रनंदी (भद्रनन्दिन्) की पत्नी अचला द्वारा स्थापित मथुरा आयागपट्ट पर अंकित लेख में “नमो अरहतानं" लिखा है। . सिनविषु (विष्णुषेण) की बहन के दान-स्मृति रूप मथुरा के एक शिलालेख में "अरहतानं" लिखा है। . मथुरा के १५ भग्न शिलालेख में "(सि) द्ध नमो अरहताणं" लिखा है।
मथुरा में सं. २९९ के अंकित शिलालेख में “अरहन्तांना" लिखा है।
देवगिरि (जिला धारवाड) के संस्कृत के लेख में अरिहंत स्तुति रूप एक सुन्दर श्लोक दिया है :
जयत्यहस्त्रिलोकेशः सर्वभूतहिते रतः। . रागाधरिहरोनन्तोनन्तज्ञानदृगीश्वरः॥
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१८ अरिहंत-शब्द दर्शन
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शक. ४११ ई. ४८८ में अल्तेम (जिला कोल्हापुर) की संस्कृत पत्रावली में ज्ययत्यनन्तसंसार पारावारैकसेतवः । महावीरार्हतः पूताश्चरणाम्बुजरेणवः ॥ इस प्रकार का श्लोक उपलब्ध होता है। आगमेतर साहित्य __ आगमेतर जैन साहित्य में यत्र-तत्र कई स्थलों पर अरहंत शब्द का विशेषाधिक प्रयोग हुआ है
ललितविस्तरा में परमात्मस्तुति पाठ की व्याख्या में “अरहंत" शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रोकृतकाव्य कुवलयमाला में परमात्मा की स्तुति में कहते हैं
एस करेमि पणामं अरहंताणं विशुद्ध-कम्माणं । सव्वातिसय-समग्गा अरहंता मंगलं मज्ज ॥ अरहंत-णमोकारो जई कीरइ भावओ इह जणेणं । तो होइ सिद्धिमग्गो भवे-भवे बोहि-लाभाए ॥ अरहंतणमोकारो तम्हा चिंतेमि सव्वभावेण ।
दुक्ख-सहस्स-विमोक्खं अह मोक्ख जेण पावेमि ॥ "चउपनमहापुरिसचरियं" में जैन मंदिर के लिए "अरहंतासणव"१ शब्द का प्रयोग किया गया है।
इस प्रकार "अरहंत" शब्द का प्रयोग आगम एवं अन्य साहित्यों में प्रचुर रूप से प्रयुक्त हुआ है। यह “अरिहंत" शब्द कब, कैसे और किस प्रकार विश्रुत हुआ इसका कोई अता-पता नहीं है।
अर्हत् शब्द पर से ही आर्हत धर्म नाम प्रसिद्ध है। जैनेतर साहित्य-ऋग्वेद में, उपनिषद् में, बौद्ध-साहित्य में भी अर्हन् शब्द का प्रयोग हुआ है।
अरिहंत को आराध्य मानकर भी उन्हें विशेषण मानना असंगत एवं निरर्थक है। संपूर्ण जैन साहित्य में देववंदन भाष्य के अतिरिक्त अन्य स्थलों पर अरिहंत को विशेष्य ही माने गये हैं - १. अर्हतामेव विशेष्यत्वान्त दोषः । - आवश्यक हरिभद्रीय टीका
____ आगमोदय समिति सूरत-पत्र-५०१ २. अर्हतामेव विशेष्यत्वान्त दोषः। - ललितविस्तरा-रतलाम-पू. ४४ ३. लोगस्सुज्जेयगरा, एवं तु - चेइयवंदण महाभास-गा. ५५१, पृ. ९२ विसेसणंतेसिं
आत्मानंद जैन सभा-भावनगर
१. पृष्ठ १८९
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अरिहंत का तत्व-बोध १९ ४. अरिहंते इति विशेष्यपदम् योगशास्त्र स्योपज्ञ विवरण-पत्र २२४
जैन धर्म प्रचारक सभा, भावनगर ५. अरिहंते इति विशेष्यपदम् वंदारु वृत्ति-पृ. ४0 ऋषभदेव
केशरीमल श्वे. संस्था, रतलाम। ६. अर्हतः कीर्तयिस्ये, कथंभूतानर्हतः आचार दिनकर-भाग-२ पत्र-२६७
- खरतर ग्रंथमाला ७. अरहते इति विशेष्यपदम् धर्म संग्रह-भा. १, पत्र-१५५ देवचंद
लालभाई जैन, पुस्तक-संस्था सूरत विशेष्य से यहाँ मतलब है-इन विविध विशेषताओं के योग्य, पंचपरमेष्ठी पद के प्रथम अधिष्ठाता और नमस्कार महामंत्र में प्रथम “नमो अरिहंताणं" पद के वाच्याधिकारी परमाराध्य।
भारतीय दर्शन में अरिहंत शब्द की दार्शनिकता
ईश्वर शब्द की व्याख्या एवं व्यापकता
शब्द की ऐतिहासिक धारणा पर विचार करने से ज्ञात होता है कि वैदिक दर्शन के यौवनकाल में ईश्वर शब्द एक विशेष अर्थ में रूढ़ था। उस समय जगत् कर्तृत्व आदि विविध शक्तियों की धारक महाशक्ति को ही ईश्वर के नाम से व्यवहृत किया जाता था, किन्तु अन्तिम कुछ शताब्दियों से ईश्वर का उच्चारण करते ही मनुष्य को सामान्य रूप से परमात्मा का बोध होता है। आज ईश्वर शब्द का उच्चारण करने पर जगत्निर्माता, भाग्यविधाता, कर्मफलदाता तथा अवतार-रूप शक्ति-विशेष का बोध नहीं होता है। ईश्वर एक है, सर्वव्यापक है, नित्य है आदि बातों का भी आज ईश्वर शब्द परिचायक नहीं रहा है। आज तो ईश्वर शब्द सीधा परमात्मा का निर्देश करता है, फिर चाहे कोई इसे किसी भी रूप में स्वीकार करता हो। ईश्वर शब्द सामान्य रूप से परमात्मा का निर्देशक होने से आज सर्वप्रिय बन गया है। आत्मवादी सभी दर्शन ईश्वर को आदरास्पद स्वीकार करते हैं। __ आज ईश्वर, परमात्मा, सिद्ध, बुद्ध, खुदा आदि सभी शब्द समानार्थक समझे जाते हैं। सैद्धान्तिक और साम्प्रदायिक दृष्टि से इन शब्दों के पीछे किसी का कोई भी पारिभाषिक अभिमत रहा हो, किन्तु जन साधारण इन समस्त शब्दों से परमात्मा का ही बोध प्राप्त करते हैं। जैन दर्शन और ईश्वर शब्द ___ अनन्त आत्माओं में ईश्वर के अस्तित्व की प्रतिष्ठा मानने वाले जैन दर्शन के लिये "जैन दर्शन ईश्वरवादी नहीं है" ऐसा कहना भ्रान्त धारणा है। जैन दर्शन ईश्वर
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२० अरिहंत-शब्द दर्शन कर्तृत्ववादी नहीं है; परंतु ईश्वरवादी अवश्य है। जैन दर्शन के अनुसार अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तआनंद यह प्रत्येक मुक्त आत्मा का स्वरूप और ऐश्वर्य है। अनन्तता में सीमाओं का तारतम्य या तुलना नहीं होती। जहाँ स्वरूप-रमणता आ जाती है वहाँ अस्तित्व का दायरा अनन्त बन जाता है, उनकी अवस्था भी अनन्तमयी हो जाती है और उनका स्वरूप भी अनन्तमय होता है। यह अनन्तता अन्तिम है। सामूहिक अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति जैन दर्शन के अनन्त ईश्वर की परिभाषा
समान विकासशील मुक्तदशा का स्वीकार प्रत्येक अस्तित्व की सत्ता का स्वीकार है। आत्म साधक की साध्यदशा ईश्वर है। अतः ईश्वर की सत्ता का स्वीकार, हमारा अपना स्वीकार है। हमारी अनन्त आत्मस्थिति का स्वीकार है और अनन्त मुक्त पात्माओं की सहज स्वभावदशा का स्वीकार है।
- जैन दर्शन में ईश्वर के लिए-अर्हन्, भगवन्, परमात्मन्, जिन, तीर्थंकर,. पुरुषोत्तम, वीतराग आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। ईश्वररूप माने जाने वाले परमात्मा के दो प्रकार हैं-अरिहंत परमात्मा और सिद्ध परमात्मा। स्वरूप की दृष्टि से दोनों के आन्तरिक स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। अरिहंत साकार परमात्मा माने जाते हैं। सर्व कर्म क्षय कर मोक्ष में जाने पर वे निराकार स्थिति को प्राप्त करते हैं; उन्हें निराकार सिद्ध परमात्मा कहते हैं।
व्यक्ति की अपेक्षा से परमात्मा एक नहीं है, अनन्त जीव परमात्मपद प्राप्त कर चुके हैं। संसार में सभी प्राणी कर्मबद्ध हो भिन्न-भिन्न पर्यायों एवं जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इनमें से जो भेद-ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं,वे प्रबल पुरुषार्थ द्वारा परमात्म पद प्राप्त करते हैं। ऐसा प्रयल जो भी जीव करते हैं, वे सर्व इस स्थिति को प्राप्त करने में सफल रहते हैं। जैन दर्शन का यह वज्र आघोष है कि "प्रत्येक व्यक्ति साधना के आलंबन से अपना आत्मिक विकास कर परमात्म स्थिति को प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक आत्मा को सका सर्वाधिकार है।"
परमात्मा एक जीव की अपेक्षा से सादि अनन्त है। अनादिकाल से अनेक आत्मा प्रयास करके सफलता पा चुके हैं और अनन्तकाल तक अनेकों इस स्थिति को प्राप्त करते रहेंगे।
साकार परमात्मा भी आयुष्य की निश्चित स्थिति पूर्ण कर निर्वाण प्राप्त कर निराकार परमात्मपद को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार जो निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं उनका फिर संसार में आवागमन मिट जाता है। उनका पुनः जन्म धारण कर जगत् के संचालन में प्रवृत्तिमान् होना या संसार में पापवृद्धि के कारण पुनः अवतार लेकर सांसारिक आयोजन में प्रवृत्त होना जैन दर्शन को बिलकुल अमान्य है।
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अरिहंत का तत्व-बोध २१
परमात्मा आत्मप्रदेशों की अपेक्षा से सर्व व्यापक नहीं है। उनके आत्मप्रदेश सीमित क्षेत्र में अवस्थित हैं। किन्तु उनके ज्ञान में सारा संसार झलकता है। इस दृष्टि (ज्ञानदृष्टि) से वे सर्व व्यापक भी कहलाते हैं। __जैन दर्शन के अनुसार परमात्मा ज्ञानस्वरूप है, सत्यस्वरूप है, आनंदस्वरूप है, सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है। परमात्मा का दृश्य या अंदृश्य जगत् में प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई हस्तक्षेप नहीं है। वह जगत् का निर्माता नहीं है, भाग्य का विधाता नहीं है, कर्म-फल का प्रदाता नहीं है, तथा अवतार लेकर संसार में पुनः आता नहीं है। __जीव जो कर्म करता है, उसका फल जीव को स्वतः ही मिल जाता है। आत्मप्रदेशों से सम्बन्धित शुभाशुभ कर्म ही कर्ता हैं, जो जीव को स्वयं अपना फल देते हैं। जैसे मदिरासेवी व्यक्ति पर मदिरा स्वयं ही अपना प्रभाव डाल देती है, वैसे ही कर्म-परमाणु जीव को स्वतः ही अपने प्रभाव से प्रभावित करते हैं। परमात्मा का फलयोग के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है। कर्मफल पाने के लिए जीव को परमात्मा के द्वार नहीं खटखटाने पड़ते हैं। जीव सर्वथा स्वतंत्र है, वह स्वयं कर्ता और स्वयं भोक्ता है।
जैन दर्शन की मान्यता है कि जीव स्वयं अपने भाग्य का विधाता है, कर्मों का नियन्ता है, प्रत्येक होने वाली. घटना का निर्माता है और उनके कर्मफल परिणामों का उपभोक्ता है। अपनी जीवन नौका का स्वयं ही तारक-वारक एवं निवारक है, और नैया डुबोने वाला भी घही है। इसमें परमात्मा का कोई हाथ नहीं है।
उल्लिखित विवेचन से ऐसा न समझना चाहिये कि जीवों को परमात्मा से कोई मतलब ही नहीं रह जाता है, अतः वे आराध्यरूप उतने नहीं माने जाते होंगे, जितने अन्य दर्शनों में उनके परमात्मा माने जाते हैं। जैनों के परमात्मा परमाराध्य रूप में सर्वमान्य हैं। निष्काम आराधना के लिए यहाँ मात्र उपदेश ही नहीं है, परंतु निष्काम आराधना का मौलिक एवं वास्तविक नमूना भी जैन दर्शन ने प्रस्तुत किया है। यदि अज्ञानवश कोई साधक सकाम भक्ति करता है और परमात्मा उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसका फल प्रदान नहीं करता, फिर भी आराधक की कामना उसके शुभ अध्यवसाय से पूर्ण हो जाती है। यहाँ पर प्रश्न होता है कि यदि हमारी आराधना से आराध्य को कोई मतलब नहीं है तो आराधना का प्रयोजन क्या है? उसका समाधान यही है कि आराध्य को आराधना से मतलब नहीं है परंतु आराधक का आराध्य से तो सम्बन्ध है। अंजन नहीं चाहता कि मैं सेवन करने वाले के नेत्रों की ज्योति बढ़ाऊँ, फिर भी उसके सेवन से दृष्टि बढ़ जाती है। इसी प्रकार परमात्मा का आराधक अपनी प्रबल शुभ भावना के कारण आराधना का फल स्वतः प्राप्त कर लेता है।
जैन दर्शन उतारवादी है। उतारवाद का अर्थ है मानव का विकारी जीवन से ऊपर उठकर अविकारी जीवन तक पहुंच जाना, पुनः कदापि विकारों से लिप्त नहीं
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२२ अरिहंत-शब्द दर्शन होना। तात्पर्य यह है कि साकार परमात्मा विशुद्ध परमाणु पुंज वाले हैं तथा हम (आराधक) कर्म युक्त अशुद्ध परमाणु वाले हैं। अतः परमात्मा वीतराग से परम अनुराग कर उनकी परम विशुद्धि की स्तुति एवं चिन्तन करने से स्वयं की अशुद्धियों की पहचान होने लगती है और इनसे (अशुद्धियों से) धीरे-धीरे यह आत्मा अलग होता हुआ एक दिन स्वयं परमात्मा बन जाता है। विशुद्धि का ध्यान किये बिना अशुद्धियों का ख्याल नहीं आता है। परमाराध्य परम विशुद्धि वाले होने से उनका ध्यान किये बिना आत्मा परमात्मा नहीं बन सकता है। ___ इस प्रकार जैन दर्शन में अरिहंत परमात्मा को जगत् कर्ता या सर्वनियन्ता नहीं माना जाता है। परन्तु साधक आत्मा परमाराध्य की आराधना करके स्वयं अपनी .. अशुद्धियों को समझकर दूर करता है, और आराधना से उत्पन्न पुण्य-प्रभाव से इप्सित प्राप्त करता है। वैदिक-परम्परा में ईश्वर शब्द
ईश्वर शब्द वैदिक दर्शन का अपना एक पारिभाषिक शब्द है। वैदिक दर्शन के अनुसार उस महाशक्ति का नाम ईश्वर है, जो इस जगत् की निर्मात्री है, एक है, सर्वव्यापक और नित्य है। वैदिक दर्शन का विश्वास है कि संसार के कार्यक्रम को चलाने की बागडोर ईश्वर के हाथ में है, संसार के समस्त स्पन्दन उसी की प्रेरणा से हो रहे हैं।
वैदिक दर्शन कहता है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वह जो चाहे कर सकता है। कर्तव्य को अकर्तव्य और अकर्तव्य को कर्तव्य बना देना उसके बाएं हाथ का काम है। सारा संसार उसकी इच्छा का खेल है, उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी कम्पित नहीं हो सकता है। संसार का उत्थान और पतन उसी के इशारे पर हो रहा है। __ वैदिक दर्शन की मान्यता है कि अज्ञ होने के कारण जीव अपने सुख और दुःख का भोक्ता स्वयं नहीं है। इसका स्वर्ग-नरक जाना ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है। इसी भाव को लेकर कहा जाता है
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरः प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ मनुष्य कुछ नहीं कर सकता। उसे तो स्वयं को ईश्वर के हाथों में सौंप देना चाहिये, ईश्वर की कृपा ही उसकी बिगड़ी बना सकती है।
वैदिक दर्शन का कहना है कि भक्त भगवान की कितनी ही भक्ति कर ले, उपासना कर ले, कितना ही गुणानुवाद कर ले पर भक्त, भक्त रहेगा और भगवान, भगवान रहेगा। भक्ति, पूजा, जप, तप, त्याग, वैराग्य किसी भी प्रकार के अनुष्ठान या आराधन से भक्त भगवान नहीं बन सकता है। भगवान और भक्त के बीच में जो भेद-मूलक फौलादी दीवार खड़ी है, वह कभी समाप्त नहीं हो सकती है।
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अरिहंत का तत्व-बोध २३ । - इसके अलावा वैदिक दर्शन यह भी मानता है कि संसार में जब अधर्म बढ़ जाता है, धर्म की भावनाएं दुर्बल हो जाती हैं, पाप सर्वत्र अपना शासन जमा लेता है, तो पापियों का नाश करने के लिये तथा धर्म की स्थापना करने के लिये ईश्वर अवतार धारण करता है। मनुष्य, पशु आदि किसी न किसी रूप में जन्म लेता है। ___ गीता के अभिमतानुसार ईश्वर, अज और अनन्त होने पर भी अपनी अनन्तता को अपनी माया शक्ति से संकुचित कर शरीरं को धारण करता है। इनकी दृष्टि से ईश्वर तो मानव बन सकता है, किन्तु मानव कभी ईश्वर नहीं बन सकता है। इसी कारण योग्य अवसर पर ईश्वर मानव के रूप में अवतरित होता है, मानव शरीर से जन्म ले सकता है और उसके अवतार लेने का एक मात्र उद्देश्य होता है सृष्टि में चारों ओर जो अधर्म का अंधकार छाया हुआ होता है उसे नष्ट कर धर्म का प्रकाश करना, साधुओं का परित्राण करना, दुष्टों का नाश और धर्म की स्थापना करना। सांख्य-दर्शन . ___सांख्यमतवालों के अनुसार एक पूर्ण सत् (Being) है। सर्व-बन्धनों से मुक्त परमात्मा है। उसकी दृष्टि में कोई भी आत्मा परमात्मा नहीं बन सकता है। परमात्मा एक है, सत् है। वह जगत्कर्ता नहीं है। प्रकृति, जो अचेतन-प्रधान तत्व है, उसी से सृष्टि उत्पन्न होती है। योगदर्शन ___ योग दर्शन में ईश्वर के अधिष्ठान से प्रकृति का परिणाम जड़ जगत् का (विस्तार) माना है। यहाँ ईश्वर को परमपुरुष माना गया है, जो सभी जीवों के ऊपर .और सभी दोषों से रहित है। वह नित्य, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और परमात्मा है। संसार के सभी जीव अविद्या, अहंकार, वासना, रागद्वेष, अभिनिवेश और मृत्युभय आदि के कारण दुख पाते हैं। - उसकी मान्यता है कि पुरुष और प्रकृति के संयोग से संसार की सृष्टि होती है और दोनों के विच्छेद से प्रलय होता है। प्रकृति और पुरुष दो भिन्न-भिन्न तत्व हैं। दोनों का संयोग और वियोग स्वभावतः नहीं होता है। इसके लिए एक ऐसा निमित्त कारण मानना पड़ता है जो अनन्त बुद्धिमान हो और जीवों के अदृष्ट के अनुसार प्रकृति से पुरुष का संयोग या वियोग करा सके। जीवात्मा या पुरुष स्वयं अपना अदृष्ट नहीं जानता, इसलिए एक ऐसे सर्वज्ञ परमात्मा को मानना आवश्यक है, जो जीवों की आत्मोन्नति तथा मुक्ति के लिये अनुकूल हो। न्याय-दर्शन
इनके अनुसार अच्छे-बुरे कर्म के फल ईश्वर की प्रेरणा से मिलते हैं। ईश्वर जगत् का आदि सर्जक, पालक और संहारक है। वह शून्य से संसार की सृष्टि नहीं करता,
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२४ अरिहंत-शब्द दर्शन वरन् नित्य परमाणुओं, दिक्, काल, आकाश, मन तथा आत्माओं से उसकी सृष्टि करता है। वह संसार का पोषक भी है। उसकी इच्छानुसार संसार कायम रहता है। वह संसार का संहारक भी है। जब-जब धार्मिक प्रयोजनों की या संसार के संहार की आवश्यकता पड़ती है, तब-तब यह संसार में भी आता है। यद्यपि फल प्रदान हेतु ईश्वर को मनुष्य के पाप और पुण्य के अनुसार चलना पड़ता है, फिर भी वह सर्वशक्तिमान् है। मनुष्य अपने कर्मों का कर्ता तो है, लेकिन वह ईश्वर के द्वारा अपने अदृष्ट (अतीत कर्म) के अनुसार प्रेरित या प्रयोजित होकर कर्म करता है। इस प्रकार ईश्वर संसार के मनुष्यों एवं मनुष्येतर जीवों का कर्म-व्यवस्थापक है, उनके कर्म का. फलदाता है और सुख-दुख का निर्णायक है। वैशेषिक दर्शन
इसके अनुसार सृष्टि और संहार का. कर्ता महेश्वर है। उसकी इच्छा से संसार की सृष्टि होती है और उसी की इच्छा से प्रलय होता है। जब उसकी इच्छा हो, तब संसार बन जाता है। जिसमें सभी जीव अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुख का भोग कर सकें,
और जब उसकी इच्छा हो तब वह उस जाल को समेट लेता है। यह सृष्टि और प्रलय का प्रवाह अनादिकाल से चला आ रहा है। सृष्टि का अर्थ है, पुरातन क्रम का ध्वंस कर नवीन का निर्माण करना। जीवों के कर्म पूर्वकृत पुण्य और पाप को ध्यान में रखते हुए ईश्वर नव सृष्टि की रचना करता है। ब्रह्म या विश्वात्मा, जो.अनन्तज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य का भंडार है, ब्रह्माण्ड के चक्र को इस प्रकार घुमाता है कि पूर्वकृत धर्म और अधर्म के अनुसार जीव सुख-दुःख का उपभोग करते हैं।
सर्जनहार ईश्वर की कल्पना न्याय, वैशेषिक एवं वेदांत दर्शन में पायी जाती है। यह कल्पना चाहे कितनी भी महान हो फिर भी वह सन्तोषप्रद नहीं है। क्योंकि मनुष्यों को ईश्वर की सर्जनक्रिया के प्रति कई ऐसे प्रश्न उठा करते हैं जिनका योग्य समाधान इस कल्पना से नहीं होता है। यदि ईश्वर सृष्टि की उत्पत्ति करता है तो उसमें कोई हेतु या प्रयोजन होना ही चाहिये। अथवा स्वयं की कोई इच्छा तृप्त करने के लिये अथवा कोई वस्तु प्राप्त करने के लिये या स्वयं में रही हुई कोई अपूर्णता दूर करने के लिये ईश्वर सृष्टि का सर्जन करता होगा, ऐसा मानना पड़ेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर स्वयं पूर्ण नहीं, अपूर्ण है। इसीलिए सांख्य तत्वों ने सर्जनहार की कल्पना अमान्य रखी है। कुछ लोग ऐसा तर्क करते हैं कि ईश्वर सृष्टि उत्पन्न करता है, क्योंकि यह उसका स्वभाव है। अनेक ब्रह्माण्डों से वेष्टित रहने की ईश्वर की नित्यलीला ही सर्जन है। लगता है ईश्वर की पूर्णता का यह निष्फल बचाव है। क्योंकि यदि सृष्टि एक पूर्ण पुण्यात्मा की कृति है तो उसमें इतना संक्लेश, इतनी अपूर्णता और इतने अन्याय क्यों हैं? अपने द्वारा उत्पन्न प्राणियों को ही ईश्वर क्यों पीड़ा देता है?
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अरिहंत का तत्त्व बोध २५
ईश्वर के तीन रूप
सामान्य रूप से सभी दर्शन ईश्वर को मानते हैं, किन्तु सैद्धान्तिक और साम्प्रदायिक दृष्टि से ईश्वर-सम्बन्धी मान्यता में वे यत्किंचित् मतभेद रखते हैं, इसी मतभेद को लेकर ईश्वर के सम्बन्ध में तीन विचारधाराएं उत्पन्न हुई हैं। वे विचारधाराएं संक्षेप में इस प्रकार हैं :
(१) ईश्वर एक है, अनादि है, सर्वव्यापक है, सच्चिदानन्द है, घट-घट का ज्ञाता है, सर्वशक्तिमान है, जगत का निर्माता है, भाग्य का विधाता है, कर्मफल का प्रदाता है। संसार में जो कुछ होता है, वह सब ईश्वर के संकेत से होता है। ईश्वर पापियों का नाश करने के लिए तथा धार्मिक लोगों का उद्धार करने के लिए कभी न कभी किसी न किसी रूप में संसार में जन्म लेता है, वैकुण्ठ से नीचे उतरता है और अपनी लीला दिखाकर पुनः वैकुण्ठ धाम में जा विराजता है।
ईश्वर का यह एक रूप है जिसे आज हमारे सनातनधर्मी भाई मानते हैं। ईश्वर का दूसरा रूप इस प्रकार है
(२) ईश्वर एक है, अनादि है, सर्वव्यापक है, सच्चिदानन्द है, घट-घट का ज्ञाता है, सर्वशक्तिमान है, संसार का निर्माता है। जीव कर्म करने में स्वतंत्र है, उस में ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं है। जीव अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म करना चाहे कर सकता है, यह उसकी इच्छा की बात है। ईश्वर का उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है किन्तु जीवों को उनके कर्मों का फल ईश्वर देता है। अपनी लीला दिखाने के लिए, पापियों का नाश करने के लिए और धर्मियों का उद्धार करने के लिए ईश्वर अवतार धारण नहीं करता है-भगवान मनुष्य या पशु के रूप में जन्म नहीं लेता है।
ईश्वर का यह दूसरा रूप हुआ, जिसे आर्य समाज मानता है। ईश्वर का तीसरा रूप इस प्रकार है. (३) ईश्वर एक नहीं है, व्यक्तिशः अनेक है। अनादि नहीं है, अनन्त शक्तिमान् है, घट-घट का ज्ञाता है, द्रष्टा है, जगत् का निर्माता नहीं है, भाग्य का विधाता नहीं है, कर्मफल प्रदाता नहीं है, अवतार लेकर संसार में आता नहीं है। जीव कर्म करने में स्वतंत्र है, जीवकृत कर्म के साथ ईश्वर का प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई सम्बन्ध नहीं है। जीव की उन्नति या अवनति में ईश्वर का कोई हस्तक्षेप नहीं है। अहिंसा, संयम और तप की त्रिवेणी में विशुद्ध मनसा; वाचा और कर्मणा से गोते लगाने वाला व्यक्ति निष्कर्मता को प्राप्त करके ईश्वर बन जाता है। ईश्वर और जीव में केवल कर्म-गत् अन्तर है। कर्म की दीवार जब हट जाती है तब जीव में और ईश्वर में स्वरूपकृत कोई अन्तर नहीं रह जाता है, जीव ईश्वर स्वरूप ही बन जाता है। यह ईश्वर का तीसरा रूप है, जिसे जैन स्वीकार करते हैं।
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२६ अरिहंत-शब्द दर्शन
जैन-दर्शन और अन्य दर्शनों की ईश्वर सम्बन्धी मान्यता में इतना ही अन्तर है कि अन्य दर्शन ईश्वर को जगत् के पहले रखते हैं और जैन दर्शन ईश्वर को जगत् के अन्त में रखता है। अन्य दर्शनों का मानना है कि परमात्मा दुनिया को बनाते हैं। जैन दर्शन कहता है-परमात्मा जगत् को पार कर जाते हैं। जैन दर्शन के अनुसार परमात्मा कारण नहीं, परिणाम है। बीज नहीं जिससे सब पैदा होवें पर वे फूल हैं जो स्वयं खिलते हैं, खुलते हैं, प्रकट होते हैं और अन्य को खिलाते हैं, प्रगट करते हैं।
सर्व दर्शनों की ईश्वर सम्बन्धी विविध मान्यताओं से सम्बंधित समस्त प्रश्नों को. जैन दर्शन की परमात्मा सम्बन्धी निम्नोक्त मान्यता से पूर्ण समाधान मिल सकता है। . १. किसी भी प्राणी या जीव के अस्तित्व को एक तथ्य के रूप में स्वीकार करना
चाहिये। २. प्रत्येक जीवात्मा में आनंद है, ज्ञान, दर्शन, बल, वीर्य, पुरुषार्थ आदि गुणों .
की सत्ता है। ३. आत्मा स्वयं ही स्वयं के कर्म द्वारा स्वयं का सर्जनहार है, स्वयं ही ईश्वर है। ४. जीव जब कर्म-बन्धन से मुक्त होता है, तब वह अनंत ज्ञान, अनन्त दर्शन,
__ अनन्त वीर्य एवं अनन्त आनन्द प्राप्त कर सकता है। .... ५. आत्मा और परमात्मा में कर्म के अतिरिक्त और कोई अन्तर नहीं है। कर्म का
अन्तर हट जाने पर कोई भी जीव परमात्मा बन सकता है। . ६. एक बार. परमात्म स्थिति प्राप्त कर लेने पर जीव पुनः कभी संसार में नहीं
आता है।
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खण्ड
सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
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अध्याय २
अरिहंत की आवश्यकता : वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में
१. हम कैसे चलें-ईर्यासमिति
हृदय रोग की निवृत्ति • मस्तिष्क को आराम
रीढ़ की हड्डी का संतुलन हमारी सुरक्षा ..
अन्य प्राणियों की रक्षा २: हम कैसे खायें-एषणा समिति
आहार चर्या । संतुलित आहार-पाचन तंत्र
वृत्ति संक्षय-रस परित्याग-स्वादग्रंथि . ३. आवर्त-आवर्तन और परिवर्तन
. नमन-वन्दना और प्रदक्षिणा ४. कायोत्सर्ग
विधि और लाभ ५. आभामंडल ६. समुद्घात ७. कषाय-विजय
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अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में
अरिहंत की आवश्यकता प्रत्येक युग की आवश्यकताओं की पूर्ति है। युगों के बदलने पर भी यह पूर्ति प्रतिसमय स्फूर्ति और चुस्ती को वर्धमान करती है। हमारे दैनिक जीवन की जैविक प्रक्रियायें हमारे जीवन का आधार हैं। युग कितने ही बदलें परंतु मनुष्य की खाना-पीना-सोना-चलना आदि प्रत्येक युग की आवश्यकताएँ हैं। जीने के लिये ये जरूरी हैं। इन सारी क्रियाओं को हम हमारी निज संज्ञा से प्रेरित होकर करते हैं। फिर भी व्यवस्थितता के लिए यह प्रक्रिया प्रारम्भ में हमें माता सिखाती है। • संज्ञाकीय वृत्ति के अनुसार चलना प्रत्येक जीव जानते हैं परन्तु साधक दशा में आने पर कम से कम ऊर्जा के द्वारा अधिक से अधिक बल प्राप्त करना होता है। अरिहंत परमात्मा एक चलती-फिरती प्रयोगशाला हैं। किसी प्रयोगशाला (Laboratory) में जाकर प्रयोग न कर वे स्वयं का ही अध्ययन कर स्वाध्याय (Experiment) के द्वारा इसे सिद्ध करते हैं। इस अध्ययन और उसके प्रयोग तथा परिणाम के द्वारा उन्होंने सृष्टि को मूल्यात्मक तथ्यों की अभिव्यक्ति दी; जिसे सिद्ध करने के लिए विज्ञान को प्रयोगशाला में वर्षों लगे फिर भी वे अभिव्यक्तियाँ अपूर्ण और असम्पन्न रहीं। . __ अरिहंत हमारी माता है। उन्होंने साधक को सबकुछ सिखाया। खाना-पीना-उठनाबैठना-सोना-चलना आदि-आदि। वह भी इस तरीके से कि हम कम ऊर्जा लगाकर अधिक से अधिक बल प्राप्त कर सकें। Minimum effort and maximum result यह अरिहंत की Theory है। . जिसे हमने सिर्फ परम्परा मानकर मात्र आज कुछ ही व्यक्ति, सम्प्रदाय या ग्रंथों तक सीमित रखा; उसे युग ने चुनौती दी, विज्ञान ने प्रवृत्ति दी और एक मौन परिणाम सृष्टि का तथ्य बन गया। अनुभव शून्य सृष्टि में पूर्णत्व के प्रयोग पारिणामिक रूप बन गये। आइये ! अब हम अरिहंत के जीवन एवं सिद्धान्त की प्रयोगशाला में पहुंचे जहाँ प्रवृत्तिमय स्थिरता के सिद्धान्त की theory प्राप्त हो सकती है।
हम कैसे चलें ?
१. ईर्यासमिति
ईर्या याने गमनागमन। गमनागमन तो प्रत्येक जीव करते हैं; परन्तु जो विवेक, विधान और व्यवस्था के द्वारा चलते हैं उस विधि को ईर्यासमिति कहा जाता है।
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३२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
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ईर्या-विधान
द्रव्य से-आँखों से देखकर चलें। क्षेत्र से-युग मात्र याने ३१/, हाथ भूमि को आगे देखकर चलें। काल से-जब तक दिखे तब तक चलें। भाव से-गमन में दत्तचित्त होकर चलें।
गमनागमन के सम्पन्न होने पर प्रथम ईर्यापथिक कायोत्सर्ग करे। ईर्या विधान की वैज्ञानिकता
अरिहंत परमात्मा द्वारा प्रस्तुत प्रथम विधान प्रत्येक युग की निःसन्देह प्रवृत्ति कैसे . है, यह देखे। युग कितने ही बदल जायँ पर प्रस्तुत विधान से साधक की कितनी सुरक्षा होती है यह अब आज के युग का संशोधन समझाता है। इस सामान्य विधि में असामान्य प्रभाव रहा हुआ है। ___ मनुष्य की आँख कैमरे की तरह होती है। जैसे कैमरा अपने सामने वाली चीज .. का प्रतिबिंब ग्रहण करता है। इसकी बनावट बाहर से लंबगोल और भीतर से गोलाकार होती है। मध्यभाग जो थोड़ा उभरा हुआ होता है उसे कार्निया (Cornea)
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RETINA
TILL
TILITTIm
IRIS
LENS.
TTTTTTI
PUPIL
VITREOUS HUMOUR
CORNEA
INDILLI..
AQUEOUS HUMOUR
OPTIC NERVE
RUTTILLL
UNILD
LONDIA
कहा जाता है। इस काले भाग में एक छोटा-सा गोल बिन्दु दिखाई देता है जिसे तारा (Pupil) या पुतली कहा जाता है। इसी से प्रकाश आँख के भीतर प्रवेश करता है।
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अरिहंत की आवश्यकता वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ३३ इसके पीछे एक लेन्स होता है जिसे convex lens कहते हैं। इसके पिछले भाग में एक पर्दा होता है जिसे रेटीना (Retina) कहा जाता है। इस रेटिना का सम्बन्ध प्रकाश नाड़ी (Optic Nerve) द्वारा मस्तिष्क से होता है। आँख में दो तरह के द्रव्य-पदार्थ हैं। लेन्स और रेटिना के बीच में Vitreous Humour नाम का द्रव्य है, पुतली और लैन्स के बीच में Aqueous Humour नाम का द्रव्य है। __ वस्तु की प्रकाश किरणें कोर्निया पर पड़ने पर उल्टा प्रतिबिम्ब बनाती हैं। यह प्रतिबिम्ब प्रकाश नाड़ी द्वारा विद्युत धारा के रूप में मस्तिष्क तक पहुँचता है। वहाँ यह सीधा हो जाता है और वस्तु हमें दिखाई देने लगती है। किसी भी वस्तु का प्रतिबिम्ब
।
।
आँख के सामने से हटाने के बाद भी १/१६ सेकण्ड तक आँखों के पर्दे पर रहता है। यदि दो घटनाएँ १/१६ से पहले गुजरती हैं तो वे हमें क्रमबद्ध दिखाई देती हैं। सिनेमा के दृश्यों को इसी कारण १६ चित्र प्रति सेकण्ड के हिसाब से दिखाया जाता है। अतः कोई भी दृश्य हमें लगातार चलता हुआ दिखता है। परमात्मा द्वारा प्रस्तुत विधान के अनुसार साढ़े तीन हाथ जगह आगे देखने से १/१६ सेकण्ड ही हम उस जगह का पैरों से स्पर्श करते हैं अतः हम हमारी सुरक्षा और अन्य जीवों की रक्षा में सफल रह सकते हैं। __ इन आँखों के दृष्टि अक्ष (visual axes) बदलते रहने से कोई भी एक वस्तु एक आँख से भी एक और दो आँखों से भी एक ही दिखाई देती है। ____ शरीर में आँखें दो हैं। एक आँख से भी वस्तु हमें एक ही दिखाई देती है और दोनों आँखों से भी एक ही। इसका कारण है कि आँखों के दृष्टि-अक्ष (visual axes) बदलते रहते हैं और दोनों आँखों से देखते समय मस्तिष्क रेटिना पर बने हुए वस्तु के प्रतिबिम्बों को मिलाकर एक कर देता है। इस प्रकार आँखों का पदार्थ और मस्तिष्क के साथ बराबर संपर्क बना रहता है।
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३४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
एक आँख बन्द करके देखें तो दूर की वस्तुएँ लगभग उतनी ही स्पष्ट दिखाई देती हैं जितनी कि दोनों आँखों से दिखाई देती हैं। लेकिन एक आँख को बन्द करके पास की वस्तुओं को देखने में काफी अंतर आ जाता है। बाँयी आँख बन्द करने पर बाँयी
ओर की वस्तुएँ और दाँयी आँख बन्द करने पर दाँयी ओर की वस्तुएँ दिखाई नहीं देतीं। दूरी का सही-सही बोध हमें दोनों आँखों की सहायता से होता है। एक आँख से देखने पर हमें वस्तुओं के दो आयामों (Dimensions) का ही आभास हो पाता है लेकिन दोनों आँखों से देखने पर वस्तु की लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई तीनों का ही . ज्ञान प्राप्त हो जाता है। दोनों आँखों से देखने पर वस्तु के ठोसपन (Solidity) और . गहराई (Depth) का ज्ञान प्राप्त होता है। साथ ही पैर की एड़ियों की अपेक्षा अगले . हिस्से पर शरीर का वजन पड़ता है, अतः हृदय रोग की संभावना नहीं होती है।
देखने की यह स्थिति समझने के बाद हमें प्रभु के सिद्धांत में दिये गये नाप से . इसकी गहराई पानी है। युगमात्र का मतलब होता है-व्यक्ति के अपने शरीर से साढ़े : तीन हाथ की दूरी। हमारे कदम से हम उतनी दूर नजर डालते हुए चलें। इससे कम या अधिक देखने से खतरा है अतः इतना ही नाप दिया गया। साधक कभी. तीव्रगति से . नहीं चलता है जैसे कि आचारांगादि सूत्रों में कहा गया है। ... ___सामान्यगति (Normal speed) में इतनी दूरी पर देखने से नजर, प्राणी, पदार्थ
और कदम का Adjustment हो सकता है। इससे अधिक फासले में नजर अस्पष्ट रहती है और गति के अनुसार उस प्राणी या पदार्थ तक पहुँचे कदम मस्तिष्क सूचना से परे हो जाते हैं। इससे कम फासले पर नजर रहने से नजर का फैलाव कम होगा, पलकों को अधिक झुकना पड़ेगा और ऐसा होने से आसपास के वातावरण से सम्बन्ध टूट जाएगा। कदम और गति के तालमेल की अस्तव्यस्तता से प्राणी या पदार्थ से जहाँ बचना जरूरी हो वहाँ नहीं बचा जाएगा। गर्दन अधिक झुकेगी, अधिक समय तक दो या तीन हाथ अथवा इससे कुछ कम या अधिक अंतर पर नजर फेंकने से झुकी गर्दन के कारण रीढ़ की हड्डियों पर जोर पड़ने से वे संवेदनशील, अस्तव्यस्त या disorder हो जाती हैं। साढ़े तीन हाथ के फासले में गर्दन न तो आगे की ओर अधिक झुकती है, न पीछे की ओर अधिक झुकती है। गर्दन को जरूरत से अधिक झुकाकर बिना देखकर चलने से इसका असर मस्तिष्क पर पड़ता है। मस्तिष्क के अस्तव्यस्त होने से उसकी लयबद्धता टूट जाती है।
मस्तिष्क हमारे शरीर का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, यह केन्द्रीय नाड़ी संस्थान का एक हिस्सा है। यह कोशिकाओं से बना हुआ है। हमारे मस्तिष्क में लगभग दस अरब कोशिकाएँ हैं। मस्तिष्क द्वारा ही सोना, उठना, बैठना, चलना, खाना, पीना, पचाना, तापमान को समान रखना, देखना, सुनना आदि समस्त क्रियाएँ नियंत्रित होती हैं।
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अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ३५
BRAIN CENTRES OF
MOVEMENT FEELING
SPEECH
VISION
HEARING
मस्तिष्क के तीन हिस्से होते हैं१. सेरिब्रम (Cerebrum)
यह मस्तिष्क का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। यह खोपड़ी के पीछे के हिस्से में ऊपरी सतह पर स्थित है। यह दो गोलार्डों में बंटा होता है। इसकी सतह पर बहुत से घुमाव · और झुर्रियां होती हैं। यह सतह ग्रे मेटर (Gray Matter) से बनी होती है। इस सतह के नीचे White Matter होता है जो बहुत से तंतुओं से मिलकर बनता है। यह हिस्सा सभी ऐच्छिक क्रियाओं पर नियंत्रण करता है जैसे-देखना, सुनना, चलना आदि। २. सेरीबेलम (Cerebellum) - खोपड़ी के नीचे का हिस्सा सेरीबेलम कहलाता है। यह हिस्सा सेरिब्रम के नीचे स्थित होता है, यह शरीर का संतुलन रखता है और मांसपेशियों में समन्वय स्थापित करता है। यह चलते समय हमारे पैरों को संतुलन और.बल प्रदान करने का महत्वपूर्ण काम करता है। इसी कारण मस्तिष्क के इस भाग में चोट लगने से आदमी चल-फिर नहीं सकता है। ३. मेडूला ओबलोंगटा (Medulla Oblongata) ___ यह अंगूठे के उपरी भाग के बराबर होता है। यह रीढ़ की हड्डी के ऊपरी सिरे में स्थित है। सांस लेने की और दिल की धड़कन को यह हिस्सा नियंत्रित करता है। यहीं
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३६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम से नाड़ी तंतु रीढ़ की हड्डी को जाते हैं। ये तंतु चलते समय होने वाली तकलीफों की सूचना मस्तिष्क के इस हिस्से को भेजते हैं तब इस हिस्से में समाहित अन्य तंतु पैर को उठा लेने की सूचना भेजते हैं। __इस प्रकार विधिपूर्वक चलने की प्रक्रिया का हमारे मस्तिष्क पर भी असर होता
- कितना वैज्ञानिक है ईर्यासमिति का विधान। हमारी अपनी सुरक्षा के साथ सृष्टि के अन्य प्राणी की सुरक्षा। अभय पूर्ण आँखों से भयरहित नजर का गौरव भरा नजारा।
अब देखो ईर्यापथिक कायोत्सर्ग का विधान। श्रमण चाहे कोई भी प्रवृत्ति करें पर . उसके अन्त में उसे ईर्यापथिक का कायोत्सर्ग जरूर करना होता है। कई बार प्रश्न होता है ऐसा क्यों?
किसी भी प्रवृत्ति को विधिपूर्वक करने से उससे सम्बन्धित अन्य प्राणियों की सुरक्षा का भी ध्यान रखना जरूरी है। फिर भी कई बार विराधना या अशातना हो ही जाय तो निवर्तना के लिए इस कायोत्सर्ग का विधान है।
ईर्यापथिक सूत्र सब जीवों के प्रति स्नेह, सुरक्षा एवं सामंजस्यपूर्ण विचारधारा का मंगलमय सूत्र है। जब साधक इस सूत्र द्वारा सद्भावना पूर्ण व्यवहार से कायोत्सर्ग करता है तब समस्त मांसपेशियाँ शिथिल होकर शांतिपूर्ण भावों से ऑक्सीजन का सम्पादन करती हैं। कार्य प्रवृत्ति की लीनता से और अन्य आत्माओं के साथ अविवेक से हुए दुर्भावनापूर्ण वातावरण से मांसपेशियों में संचित ग्लाइकोजन (Glycogen) जो फर्मेन्टेशन की क्रिया द्वारा लेक्टिक अम्ल (lactic acid) और फटीग टोक्सिन (fatigue toxin) में बदल गया है; वह पुनः ग्लाइकोजन में परिवर्तित हो जाता है। ग्लाइकोजन से मांसपेशियों को पुनः ऊर्जा मिलती है। थकी हुई कोशिकाओं को विश्राम मिलता है और नष्ट-सी कोशिकाएँ पुनः ठीक होने लगती हैं। इस प्रकार ईर्यापथिक कायोत्सर्ग एक जैविक प्रक्रिया है। मानवीय जीवन की सुरक्षा क्रिया (Defence Mechanism) है। २. आहार चर्या
आहार के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा गया है जिसे मुख्यतः चार बातों द्वारा पूर्णतः समझा जाता है
१-संतुलित आहार। २-खाने की वृत्ति को संक्षिप्त (छोटी) रखना। ३-रस रहित आहार करना और
४-आहार करते समय साधक (ग्रास को) बाँए जबड़े से दाहिने जबड़े में न ले जाए और दाहिने जबड़े से बाँएं जबड़े में न ले जाए।
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अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ३७ संतुलित आहार से मतलब है जिस व्यक्ति को जितनी आवश्यकता हो उतना ही आहार ग्रहण करे। आहार संज्ञा और आहार की आवश्यकता में बहुत अंतर है। आवश्यकता कम हो और संज्ञा तीव्र हो तब व्यक्ति आवश्यकता से अधिक आहार ग्रहण करता है। वर्तमान युग में कैलोरी चार्ट द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के शरीर की ऊँचाई
और वजन के अनुसार आहार का प्रमाण निश्चित किया जाता है। परमात्मा ने इसे ऊनोदरी तप के द्वारा नियंत्रित कर आवश्यकता से भी कम लेने से शरीर की सुनियंत्रण व्यवस्था और स्वस्थता का विधान प्रस्तुत किया है।
वृत्ति को संक्षिप्त रखना वृत्ति संक्षय है। वृत्ति को अनियंत्रित या व्यापक रखने से आहार संज्ञा उत्तेजित होती है। इसके उत्तेजित होने से खाने की व्यवस्था हमारा जैविक कार्य न होकर रसों को ग्रहण करने की और उत्तेजित करने की होती है। वृत्ति को व्यापक रखकर आहार प्रमाण संक्षिप्त नहीं हो सकता है।
रस परित्याग-रस में मूर्छा रखकर आहार ग्रहण करने के लिए आहार के पदार्थ की वास्तविक ऊर्जा की अपेक्षा उसमें रहे पदार्थ की रासायनिकता से अधिक महत्त्व दिया जाएगा।
इन बातों का रहस्य न समझने से यह कितनी अजीब शिक्षा लगती है कि क्या खाने-चबाने में भी कोई आदेश, आग्रह या आज्ञा आवश्यक है? विज्ञान के सामने यह बात आने पर उन्होंने सोचा अरिहंतों के कथन में कोई न कोई राज छिपा होता है। इसी बात को आधार बनाकर विज्ञान ने एक खोज संसार के सामने प्रस्तुत की; जो परमात्मा के प्रस्तुतं कथन की महत्वपूर्ण पुष्टि बन गयी। ___ मुँह के भीतर रही जीभ मांसपेशियों से बनी हुई होती है। इसकी रचना आगे की ओर पतली और पीछे की ओर चौड़ी तथा लाल रंग वाली होती है।
जीभ Tongue
Bitter इसकी ऊपरी सतह पर कोशिकाओं से बनी स्वादकलिकाएँ होती हैं जो कुछ दानेदार उभार रूप में दिखाई देती हैं। इनके ऊपरी सिरे से बाल के समान तन्तु निकले होते हैं।
। ये स्वाद-कलिकाएँ चार प्रकार की होती हैं। जिनके द्वारा हमें चार प्रकार के मुख्य स्वादों का पता चलता है। खट्टा (Sour), मीठा (Sweet), कडुवा (Bitter) और
Sweet नमकीन (Salt) | जीभ के आगे
Sour
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३८ संबंध-दर्शन-अरिहंत और हम
...................................... का भाग मीठे और खट्टे स्वाद का अनुभव करता है, पीछे का भाग कड़वे स्वाद का
और किनारे का भाग नमकीन स्वाद का अनुभव करता है। जीभ का मध्यभाग किसी भी प्रकार के स्वाद का अनुभव महीं करता।
बालक की अपेक्षा प्रौढ़ की जीभ पर अधिक स्वादकलिकाएँ होती हैं। एक प्रौढ़ की जीभ पर औसतः ३000 स्वादकलिकाएँ होती हैं। पेट की खराबी, कब्ज, बुखार, वृद्धावस्था आदि कारणों से ये स्वादकलिकाएँ शिथिल और निष्क्रिय होने लगती हैं।
मुँह की लार में घुला हुआ भोजन स्वादकलिकाओं को क्रियाशील करता है। इस रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा Nerve fibre (तन्त्रिका तन्तु) में Nerve impulses . (तन्त्रिका आवेग) पैदा हो जाते हैं। ये आवेग मस्तिष्क के स्वादकेन्द्र तक पहुँचकर .' स्वाद का अनुभव देने लगते हैं। ___ भोजन पचाने की क्रिया हमारे मुँह से शुरू होती है। जब हम इसे चबाते हैं तो मुँह . . की लार (Saliva) इसे गीला कर देती है। लार में टाइलिन (Ptylin) नामक पदार्थ होता है जो भोजन में उपस्थित मंड (Starch) को चीनी में बदल देता है। आपनें यह : अनुभव किया होगा कि अधिक चबाने पर पदार्थ का स्वाद मीठा हो जाता है। इसी कारण भोजन को अच्छी तरह चबा-चबाकर खाना चाहिए। चबाया हुआ लार युक्त पदार्थ पेट-आमाशय में पहुँचता है। यहाँ इसमें आमाशय रस मिलता है। इस रस में घुलकर पदार्थ छोटी आंत (Small intestine) में पहुँच जाता है। यहाँ पर इसमें तीन पाचक रस यकृत (Liver) से पित्तरस, अग्न्याशय रस (Pancreatic juice)
और आंत्ररस (Intestinal juice) मिल जाते हैं। इसमें से आंत्ररस इस चीनी को ग्लुकोज में बदल देता है।
ग्रास की Side बदलने का कारण भोजन के द्वारा अधिक स्वाद लेना है। यह प्रक्रिया दोनों ओर बदलती रहने से हम कम चबाकर अधिक स्वाद ले सकते हैं। परिणामतः भोजन की अनिवार्यता की अपेक्षा स्वाद ग्रहण की अनिवार्यता बढ़ती है
और उसकी पूर्ति के लिए हम बराबर ग्रासों की Side को बदलते रहते हैं। ऐसा करने से स्वादकलिकाएँ उत्तेजित हो जाती हैं। इस समय क्षमता से अधिक इन्हें क्रियाशील होना पड़ता है। इस activity में त्वरितता आने से चबाने की प्रक्रिया कम होती है और भोज्य पदार्थों में से मुख्य-मुख्य स्वादों के taste लेकर हम इसे अंदर उतार लेते हैं। पूरा न चबाने से मांड की चीनी में बदलने की क्रिया भी अधूरी रहती है। बिना चीनी बना पदार्थ आमाशय में पहुँचने पर आमाशय रस में भी नहीं घुलता और आगे बढ़कर छोटी आंतों के तीन रसों के मिलने में भी अस्तव्यस्तता हो जाती है।
दूसरी बात Taste sensitive cells जीभ के अग्रभाग और आसपास में हैं। ग्रास को मुँह में घुमाने से हम दाँतों के साथ जीभ को active रखते हैं। Action देती हुई जीभ सतत स्वादकलिकाओं को उत्तेजित कर उसे भोजन रस के स्वादों का सम्पर्क
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अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ३९ कराती है। इस समय टायलिन का भी अधिक उपयोग होता है। ऐसी स्थिति में हम खाते हैं चार रोटी पर ऊर्जा एक रोटी की मात्रा जितनी लगभग प्राप्त कर सकते हैं। इससे आहार का परिमाण बढ़ता है और खाने की वृत्ति भी व्यापक होती है। आवश्यकता से अधिक स्वाद के उत्तेजित होने से वे पदार्थ की ऊर्जा को कम करते हैं
और खाने की वृत्ति को अधिक तेज करते हैं। आप स्वयं इसका अनुभव करके भी देख सकते हैं। मीठे पदार्थों को इस प्रकार मुँह में घुमाकर स्वाद (taste) को उत्तेजित कर अधिक ग्रहण करने से राग और नमकीन पदार्थों से द्वेष भाव की वृद्धि होती है। विज्ञान के अनुसार मीठा पदार्थ भूख को कम करता है। कडुवा पदार्थ भूख बढ़ाता है। खट्टा स्वाद प्यास बुझाता है और नमक का स्वाद प्यास को भड़काता है। - जब कि अरिहंत द्वारा प्रस्तुत इस Theory के उपयोग से कम आहार में अधिक ऊर्जा सम्पादित होती है और आस्वादन कम लेने से रागद्वेष की वृद्धि भी कम होती
आवर्त-आवर्तन और परिवर्तन __ सृष्टि की प्रत्येक वस्तु निम्नतम ऊर्जा स्थिति (Minimum energy state) में रहना चाहती है। न्यूनतम ऊर्जा स्थिति में ही वस्तुओं में अधिकतम स्थिरता आती है। अतः अधिकतम स्थिरता के लिए वस्तु की ऊर्जा निम्नतम होनी चाहिये। व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में अधिक से अधिक प्रवृत्ति करता है। अधिक प्रवृत्ति से स्थिरता कम होती है। वह चाहता है उसे कोई ऐसा उपाय मिले जिससे अधिक प्रवृत्ति करने पर भी उसकी ऊर्जा बढ़ती रहे, कम न हो पावे। ___ अब हम देखेंगे कि अरिहंत ने हमें ऐसे कुछ तरीके बताये हैं कि जिससे हम स्थिरता, स्थिति और शक्ति को बढ़ा सकें। न्यूनतम ऊर्जा लगाकर अधिकतम बल प्राप्त कर सकें। . वर्तमान युग की एक बात से तो हम बहुत परिचित है कि गोलाकार वस्तुओं की सतह का क्षेत्रफल सबसे कम होता हैं और इसी कारण उनकी सतह की ऊर्जा निम्नतम होती है। इसी निम्नतम ऊर्जा या अधिकतम स्थिरता को प्राप्त करने के लिए वस्तुएँ गेंद जैसा-आकार धारण करने की कोशिश करती हैं। यही कारण है कि सूरज, चाँद, तारे, धरती और दूसरे सभी खगोलीय पिण्डों की बनावट गोल होती है।
पानी की बूंदें किसी भी तरीके से पैदा की जाएँ वे तुरन्त ही गोलाकार रूप में बदलने का प्रयास करती हैं। जल सरोवर में चाहे किसी भी आकार की चीज फैंकी जाय इसके आवर्त गोल ही होते हैं। अणु और परमाणु की बनावट भी गोलाकार है। परमाणुओं में उपस्थित इलेक्ट्रोन, प्रोटोन और न्यूट्रोन जैसे कण भी गोल हैं। यही कारण है कि बिजली की किसी भी चीज का मूल देखेंगे-उसकी मोटरें, व्हील या पंखे गोलाई में घूमकर अपना कार्य सम्पन्न करते हैं। घड़ी भी अपने गोल साधनों में और
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४० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम आकार में समय बताती है। अनाज पीसने की चक्की भी गोल होती है और रोटी भी गोल बेलने का रिवाज बनाया गया।
जैसे आँधी और तूफान होते हैं तब हवा गोल घेरे में तेजी से घूमती है। इस प्रकार के तूफानों को बंवडर (Tornado), चक्रवात (Cyclone) तथा हरीकेन (Hurricane) कहते हैं। ये आँधी १६० से ६४० कि.मी. (१00 से ४00 मील) व्यास के क्षेत्र को घेर लेती है और हवा १२० से २00 कि.मी. (७५ से १२५ मील) प्रति घंटे की रफ्तार से चलने लगती है। तेज गति के कारण हवा की गति चक्रदार (Whirling) हो जाती है। इस प्रकार गर्म हवा तेजी से उपर उठने लगती है। ईस्ट इन्डीज और चीन सागर के आसपास इनको टाइफून (Typhoon) कहा जाता है। . महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि यह जब गोलाई में हो जाता है तो केन्द्र इसका मूलस्थान हो जाता है। वह मूलस्थान ही इसका शक्ति केन्द्र है। इसको विस्तृत करने के लिए ही यह मूलस्थान से गोलाई में ऊठता है।
इन सारी बातों से इतना तो निश्चित हुआ कि गोलाई से ही कोई भी चीज : शक्ति को विस्तार का रूप दे सकती है। इसीलिये आचारांग में कहा है “जे गुणे से आवटे, जे आवटे से गुणे" जो विषय (इन्द्रियों के गुणधर्म) हैं वे आवर्त हैं और जो . आवर्त हैं वे विषय हैं। तथा “जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे"-जो विषय है वे (कषाय या संसार के) मूलस्थान है और जो मूलस्थान हैं वे विषय हैं। संसार के टाइफून का मूलस्थान कषाय है। इसी मूलस्थान से चलकर यह पूरे संसार का विस्तार करता है। अब हमें सोचना यह है कि इन वृत्तों से-गोलाइयों से चलने वाली वृत्तियों को कैसे मार्गानुसारिता का रूप दिया जाय।
अरिहंत ने यही चीज संसार को अध्यात्म के द्वारा प्रस्तुत की। खाने-पीने-सोनेचलने के ऐसे तरीके प्रस्तुत किये जिससे हम अन्य जीवों के साथ जीकर उन्हें समाधि दे सकें और स्वयं समाधान पा सकें। उन्होंने यही बताया कि वृत्तों को, गोलाइयों को समाप्त नहीं करना है पर उनकी गति बदलनी है। उनका यह Anti-cyclone system अध्यात्म का गौरव बन गया। जितनी इन्द्रियों की वृत्तियां हैं वे उत्तरावर्ती (Anti-clockwise) चलती हैं; उसे बदल दो, परिवर्तित कर दो और दक्षिणावर्त (Clockwise) चला दो। इन सिद्धांतों को केवलज्ञान से पूर्व अपने जीवन में प्रयोग का रूप देकर ये पूर्णत्व को प्राप्त करते हैं और केवलज्ञान प्राप्त कर स्वयं अशोकवृक्ष, चैत्यवृक्ष या सिंहासन की प्रदक्षिणा कर इसका प्रारंभरूप साधकों को प्रदान करते हैं। प्रदक्षिणा, देशना या विहारादि उनका सहज होता है, कर्तव्यरूप नहीं। ये किसी परंपरा का अनुसरण रूप नहीं है। यह तो उनके पुण्य की वास्तविक प्रभावना है।
प्रदक्षिणा देने से सृष्टि का उत्तरावर्ती वायु बदलकर दक्षिणावर्त हो जाता है और सारे दूषण-प्रदूषण समाप्त हो जाते हैं। अनुकूल वायु का विस्तार हो जाता है। प्रसन्नता
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का प्रसार हो जाता है। परमात्मा अल्फाकणों के सुपर प्लाट या Power House होते हैं। परमात्मा की पवित्र देह रश्मियों के रूप में ऊर्जान्वित ये अल्फाकण अनुकूल वायु के द्वारा योजनों तक फैलते हैं, परिणामतः परमात्मा के आस-पास योजनों विस्तार में मार, मरकी, इति, मारि, लड़ाई आदि दूषित प्रवृत्तियां नहीं होती हैं। इतना ही नहीं, उनके सान्निध्य में आने वाले जन्मजात वैरी भी एक दूसरे के स्नेही बन जाते हैं। जिसे हम अतिशय कहते हैं; परमात्मा के शुभ भावों का दक्षिणावर्त विस्तार ही तो है।
चैत्यवृक्ष और सिंहासन को प्रदक्षिणा देने के सम्बन्ध में प्रश्न यह है कि परमात्मा को समोसरण में चैत्यवृक्ष और सिंहासन को प्रदक्षिणा देने की क्या आवश्यकता है? जब कि वे न तो स्वयं में परिवर्तन करना चाहते हैं और न ही अन्य के परिवर्तन की इच्छा करते हैं। उनसे सहज ही सबकुछ होता रहता है। इसका समाधान यही है कि प्रभु के द्वारा प्रदक्षिणा देने से आसपास का करीब-करीब हजार योजन का वायु-मंडल परिशुद्ध हो जाता है। मार, मरकी, लड़ाई, झगड़ा, वैर, वैमनस्य समाप्त हो जाते हैं। यही तो कारण है कि समोसरण में आने वाले बिल्ली-चूहे या हरिण-शेर भी एक दूसरे के दुश्मन नहीं रहकर, मित्र बन जाते हैं। समवसरण में एक साथ बैठकर परमात्मा के पावन प्रवचनों का पान करते हैं। अल्फा कणों का विस्तार। रासायनिक परिवर्तन का सिद्धांत बन जाता है। आज भी विज्ञान इलेक्ट्रोनिक यंत्र द्वारा चहे और बिल्ली पर प्रयोग कर रासायनिक परिवर्तन करते हैं। इस प्रयोग से चूहे में बिल्ली की और बिल्ली में चूहे की वृत्ति प्रकट कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में बिल्ली शांत रहती है और चूहा बिल्ली के ऊपर आक्रमण करता है। प्रभु के विस्तृत अल्फा कण समस्त सृष्टि के प्राणी जगत का वैर समाप्त कर देते हैं। इसमें उनको कुछ करना नहीं होता लेकिन उनके परम औदारिक अनुपम देह से निकली हुई कैवल्य रश्मियों के वर्तुलाकार आभामंडल का यह प्रभाव है। ___ अध्यात्म मार्ग में नमस्कार मुद्रा, वंदना, प्रदक्षिणा आदि प्रक्रियाएँ वृत्त परिवर्तन द्वारा वृत्ति परिवर्तन के माध्यम हैं। इसी कारण वंदना से पूर्व दोनों हाथों को दक्षिणावर्त घुमाकर फिर पंचांग नमाने के विधान के पीछे महत्त्वपूर्ण कारण वृत्ति परिवर्तन भी रहा था। गुरु, परमात्मा या परम पुरुष के पास आने से पूर्व व्यक्ति में रही हुई दूषित वृत्तियाँ जो कि उत्तरावर्त होती हैं, उनमें परिवर्तन करने के लिए, उस पवित्र वातावरण में प्रवेश करने के पूर्व यह प्रक्रिया तीन बार दोहराई जाती है। ऐसा करने से दूषित वृत्तियां समाप्त होती हैं और पवित्र वातावरण की शुभ वृत्तियां सम्पादित होती हैं। आज भी तिक्खुत्तो के पाठ से “आयाहिणं-पयाहिणं" द्वारा वन्दना, नमस्कार का प्रस्तुत ध्येय परंपरा में काफी प्रचलित है।
अरिहंत परमात्मा द्वारा वृत्ति परिवर्तन का यह सिद्धांत उनकी अनोखी और अपूर्व देन है। यह आध्यात्मिक होने के साथ-साथ वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक भी मानी जाती
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४२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम है। पर्यायों (forms) के परिवर्तन की यह वैज्ञानिक प्रक्रिया (Scientific Process) कितनी वास्तविक है, इसे युग की चुनौती ने सिद्ध कर दिया। विज्ञान ने इसी सिद्धांत को वरदान के रूप में पाया और प्रगट किया। ४. कायोत्सर्ग मुद्रा
प्रभु की कायोत्सर्ग मुद्रा आपने कभी देखी है ? इस मुद्रा में पद्मासन में बैठकर बाँयी हथेली पर दाहिनी हथेली को गोलाई में घुमाकर नाभि से सटाकर रखा जाता है। आप जानते हो अरिहंत-परमात्मा ने क्यों इस मुद्रा को अपनाया ? इस तरह हथेलियों को ठीक गोलाई में रखने से नाभि के भीतर उठती तरंगों और हथेलियों की तरंगों में एक लयबद्धता आती है। हथेलियों के मुड़कर अर्द्ध गोलाई में बदल जाने से उठने वाली तरंगें मानसिक एकाग्रता बढ़ाती हैं; और वातावरण को शुद्ध बनाती हैं। समग्र तंत्र को स्थिरता, शांति और समाधि प्रदान करने में कायोत्सर्ग मुद्रा अतीव महत्वपूर्ण सहयोग . देती है। खड़े रहकर किये जाने वाले कायोत्सर्ग में पैरों को अंगुलियों के पास आठ अंगुल के फासले में और एड़ी के पास चार अंगुल के फासले में रखे जाते हैं। ___ दोनों पैरों के बीच में इस निश्चित फासले की नियमितता के बारे में भी विज्ञान ने खोज की और परमात्मा के इस वैधानिक रहस्यों को खोला। इस प्रकार खड़े रहने से हमारे शरीर का वजन पैर के अगले हिस्से पर अधिक रहता है। ऐसा होने से शरीर के संतुलन की समग्रता सुचारु एवं व्यवस्थित होती है। Strait ritress के अनुसार व्यक्ति की इस मुद्रा से वह हृदय रोग से बच सकता है। हृदय रोग के अधिकांश व्यक्ति अपने शरीर का वजन पैर के पिछले हिस्से यानी एड़ियों पर अधिक देते हैं। जब कि अगले हिस्से पर वजन आने से काफी शिकायतें अपने आप हल हो जाती हैं। वन्दना नमस्कार की मुद्रा में इन हिस्सों पर अधिक दबाव पड़ता है। .
मनोविज्ञान के अनुसार इस मुद्रा से हमारा अन्य पर प्रभाव पड़ता है परंतु हम पर अन्य का प्रभाव नहीं पड़ सकता है। साथ ही यह मुंद्रा मानसिक एकाग्रता बढ़ाने में भी सहायक सिद्ध होती है। ५. आभामंडल
प्रत्येक व्यक्ति के पीछे एक आभामंडल होता है और यह मंडल वृत्ताकार ही होता है। आभामंडल व्यक्ति की भावनाओं का समीकरण है। यह स्वयं प्रभावक भी है और प्रभावित भी है फिर भी Occult Science के अनुसार इसके दो प्रकार होते हैं- एक Halo और दूसरा Aura.. ____Halo यह महान व्यक्तियों के पीछे गोलाकार रूप में पीले रंग में चक्राकार रूप होता है। यह वर्तुलाकार मंडल अत्यंत तेजस्वी और प्रभावक होता है। केन्द्रस्थान से यह दक्षिणावर्त होता है।
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Aura सामान्य व्यक्तियों के पीछे उनकी भाव-धाराओं का बना हुआ वृत्ताकार मंडल है। यह प्रभावित भामंडल है अर्थात् इसमें भावों की प्रतिक्रियास्वरूप संक्रमण होता रहता है। व्यक्ति के अपने राग-द्वेष के अनुसार इसमें रहस्यमय परिवर्तन होते रहते हैं। जैसे कि-व्यक्ति के काम, क्रोध, अहं का प्रभाव होने पर वे दूसरों पर प्रकट होते हैं और दूसरों के ऐसे दूषणों का प्रभाव उस पर होता है। वह स्वयं भी इसका संयोजक बन जाता है। प्रतिक्रिया के द्वारा परिवर्तित होना Aura का अपना धर्म है। Aura उत्तरावर्त वृत्ताकार मंडल है। ___आध्यात्मिक क्षेत्र में वृत्ति के परिवर्तन के लिए वृत्त परिवर्तन का सिद्धांत प्रस्तुत किया जाता है। अध्यात्म क्षेत्र की इस महान खोज के पूरे रहस्य को पाने में वैज्ञानिक अवश्य प्रतिस्पर्धा करते रहे; परंतु अभी तक उनकी खोज जारी है। अध्यात्म ने इस खोज के रहस्य को खोलते हुए यह दर्शाया कि काम-क्रोध की वृत्ति को वृत्त बदलकर बदला जा सकता है।
व्यक्ति में जब काम, क्रोध, अहं की भावना उत्पन्न या प्रकट होती है तब उस व्यक्ति की भावधारा के आभावलय अधिक से अधिक उत्तरावर्त होते जाते हैं और जिस व्यक्ति के काम, क्रोध का सर्वथा नाश हो जाता है; उसकी भावधारा का प्रभावलय दक्षिणावर्त हो जाता है। यही कारण है कि तीर्थंकरों की नाभि एवं बाल भी दक्षिणावर्त होते हैं।
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अध्यात्म मार्ग व्यक्ति के काम, क्रोध और अहं को समाप्त करने के लिए होता है। इसकी पूर्णतः अभिव्यक्ति साधकों का विधान है। रहस्य को नहीं समझ पाने के कारण विधान कभी परंपरा बन जाते हैं और परंपरा व्यवहार या उपचार का स्वरूप बन जाते हैं। ६. समुद्घात
परमात्मा अरिहंत ने इस सृष्टि को Universal Physiogn का सिद्धांत प्रदान कर आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक तरीका प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि आत्म द्रव्य एक होता है पर उसकी पर्याय (Forms) अलग-अलग होती हैं। वैकल्पिक अवस्था में उठने वाली ये तरंगें; जो हम में उठती हैं न तो Ultimate (अंतिम) हैं और न ही Definite (निश्चित) भी हैं। यह नित्य परिवर्तनीय हैं। इसे शास्त्रों में समुद्घाती का नाम दिया गया है, और इसके सात प्रकार बताये हैं।
१. वेदना समुद्घात, . २. कषाय समुद्घात ३. मारणान्तिक समुद्घात, ४. वैक्रिय समुद्घात ५. तेजस् समुद्घात,
६. आहारक समुद्घात ७. केवलि समुद्घात।
समुद्घात की प्रक्रिया में आत्मप्रदेश शरीर से बाहर निकालकर फैलाये जाते हैं। इस समय ये मूल शरीर में रहकर तैजस और कार्मण रूप उत्तर देह के.साथ बाहर निकलते हैं। निर्जरा के आधार पर समुद्घात में कर्मों की स्थिति और अनुभाग का घात होता है। और दूसरे आधार पर ये अपनी तीव्रता के साथ गुणों का घात करते हैं। ___ इसमें आत्मप्रदेश और कर्मप्रदेश सम किये जाते हैं। उदाहरणतः वेदना भोगते समय वेदना क्षेत्र (स्थान) पर चेतना केन्द्रित होती है, चेतना के केन्द्रित होते ही ऊर्जा एकत्रित होने लगती है। यह ऊर्जा अपने बल से कर्म प्रदेशों को आत्मप्रदेशों के साथ सम करने का प्रयत्न करती है। परिणामतः हमारी समस्त चेतना उसमें लगकर वेदना भोगती है। प्रयोग के बल देखेंगे-पैर में दर्द होता है पर व्यक्ति कहता है मन लगता नहीं, खाना भाता नहीं
यह क्यों? इसलिये कि सम्पूर्ण चेतना वेदना के स्थान पर एकाग्र है। ___ इन आत्मप्रदेशों का निःसरण का समय और परिमाण याने विस्तार या मोटाई प्रत्येक समुद्घात में अलग-अलग होती है। जैसे स्त्री-पुरुष के शरीर में से निकलते वेदजनित परमाणु का समय ४८ मिनिट बताया। आज विज्ञान ने भी इसे इसी रूप में सिद्ध किया है कि जातीय परमाणु ४८ मिनिट तक उस-उस क्षेत्र या स्थान से संयोजित रहते हैं। १. प्रज्ञापना सूत्र-पद-३६वाँ
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अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ४५ ___ यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसे और दूसरी तरह से समझने का तरीका है कि व्यक्ति में दो तरह की ऊर्जाएँ होती. हैं-पदार्थ ऊर्जा और प्राण ऊर्जा। पदार्थ (Matter) की ऊर्जा की चर्चा की यहाँ आवश्यकता नहीं है परंतु प्राण ऊर्जा का संचालन साधना द्वारा परिवर्तन का सिद्धांत प्रस्तुत करता है। आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक तीनों सिद्धांत प्राण ऊर्जा के द्वारा अपने-अपने सिद्धांत को प्रायोगिक सफलता प्रदान करते हैं। ___ इसे समझने का सरल तरीका यह है कि प्रथम वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक के मूलभूत सिद्धांतों का स्पर्श कर अरिहंत द्वारा प्रदत्त आध्यात्मिक प्रक्रिया के द्वारा इसकी वास्तविकता और चेतसिक ऊर्जा के परिणामों को देखें। ... मूलभूत कण तीन होते हैं१. इलक्ट्रोन- जिन कणों पर ऋणात्मक आवेश होता है। २. प्रोटोन- जिन कणों पर धनात्मक आवेश होता है। ३. न्यूट्रोन- . जो कण आवेश रहित होते हैं। ___ हमारा तैजस शरीर बिजली का पावर हाउस है। इसमें बिजली का प्रवाह (Current) निरंतर प्रवाहित होकर अभिव्यक्त होता रहता है। सृष्टि में दो ध्रुव माने जाते हैं- .
१. उत्तरी ध्रुव और २. दक्षिणी ध्रुव। . इन दोनों ध्रुवों में बिजली का अटूट भण्डार है। वहां जाने पर ऐसा लगता है मानों सैंकड़ों सूर्य उदित हो चुके हों। मानो अन्धकार जैसी कोई चीज ही नहीं है। यहां उत्तरी ध्रुव में धन-विधुत है और दक्षिणी ध्रुव में ऋणविधुत है। ये दोनों विधुत जब आमने-सामने हों तो एक दूसरे में मिल जाती हैं। परंतु दो ऋणात्मक विधुत आपस में मिलें तो वहाँ प्रतिरोध होता है, टक्कर होती है। इसी प्रकार दो धनात्मक बिजली आमने-सामने आयें तो भी यही स्थिति बनती है। आपने पुरातन परंपरा से यह भी सुना होगा कि दक्षिण की ओर पैर करके नहीं सोना चाहिए। सोते समय पैर उत्तर में
और सिर दक्षिण में होने चाहिये। कुछ लोग इसे अंधविश्वास मानते थे। परंतु धीरे-धीरे लोगों का अनुभव बढ़ा और विज्ञान ने भी इसका अनुसंधान कर अब सिद्ध किया कि दक्षिण में पैर करके सोने से व्यक्ति को हृदय और मस्तिष्क की बीमारियाँ होती हैं।
यह सिर्फ मान लेने की बात नहीं है परंतु यह Practical Theory है। मनुष्य के शरीर में दो प्रकार की विद्युत हैं -१. पोजीटिव (धन विद्युत) और २. नेगेटिव (ऋण विधुत)। शरीर का उपर का जो भाग है-आँख, कान, नाक, सिर इन सब में धन विधुत है। नीचे का जो भाग है-पैर, जांघ आदि इन सब में ऋण विद्युत है। इसमें
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४६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम भी जीभ की विद्युत ऋणात्मक है और तालु की विद्युत धनात्मक है। दोनों दाँतों को सटाये बिना सिर्फ जीभ को तालु से लगाकर ध्यान करने से अपूर्व आनन्द का अनुभव होता है। __मनुष्य के शरीर में दाहिने हिस्से में ऋण विद्युत होती है और बाँये हिस्से में धन विद्युत होती है। पुरुष के मस्तिष्क का दाहिना भाग अधिक सक्रिय होता है और स्त्रियों के मस्तिष्क के दोनों भाग बराबर संतुलनमय होते हैं। यही कारण है कि पुरुष किसी भी कार्य को पूरा करने के लिये उतावला होता है। बाँया भाग कम क्रियाशील होने से ही वह स्त्री को अपने बाँये भाग में बैठाता है। ऐसा करने से स्त्री की ऋण विद्युत पुरुष की धन विद्युत को बल देती है। परिणामतः स्त्री के सहारे से पुरुष अपना भावात्मक विधान प्रस्तुत कर सकता है। स्त्री के मस्तिष्क के दोनों तरफ संतुलन रहता है। इसी कारण वे हिंसात्मक और आक्रामक प्रवृत्तियों के लिये उत्तेजित नहीं होती हैं। पुरुष उत्तेजित अधिक होता है। उसका बाँया हिस्सा कम Active रहने से तनावग्रस्त स्थिति में उसके हृदय की धड़कनें तेज हो जाती हैं। स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष अधिकं मात्रा में हृदय रोग से ग्रसित होते हैं। हृदय बाँयी तरफ है। यकृत (Liver) दाँयी ओर है। पुरुष का liver fast होता है, अतः वह स्त्री की अपेक्षा अधिक भोजन ले सकता है, पचा सकता है और स्त्री की अपेक्षा उसका शरीर-बल अधिक होता है। जब कि स्त्री का पुरुष की अपेक्षा से मनोबल अधिक होता है, वह समय पर भावना एवं सूझबूझ द्वारा संयोजन और संतुलन को प्रस्तुत कर नारीत्व की गरिमा का प्रमाण प्रस्तुत करती है। ____ मस्तिष्क में विद्युत के साथ तरंगें भी निरंतर प्रवाहित होती रहती हैं। जैसे-अल्फा, बीटा, डेटा, थीटा आदि। इन तरंगों के संचालन का काम भी विद्युत का है। बाहर का पर्यावरण हो चाहे भीतर का वातावरण हो, इनमें परिवर्तन होता रहता है। जिसमें अल्फा तरंगों से व्यक्ति में आनन्द की भावना बनती है और अन्य बीटा, डेटा, थीटा आदि से विषाद, उन्माद आदि पनपते हैं। महापुरुषों का भीतर का वातावरण प्रकंपनों से रहित शांत होता है अतः उनमें अल्फा तरंगें अधिक होती हैं और वे इतनी दृढ़ होती हैं कि उन पर बाह्य वातावरण का प्रभाव नहीं होता है। एक अल्फाकण दो प्रोटोन के बराबर माना जाता है वैसे ही एक बीटाकण इलेक्ट्रोन के बराबर होते हैं। ___अरिहंत के स्वरूप और उनसे संबंधित मन्त्रों से या उनको किये जाने वाले नमस्कार से हम में कैसे परिवर्तन संभव हो सकता है इसका अब प्रयोग के माध्यम से अनुभव करना चाहिये।
समस्त पर्यायें वातावरण और परिस्थिति के अनुसार मुख्यतः दो भागों में विभक्त हैं-१. उत्पत्ति और २. नाश। इसके अनुभूति के रूप में समझने के भी दो विभाग हैंकणात्मक पार्टीकल Particle accept और तरंगात्मक Wave accept.
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अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ४७ - हाथ पैरों के तलुवों में से तरंगों के साथ बिजली प्रसारित flow होती है। मस्तिष्क इस तरंगित बिजली को स्वीकारता है,.absorb करता है। इसीलिये मस्तिष्क का झुकना, चरण का स्पर्श करना, हाथों से आशीर्वाद देने की आत्यंतिक अनुभूतिपरक परंपरा का निर्माण हुआ है। महान पुरुषों की देह में से जो ऊर्जाएं तरंगित होती हैं उनमें अल्फा तरंगें अधिक होती हैं। नमस्कार की मुद्रा में पैरों में से निकलती ऊर्जा मस्तिष्क द्वारा absorb की जाती है। ऊर्जा अल्फा तरंगों वाली होने से व्यक्ति इससे भर जाता है। परिणामतः प्रसन्न हो जाता है। उसके विषाद समाप्त होते हैं। इनके चैतसिक प्रभाव से चुंबकीय, रासायनिक और उष्मीय परिवर्तन हो जाता हैं। कायोत्सर्ग से किरणोत्सर्ग होता है। ये किरणें शरीर से बाहर फैलकर अपना प्रभाव प्रकट करती हैं। Medical Institute of Madras ने ऐसे उपकरणों का निर्माण किया है, जिससे मनुष्य के मस्तिष्क में अल्फातरंगें देखी भी जा सकती हैं और संप्रेषित भी की जाती हैं। आज भी इस दिशा में विज्ञान की खोज जारी है। ७. कषाय-विजय-वृत्ति संक्षय __क्रोध आने के मुख्य दो कारण हैं-अहं का टूटना और कामवृत्ति का असंतुलन। क्रोध आने से अन्य तो दुःखी होते ही हैं लेकिन क्रोधी भी स्वयं शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से पीड़ित होता है। जैसे-क्रोध के समय व्यक्ति का हृदय धड़कता है, किडनी संकुचित होती है, लीवर से कार्बोदित अलग होता है, ब्लड के रक्तकण कम होते हैं, आँतें स्तब्ध होती हैं, पाचन तन्त्र धीमा पड़ता है, दिमाग उत्तेजित और आंखें लाल होती हैं। रक्तचापं बढ़ता है और सुंदर व्यक्ति भी कुरूप और कठोर लगता है।
क्रोधादि दूषित वृत्तियों से मुक्त होने के इच्छुक कई लोग अपनी इस लाचारी या विवशता से पीड़ित हैं। क्रोध होने के बाद भी "मैंने कहाँ क्रोध किया है ?" ऐसा कहने वालों की यह बात नहीं है; परंतु वे जो चाहते हैं कि इस दूषण से मुक्त हो जायँ फिर भी समय, परिस्थिति और वातावरण के प्रभाव में आकर वे इसका शिकार हो जाते हैं। अरिहंत परमात्मा ने उनकी इस पीड़ा को जाना है, समझा है, और इससे मुक्त होने के उपाय प्रस्तुत किये हैं।
क्रोधादि कषाय आत्मा का स्वभाव नहीं, वृत्ति हैं। स्वभाव को कभी बदल नहीं सकते हैं परंतु वृत्तियाँ बदली जा सकती हैं, संक्षिप्त हो सकती हैं और व्याप्त भी हो सकती हैं। इस वृत्ति को संक्षिप्त करने से वह छोटी होती है। छोटी हो जाने पर इसका निरोध हो सकता है, इसे रोकने में सुविधा हो सकती है।
इन कषायों को खोलकर देखने से हम इसका शारीरिक, मानसिक और आत्मिक प्रभाव, प्रक्रिया, परिवर्तन, परिणाम के स्वरूप और प्रणाश के उपायों को पा सकेंगे। __कषाय, यह वृत्ति है और प्रत्येक वृत्ति का अपना उद्गम स्थान-मूलस्थान अवश्य होता है। एकदम शांत चित्त में वातावरण के प्रभाव से यह ऊर्जा के साथ उठती है।
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सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
जब उठती है तब यह बहुत छोटी होती है। विस्तार की रचना के लिये यह केन्द्रीय नाड़ी संस्थान (Central Nervous System) के पास पहुंचती है। वहाँ दो तरह .. की कार्य प्रणाली मौजूद होती है-ऐच्छिक (Voluntary), और अनैच्छिक (NonVoluntary)। तान्त्रिक संस्थान इन दोनों में से पहले इस वृत्ति को ऐच्छिक तन्त्र को सौंपता है और हमारी वृत्ति इच्छा के साथ मिल जाती है। वृत्ति जब इच्छा को मिलती है तब तक रूखी याने रसविहीन होती है। जब तक इसमें रस शामिल न हो पाये वृत्ति कुछ नहीं कर सकती है। अतः इच्छा इसे रस दिलाने के लिए, हमारी एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथि Pituitary Gland होती है, उसके पास ले चलती है। अब इसका .System देखें__ यह बड़ी भावनात्मक ग्रंथि है। चित्त के साथ मिली वृत्ति के यहाँ आते ही जैसी भावना हो वह रसदान कर सकती है। इसकी रासायनिक प्रक्रिया बड़ी नाजुक फिर भी आज्ञांकित होती है। यह ग्रंथि हमारे कपाल में दोनों भौहों के बीच में भूरे रंग की राई : के दो दानों के आकार में मांस पेशियों से बनी होती है। दाहिने विभाग में ऋण (Negative) विद्युत और बाँये विभाग में धन (Positive) विद्युत होती है। Science ने इन विभागों के Adenophysis और Neurophysis नाम दिये हैं। : इच्छा और वृत्ति के यहाँ पहुंचने पर भी यह पहले सक्रिय नहीं होती है जब तक इसे केन्द्रीय नाड़ी संस्थान से आदेश न मिले। आदेश मिलने पर पहले Neurophysis सक्रिय होती है और ऐच्छिक वृत्ति से सम्पर्क करती है। सम्पर्क के द्वारा Adenophysis से कुछ Harmones सावित होते हैं। इस समय वृत्ति को जानने में इस ग्रंथि की होशियारी कहो या उतावलापन यह उत्तेजित हो. ही जाती है। उत्तेजित होकर Cerebral Cortex द्वारा यह अपनी मानी हुई सहेली ग्रंथि Adrenaline gland को Message भेजती है। यह ग्रंथि जो गुर्दे (Kidney) के ऊपरी हिस्से पर होती है। काम, क्रोध, भय, तनाव आदि के समय इसमें से ऐडेनिन नाम का एक नाव पैदा होता है। इस नाव से हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, सांस तेज चलने लगती है। यह भी cerebral cortex से प्रतिक्रिया का आदेश पाती है। यहां तक चली ऐच्छिक रचना क्रिया अपनी वृत्ति को अनैच्छिक रचना क्रिया (Non-Voluntary Mechanism) को सौंप देती है। तब अन्य Pineal, Gonads आदि ग्रंथियां उत्तेजित होकर वृत्ति को प्रतिक्रिया, आदेश, मार्गदर्शन और सहयोग प्रदान करती हैं।
परमात्मा ने संज्ञा-वृत्ति के संचालन के तीन प्रकार बताये१. वृत्ति को उत्पन्न ही न होने देना।
२. यदि साधक की दशा इतनी प्रगतिमयी न हो और वृत्ति उठ भी जाय तो उसके Voluntary Mechanism के पास आते ही इस पर Control कर ले। वृत्ति को अनैच्छिक रचनाक्रिया को सौंपने तक नहीं पहुँचने देता है। क्योंकि ऐच्छिक
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अरिहंत की आवश्यकता-वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में ४९ रचना क्रिया तक वृत्ति संचालन व्यक्ति की इच्छा से होता है परन्तु यह कार्य जब अनैच्छिक रचना क्रिया तक पहुँच जाता है तो वह नियत्रंण से बाहर हो जाता है। फिर उस वृत्ति पर व्यक्ति का अधिकार या स्वामित्व समाप्त हो जाता है।
३. तीसरे प्रकार के लोग अनैच्छिक रचना क्रिया से पीड़ित होते हैं। इसमें उनका वृत्तियों पर अपना न कोई नियंत्रण रहता है, न मालकियत। इसमें वृत्ति विवश बनकर व्यापक हो जाती है। यह प्रणाली इतनी शीघ्रता से हो गुजरती है कि व्यक्ति को इस प्रकरण शैली का पता ही नहीं लगता है सिर्फ परिणाम उसके सामने आ जाता है।
प्रथम प्रकार के लोग परम साधक दशा वाले हैं। दूसरे प्रकार के लोग समान्य या व्यवहार साधक होते हैं। जैसे किसी व्यापारी को दुकान में ग्राहक के किसी अनुचित व्यवहार से क्रोध आना। परिस्थिति, वातावरण और अपनी प्रतिष्ठा के कारण वह उससे लड़ नहीं सकता है और कहता है कि मैं गुस्सा पी गया। तारतम्य यही है कि ऐच्छिक रचना क्रिया पर इसे रोक लिया जाता है। परिणामतः यह तीसरी अवस्था तक न पहुँच सके।. ___काम, क्रोध भयादि का उठना संज्ञा है। इसे व्यक्त और व्याप्त तो सभी करते हैं पर समाप्त या संक्षिप्त करने के लिए अरिहंत परमात्मा की सिद्धान्तशाला में इस कषाय-विजय या समुद्घात की सिद्धान्त शैली को स्वीकारना, सीखना और सफल करना होगा। ___ अरिहंत से यदि हमें ये सारे सिद्धान्त न मिलते तो हम अभी भी विज्ञान के इस अधूरे अनुसंधान की युगों तक पूर्ण प्रतीक्षा करते रहते। बिना प्रतीक्षा के अपेक्षा रहित अरिहंतों की समीक्षा से समाहित सिद्धांत को शतशः नमन हो।
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अध्याय ३
अरिहंत परम ध्येय
-हम क्यों आराधना करते हैं ? हमारा और अरिहंत का क्या सम्बन्ध है ?
मंत्र-चैतन्य अरिहंत-ध्यान-दर्शन
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अरिहंत परम ध्येय
परम आराध्य माने जाने वाले अरिहंत में और आराधक आत्मा में जैन धर्म के अनुसार द्रव्यदृष्टि से कोई भेद नहीं है। शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से सभी जीव परस्पर समान हैं, उनमें कोई मौलिक भेद नहीं है। सबका मूल, गुण-स्वभाव एक-सा है। स्वभाव से ही प्रत्येक जीव अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंतवीर्यादि शक्तियों से युक्त है। .. व्यवहार नय की अपेक्षा से जो बहुत बड़ा अन्तर है वह कर्मों से युक्त होने का है। कर्मों से मुक्त होकर आत्मा परमात्मा है। समस्त विकारभाव और समस्त विषमभाव रूप विभावपरिणति के कारण संसारी जीव कर्म का संयोग करता है। मोक्ष का स्वरूप जानने पर मोक्ष की इच्छा होती है। मोक्षाभिलाषी कर्ममुक्ति के उपायों को खोजने लगता है। वास्तविक पथं तो वही बता सकता है जिसे मार्ग मिल गया है।
बिना आराध्य के निष्पत्तियाँ तो रहती हैं पर प्रक्रियाएँ खो जाती हैं। अरिहंत के बिना भी मंजिल तो रह जाती है, रास्ते खो जाते हैं। शिखर के देखते रहने से काम नहीं बन पाता। शिखर तक पहुँचने के लिए पगडंडी भी मिल जाय तो काफी है। वह शिखर स्वप्नवत् है जिसकी सीढ़ियाँ दिखाई न दें। वे मंजिलें व्यर्थ हैं जिनका मार्ग दिखाई न दे। वे सारी निष्पत्तियाँ बेबूझ हैं जिनकी प्रक्रिया न मिल पाती हो। . अरिहंत वे प्रक्रियाएँ हैं जो निष्पत्ति पाने तक. साथ हैं। मार्ग पर हाथ पकड़कर साथ देते हैं। सीढियों पर आरूढ आराधक की प्रत्येक धडकन में वे प्राणों का आयोजन करते हैं। सब कुछ होता है फिर भी वे कुछ नहीं करते हैं क्योंकि अरिहंत एक पद है, किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है। इसी कारण यह संस्कृति की सीमा और बंधन से परे है। अरिहंत स्वयं एक अंतिम मंजिल है जिसके आगे कोई यात्रा नहीं।
प्रश्न एक ही है, जैन संस्कृति का दावा है कि अरिहंत कुछ नहीं करते हैं फिर उनकी आराधना करने से क्या फायदा? इस प्रश्न पर सोचने पर प्रतिप्रश्न होगा किसको फायदा-आराध्य को या आराधक को? हमारी आराधना से आराध्य को न तो कोई फायदा है और न कोई नुकसान। यह हमारी एक बहुत बड़ी गलती होगी कि हम यदि ऐसा सोचें कि शायद इस आराधना से हम अरिहंत के लिए कुछ करते हैं। हम उनके लिए कुछ भी नहीं करते हैं और न ही कुछ कर भी सकेंगे। हमारे लिए उचित यही है कि हम उनके लिए कुछ न करें। हम जो कुछ भी करते हैं अरिहंत के लिए नहीं, अरिहंत की तरफ से हमारे लिए करते हैं। आराधना के जो परिणाम हैं, हम पर होने वाले हैं। आराधना का जो फल है, हमें मिलता है।
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५४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम ___ उस शुद्ध स्वरूप की अपने हृदय में प्रतिष्ठा तो कीजिए। उससे कुछ मत मांगिये। वह देगा भी नहीं। जो मिलता है, वह माँगना भी नहीं पड़ता। वृक्ष का आश्रय लेने वालों . को छाया स्वयं प्राप्त हो जाती है। वृक्ष के पास छाया की याचना नहीं करनी पड़ती है। ____ अरिहंत की आराधना से आत्मा का वह निष्पाप शुद्ध स्वरूप व्यक्त हो जाता है जो सभी जीवों में विद्यमान है; और सभी भव्य जीव इसे प्राप्त करने के पूर्णाधिकारी हैं। उस शुद्ध स्वरूप के सामने आते ही अपनी उस भूली हुई निधि का स्मरण हो उठता है, जो अनन्तकाल से कर्मों के कारण आवृत है।
आराधना करने से आत्मोत्कर्ष की भावना जागृत होती है। इसमें आराध्य की इच्छा शक्ति की आवश्यकता नहीं है। किसी कार्य का कर्ता या कारण होने के लिए यह जरूरी नहीं कि उसके साथ इच्छा, बुद्धि या प्रेरणादि भी हो। निमित्त से, प्रभाव से, . आश्रित रहने से, सम्पर्क में आने से, अप्राप्य की प्राप्ति और आवृत का अनावृत होना सहज हो सकता है। उनके मोहनीय कर्म के सर्वथा अभाव होने से उनमें इच्छा का अस्तित्व ही नहीं होता है और न वे किसी कार्य की आज्ञा या प्रेरणा प्रदान करते हैं परन्तु उनका पुण्य स्मरण, चिन्तन, पूजन, भजन, कीर्तन, आराधन, स्तवनादि से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है, पापकर्म का नाश होता है, पुण्य की वृद्धि और आत्मा की विशुद्धि होती है। इसी का परिणाम प्रगट होता है और परिणति रूप निष्पत्ति बन जाता है। ___ यहाँ तक तो ठीक है; परन्तु अरिहन्त का प्रसन्न होना, आराधक पर अनुग्रह करना, आराधक का अपने प्राप्तव्य में सफल रहना आदि कुछ बातें जैन साधना पद्धति में बड़ा कौतूहल भरा वातावरण पैदा करती हैं। जिनको हम सर्वथा राग-द्वेष से रहित शुद्धात्मा और वीतरागी मानते हैं; उनकी कृपा, अनुग्रह या प्रसन्नता कैसे मानी जाय? जैसे
१. तित्थयरा मे पसीयंतु २. तव प्रभावात् ३. त्वत्प्रसादात्३ ४. त्वत्प्रसादैक भूमिम्
साधना पक्ष की इस चुनौती को लक्ष्य में रखते हुए कहा है-जो स्तुति करने से संतुष्ट और प्रसन्न होते हैं, वे निंदा करने से अवश्य रुष्ट भी होते होंगे। तो वे वीतराग
१. लोगस्स सुतं २. भक्तामर स्तोत्र-गा.८ ३. शक्रस्तव ४. एकीभावस्तोत्र-गा. ८
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अरिहंत परम ध्येय
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कैसे कहलाते हैं ? यदि वीतराग प्रसन्न नहीं होते हैं तो उनके लिये पसीयंतु आदि शब्द की क्या आवश्यकता है ?? ___इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है-राग-द्वेष रहित परमात्मा प्रसन्न तो होते नहीं, किन्तु भक्तिपूर्वक स्तुति द्वारा कर्मों का क्षयोपशम होने से आराधक की आत्मिक प्रसन्नता खिलती है। परमात्मा अन्य आत्मा में तुल्य स्वभाव वाले होने से सज्जनों द्वारा पूज्य होते हैं। जिस प्रकार शीत प्रकोप से पीड़ित प्राणियों पर अग्नि राग या द्वेष नहीं करती है, लोगों को अपने पास बुलाती भी नहीं है फिर भी उसके आश्रितजनों को ईप्सित फल मिल ही जाता है उसी प्रकार अरिहंत परमात्मा के आश्रित रहने वालों को भी ईप्सित प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि अरिहंत परमात्मा प्रसन्न नहीं होते हैं, तदपि उनकी आराधना से उपलब्ध अभीष्ट फल प्राप्ति ही उनकी प्रसन्नता मानी जाती
परमात्मा की आराधना की विशेष आवश्यकताओं के हेतु बताते हुए कहा हैक्योंकि अरिहंत
१. हमारे कर्मक्षय के परम कारण हैं, २. प्राप्त बोधि की विशुद्धि में परम हेतु हैं, ३. भवांतर में बोधि-प्राप्ति में परम सहायक हैं, ४. सावद्ययोगों की विरति के उपदेशदाता होने से परम उपकारी हैं।३
काल, स्वभाव, भवितव्यतादि सर्व, इन प्रबल कारण के आगे तुच्छ हैं; क्योंकि अरिहंत परमार्थ रूप मोक्ष के परम कारण हैं। मंत्र और चेतना का सम्बन्ध . आर्हन्त्य हमारी अपनी स्थिति है, अवस्था है। जो छिपा है उसे प्रकट करना है, जो बन्द है उसे खोलना है, जो पर्दे में है उसे पर्दातीत करना है तो चलिये निजस्वरूप की अपनी प्रयोगशाला में।
विज्ञान अपने प्रयोगों से इनकी पूर्णता को पूर्णतः हासिल नहीं कर सकता परन्तु जप-ध्यान की हमारी अपनी प्रयोगशाला में उस पूर्णत्व की प्रतिष्ठा सम्भव हो सकती
- मंत्र-जप, भक्ति और ध्यान का सामंजस्य है। मंत्र का प्रादुर्भाव शब्दों से होता है परन्तु मंत्र-जप का उद्देश्य और परिणाम शब्द से अशब्द की तरफ जाने का है। यह इसलिए कि मंत्र शब्दमय तभी तक रहेगा तब तक वह चेतना में साकार न हो जाय। मंत्र के चेतनामय हो जाने पर वह मंत्र चैतन्यमय हो जाता है। १. चेइयवंदण महाभासं-गा. ६२६-६२७. पृ. ११२-११३ २. चेइयवंदण महाभासं-गा. ६२८, पृ. ११३ ३. अनुयोगद्वार-सूत्र-मलधारि हेमचंद्रसूरिकृत वृत्ति सूत्र ५८ की टीका ।
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५६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
मंत्र के चैतन्यमय हो जाने पर मंत्र शब्दातीत-शब्द से पर अशब्द हो जाता है। रहस्य रह जाता है, जड़ता हट जाती है। जब अशब्द की स्थिति प्रकट होती है उससे पूर्व साधक को शब्द की कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है जो स्थूल उच्चारण से प्रारम्भ होकर शब्दवर्ती सूक्ष्म प्रक्रिया तक पहुँचाती हैं। यही सूक्ष्म प्रक्रिया आगे अशब्द तक पहुँचाती है।
Theosophists के अनुसार शरीर (body) के तीन प्रकार हैं1. Physical body 2. Etheric body
3. Astral body ___ Physical body स्थूल शरीर है, Etheric body सूक्ष्म शरीर है और Astral body अतिसूक्ष्म शरीर है। मंत्र के द्वारा तैजस शरीर जो Astral body है उत्तप्त होता है। उसमें से तेज और ऊर्जाएँ उठती हैं। तैजस शरीर और चेतना में . एकरूपता स्थापित होती है। ऊर्जा कार्मण शरीर रूप मलीन परमाणुओं को दूर करती है। मंत्र जितना बलवान होता है ऊर्जा उतनी तीव्रता से कार्मण शरीर का Control - करती है।
यह एक पद्धति है; मंत्र के द्वारा पहले तैजस् शरीर में स्पंदन होता है। उससे कार्मण के प्रकम्पनों को पकड़े जाते हैं। धीरे-धीरे हम कर्म का संहार करते हुए अप्रकंप याने निर्विकल्प स्थिति में प्रवेश कर सकते हैं। इस निर्विकल्प स्थिति का प्रादुर्भाव परावाणी से होता है।
वाणी के चार प्रकार हैं
१-वैखरी वाणी, २. मध्यमा वाणी, ३. पश्यन्ती वाणी और ४. परा वाणी। ये चारों वाणी अनुक्रम से (एक-एक से) अधिकाधिक बल वाली हैं। . .
१. वैखरी वाणी-परमात्मा सम्बन्धी मंत्र भाष्य जप तथा स्तुति स्तोत्रादि का स्पष्ट उच्चार करने वाली वाणी वैखरी वाणी है।
२. मध्यमा वाणी-इस वाणी में उपांशु जप होता है। जिसमें ओष्ठ और जिह्वा चलती है परन्तु आवाज बाहर सुनाई नहीं देती। इस वाणी में शब्द सिर्फ गुनगुनाये जाते हैं।
३. पश्यन्ती वाणी-मन्त्रों का मानस जप और कायोत्सर्गादि हृदयंगता पश्यन्ती वाणी से होता है।
४. परा वाणी-जब परा वाणी द्वारा जप किया जाता है तब ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकरूपता हो जाती है। इसमें ध्याता अपने आत्मा को परमात्म स्वरूप ही देखने लगता है।
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अरिहंत परम ध्येय ५७ ......................................................
'पदस्थ ध्यान में प्रथम वैखरी वाणी और मध्यमा वाणी द्वारा स्थूलपद का आलम्बन लेकर बाद में सूक्ष्म पद का पश्यंती और परा वाणी द्वारा आलम्बन लिया जाता है। पद की सूक्ष्म अवस्था के समय चित्त की श्रेष्ठ और सुलीन अवस्था प्राप्त होती है। अतः वहाँ स्थूल विकल्प नहीं आ सकते हैं परन्तु (शुद्ध ज्ञानात्मक) तात्विक सूक्ष्म विमर्श प्राप्त होता है। इस विमर्श को "तात्विक मंत्रदेवता" या मंत्रमय देवता अथवा पदमय देवता कहा जाता है। परमात्मा का स्वरूप अगम अगोचर है; फिर भी ध्यान के माध्यम से परा वाणी और पश्यन्ती वाणी द्वारा महामुनि कुछ अंश से अरिहंत के स्वरूप का अनुभव करते हैं।
जप विधान में वाणी का जो स्थूल रूप है वह वैखरी है। मध्यमा में बोला नहीं जाता परन्तु अक्षरात्मक सोचा जाता है। भाषा का बहिर्वर्ती रूप वैखरी और अन्तर्वर्ती रूंप मध्यमा है। मध्यमा के बाद आती है पश्यन्ती। इसमें भाषा से ऊपर उठकर अक्षरों को देखा जाता है। अन्त में परा वाणी है। इसमें समाधि की अवस्था होती है। यह अक्षर से अनक्षरं तक पहुँचने पर प्राप्त होती है। यह निर्विकल्प समाधि की अवस्था होती है। __दूसरी तरह से इसका स्वरूप ऐसे भी बताया जाता है। जो वाणी मुख से बोली जाती है, जिसका उच्चार कानों से सुनाई देता है वह वैखरी वाणी है। जो वाणी आँखों से, संकेत से, मुखाकृति या भावभंगिमा से व्यक्त होती है वह मध्यमा कहलाती है। जो वाणी मन में से निकलती है और मन को ही सुनाई देती है, वह पश्यन्ती है। जो वाणी आकांक्षा, इच्छा, निश्चय, संकल्प, श्राप या वरदानादि रूप होती है और अन्तःकरण से निकलती है वह परा वाणी कहलाती है। ... इन प्रत्येक वाणी के जप के अलग-अलग परिणाम हैं। बाह्य परिणाम में वैखरी चाणी में जप करने से उससे उत्पन्न ध्वनि-तरंगों से शरीर की व्याधियाँ समाप्त होती हैं
और चित्त पर जमे स्थूल विकार कम होते हैं। ग्रंथि प्रभाव के अनुसार मध्यमा वाणी के जप से पिच्युटरी ग्रंथि से ९ रसबिन्दुओं का स्राव होता है। पश्यन्ती के जाप से १२ रसबिन्दुओं का स्राव होता है और परा जप से १६ रसबिन्दुओं का नाव होता है।
· आंतरिक परिणाम के अनुसार मध्यमा में जप करने से यथाप्रवृत्तिकरण, पश्यन्ती वाणी से अपूर्वकरण और परा वाणी से जीव अनिवृत्तिकरण, ग्रंथिभेद और अपूर्व आत्म-दर्शन उपलब्ध कर सकता है।
पदस्थ ध्यान के लिए इष्ट मंत्रों का चुनाव अपनी भावना, रुचि और श्रद्धा के आधार पर किया जा सकता है। यहाँ पर विषयानुसार कुछ विशेष मंत्रों का प्रासंगिक विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। नमस्कार मंत्र स्तोत्र में कहा है जब श्री अरिहंत परमात्मा मोक्ष गये तब “हमारी अनुपस्थिति में इन भव्यात्माओं का कैसे कल्याण होगा (ऐसी करुणा से युक्त होकर), कल्याण के विशेष हेतु स्वयं का “मंत्रात्मक देह" जगत् को देते गए।'' अतः उनकी अनुपस्थिति में भी साधक “अरिहंत' नामक (मंत्रात्मक
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५८ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम ...................................................... देह) के अवलम्बन द्वारा अपने सर्व पापों का क्षय कर भाव अरिहंत रूप स्वयं के आत्म-स्वरूप का साक्षात् दर्शन कर सकता है। क्योंकि “अरिहंत" शब्द अरिहंत परमात्मा का वाचक होने से कथंचित् “अरिहंत" स्वरूप है। इसी कारण “अरिहंत" "नमो अरिहंताणं" तथा "अह" आदि महामंत्र के ध्यान में तन्मय होने से अरिहंत परमात्मा के साथ तन्मयता सिद्ध होती है। यह तन्मयता अरिहंत के साक्षात् दर्शनरूप है। इसीलिए अरिहंत के ध्यान में तन्मय साधक को आगम में “भाव अरिहंत" कहा
अक्षर, मंत्र स्वरूप है। मंत्र मात्र तत्व से नाद स्वरूप है। जब अर्ह आदि मंत्र . नाद रूप में परिणमित होते हैं तब परमानन्द का अनुभव होता है और मंत्र का वास्तविक फल प्राप्त होता है। सिंहतिलकसूरिकृत "मन्त्रराज-रहस्य" में अनाहत का अरिहंत ऐसा अर्थ किया है। इस प्रकार मन्त्रयोग (जपयोग) की साधना अरिहंत की .. साधना है और उसी के द्वारा भाव-अरिहंत के दर्शन होते हैं। ___ अरिहंत या तत्सम्बन्धी अन्य मन्त्रों का स्वरूप, जप की पद्धति और परिणाम भी .. अनेक हैं। परंपरा में ऐसा प्रचलित है कि “अरिहंत" ऐसे मात्र चार वर्ण रूप इस मन्त्र का ४00 (चार सौ) बार जप करने से ध्यानी सम्यग्दृष्टिं आत्मा एक उपवास का फल पाता है। ___ मनोवैज्ञानिकों ने यौगिक चक्रों के स्थान पर “अरिहंत" शब्द से किये जाने वाले जप का महत्व बताते हुए कहा है
१. मूलाधार चक्र में “अरिहंत" मंत्र का ध्यान करने से नीरोगता आती है। २. स्वाधिष्ठान चक्र में “अरिहंत" मंत्र का ध्यान करने से वासना-क्षय होता है। ३. मणिपूर चक्र में “अरिहंत" मंत्र का ध्यान करने से क्रोध का क्षय होता है। ४. अनाहत चक्र में “अरिहंत" मंत्र का ध्यान करने से मान का क्षय होता है। अक्षर-विज्ञान के अनुसार अरिहंत शब्द का विज्ञान इस प्रकार है
"अ" यह वायु बीज है। वायु हल्की होने से ऊपर उठती है। यह शब्द ऊपर उठाने में सहायक होता है। जैसे मिट्टी के लेप से युक्त तुम्बी ऊपर नहीं उठ सकती परंतु लेप निकल जाने पर हल्की होने से वह ऊपर तैरती है वैसे ही जीव कर्मों के कारण भारी है। अरिहंत का "अ" कर्मक्षय में सहायक होता है। वायु वाहन का प्रतीक है। वह श्वासोश्वास के द्वारा निर्धारित किया जाता है। 'अ' को श्वासोश्वास से संयुक्त कर जपने से समाधिभाव जगते हैं। इस प्रकार 'अ' वायुबीज होकर समाधि का सहायक है।
"रि" यह अग्निबीज (दाहबीज) है। इसका काम है जलाना। इसे रूमान्तरित करना चाहिये। इसमें मन्त्र को हमारे भीतर गतिमान किया जाता है। जैसे गाड़ी केवल
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अरिहंत परम ध्येय ५९ डीजल या पेट्रोल से नहीं चलती, उसे ऊर्जा में रूपान्तर करना पड़ता है। ऊर्जा एक प्रकार की अग्नि है। इसी प्रकार "रि" गतिमान होकर ऊर्जा में रूपान्तरित होकर अरिहंत परमात्मा की विशुद्ध तरंगों में संयोजित हो जाता है। "रि" निर्जरा का प्रतीक है। यह बीज हमारे दूषणों को, विकारों को, बुरे संस्कारों को जलाने का काम करता
_ "ह" यह व्योम बीज है। यह आनंद का प्रतीक है। इसका काम है विचरना। विस्तार करना। विकसित करना। व्यापकता लाना। नीचे से ऊपर उठाना। तरंगों को फैलाने में सहायक होना। हमारे अनंत चिदाकाश की यह अनुभूति कराता है। .. "त" वायु बीज है। इसका काम पुनः "अ" की तरह ऊपर उठाना है। आर्हन्त्य जो हम में विद्यमान है उसका यह बीज हमें बोध कराता है। __इसके जप की विशेष विधि श्री सकलकीर्तिसूरि कृत "तत्वार्थसार दीपक" और सिंहतिलकसूरि द्वारा संकलित “परमेष्ठिविद्यायन्त्रकल्पः" में अतीव सुंदर रूप से दर्शायी है। आठ दिशारूप अष्ट पत्र वाले कमल का चिन्तन करना, बाद में उस कमल के मध्यभाग (कर्णिका) में ग्रीष्मऋतु के अत्यन्त स्फुरायमान ऐसे स्वयं के आत्मा का अनुचिन्तन करना, तदनंतर उस पद्म के प्रत्येक पत्र में अत्यन्त तेजस्वी “ॐ नमो अरिहंताणं" इस मन्त्र के एक-एक अक्षर को प्रत्येक पत्र में प्रदक्षिणा पूर्वक चिन्तन करना। इस प्रकार मन्त्र-वर्णों की प्रतिष्ठा हो जाने पर पूर्वादि प्रत्येक दिशा में पूर्ण मन्त्र का ११00 (ग्यारह सौ) संख्या प्रमाण जप करना। इसमें एक-एक दिन एक दिशा में करते हुए आठ दिन तक निर्मल मन से जप करना चाहिये। विशिष्ट कार्य हेतु अर्थात् सकाम ध्यान में प्रणव-ॐ-पूर्वक ध्यान करना चाहिये और मात्र मुक्ति हेतु ॐ-रहित ध्यान करना चाहिए। ऐसा कहा है। अहं मन्त्र का अद्भुत रहस्य
· ऋषिमंडल स्तोत्र, नमस्कार महामंत्र स्तोत्र, अरिहंत स्तोत्र आदि कई पुरातन स्तोत्र साहित्य में इस मन्त्र का विशद वर्णन एवं महत्व प्रस्तुत है परंतु विस्तार भय से यहाँ मात्र सार प्रस्तुत किया जा रहा है। जो सर्व पूजनीय आत्माओं और अरिहंतों का प्रतिष्ठान (स्थान) है। जो परमेष्ठिबीज, जिनराजबीज, सिद्धबीज, ज्ञानबीज, त्रैलोक्यबीज और जिनशासन के सारभूत सिद्धचक्र का आदि-बीज है, वह “अहँ" प्रणिधान-ध्यान का उत्तमोत्तम आलम्बन है। परमेष्ठि बीज
तत्त्व से अरिहंत परमात्मा पंचपरमेष्ठी स्वरूप है। उनमें उपचार से द्रव्य-सिद्धत्व होने से वे सिद्ध हैं। उपदेशक होने से वे आचार्य हैं। शास्त्र के पाठक होने से उपाध्याय हैं और निर्विकल्प चित्त वाले होने से साधु हैं। इस प्रकार अहँ यह परमेष्ठि बीज है।
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सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
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इसीलिए सिद्धहेम व्याकरण-(मंगलाचरण), ऋषिमंडल स्तोत्र (श्लो. ३) आदि कई जगह कहा है-जो परमपद में प्रतिष्ठित, परमज्ञान स्वरूप ऐसे अरिहंत परमात्मा का वाचक, अचल-अविनाशी परम ज्ञान स्वरूप, मोक्ष के हेतुरूप तथा सिद्धचक्र का आदि बीज “अहँ" सर्वतः सर्वत्र सर्वकाल में प्रणिधान के योग्य है। जिनराज बीज
___ अरिहंत परमात्मा सर्व जिन (राग-द्वेष के विजेता) में श्रेष्ठ हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान के सर्व जिनेश्वर जिसमें वाच्यरूप से प्रतिष्ठित हैं वह “अहँ" सर्व जिनों का बीज है। अतः इसे जिनराज बीज कहा जाता है। सिद्धबीज
अधिष्ठानं शिवश्रियः अर्थात् अर्ह यह शिवलक्ष्मी-सिद्धि मुक्ति का भी बीज है। अक्षर याने मोक्ष, उसका हेतु रूप होने से यह मोक्षबीज कहलाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से इस प्रकार यह सिद्धस्थान को दिलाने वाला अर्थात् जैसे बीज के बोने से वह बीज यथासमय फलरूप प्रमाणित होता है वैसे “अहँ" बीज-मन्त्र के ध्यान से सिद्धत्व रूप फल उपलब्ध होता है। भौतिक दृष्टि से अनेकों सुवर्णसिद्धि और महासिद्धियों का कारण रूप होने से भी यह सिद्धबीज कहा जाता है। ज्ञानबीज ___ अहँ यह ब्रह्म स्वरूप होने से ज्ञानबीज है। कलासहित अ-र-ह जिसमें प्रतिष्ठित हैं ऐसे अहँ में अ से ह तक के अक्षरों का समावेश हो जाता है। अतः यह सम्यग् श्रुत ज्ञान का बीज माना जाता है। त्रैलोक्य बीज
“अहं" यह त्रैलोक्य बीज है। अहँ अक्षर में वर्णों की रचना इस प्रकार है-“अ, र, ह-कला बिन्दु" इनकी सर्व शास्त्रों और सर्वलोक में व्यापकता है। वह इस प्रकारअहँ में अ से ह तक की सिद्ध मातृका (अनादिसिद्ध बाराक्षरी) रही हुई है। इसका एक-एक अक्षर भी तत्त्व स्वरूप है, फिर भी “अ, र और ह" ये तीन (वर्ण) तत्व अत्यन्त विशिष्टता के धारक हैं। . "अ" तत्त्व की विशिष्टता
१. अ-अभय-अकार यह सर्व जीवों को अभय प्रदान करता है। सर्वजीवों के कण्ठस्थान में आश्रित रहने वाला यह प्रथम तत्त्व है।
२. अ-अविनाशी-सर्वस्वरूप, सर्वगत, सर्वव्यापी-सनातन और सर्व जीवाश्रित है। अतः इसका चिन्तन पाप नाशक है।
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- ३. अ-अपूर्व (जिससे पूर्व कोई वर्ण नहीं है)-सर्व वर्ण और सर्व स्वरों में सर्वप्रथम होने से ककारादि सर्व वर्गों में इसका प्रयोग होता है। अतः सर्व प्रकारों के मन्त्रतंत्रादि योगों में, सर्व विद्याधरों, सर्व विद्याओं, सर्व पर्वत वनों में शब्द रूप से व्याप्त है। "र" तत्त्व की विशिष्टता
प्रदीप्त अग्नि की तरह सर्व प्राणियों के मस्तक (ब्रह्मरन्ध्र) में रहा हुआ "र" तत्त्व का विधिपूर्वक ध्यान ध्याता को त्रिवर्ग फल प्रदान करता है। "ह" तत्त्व का महत्व
जो सदा सर्व प्राणियों के हृदय में रहता है। सर्व वर्णों के अन्त में रहता है तथा जो. लौकिक शास्त्रों में “महाप्राण" के नाम से प्रतिष्ठित है, पूजित है उस "ह" का विधिपूर्वक ध्यान साधक को सर्वकार्यों में सिद्धि प्रदान करता है। "बिन्दु" की विशिष्टता
जो "हकार" पर जलबिन्दु की तरह वर्तुलाकार रहा हुआ है, जो सर्व प्राणियों की नासिका के अग्रभाग पर और सर्ववर्णों के मस्तक पर स्थित होता है, जो योगि पुरुषों द्वारा ध्येय-चिन्तन करने योग्य है, वह बिन्दु सर्व जीवों को मोक्ष प्रदान करता है। इस प्रकार महाप्रभावक तत्त्व रूप इसी से जिनागम के अनुसार सम्यक दर्शन और अन्य दर्शनों के अनुसार कुंडलिनीयोग, नादयोग, बिन्दुयोग और लययोग प्राप्त हो सकते हैं। अतः “अहँ" मन्त्र की ध्यान प्रक्रिया में प्रत्येक योगों का समावेश हो जाता है।
गुरु-भक्ति के प्रभाव से और अहँ पद की आराधना से ध्याता अरिहंत परमात्मा के तन्मयतारूप समापत्ति को सिद्ध करता है। और इसी समापत्ति के कारण उसे जिननाम कर्म का निकाचित बन्ध होता है। आगम में दर्शाये गये तीर्थंकर के स्वरूप से ऐसा साधक तीर्थंकर स्वरूप ही माना जाता है; क्योंकि उस उपयोग के साथ उसकी अभेदवृत्ति है।
अरिहंत की भक्ति और उपासना के बाद अब हम अरिहंत ध्यान-पथ पर निकलेंगे। अरिहंत-ध्यान-दर्शन __ध्यानअर्थात् चेतना के अस्तित्व का अनुभव। अनुभूति की उपलब्धि के लिये किये जाने वाले अनुशीलन के विविध प्रयोग इसके माध्यम हैं। अस्तित्व को सिद्ध करने के लिये ज्ञाता की प्रतिष्ठा अनिवार्य है। ज्ञाता की प्रतिष्ठा अस्तित्व की उस स्थिति से सामंजस्य करती है जहाँ आत्मा का देह के साथ जो भेद है, उसे अनुभूति में लावे। ___ आत्मा और देह के अभेद से ही जो ध्यान लगता है उसे आर्तध्यान; रौद्रध्यान कहा जाता है; तथा आत्मा और देह के भेद से जो ध्यान लगता है उसे धर्मध्यान, शुक्लध्यान कहा जाता है।
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६२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम __इस भेद-ज्ञान के लिये अरिहंत परमात्मा ने कायोत्सर्ग का विधान प्रस्तुत किया है। तप के आभ्यंतर प्रकारों में स्वाध्याय के बाद ध्यान का और ध्यान के बाद कायोत्सर्ग का विधान प्रस्तुत किया गया है। वर्तमान में कुछ लोगों का कहना है कि जैनों में ध्यान की पद्धति नहीं रही है। कायोत्सर्ग को हमने बहुत सामान्य और ध्यान से बहुत अलग चीज समझ रखी है। जब कि ध्यान के बाद कायोत्सर्ग किया जाता है। जहाँ अन्य सर्व दर्शन ध्यान में अटक गये वहाँ जैन दर्शन ने आगे कदम बढ़ाया और ध्यान की परिणति से कायोत्सर्ग का विधान प्रस्तुत कर अयोग का मार्ग अनावृत किया। यदि ध्यान से देखेंगे तो वर्तमान की प्रचलित अनेक ध्यान-साधनाएँ कायोत्सर्ग की ही रूप रही हैं। काया का उत्सर्ग हो जाने पर जो रह जाती है, वह अनुभूति है। वह ध्यान है।
किसी भी साधना, उपासना या आराधना का पथ दो मार्गों से विस्तरता है-भक्ति और अनुभूति। इन दोनों का अन्तर बड़ा अजीब है। एक का लक्ष्य है-साधना का प्रस्थान केन्द्र और दूसरे का लक्ष्य है प्राप्ति का विश्राम केन्द्र। भक्ति की जाती है, अनुभूति हो जाती है। करने और हो जाने में अन्तर है। भक्ति में माना जाता है, अनुभूति में जाना जाता है। मानना believing है और जानना feeling है । मानना कर्तव्य से जुड़ जाता है जो जीवन की नियमितता बन जाता है। परन्तु अनुभूति में ऐसा नहीं होता है, यह भावों से प्रादुर्भूत होता है। प्रकृति से जुड़ता है और स्वभाव में परिणत होता है। ध्यान अनुभूति का अपर नाम है। ध्यान समाधि की पूर्व अवस्था है। समाधि की उपलब्धि अस्तित्व का अभिनन्दन है। __ चेतना हर आयामों से गुजरती है; परन्तु उसकी मौलिक प्रच्छन्नता अत्यन्त गूढ़ है। इसकी गहराइयों को छूने के लिये मानने (believing) से सहायता लेकर feeling में प्रवेश करना होगा। मानना तथ्य से जुड़ना है और अनुभूति में तथ्य को उघाड़ना है।
अरिहंत का ध्यानअर्थात् हमारा अपना ध्यान। अरिहंत का ध्यान अपने अनुभूति जगत का प्रवेशपत्र है। अरिहंत को सिद्धान्तों से, महानिबंधों से माने तो जाते हैं लेकिन जाने नहीं जा सकते हैं। इसकी reality को, तथ्य को पाना ही अरिहंत का ध्यान है। जो क्षेत्र और काल से परे है, अतीत है, निरन्तर चैतन्यशील है उनकी अनुभूति किसी भी काल में, किसी भी क्षेत्र में, किसी भी व्यक्ति को हो सकती है। कोई सीमा, कोई बंधन, कोई काल या क्षेत्र इसमें बाधक नहीं हो सकता। इस अबाध्य परिणति का प्रयास अरिहंत का ध्यान है।
हमारी ऊर्जा निरंतर गतिशील एवं प्रयत्नशील है। चैतन्य एवं संसार इन दोनों से जुड़कर वह गतिशील रहती है। पदार्थ दो हैं-कर्मरूप और कर्तारूप। कर्मरूप पदार्थ object है, कर्तारूप पदार्थ subject है। कर्मरूप पदार्थ external है; बाह्य है। कर्तारूप पदार्थ inner है, आन्तरिक है। बाह्य और आन्तरिक का जुड़ जाना ही संसार
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है। पूरे संसार का समायोजन इन दो के संयोग से होता है। दोनों reality हैं। यद्यपि बाह्य पदार्थ external reality जीव-द्रव्य के परिणाम में निमित्तमात्र ही है। external जब तक inner नहीं होता उससे कुछ नहीं होता है। वह inner होकर चेतना में प्रवेश करता है तब चेतना उस बाह्य पदार्थ से जुड़कर वैसा आकार ग्रहण कर लेती है। परमात्मा महावीर ने इसी को चित्तशक्ति का नाम दिया है। इसे जीव-वीर्य का स्फुरण भी कहा जाता है। यह चित्तशक्ति बाहर से जिस आकार को ग्रहण करती है उसे भीतर में आकार दे देती है। उस आकृति धारण में चेतना जब आकार को ग्रहण करती है, तब मूल और बाह्य पदार्थ में कोई भेद या अलगाव नहीं लगता है। चेतना में जो आकार होता है वह इतना सूक्ष्म होता है कि उसका संवेदन चेतना ही करती है। बाह्य पदार्थ स्थूल है सब इसे देखते हैं पर आन्तरिक पदार्थ सूक्ष्म है उसका आकार . पकड़ा नहीं जाता है, संवेदन होता है; feeling होता है।
उदाहरणतः मन में हमने किसी भी व्यक्ति को अपने रागी या द्वेषी के रूप में स्थापित किया। उस पात्र में हमारे प्रति राग या द्वेष हो या न भी हो परन्तु हम उस बाह्य को अपने भीतर स्थापित करते हैं तब चेतना वह आकार लेती है। आकार ग्रहण करते समय और ग्रहण कर लेने के बाद वह उसमें इतनी संलग्न हो जाती है कि उसे अपने अस्तित्व का भान नहीं रहता और वह सभी प्रकार के राग और द्वेष का पात्र बन जाता है।
सामने पात्र या चीज हो या न हो परन्तु यदि वह भीतर आकार ले ले तब चेतना उससे काफी कुछ परिणाम प्रकट कर लेती है। जिसे हम कल्पना कहते हैं और कल्पना को तथ्यहीन समझते हैं। परन्तु यह कल्पना विकल्पजन्य भाव स्थिति है। भाव कर्म इसी का नाम है और भाव-कर्म हमारी अपनी ही कल्पना है अतः वह चेतनरूप है। इसी का नाम संसार है। बाह्य संसार की अपेक्षा भीतर का यह संसार अति तीव्रता से विस्तरता है और विकास साधता है।
'जैसे कोई व्यक्ति अकेला एक कमरे में है। अचानक उसे अपना एक रागी व्यक्ति याद आया। उसके विचारों में अपने रागी की आकृति उभरी। वह रागी आकृति उसे दिखने
बने लगी। विचारों में ही उसने उसके साथ खाया-पिया, बातचीत की और कछ समय बाद उसे विदा दे दी। अब सोचें-क्या दिखा, क्या खाया, क्या पिया ? हकीकत में कुछ नहीं किया फिर भी सब कुछ हुआ। घंटों बीत गये उसे ध्यान न रहा। आँखों से तो देखा नहीं फिर भी दिखा तो कहाँ से दिखा ? इस समय हमारी चेतना ही निजकल्पना से भावकर्म द्वारा उस व्यक्ति की आकृति ग्रहण करती है। यह तब तक रह सकता है जब तक चेतना दूसरा आकार ग्रहण न करे। .
अब दूसरा उदाहरण ऐसा. देखें-एक व्यक्ति है। किसी के प्रति उसे घृणा है, तिरस्कार है, गुस्सा है। द्वेष भाव से उद्वेलित होकर किसी प्रसंग से व्यग्र होकर वह
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६४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम सोचता है "वह (द्वेषी) सामने आवे तब उसे पता चलेगा ऐसा फटकारूँगा कि बस..... ऐसा सोचकर वह उसे डाँटता है, फटकारता है इतना अधिक कि कदाचित वह व्यक्ति सामने आवे तो वह इतना कुछ भी नहीं कर सकता। कभी द्वेष भाव से व्यक्ति जिसकी आकृति भी देखना नहीं चाहता या पसंद करता, मजे की बात यह है कि कई बार भावों के द्वारा वह अपनी चेतना में ही उसे आकार देता है, उसे दंड देता है। __वास्तव में देखा जाय तो वह रागी या द्वेषी भी उस वक्त हमारी अपनी पर्याय है। वास्तविक रागी या द्वेषी को कुछ भी संवेदन नहीं है परंतु संवेदनशील अबाध्य अनुभव वाली आत्मा ने एक साथ दोनों अनुभव किये। एक राग करने का और रागी के संतोष . का तथा दूसरा द्वेष करने का और द्वेषी के दुःखी होने का। इसीलिये परमात्मा महावीर . ने कहा-'बंधप्पमोक्ख तुज्झ अज्झत्थमेव।' बंध और मोक्ष तुम में ही है। इसे ही पर्याय (forms) कहते हैं। पर्यायें निरंतर परिवर्तनशील हैं। वस्तुतः हमें राग में तो राग है ही, परंतु द्वेष में भी हमें राग है। हम द्वेष को भी छोड़ नहीं सकते हैं। इसी कारण वीतरागी होना कहा-वीतद्वेषी नहीं। क्योंकि द्वेष से भी हमारा राग है अन्यथा हमें द्वेष से द्वेष होता। यदि ऐसा हो तो द्वेष हट जाय, वह कभी भी भावों में उभरेगा नहीं और न ही .. चेतना में आकार लेवेगा।
अब आप प्रसन्नचंद्र राजर्षि को याद करो। ऊपर की सारी बातें यहाँ घटित हो जायेंगी। पर्यायों का घनत्व मूल द्रव्य के साथ कैसा खिलवाड़ करता है! भावों का सामर्थ्य चौदह राजु लोक में सर्वत्र विचरने का है। कहीं से भी परमाणुओं को ग्रहण कर घन बनाता है, चेतना के पास लाता है। चेतना उसका आकार ग्रहण कर योगों से जुट जाती है, कषाय से अनुबन्ध कर वह कर्मबन्ध कर लेती है। ___आकार को ग्रहण करते समय चेतना आत्मप्रदेशों का सहारा लेने उसे बाहर विस्तारती है। उस समय आत्मप्रदेश बाहर निकलकर पदार्थ के साथ अपना संबंध स्थापित करते हैं, इसे आगम में समुद्घात कहा है। पदार्थ हो या न हो आत्मप्रदेश बाहर निकल कर चेतनाजनित आकार के साथ निजत्व स्थापित कर ही लेता है। उदाहरणतः देखें-मनुष्य में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद का वेदन होना कहा है। अब सोचें-तीनों वेद कैसे संभव हो सकते हैं ? एक व्यक्ति अकेला ही किसी संभोगजन्य स्त्री-पुरुष का चित्र देखता है। उस आकृति को चेतना ग्रहण करती है, तज्जन्य अनुभूति में वह खो जाता है, बिना भोग के भी वह स्त्री-पुरुष दोनों जनित संवेदनाओं को उभारता है तब बाहर से (external) वह किसी एक पर्याय से भले संबन्धित हो परंतु भीतर में वह अपने से अलग दोनों पर्यायों को वेदने का प्रयास करता है। कायिक वेदन नहीं है फिर भी तीनों वेदों का वेदन यहाँ संभव हो जाता है। ___अब हम देखें कि अंरिहंत का ध्यान हमें कैसे इन सब से मुक्त करा सकता है। अरिहंत भी हमारे लिये प्रत्यक्ष न होने से external object ही हैं। इसे हमें inner बनाने हैं। इसे चाहे कल्पना कहो, मुझे कोई एतराज नहीं। आप कल्पना ही 'करें-एक
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अरिहंत परम ध्येय ६५ शुद्ध-विशुद्ध अत्यन्त निर्मल वीतराग स्वरूप अरिहंत आपके सामने विराजमान हैं। आपकी चेतना ने अरिहंत का आकार ग्रहण किया। उनकी स्तुति, उपासनादि करना प्रारंभ किया। इस समय तक रागी द्वेषी के उदाहरण की तरह हमारा मन काम करता गया परंतु जब चेतना इस आकार में घुलमिल जाती है तब संवेदनशील निजात्मा जगता है, प्रसन्न होता है क्योंकि अन्य कल्पनाएँ उससे पर थीं जब कि आत्मा का मूल स्वरूप, निजरूप अत्यन्त शुद्ध, विशुद्ध और निर्मल है। जैसे कल्पना के रागी से रागरंजित हो जीव राग भोगता है, द्वेष से संयुक्त हो द्वेष का अनुभव करता है तो वीतराग को याद कर वीतरागत्व का अनुभव क्यों नहीं हो सकता? रागी external से inner हो सकता है वैसे ही वीतरागी भी inner हो सकता है। ___ कल्पना में उभरे उस विशुद्ध रूप से तारतम्य जोड़ते हुए ही कभी वह भेद खुल जाता है, कल्पना हटती है और आत्मा अपने स्वरूप का अनभव करती है तब अरिहंत पर-पदार्थ या कल्पना नहीं रहेगी। आप स्वयं ही अरिहंत हैं ऐसा अनुभव होगा। उसकी समग्र चेतना स्वयं से जुड़ जाएंगी। समत्व आ जाएगा। उठती हुई ऊर्जा कर्म बन्धन की जगह कर्म-क्षय और निर्जरा का काम करेगी। कल्पनायें हट जाएँगी। राग-द्वेष शनैः शनैः कम होकर समाप्त होने की स्थिति आएगी, जीव श्रेणी का प्रारंभ करेगा। यथाप्रवृत्ति, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण द्वारा अकरण और अयोग तक पहुँच कर सिद्ध पर्याय का अनुभव प्राप्त करता है।
इसे मैं कहती हूँ इसलिये मत मानो, परन्तु इसका स्वयं संवेदन करो, अनुभव करो। यह आपका अपना स्वरूप है। यह संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि हम अपने से ही पराये रहे। सर्व पर हमारा अपना होता गया और हमारा अपना स्वरूप उन आन्दोलनों में छिप गया। अरिहंत का ध्यान कर उस विशुद्ध external को inner होने दीजिये और निज के दर्शन कीजिये।
शब्द में, विचार में, तरंग में भावों को संग्रहीत कर समाविष्ट होने दीजिये। उस महाधारा में हमारी शक्ति सम्मिलित हो जाएगी। स्पेस में, आकाश में जो तरंगें संग्रहीत हुई हैं, अरिहंत के आसपास जो-जो आभामंडल निर्मित हुआ है उन संग्रहीत, निर्मित तरंगों में हमारी तरंगें भी चोट करती हैं। अपने चारों तरफ एक दिव्यता का, भगवत्ता का लोंक निर्मित हो जाएगा। हमें अनुभव होगा कि हम परमात्मा के अनुग्रह से भर रहे हैं। एक rythmic, लयबद्ध, सुन्दर, सिमिट्रीकल, सानुपातिक और व्यवस्थित स्वाभाविकता का निर्माण प्रारंभ होगा। स्वप्न टूट जायेंगे, विकल्प हट जायेंगे और कल्पना के खंडहर ध्वस्त हो जाएंगे।
प्राचीन जैन परम्परा में महाप्राण ध्यान की पद्धति प्रचलित थी। यह ध्यान की उत्तम और अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रक्रिया थी। आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने बारह वर्ष तक महाप्राण ध्यान की साधना की थी। जो महाप्राण ध्यान में जाता है वह संसार से पूर्ण रूप से अलग हो जाता है, कोई संपर्क नहीं रह जाता, सभी संपर्क टूट जाते हैं। साधक गहरी समाधि-अवस्था में चला जाता है।
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६६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
इस ध्यान साधना में प्रथम निज काया में रहकर काया का उत्सर्ग किया जाता है। कितना मुश्किल लगता है न, जिसमें रहकर उसका त्याग। इस प्रणाली को अपनाने की पद्धति या प्रक्रिया विषम जरूर है परन्तु अनुभूतिपरक होने से जिज्ञासु इसकी उपलब्धि कर सकते हैं।
सर्वप्रथम शांत एकांत स्थान में बैठकर अरिहंत के विशुद्ध रूप को अन्तर्चक्षु के सामने ले आओ। फिर यह भावना करो कि मैं संसार के समस्त अन्य भावों से, सम्बन्धों से, विषयों से, विकल्पों से, विकारों से, विचारों और विभावों से विमुक्त हो रहा हूँ। ___ सम्पूर्ण काया का उत्सर्ग करने से शरीर बिल्कुल शिथिल हो जाएगा। देह का शिथिल हो.जाना वास्तविक कायोत्सर्ग है। योग में जो शवासन की स्थिति है उस स्थिति को सामने लाओ। आचारांग में चेतना के ३२ केन्द्र स्थान बताये हैं, जैसे- . १. पैर
२. टखने ३. जंघा ४. घुटने ५. उरु ६. कटि ७. नाभि
८. उदर ९. पार्व-पसाल १०. पीठ ११. छाती १२. हृदय १३. स्तन
१४. कन्धे
१५. भुजा . १६. हाथ १७. अँगुली १८. नख १९. ग्रीवा (गन) २०. ठुड्डी २१. होठ २२. दांत २३. जीभ. २४. तालु २५. गला २६. कपोल २७. कान २८: नाक २९. आँख ३०. भौंह ३१. ललाट ३२. सिर।
इन एक-एक स्थान को क्रमशः धीरे-धीरे शिथिल करके अपने प्राणों में ध्यान को केन्द्रित कर दीजिए; और मन को अरिहंत से संयुक्त कर दीजिये। यह अनुभव करते रहिये कि अरिहंत परमात्मा की विशुद्ध चेतना में मेरा प्रवेश हो रहा है।, मेरी चेतना उनकी चेतना में एकरूप हो रही है। धीरे-धीरे प्राणों के साथ चेतना का तादात्म्य होता जायेगा। प्राण और चेतना का सम्पर्क होने पर ध्यान उस विशुद्ध चेतना में केन्द्रित हो जायेगा जहाँ हम आज तक कभी नहीं पहुंच पाये। . - इसमें किसी मन्त्रादि की आवश्यकता नहीं। शब्द, विचार आदि समस्त पुद्गल से मुक्त होकर प्राणों की ऊर्जा को अपने निज स्वरूप से संयुक्त कर दीजिये। फिर भी पुद्गल का स्वभाव है कभी शीत का, कभी उष्ण का, कभी स्पंदन का अनुभव होता रहेगा पर आप इसे इतना महत्वपूर्ण न समझकर प्राणों में ही केन्द्रित रहने का प्रयास कीजिये।
इतने पर विचारों का आवागमन अपने आप समाप्त हो जाएगा। कई बार मोहनीय के उदय से राग-द्वेष जनित भावधारा में कोई विकल्प उठ भी जावे तो उसे ही अपनी कमजोरी का कारण समझकर “मेरा निज स्वरूप राग-द्वेष से सर्वथा भिन्न है और मुझे निजरूप में रमण करना है" ऐसा ध्यान में लाने पर उन कर्मों की निर्जरा हो जाएगी और पुनः चेतना अपनी प्राणधारा में प्रवेश कर अरिहंत से सम्पर्क स्थापित करेगी।.
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अध्याय ४
आराधक से आराध्य
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१. आत्मविकास की प्रथम भूमिका २. सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व ३. सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात्
४. भावी अरिहंत की भावना . ५. तीर्थंकरत्व और तीर्थंकर नामकर्म
६. आराधक से आराध्य ७. .अरिहंत पद-प्राप्ति के उपाय ८. श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा की विभिन्न मान्यताएँ ९. अरिहंत बनने के २० उपाय
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आराधक से आराध्य
आत्म विकास की प्रथम भूमिका ___अरिहंत-पद प्राप्ति साधारण साधना नहीं है। एक भव की साधना से इसकी परिपूर्ण प्राप्ति नहीं हो सकती है। इसकी प्राप्ति के लिये तो अनेक भवों की साधना चाहिये। यह साधना अरिहंत-तीर्थंकर बनने की अभिलाषा से भी नहीं की जाती, किन्तु मुक्त होने की भावना से ही इस साधना का प्रारम्भ होता है। साधना के आदिकाल में संवेग (मोक्ष की रुचि-प्रेम) होता है और उस रुचि में से ही अरिहंत भगवान के प्रति भक्ति उत्पन्न होती है। उनकी परम वीतरागता, सर्वज्ञ-सर्वदर्शिता, यथाख्यात उत्तमोत्तम चारित्रं आदि उत्तम गुणों का चिन्तन करते हुए, उनके प्रति भक्ति, बहुमान, वन्दन, नमस्कार करते हुए और उन गुणों को अपने में उतारने में प्रयत्नशील होते हुए अरिहंत-तीर्थकर नाम कर्म की सर्वोत्तम पुण्य-प्रकृति के दलिक, आत्मा के साथ संबंधित होते हैं। यदि साधना चलती रहे और इस प्रकार के दलिकों का संग्रह होता रहे, तो कालान्तर में, भावों की परम-उत्कृष्टता से तीर्थकर नाम कर्मों का निकाचित बंध हो जाता है। १. सम्यक्त्व-प्राप्ति के पूर्व
सम्यक्त्व प्राप्ति के पूर्व भी अरिहंत परमात्मा की अन्य जीवों की अपेक्षा उत्तमोत्तम अवस्था होती है। अव्यवहारराशि में भी अरिहंत परमात्मा अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक गुणवान् होते हैं। फिर भी उनका सत्त्व आच्छन्न होता है। व्यवहारराशि में आते हैं और पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं तो चिंतामणि रल होते हैं, अपकाय में तीर्थजल में उत्पन्न होते हैं, तेजसकाय में यज्ञ या मंगलदीप की अग्निरूप होते हैं, वायुकाय में वसंतकालीन, शीत, मृदु, सुवासित पवन बनते हैं, वनस्पतिकाय में कल्पवृक्ष, आम्र या अन्य कोई विशेष फल या औषधि रूप होते हैं। उसी प्रकार द्वीन्द्रिय में दक्षिणावर्त शंख होते हैं, तिर्यंचपंचेन्द्रिय में उत्तम हस्ति या अश्व होते हैं। इस प्रकार सर्व गति और जाति में उत्तम स्थान प्राप्त करते हैं। सूरिमन्त्रकल्प-समुच्चय के अनुसार सम्यक्त्व के पूर्व अरिहंत की आत्मा विकलेन्द्रिय में नहीं जाती है।
- इस प्रकार अनादिकाल से अरिहंत परमात्मा विशेष उत्तमताओं से युक्त होते हैं। कुछ विशिष्टताओं में प्रसिद्ध उत्तमताएँ इस प्रकार हैं१. क्षेमंकरगणिकृत षट्पुरुष चरित्र, पत्र ३४ । २. पृष्ठ-९८॥
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७० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
परार्थव्यसनिनः : परोपकार करने के व्यसन वाले। उपसर्जनीकृतस्वार्थाः : स्वार्थ को सदा अप्रधान करने वाले। उचितक्रियावन्तः : सर्वत्र उचित क्रिया को आचरने वाले। अदीनभावाः : दीनभाव से रहित। सफलाराम्भिणः : सफल कार्य का ही आरंभ करने वाले। अद्दढानुशयाः : अपकारियों पर भी क्रोध नहीं करने वाले। कृतज्ञतापतयः : कृतज्ञता गुण के स्वामी। अनुपहतचित्ताः : दुष्टवृत्तियों रूप रागादि के अतिरेक रहित चित्त वाले। देवगुरुबहुमानिनः : देव और गुरु का बहुमान करने वाले। गम्भीराशयाः : गंभीर आशय वाले चित्त के भाव को धारण करने वाले।
सम्यक् प्रकार का भव्यत्व भाव प्रत्येक आत्मा में अनादिकाल से संसिद्ध होता है। तथाप्रकार के देश-काल निमित्तादि उत्तम सामग्रियों को प्राप्तकर बीजसिद्धि रूप भाव को प्राप्त होता है। यह भव्यत्व स्वभाव अनादिकाल से आत्मा में सहज रूप से रहा हुआ होता है। भव्य जीवों को अभव्य में बदलने का निश्चय से अभाव होता है। सम्यक् प्रकार की जो भव्यता होती है वह वस्तुतः मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता कही जाती है।
भव्यत्व यद्यपि सर्व आत्माओं का समान होता है फिर भी सभी भव्य आत्माओं की मुक्ति समान काल में अथवा समान सामग्रियों से ही संभव नहीं होती। अतः सर्व आत्माओं का “तथाभव्यत्व" अलग-अलग प्रकार का होता है। इन "तथाभव्यत्वों" में भी जिनेश्वर देव की आत्माओं का “सहज तथाभव्यत्व" सर्वोत्तम होता है। जैसे-जैसे उनका "सहज तथाभव्यत्व" यथोक्त सामग्रियों से परिपक्व होता है, वैसे-वैसे उनकी उत्तमता प्रगट होती जाती है। वरबोधि-सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद तो श्री अरिहंत परमात्मा की आत्मा सर्वथा परार्थ उद्यमी, उचितक्रियावान् और जगत् के जीवों के उद्धार करने के प्रशस्त आशय वाली होती है। अतः उनकी सर्व प्रवृत्ति सफल आरम्भ वाली और सत्वार्थ-परोपकार को साधने वाली होती है। __ भव्यत्व का अभिप्राय है सर्वकर्मदलों का सम्पूर्ण नाश कर परमनिर्वाण रूप मोक्ष को प्राप्त कराने वाला आत्मा का स्वभाव। यहाँ कभी प्रश्न हो सकता है कि यदि भव्यत्व आत्मा का स्वभाव ही है, अथवा इसी विशेष प्रकार की योग्यता से सिद्धि प्राप्त हो सकती है तो क्यों भव्यात्मा अनादिकाल से व्यर्थ भ्रमण करते हैं ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि परम निर्वाण रूप मोक्ष को प्राप्त करना भव्य जीवात्मा का स्वभाव होता है। वह अनादिकाल से जीव के साथ पारिणामिक भाव से सत्ता में अव्यक्त रहता है। वह योग्य काल की परिपक्वता होने पर ही अनादिकालीन कर्ममल का नाश कर योग्य शुद्धता को प्राप्त कर सहज रूप में रही हुई परम अवस्था के रूप में प्रकट होता है।
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आराधक से आराध्य ७१ ................................... २., सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात्-भावी अरिहंत की भावना ____ भविष्य में होने वाले अरिहंत औपशमिकादि किसी भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर उसके बल से सम्पूर्ण संसार के आदि, मध्य और अंत भाग में निर्गुणता या गुणरहितता का निर्णय करते हैं। अतः सम्पूर्ण संसार में चाहे फिर कोई भी भाग हो उसमें आत्मा को उन्नत करने वाला कोई तत्व नहीं है, ऐसा निर्णय कर वे तथाभव्यत्व के माध्यम से ऐसा विचार करते हैं-अहो! जगत् में सर्वज्ञप्रणीत धर्मरूपी उद्योत विद्यमान होने पर भी मिथ्यात्वादि मोहांधकार से व्याप्त दुःखित प्राणी व्यर्थ ही संसार में परिभ्रमण करते हैं। वरबोधि को प्राप्त ऐसा मैं भीषण भवभ्रमण से पीड़ित प्राणियों को किसी भी प्रकार से सर्वज्ञ भगवान् के धर्मरूपी उद्योत द्वारा दुःखमय संसार से अवतीर्ण करलूँ। अनुकम्पा और आस्तिक्यादि गुणों से युक्त, परोपकार करने के व्यसन वाले, नूतन एवं प्रशस्त गुणों के उदय से प्रतिक्षण जिनका विकास होता जाता है ऐसे बुद्धिमान् आत्मा प्राणियों पर करुणा से प्रेरित होकर उनको अवतीर्ण करने में अनुरक्त हो जाते हैं। .
भावी अरिहंत की भावना का स्वरूप दर्शाते हुए आचार्य मलयगिरिजी कहते हैं
"अहो आश्चर्य है कि श्री जिनेश्वरदेव का स्फुरायमान तेज प्रकाश वाला प्रवचन विद्यमान होने पर भी मोहान्धकार से जिनका सन्मार्ग लुप्त हो गया है ऐसे दुःख परीत चित्त वाले प्राणी इस संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं, इस तारक प्रवचन द्वारा इस भयंकर संसार से उनका निस्तार करूं।"२
इस प्रकार विचार कर अन्यों पर उपकार हो वैसा वे प्रयास करते हैं। अतः वे न केवल विचार कर बैठे ही रहते हैं परन्तु इस प्रकार जगत् के सर्व जीवों के उद्धार का वे प्रयास भी करते हैं।
सम्यक्त्व के प्रभाव से तीर्थंकरत्व का पुण्य उपार्जित करने वाले पुण्यात्मा के हृदय में संसार के दुःखमय, दुःखमूलक और दुःखानुबंधी स्वभाव का खयाल बहुत अधिक जागृत होता है। ऐसे दुःखमय संसार में फंसे हुए प्राणि मात्र पर उनके हृदय में उत्कृष्ट भाव-दया उत्पन्न होती है। वे निरन्तर "सबि जीव करूँ शासन रसी, इसी भावदया मन उलसी" का रटन करते हैं। वे निरन्तर भावना भाते हैं कि “मैं विश्व के समग्र जीवों को जन्म-मरण की बेड़ी से मुक्त करूँ। आधि, व्याधि और. उपाधि रूप त्रिविध ताप से संतप्त जीवों को दुःख रहित करूँ। समस्त प्राणियों को, विश्व के समस्त जीवों को जिनशासन के रसिक बनाऊँ। सभी को धर्मभावना से ओतप्रोत करूँ। महामायावी और
१. योगबिन्दु-गा. २८५-२८६ २. पंचसंग्रह-आचार्य मलयगिरिजी कृत टीका सहित-द्वार ४, गा. २० की टीका पत्र
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सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
प्रलोभक ऐसे मोह और अज्ञान के मृगपाश में जीवों को फँसाने वाला कर्मसत्ता रूप शिकारी जीवों का कैसे बेहाल करता है। नरक निगोद तक के प्रचंड दुःख देकर चतुर्गतिरूप संसार में भटकाता है। मैं कब इतना समर्थ बनूँ और कब इन दुखी जीवों को कर्म की कुटिल, कराल वेदनामयी जालों से उन्मुक्त करूँ। कब मुझे ऐसा सामर्थ्य प्राप्त हो कि मैं संसार के समस्त जीवों को मोक्षमार्ग का पथिक बना सकूँ।" ऐसी उत्कृष्ट सद्भावना से भरी भावदया के बल पर वे महात्मा-पुण्यात्मा तीर्थंकर नामकर्म जैसी महान और उत्तम पुण्य प्रकृति की निकाचना करते हैं। ऐसी उत्तम भावना के बिना. ऐसी प्रकृष्ट पुण्यशाली, अप्रतिम प्रभावशाली, महान सौभाग्यशाली और अत्यन्त वैभवशाली तीर्थंकर प्रकृति की उपलब्धि असंभव है। ३. तीर्थकरत्व एवं तीर्थंकर नामकर्म
परमात्मतत्व अर्थात् वीतरागत्व-सर्वज्ञत्व। मोहनीय और अन्य घातिकर्मों के क्षय के. प्रभाव से आत्मा की अशुद्धियों और आवरणों के हट जाने से, रागादि के टूट जाने से वीतरागता आती है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से अज्ञानता टलती है और सर्वज्ञतां आती है, परन्तु तीर्थकरत्व तो विशिष्ट कोटि की पुण्य प्रकृति-शुभप्रकृति के उदय में आता है; क्योंकि तीर्थंकरत्व के लिए सर्वश्रेष्ठ यश, सर्वश्रेष्ठ वचन, आदेयता, रूप, स्वर, सौभाग्य आदि असाधारण अनुकूलताएँ स्वाभाविक होती हैं। तीर्थंकर महाप्रभु के सौभाग्यादि से मनुष्य, तिर्यंचादि भी आकर्षित हो जाते हैं। तीर्थंकर की वचन शक्ति के कारण उनका प्रवचन सभी जीव अपनी अपनी भाषा में समझ लेते हैं। इसकी (तीर्थंकरत्व की) उपलब्धि में मुख्यतः तीन साधनाएँ सहायक होती हैं- (१) अविहड निर्मल सम्यक्त्व, (२) बीस स्थानक और (३) विशिष्ट विश्वदया। .
तीर्थंकरत्व उपार्जन-निकाचन के समय सम्यक्त्व, साधुत्व या श्रावकत्व अनिवार्य है। इन तीन में से चाहे कोई भी किसी स्थिति में हो, उन्हें तीर्थंकरत्व संभव हो सकता है। भगवान ऋषभदेव और श्री पार्श्वनाथ स्वामी ने पूर्व के तीसरे भव में चक्रवर्तित्व की समृद्धि एवं सुखशीलता का त्यागकर सर्वविरति रूप चारित्र एवं पवित्र साधुत्व स्वीकार कर प्रबल साधना की थी एवं तीर्थंकरत्व का पुण्य उपार्जित किया था। श्रमण भगवान महावीर ने भी राज्य का त्याग कर मुनित्व अंगीकार कर एक-एक लाख वर्ष तक मासक्षमण के पारणे पर पुनः मासक्षमण का क्रमबद्ध तप की आराधना द्वारा तीर्थंकर नामगोत्र उपार्जित किया। सम्राट श्रेणिक ने मात्र सम्यक्त्व का स्पर्श कर और सुलसादि ने श्रावक धर्म का पालन कर तीर्थंकर नामकर्म का निकाचन किया।
इस प्रकार के पुण्य उपार्जित कर पूर्व का तीसरा भव पूर्ण होते ही ये आत्माएँ वैमानिक देवलोक में देवरूप उत्पन्न होती हैं, परन्तु जो तीर्थकरत्व निकाचन के पूर्व नरकगति का आयुष्य बाँध चुके होते हैं वे भव पूर्ण कर नरकगति में जाते हैं। नरक में भी वे तीसरी नरक तक ही जाते हैं, आगे नहीं। वहाँ आत्माएँ तत्वदृष्टि और
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आराधक से आराध्य ७३
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उपशमसहित विरक्त दशा में काल व्यतीत करते हैं। एक ओर नरक की भयंकर वेदना हो और दूसरी ओर परमाधामी देवों द्वारा संताप हो, फिर भी उन पर अमैत्री भाव या कषाय भाव न लाकर सर्व प्रकार की दर्भावना से रहित रहते हैं। स्वयं के ही कर्मों का फल है ऐसा समझकर उन्हें शांत भाव से सहते हैं। नरक की अपार, अकथ्य, असह्य वेदना में भी आत्म-जागृति, अपूर्व समाधिभाव यही इनकी सर्वोपरि, सर्वश्रेष्ठ महानता एवं विशिष्टता है।
देवलोक में जाने वाले तीर्थकर के जीव को भी वहाँ भोगविलास के अपार साधन और वातावरण प्राप्त होने पर भी उन्हें उसमें कोई आन्तरिक आनंद उपलब्ध नहीं होता है। इन्हें तो वे चैतन्य-पुद्गल के खेल और पुण्य की लीला समझकर स्वयं अनासक्त भाव में रहते हैं।
- आत्मा और परमात्मा में भेद केवल कर्म-आवरण का है। कर्म-आवरण, विभाव-परिणति कर्मोदय से अनुप्राणित है। विभाव रूप विकारी भाव मिट जाने पर आत्मा परमात्मा बन जाता है। स्वभाव से आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है, अन्तर केवल विभावजनित ही है। ज्यों-ज्यों विभाव और तत्जन्य. कर्मावरण में कमी आती है, त्यों-त्यों आत्मा में हलकापन आता है और वह उन्नत होती जाती है।
शुभकर्मों की ४२ प्रकृतियों में तीर्थंकर प्रकृति सर्वोत्तम है। जो आत्मा इस सर्वोत्कृष्ट पुण्य-प्रकृति को बाँधकर दृढ़ीभूत (निकाचित) कर लेता है वह अवश्य ही परमात्मपद प्राप्त करता है।
सम्यग्दृष्टि भव्यात्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्नत्रय की आराधना द्वारा प्रयत्नशील होते होते, तीर्थंकर नामकर्म की सर्वोत्तम पुण्यप्रकृति के दलिक इकट्ठे करते रहते हैं। यदि साधना चलती रहे और इस प्रकार के दलिकों का संग्रह होता रहे, तो कालान्तर में, भावों की परम उत्कृष्टता में तीर्थंकर नाम कर्म निकाचित (दृढ़ीभूत, अवश्य फल देने वाला) बंध जाता है। इस प्रकार की उत्तम सामग्री मनुष्य को ही प्राप्त हो सकती है
और. वह भी उसी मनुष्य को जो अरिहंत भगवंत को, उनके स्वरूप को यथार्थ रूप में जानता है, मानता है और उनका आदर-सम्मान करता है। फिर भले ही वह श्रावक हो या श्राविका, साधु हो या साध्वी। जो सम्यक्त्वी मनुष्य अरिहंतों के प्रति अनन्य भक्ति रखता हो, वह भावों की उत्कृष्टता से तीर्थंकर नामकर्म बाँधता है। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी गति में, तथा मिथ्यात्व के सद्भाव में, तीर्थंकर नामकर्म निकाचित नहीं होता। - यदि जीव स्वतः चरम शरीरी हो, तो उसे सभी प्रकार की अनुकूलता प्राप्त हो सकती है और वह अधिकाधिक निर्जरा करता रहता है। वह आयु-कर्म का बन्ध होने योग्य परिणति नहीं होने देता और समस्त कर्मों का क्षय करके मुक्त ही हो जाता है। किन्तु जो आत्मा चरम शरीरी न हो, जिसके पुनर्भव का बन्ध हो चुका हो या होने
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७४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम योग्य हो, जिसके निर्जरा के साथ शुभ बन्ध की मात्रा अधिक हो, और जिसमें समूचे संसार के जीवों को जिनशासन के रसिक बनाकर संसार से मुक्त कराने की तीव्रतर भावना हो उसी में से कोई तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कर सकता है। ___ यह पुण्यानुबंधी पुण्य, बिना भौतिक इच्छा के धर्म की आराधना करने पर ही होता है। आत्मार्थीजन न तो दैविक सुख की इच्छा से धर्म की आराधना करते हैं, न तीर्थंकर-पद प्राप्ति की इच्छा से ही। वे तो सहज भाव से चारित्र का पालन करते रहते हैं। उनको देव-गुरु और धर्म के प्रति भक्ति एवं अनुराग रहता है। इसी से वे . देवाराधना, गुरुभक्ति, वैयावृत्यादि करते हैं और ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप की . आराधना करते हैं। इस आराधना के साथ रहा हुआ संवेग-अनुराग और उसमें रही हुई भावों की उत्कृष्टता ही इस प्रकार की प्रकृति का बंध करती है।
यद्यपि एक क्षेत्र में एक तीर्थंकर से अधिक नहीं होते। एक के बाद ही दूसरे होते हैं, तथापि किसी भी समय तीर्थंकर नामकर्म के बँधे हुए जीव, वर्तमान मनुष्यों से अधिक ही होते हैं। उनमें से कोई नरक में और अधिकांश देवलोक में होते हैं। मनुष्यभव में तीर्थंकर नामकर्म बाँध करके देवलोक जाने वाले, जघन्य पल्योपम और उत्कृष्ट ३३ सागरोपम प्रमाण आयुष्य वाले देव होते हैं। एक पल्योपम भी असंख्य पूर्वो का होता है और सागरोपम का तो कहना ही क्या? इधर कोई भी तीर्थंकर अधिक से अधिक एक लाख पूर्व तक ही तीर्थंकर रूप में विचर सकते हैं और विभिन्न क्षेत्रों में कम से कम २0 तीर्थंकर तो लोक में सदा विचरते ही रहते हैं। महाविदेह क्षेत्र में तो सदाकाल तीर्थंकर रहते हैं। यदि एक तीर्थंकर एक लाख पूर्व तक.रहे और उनके बाद दूसरे हों और वे सब एक सागरोपम की स्थिति के देवों में से ही आते रहें, तो वहाँ देवलोक में तीर्थंकर नामकर्म के बन्धक देव कितने होने चाहिए, कम से कम बीस तीर्थंकर तो सदा मौजूद रहते ही हैं। ऐसी स्थिति में तीर्थंकर नामकर्म के बन्धक जीव भी अभी देवलोक में उतने मौजूद हैं जितने गर्भज मनुष्य भी अभी इस लोक में नहीं हैं अर्थात् तीर्थंकर नामकर्म के बन्धक जीवों की संख्या, सदैव मनुष्यों की संख्या से अधिक ही होती है। हजारों साधु और श्रावक इस उत्कृष्ट पुण्यानुबंधीपुण्य का बन्ध करते रहते हैं।
बन्ध दो प्रकार का होता है-निकाचना रूप और अनिकाचना रूप। अनिकाचनारूप बन्ध तीसरे भव से पूर्व भी हो सकता है, क्योंकि जघन्य से भी तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्ध अन्तःक्रोडाक्रोड सागरोपम का है। जब कि निकाचनारूप बन्ध तीर्थंकर के भव से पूर्व तीसरे भव में ही होता है; इसलिये कहा है कि "तच्च कहं वेइज्जइ अगिलाए धम्म देसणाईहिं। बज्झइ तं तु भयवओ तइयभवोसक्कइत्ताणं।" तीर्थंकर नामकर्म का वेदन तो ग्लानिरहित धर्मदेशना द्वारा ही हो सकता है। निकाचित बंध तो अवश्य फल प्रदान
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करता 'है, अनिकाचित बंध फल देता है अथवा नहीं भी देता है। निकाचना रूप बंध तीसरे भव से लेकर तीर्थंकर के भव में अपूर्वकरण के संख्यातवें भाग तक रहता है।
तीर्थंकर पद की प्राप्ति उतनी सरल नहीं होती है। प्रत्येक इसे प्राप्त करने के अधिकारी भी नहीं हो सकते हैं, हां इसकी प्राप्ति के उपायों के अधिकारी अनेक जीव हो सकते हैं, परन्तु इसकी प्राप्ति के तीसरे भव के पूर्व इसका सम्पूर्ण उपभोग असंभव है। चाहे बीस स्थानक बीस बार भी क्यों न आराधा जाय, उसी भव में इसका वेदन नहीं हो सकता है। उसका फल तो भवांतर में ही मिलता है। उपभोग की अवधि काफी लगती है फिर भी इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। जैसे उत्तम रसायन या भस्म प्रयोग के तुरंत पश्चात् उसका असर नहीं होता इसके परिणाम में प्रतीक्षा अनिवार्य है। इसीलिए उपार्जन कई भवों से होता है परन्तु निकाचन तीसरे भव में ही होता है क्योंकि पहले बाँधे हुए कर्मों का जोश कम न हो तब तक नये कर्मों का उदय आता नहीं है। अतः नियमतः तीर्थंकर नामकर्म का निकाचन, आत्मा तीसरे भव में तीर्थंकर होने वाला हो तो ही होता है। इसका उत्कृष्ट पुण्य पूर्व कर्मों के हट जाने पर ही भोगा जाता है। तीर्थंकर नाम कर्म की निकाचना याने एक वही भव दूसरा देव या नरक का
और तीसरा भव तीर्थंकर का। इन तीन में से एक भी भव कम करने की शक्ति तो स्वयं तीर्थंकर में भी नहीं है। अनंत, असंख्यात संसार के विस्तार का निस्तार कर इसे मर्यादित करने में समर्थ स्वयं तीर्थंकर की आत्मा भी इन तीन में से एक भी भव को कम नहीं कर सकती।
यह तीर्थकर नामकर्म कोई भी साधक चाहे, स्त्री, पुरुष या नपुसंक किसी भी वेद में हो, उपार्जित कर सकते हैं। इसके बारे में श्री भद्रबाहुस्वामी का कहना है कि निश्चय से मनुष्यगति में स्त्री, पुरुष या नपुंसक, शुभलेश्या वाले बीस में से अन्यतर एक या अधिक स्थानों के सेवन द्वारा तीर्थंकर नामकर्म बाँधते हैं। निश्चय से यह मनुष्यगति में ही बाँधा जाता है। आचार्य हरिभद्रसूरिजी भी आवश्यक वृत्ति में प्रस्तुत मन्तव्य पर कहते हैं कि निश्चय से मनुष्यगति में बाँधा जाने वाला यह कर्म मनुष्य गति में स्त्री, पुरुष या इतर अर्थात् नपुंसक द्वारा बाँधा जाता है। परंतु तृतीय कर्मग्रंथ में बंध-स्वामित्व के निरूपण में कहा है-प्रथम तीन नरक के नारकी, वैमानिक देव और गर्भज मनुष्य सम्यक्त्वादि गुणस्थान में वर्तते हुए तीर्थंकर नामकर्म बाँधते हैं।२
पूर्वोक्त दोनों मान्यताएँ परस्पर विरुद्ध होने पर भी काललोकप्रकाश में इसका समाधान प्रस्तुत किया गया है-तीर्थंकर नामकर्म जिसने बाँधा है ऐसा मनुष्य आयुष्य
१. प्रवचन सारोद्धार, भाग १, द्वार-१०, गा. ३१९, पत्र-८४/१. २. (अ). गा. ६,१०,११.
(आ) काललोक प्रकाश, सर्ग, ३0, गा. १८-१९.
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७६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम पूर्ण कर प्रथम की तीन नरक में अथवा वैमानिक देव में उत्पन्न होते हैं और वहाँ भी तीर्थकरनामकर्म बाँधते हैं अतः दलिक प्राप्त होते हैं। जिन नामकर्म का सतत बंधकाल उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम प्रमाण अनुत्तर विमान वासी देवों के आश्रित है-ऐसा । शतककर्मग्रन्थ में कहा है। अतः कार्मग्रंथिकों ने तीन गति में तीर्थंकरनाम का बंध कहा है परन्तु प्रथम तो मनुष्य ही उसके बंध का प्रारम्भ करता है इसी कारण आवश्यक नियुक्ति में “नियमा मणुअगइए"१ ऐसा कहा है। नरक में और देवगति में सामान्यतः इसका बंध होता है। निकाचितबंध तो मनुष्यगति में ही होता है ऐसा आशय आवश्यक नियुक्ति के “नियमा मणुअगइए" कथन के अनुसार मानना चाहिए।" ___ पंचेन्द्रिय पर्याय का काल कुछ अधिक एक हजार सागर और त्रसकाय का काल कुछ अधिक दो हजार सागर बतलाया है। इससे अधिक समय तक न कोई जीव लगातार पंचेन्द्रिय पर्याय में जन्म ले सकता है और न लगातार त्रस ही हो सकता है। अतः अन्तः कोटाकोटि सागर प्रमाण स्थिति का बन्ध करके जीव इतने काल को केवल नारक, मनुष्य और देव पर्याय में ही पूरा नहीं कर सकता। अतः प्रश्न हो सकता है कि यदि तीर्थंकर नाम कर्म की जघन्य स्थिति भी अन्तःकोटाकोटि सागर है तो तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता वाला जीव तिर्यंचगति में भ्रमण किये बिना नहीं रह सकता, क्योंकि तिर्यंचगति में भ्रमण किये बिना इतनी लम्बी स्थिति पूर्ण नहीं हो सकती। किन्तु तिर्यंचगति में जीवों के तीर्थंकरनाम कर्म की सत्ता का निषेध किया है, अतः इतना काल कहाँ पूर्ण करेगा। अतः तीर्थंकर के भव से पूर्व तीसरे भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध होना बतलाया है। अन्तः कोटाकोटि सागर की स्थिति में यह भी कैसे बन सकता
___इसका समाधान इस प्रकार है-तीर्थकरनाम कर्म की उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोटाकोटि सागर प्रमाण है। यह स्थिति अनिकाचित तीर्थंकर नामकर्म की है। निकाचित तीर्थंकर नामकर्म तो अन्तःकोटाकोटि सागर के संख्यातवें भाग से लेकर कुछ कम दो पूर्व कोटि अधिक तैंतीस सागर है। तिर्यंचगति में जो तीर्थकरनाम कर्म की सत्ता का निषेध किया है वह निकाचित तीर्थंकर नामकर्म की अपेक्षा से किया है। अर्थात् जो तीर्थंकर नामकर्म अवश्य अनुभव में आता है, उसी का तिर्यंचगति में अभाव बतलाया है। किन्तु जिसमें उद्वर्तन और अपवर्तन हो सकता है उस तीर्थंकर प्रकृति के अस्तित्व का निषेध तिर्यंचगति में नहीं किया है। जिसमें उद्वर्तन और अपवर्तन हो सकता है उस अनिकाचित तीर्थंकर नामकर्म के तिर्यंचगति में रहने पर कोई दोष नहीं है। श्री
१. आवश्यक नियुक्ति-गा..१८४. २. आवश्यक नियुक्ति-गा. १८४, प्र. १९२. ३. पंचसंग्रह-गाथा-८०.
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आराधक से आराध्य ७७
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जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने स्वरचित विशेषणवती' में इसका वर्णन करते हुए लिखा है-तीर्थंकर नामकर्म की स्थिति कोटाकोटि सागर प्रमाण है, और तीर्थंकर के भव से पहले के तीसरे भव में उसका बन्ध होता है। इसका आशय यह है कि तीसरे भव में उद्वर्तन-अपवर्तन द्वारा उस स्थिति को तीन भवों के योग्य कर लिया जाता है। अर्थात् तीन भवों में तो कोटाकोटि सागर की स्थिति पूर्ण नहीं हो सकती, अतः अपवर्तनकरण के द्वारा उस स्थिति का ह्रास कर दिया जाता है। शास्त्रकारों ने तीसरे भव में जो तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का विधान बताया है, वह निकाचित तीर्थंकर प्रकृति के लिए है, निकाचित प्रकृति अपना फल अवश्य देती है। किन्तु अनिकाचित तीर्थंकर प्रकृति के लिए कोई नियम नहीं है, वह तीसरे भव से पहले भी बंध सकती है। ___ जिस प्रकृति में कोई भी करण नहीं लग सकता, उसे निकाचित कहते हैं। स्थिति और अनुभाग को बढ़ाने को उद्वर्तन कहते हैं और स्थिति वं अनुभाग को कम करने को अपवर्तन कहते हैं। ___ तीर्थंकर नामगोत्र कर्म के लिए श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में "तीर्थंकरत्व" और "तीर्थंकर नामगोत्र कर्म" ये दोनों शब्द पाये जाते हैं जैसे
स्थानांगसूत्र में तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म-शब्द का प्रयोग इस प्रकार है-समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तित्थंसि णवहिं जीवेहिं तित्थगरणामगोत्ते कम्मे णिव्वतितेअर्थात् श्रमण भगवान् महावीर के तीर्थ में नौ आत्माओं ने तीर्थंकर नामगोत्र कर्म का बंध किया। इसकी टीका में कहा है तीर्थकरत्व के कारणभूत नामकर्म को तीर्थकरनामगोत्र कर्म कहा जाता है। अथवा, तीर्थकर यह जिस कर्म का गोत्र अर्थात् नाम है वह "तीर्थकरनामगोत्रकर्म" कहा जाता है। नायाधम्मकहा में कहा है-"तित्थयरत्तं लहइ जीवो" यहाँ तीर्थंकरनामगोत्र कर्म के स्थान पर तीर्थकरत्व शब्द का प्रयोग किया गया है।
षट्खंडागम में बंधसामित्त विचय३ के अन्तर्गत "तत्थ इमेहि सोलसेहि कारणेहिं जीवा तित्थयरणामगोदकम्मं बंधंति"-इस वाक्य में स्थानांग सूत्र की तरह "तीर्थंकरनामगोत्रकर्म" शब्द का ही प्रयोग किया है। धवलाटीकाकार कहते हैं-तीर्थकर प्रकृति नामकर्म एक भेद है फिर उसमें उसे गोत्र संज्ञा इसलिए प्राप्त हो सकती है कि उच्च गोत्र के बंध का यहाँ अविनाभावी संबंध है। . इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि दोनों संप्रदाय के ग्रन्थों में तीर्थंकर, तीर्थकरनामगोत्र और तीर्थंकरत्व तीनों शब्द पाये जाते हैं। दोनों संप्रदायों के उत्तरवर्ती १. गाथा-७0 से ८०. २. स्थानांग सूत्र-सटीक, स्था. ९, उद्देशक-३, सूत्र-६२१-पत्र ४५५. ३. छक्खंडागमो-धवलाटीका सहित तृतीय खंड, बंधस्वामित्व विचय, सूत्र ४0, पृ. ७८.
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७८ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम साहित्य में “तीर्थंकरनामगोत्रकर्म" छूट गया और केवल तीर्थंकरनामकर्म प्रचलित रहा। इसका मुख्य कारण पाठ की सुगमता ही हो सकती है।
आराधक से आराध्य आराधना का पूर्ण उद्देश्य जैन दर्शन में आराध्य बन जाना है। कोई भी आराधक जब आराध्य सम्बन्धी पूर्णता प्राप्त कर लेते हैं तब नियत काल पर्यन्त लोक में धर्मोपदेशादि द्वारा भव्यात्माओं का निस्तार करते हैं। उनके इस अनुग्रह के अचिन्त्य प्रभाव से अनेकों का उद्धार हो जाता है। नियत काल पूर्ण हो जाने पर वे अपना लक्ष्य सिद्ध कर ही लेते हैं। अरिहंत परमात्मा जिनके ध्येय का पूर्ण विकास मुक्ति की प्राप्ति .. है। इस प्रयास में लोकोपकार या अनेकों के उद्धार की सर्व जन को जिनशासन-प्रिय बनाने की महती भावना से वे आत्माएँ तीर्थंकर नामगोत्रकर्म रूप विशिष्ट पुण्य प्रकृति . का निकाचन कर लेते हैं और उसी के फलस्वरूप निर्वाण-प्राप्ति तक लोक में .. धर्मदेशनादि करते हैं।
आराध्य को आराध्य के रूप में इस लिए स्वीकार लेना कि वे पूर्णता को प्राप्त हो चुके हैं अतः आत्मस्थिति में हम से बहुत कुछ महान् हैं केवल सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं बन सकता। पूर्णत्व की उपलब्धि के अतिरिक्त भी एक वैशिष्ट्य उनमें होता है और वह है "तीर्थकरत्व-आर्हन्त्य"। यह उन्होंने कैसे पाया? कौनसी आराधना इसमें काम कर गई जो वह अद्भुत पुण्यबल इन्हें उपलब्ध हो पाया और ये ही आत्माएँ आराधक से आराध्य बने। सारी आराधना इन्हीं के पुनीत चरणों में अर्पित की जाने लगी। इसके तीन कारण हैं (१) सम्यक्त्व, (२) जगत के सर्व जीवों को शासन-प्रिय बनाने की विराट भावना और (३) आगमोक्त २0 उपायों की आराधना। ... १. अरिहंत पद प्राप्ति के परम उपाय
अरिहंत बनने योग्य आत्माएँ अपने तथाभव्यत्व के योग परिणाम से जगत् के सर्व जीवों को शासनरसिक बनाने की उत्कृष्ट भावना के परमबल से कुछ विशिष्ट क्रियाओं द्वारा इस पद को प्राप्त करते हैं। इन उपायों की सर्वोपरि विशेषता यही है कि आज तक जितने भी तीर्थकर हुए हैं या होने वाले हैं, उन सभी ने इन्हीं उपायों के अवलम्बन से इस परम ध्येय को उपलब्ध किया है। इन उपायों में से कोई सभी का प्रयोग करता है तो कोई कुछ विशेष की आराधना करता है परन्तु इन नियत उपायों में कोई परिवर्तन नहीं ला सकता है। इन उपायों के भिन्न-भिन्न पर्यायवाची अनेक शब्द प्रयोग होते हैं-कारण, हेतु, स्थानक आदि। ज्ञातासूत्र में कारण शब्द का ही प्रयोग हुआ है। परन्तु स्थानक शब्द अद्यावधि विशेष विश्रुत रहा है। साहित्य की दृष्टि से यह स्थानक शब्द जिनहर्षगणि के “विंशतिस्थानकचरितं" ग्रन्थ से अधिक प्रयोगबद्ध हुआ। वैसे स्थानक का अर्थ होता है "स्थानं करोतीति स्थानकः" जो स्थान करता है वह स्थानक
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आराधक से आराध्य ७९ कहलाता है। इसे स्थानक कहने का मतलब है आत्मा जिन-जिन स्थान निमित्त का अवलम्बन लेकर स्वयं की उन्नति साधता है वह स्थानक कहलाता है। २. श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा की विभिन्न मान्यताएँ
श्वेताम्बर परम्परा में ज्ञातासूत्र, आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्थों में ये २० कारणस्थानक कहे हैं। ये बीस कारण निम्नोक्त गाथा-त्रय द्वारा निर्दिष्ट हैं
अरिहंत सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तवस्सीसु ।
वच्छल्लया एएसिं अभिक्खनाणोवओगे य ॥ दसण विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइआरो । खणलव तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥ अपुव्वनाणगहणो सुयभत्ती पवयणे पभावणया ।
एएहि कारणेहिं तित्थयरतं लहइ जीवो ॥ इसमें बताये गये २० कारण इस प्रकार हैं(१) अरिहंत-वात्सल्य
(११) आवश्यक (२) सिद्ध-वात्सल्य
(१२) निरतिचार शीलव्रत (३) प्रवचन-वात्सल्य (१३) क्षणलव-ध्यान (४) गुरु-वात्सल्य
(१४) तप (५) स्थविर-वात्सल्य . (१५) त्याग
(६) बहुश्रुत-वात्सल्य (१६) वैयावृत्य . (७) तपस्वी-वात्सल्य (१७) समाधि . (८) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग (१८) अपूर्वज्ञान ग्रहण (९) दर्शन
(१९) श्रुतभक्ति (१०) विनय
(२०) प्रवचन-प्रभावना षट्खंडागम आदि दिगम्बर ग्रन्थों में अरिहंत बनने के निम्नोक्त १६ कारण दर्शाये
(१) दर्शन विशुद्धता
. (९) साधुओं की समाधि संधारणा (२) विनयसम्पन्नता
(१०) साधुओं की वैयावृत्य योगयुक्तता (३). शील-व्रतनिरतिचारिता (११) अरहंत-भक्ति (४) आवश्यकापरिहीनता, (१२) बहुश्रुत-भक्ति (५) क्षणलवप्रतिबोधता (१३) प्रवचन-भक्ति (६) लब्धिसंवेगसंपन्नता (१४) प्रवचन-वत्सलता (७) यथाशक्तितप
(१५) प्रवचन-प्रभावनता (८). साधुओं को प्रासुक परित्यागता (१६) अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता।
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८० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
षट्खंडागमादि ग्रंथों में कारण के प्रकार १६ होने पर भी पंउमचरियरे में श्वेताम्बर की तरह २0 कारण माने हैं। वहाँ पर २० कारणों के नाम नहीं गिनाये हैं। परन्तु यह स्पष्ट है कि दोनों परम्पराओं में यह संख्या संबंधी विभिन्नता रही है।
तत्वार्थ सूत्र में भी १६ कारण माने हैं। षट्खंडागम से तत्वार्थ सूत्र के मूल में और टीका में कुछ विभिन्नता पाई जाती है जो इस प्रकार है
श्वेताम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परा तत्वार्थ सूत्र टीका १. अरिहंत-वात्सल्य अरहंत-भक्ति अर्हत्-भक्ति २. सिद्ध-वात्सल्य
सिद्ध पूजा ३. प्रवचन-वात्सल्य प्रवचन-वत्सलता प्रवचन-भक्ति ४. गुरु-वात्सल्य
आचार्य-भक्ति । ५. स्थविर-वात्सल्य ६. बहुश्रुत-वात्सल्य बहुश्रुत-भक्ति
बहुश्रुत-भक्ति ७. तपस्वी-वात्सल्य ८. अभीक्ष्ण (सतत) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग अभीक्ष्ण . . ज्ञानोपयोग। युक्तता।
ज्ञानोपयोग। ९. दर्शन .
दर्शन-विशुद्धता दर्शन-विशुद्धि १०. विनय
विनय सम्पन्नता विनय सम्पन्नता ११. आवश्यक छह आवश्यकों में अपरिहारिण
अपरिहीनता । आवश्यक १२. निरतिचार शीलव्रत शीलव्रत में अनतिचार
निरतिचारता। १३. क्षणलव
क्षणलव प्रतिबोधनता अभीक्ष्ण संवेग .. क्षणलव १४. तप
यथाशक्ति तप यथाशक्ति तप १५. त्याग
साधुओं की प्रासुक यथाशक्ति
परित्यागता त्याग १६. वैयावृत्य साधुओं की वैयावृत्य वैयावृत्य
योगयुक्तता।
शीलव्रत
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१. छक्खंडागमो-तृतीयखंड-बंधस्वामित्वविचय, सूत्र ४०, पृ. ७८. २. उद्देशक-२ गा. ८२वीं
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आराधक से आराध्य ८१ श्वेताम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परा तत्वार्थ सूत्र टीका १७. समाधि साधुओं की समाधि संघ-साधु
संघारणा।
समाधि। १८. अपूर्वज्ञानग्रहण लब्धिसंवेग
सम्पन्नता १९. श्रुत-भक्ति प्रवचन-भक्ति
प्रवचन
ध्यान
वात्सल्य २०. प्रवचन प्रभावना प्रवचन प्रभावनता मार्ग-प्रभावना भावना
विजयलक्ष्मी सूरि कृत स्थानक पूजा में अपरनाम वाले बीस स्थानक इस प्रकार दिये हैं
(१) अरिहंत पद (११) चारित्रपद (२), सिद्धपद
(१२) ब्रह्मचर्य पद (३) प्रवंचनपद
(१३) क्रियापद (४) आचार्यपद
(१४) तपपद (५) स्थविरपद
(१५) गोयमपद (६), उपाध्याय पद (१६) जिनपद (७) साधुपद . (१७) संयमपद (८) ज्ञानपद . (१८) अभिनवज्ञानपद (९) दर्शनपद
(१९) श्रुतपद (१०) विनयपद
(२०) तीर्थपद _ नामों के विभिन्न प्रयोग से आराधना में कोई अन्तर नहीं आता है। यहाँ आराधना से मात्र तप-जपादि प्रवृत्ति ही प्रमुख नहीं मानी गई परन्तु विशेष आत्मचिंतन का उद्देश्य-सापेक्ष रूप भी यहाँ स्वीकार किया गया है। - इतना तो निश्चित है कि तीर्थंकर नामकर्म का निकाचित बंध (निकाचन) करने के लिए बीस कारणों में से एक या अधिक की आराधना आवश्यक एवं अनिवार्य है। वर्तमानकालीन चौबीसी में किस तीर्थंकर ने कितने स्थानक की आराधना की उसके उल्लेख में कहा है-प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान ने और अंतिम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर ने बीसों स्थानकों की स्पर्शना की तथा शेष अरिहंतों ने १-२-३ तथा सर्व की आराधना की। ___ ज्ञातासूत्र की टीका के अनुसार भगवान मल्लिनाथ स्वामी ने बीसों स्थानकों का आराधन किया है। १. आवश्यक नियुक्ति, गा. १८२।
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गुरुभक्ति
८२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
इन बीस स्थानकों का विभाजन देवभक्ति एवं गुरुभक्ति से वीर्याचार, ज्ञान आराधना से ज्ञानाचार, दर्शन आराधना से दर्शनाचार, चारित्र आराधना से चारित्राचार और तप आराधना से तपाचार रूप होने से पंचाचार का पूर्ण रूप बनता है जैसे१. अरिहंत वात्सल्य
देवभक्ति २. सिद्ध वात्सल्य ४-५. गुरु वात्सल्य-स्थविर वात्सल्य ६-७. बहुश्रुत वात्सल्य-तपस्वी वात्सल्य
३. प्रवचन वात्सल्य ८. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग १८. अपूर्व ज्ञानग्रहण
ज्ञान-आराधना १९. श्रुतभक्ति २०. प्रवचन प्रभावना ९. दर्शन
• दर्शन-आराधना ११. आवश्यक १२. निरतिचार शीलव्रत
चारित्र-आराधना १५. त्याग १७. समाधि १०. विनय १३. क्षणलव
तप-आराधना १४. तप
१६. वैयावृत्य ३. वात्सल्य सप्तक
इन बीस स्थानकों में प्रथम के सात स्थानक वात्सल्य के स्थान हैं। इस आराधना में इन सात स्थानों के जो स्वामी हैं उनसे अनन्य प्रीति रूप वात्सल्य करना है। सहज ही प्रीति, प्रेम, मैत्री, स्नेह, वात्सल्य, भक्ति, परम भक्ति आदि प्रेम के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं। प्रेम हेतु ही उपयोग में आनेवाले ये भिन्न शब्द अपने-अपने स्थानों में ही प्रयुक्त होते हैं। जैसे-पति-पत्नी के प्रेम के लिए प्रणय शब्द, मित्र भाव में स्नेह या मैत्री, माता-पुत्र के प्रेम में वात्सल्य, गुरु-शिष्य के प्रेम में भक्ति, आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध में परमभक्ति शब्द प्रसिद्ध हैं। प्रेम का स्वरूप अखंड और अविभाज्य होने पर भी सम्बन्ध में उसके नाम बदल जाते हैं ।
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आराधक से आराध्य ८३ निर्दोष, निष्काम और अनस्वार्थ स्नेह वात्सल्य और भक्ति ही है। वत्सल भावों में वत्सलता-वात्सल्यम्। यह शब्द माता-पुत्र के प्रेम के सम्बन्ध में भी प्रयोग किया जाता है। ___ संसार के अन्य समस्त स्नेह-सम्बन्धों का विच्छेद हो जाने पर ही ये वात्सल्यसप्तक उजागर होते हैं। यह वात्सल्य सांसारिक-लौकिक वात्सल्य-भाव से तो कई गुणा अधिक अलौकिक आंतरिक-वैभव से संपन्न होता है। पर अनुबन्धरहित अन्य स्नेहसम्बन्ध-त्याग ही इसकी भव्य भूमिका या दिव्य पृष्ठभूमि है। वात्सल्य सप्तक का प्रवेशद्वार है “वोच्छिन्दं सिणेहमप्पणो'-अपने समस्त स्नेह एवं संबंधों का त्याग करके ही कोई भी वीतराग हो सकता है। वीतरागी के प्रति किये जाने वाले अनुराग में विराग का उद्भव है। परम विराग की जन्म-स्थली वीतरागी के प्रति अनुराग है। ऐसे वात्सल्य को तो पढ़ने और लिखने की अपेक्षा आत्मसात् करना अधिक महत्वपूर्ण एवं विशेष रसप्रद है। . __वात्सल्य के इसी गौरव और वैशिष्ट्य ने हिन्दी काव्य साहित्य के भक्तिकाल में सूरदास और तुलसीदास जैसे कवियों की कलमों को रससिक्त बनाया। इसके प्रभाव
और आकर्षण में उन्होंने कृष्ण और राम की बाल-लीलाओं को वात्सल्य में ढालने का प्रयास किया। ___ प्रस्तुत वात्सल्य-सप्तक की गहराई में उतरने पर यह निर्णय हो सकता है। सचमुच रुचि, प्रीति एवं वात्सल्य रहित जीवन नीरस है। परंतु वात्सल्य के प्रस्तुत स्थान सर्वथा सुलभ तो नहीं होते क्योंकि इनमें तो मुक्तिदान का परम विधान रहा है। अतः इसकी अप्राप्ति में बेचारे जीव अपने समस्त राग-भाव को संसार में निरर्थक बहाकर सुखप्राप्ति का निष्फल प्रयास करते हैं। कुछ कर्मांशों से आत्मा निरावरण होती है तब उसे इस दिव्यदुर्लभ वात्सल्य-सप्तक की उपलब्धि होती है। प्राप्ति के पश्चात् प्रयोग भी तत्काल जीव नहीं कर सकता। अतः सत्त्वसंपन्न आत्मा पौद्गलिक-प्रीति से निरन्तर छूटता हुआ, ऐसे परम वात्सल्य स्थानक का आराधन करता हुआ तीर्थंकर नामकर्म का निकाचित बंध कर लेता है। ___ वात्सल्य किसी आत्म स्वरूप विशेष आत्माओं से हो सकता है। आत्म स्वरूप जगाने वाले किन्हीं गुणों से नहीं। अतः यहाँ ऐसे परम-आत्म स्वरूप गुणज्ञ दर्शाये गये हैं। इस प्रकार इन बीस स्थानकों में सात गुणी के हैं, शेष तेरह गुण स्वरूप स्थानक हैं। अंशतः गुणवान् तथा भष्य आत्मा महागुणियों का आदर कर, गुणों को स्वीकार करके ही सफल हो सकता है। ___ अब प्रश्न होता है इन वात्सल्य-सप्तक में तीसरा वात्सल्य स्थान प्रवचन है। यद्यपि यह स्थानक गुणी का नहीं है; परंतु गुणवान् व्यक्तियों से कथित, या स्थापित तीर्थ या श्रुत ही प्रवचन रूप माना जाता है और वह सदा आदरणीय रहा है। केवलज्ञान की
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८४
सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
प्राप्ति के पश्चात् समवसरण रचना के बाद समवसरण में प्रवेश कर देशना हेतु स्थान ग्रहण करने के पूर्व तत्काल ही जिनेन्द्र तीर्थ-प्रवचन को नमस्कार करते हैं। कैवल्य प्राप्ति के बाद जो अरिहंतों से भी नमस्कृत्य होता है वह हमारा वात्सल्य-स्थानक कैसे हो सकता है ? ___ यद्यपि द्रव्य-गुण-पर्याय की दृष्टि से आत्मा ही अरिहंत, सिद्ध, प्रवचनादि है फिर भी आवृत आत्मगुणों के निरावरण-उजागर हेतु गुणियों का वात्सल्य आवश्यक एवं अनिवार्य है। आर्हन्त्य या सिद्धत्व की सत्ता संग्रहनय की अपेक्षा से हममें संभव हो सकती हैं परंतु वह उनके द्रव्य, गुण, पर्याय का ध्यान कर आत्मा की शुभ प्रवृत्तियों द्वारा ही सिद्ध हो सकती है। द्वादशांगी रूप परम प्रवचन का अध्ययन किये बिना हमारा आत्मसामर्थ्य निष्फल रहता है। पंचाचार का पालन करने वाले, स्थिर परिणमन वाले गुरु, स्थविर, बहुश्रुत, साधु का आत्म-चिन्तन किये बिना उन पदों का सर्वाधिकारी आत्मा चारित्रवान् कैसे हो सकता है? इसी प्रकार ज्ञान, दर्शन, विनय, आवश्यकादि अन्य गुण भी विशिष्ट श्रद्धाबल, परम ज्ञानबल, विशुद्ध चरणबल और नैष्ठिक संयम-बल के अतिरिक्त अनन्त आत्मगुणों का स्वामी यह आत्मा; विकास मार्ग में आत्म-स्फुरणा नहीं कर सकता है। इसीलिए आनंद के प्रवर गुण सम्पन्न आनंदघनजी कहते हैं- "जिन स्वरूप थई जिन आराधे ते सही जिनवर होवे रे।" इस प्रकार बीसों स्थानकों में अनुक्रम से आत्मा का अभेद स्थापित कर परमात्म पद प्राप्त किया जाता
अरिहंत-वात्सल्य
वात्सल्य-सप्तक में सर्वप्रथम महत्वपूर्ण वात्सल्य-स्थान अरिहंत हैं। हमारे वात्सल्य-भक्ति के सर्वप्रथम स्वामी अरिहंत परमात्मा हैं। सर्व सांसारिक-पौद्गलिक स्नेह-सम्बन्धों का विच्छेद कर हृदय के समस्त वात्सल्य-पूर्ण भक्तिभाव इनके चरणों में अर्पित कर दो। इस अर्पण विधि के स्वीकारः कर्ताओं में सर्वप्रथम अधिकारी हैं अरिहंत-परमात्मा। यह कैसी अद्भुतता उनको वात्सल्य करते-करते, उनकी आराधना करते हुए, उन्हीं का ध्यान करते हुए, उन्हीं के परम पद की प्राप्ति। पर प्रश्न होता है वात्सल्य तो उससे किया जाता है जो प्रत्यक्ष हो, लोक में हो। लौकिक वात्सल्य-सम्बन्धों में हम पाते हैं-बच्चा माँ के अतिरिक्त और माता बालक के अतिरिक्त नहीं रह सकती। सारी प्रवृत्तियाँ करती हुई भी. उसका ध्यान सदा बच्चे में ही रहता है। अपना सारा प्यार-दुलार बच्चे को देकर माँ कृतकृत्य हो जाती है, परंतु माँ बालक का और बालक माता का सतत् सान्निध्य चाहता है। अरिहंत परमात्मा तो सर्वकाल सर्वत्र प्रत्यक्षतः सुलभ सान्निध्यवान् नहीं होते हैं तो कैसे उनका वात्सल्य किया जाय?
इस प्रश्न का समाधान ज्ञानी पुरुषों ने यह कहकर किया कि वात्सल्य के स्वामी जैसे अद्भुत हैं; उनके प्रति किया जाने वाला वात्सल्य भी वैसा ही अद्भुत है। प्रत्यक्ष
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लोक-सान्निध्य की अपेक्षा अधिक नजदीक परमात्मा का परोक्ष अलौकिक सान्निध्य हो सकता है।
साक्षात् अरिहंतों की प्रत्यक्ष-भक्ति का योग तो थोड़े जीवों को, बहुत कम समय के लिए मिलता है। जिस समय भगवान् पृथ्वी पर विचरते हैं, उस समय भी लोगों को उनकी भक्ति करने का बहुत कम अवसर मिलता है, क्योंकि तीर्थंकर भगवान एक होते हैं और क्षेत्र विशाल होता है। जैसे-स्कन्दकजी तथा गणधरों ने अन्तिम संथारा करते समय पर्वतादि पर रहते हुए परोक्ष-भक्ति की थी। प्रत्यक्ष और परोक्ष भक्ति की विधि में कोई अंतर नहीं रहता। प्रत्यक्ष में सम्मुख उपस्थित होकर वन्दना नमस्कार किया जाता है, उसी प्रकार परोक्ष में भी वन्दनादि की जा सकती है। प्रत्यक्ष को कुछ दिया नहीं जाता, भेंट या चढ़ावा नहीं चढ़ता। प्रत्यक्ष में पृच्छादि से अधिक लाभ होता है, किन्तु उपासना की विधि तो प्रत्यक्ष और परोक्ष की लगभग समान ही है। प्रत्यक्ष को कभी आहार स्थान आदि प्रतिलाभने अर्पण करने का अवसर प्राप्त हो सकता है. इसके सिवाय शेष भक्ति समान ही होती हैं। यदि उपासक, परोक्ष की भावपूर्वक भक्ति करना चाहे तो उसके समक्ष प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद नहीं रहता। वह परोक्ष को भी हृदय में प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है। परोक्ष भक्ति इस प्रकार की जा सकती है।
हम कल्पना करें कि नगर के बाहर उद्यान में, एक वृक्ष की शीतल छाया में, शिलाखण्ड पर प्रभु पर्यंकासन में विराजमान हैं। उनके श्रीमुख पर परम शांति एवं प्रसन्नता झलक रही है। उस सौम्य आकृति से पवित्रता, विशालता और निर्दोषता प्रकट हो रही है। केवलज्ञान के प्रबल प्रकाश से उनकी आत्मा का प्रत्येक प्रदेश प्रकाशमान हो रहा है। समवसरण में विशाल संख्या में भव्य जीव बैठे हुए एकाग्रतापूर्वक प्रभु के मुंखकमल पर दृष्टि जमाए हुए हैं। भगवान् अपनी पवित्र वाणी से उपदेश दे रहे हैं।
हम अपना सर्वस्व परमात्मा के चरणों में अर्पित कर रहे हैं। परमात्मा के चरणों में मस्तक झुक रहा है। चरणों से निकलती हुई प्रशान्तवाहिता हमारे प्रत्येक आत्मप्रदेशों में प्रवेश कर तरंगित हो रही है। वैषयिक आन्दोलन समाप्त हो रहे हैं। परमात्मा ने हमारे मस्तक पर हाथ रखकर कहा
"वत्स ! प्रसन्न रहो
हमारे साथ रहे अन्य भव्य प्राणियों के साथ सभी को सम्बोधित करते हुए परमात्मा कह रहे हैंभव्यो !
तुम में आर्हन्त्य विद्यमान है, अपनी अर्हता का अभिनन्दन करो ! तुम ही प्रभु हो, उठो, अपनी प्रभुता को प्रकट करो ! तुम सिद्ध स्वरूप हो, अपनी सिद्धता को सम्पन्न करो !
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८६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम आत्मप्रिय !
जिसे तुम नमस्कार करते हो, वह तुम ही हो, मैं तो तुम्हारी अनुभूतियों में व्याप्त हूं, उठो, जागो और इन अनुभूतियों को अभिव्यक्त करो !
यही मेरी संबोधि है, यही तुम्हारी निधि है ! उपासक अपने आस-पास के वातावरण और स्थिति को भूल कर यह अनुभव करता है कि "मैं भगवान् के समवसरण में हूँ।" वह भगवान् के कषाय-कालिमा-शून्य निर्मल एवं पवित्र तथा प्रकाशमान आत्मा के स्वरूप का चिन्तन कर, तदनुरूप बनने - की भावना करे, उस पवित्रता को अपनी आत्मा में उतारने का अभ्यास करें।
इस प्रकार रूपस्थ-ध्यान में लीन हुआ साधक, प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद ही भूल जाता है। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो वह प्रभु को अपने समक्ष अनुभव करता है। . संक्षेप में यही समझना चाहिए कि अरिहंत बनकर ही अरिहंत की पूजा हो सकती है. और इसी से हमारा आर्हन्त्य प्रकट हो सकता है। उनके प्रति परम भक्तिराग, यथावस्थित अनुराग, यथानुरूप उपचार लक्षण, यथाभूत (सत्य) गुणों का स्थापन, कीर्तन तथा यथारूप उपचार लक्षण से यह वात्सल्य किया जाता है। .
प्रस्तुत आदर विधि उन्हीं को अर्पित हो सकती है जिनमें अर्पण दाता की परम श्रद्धा हो, पूर्ण विश्वास हो। वैसे तो इनके वात्सल्य से तीर्थंकर नाम कर्म का निकाचन होता है परंतु इसकी अधिक विशेषता दर्शाते हुए कहा जाता है-अरिहंत, गुरु, साधु, संघ, सिद्धांत और धर्म के आदर और बहुमान पूर्वक किये जाने वाले वात्सल्य से प्रगाढ़ पाप के समूह का मुहूर्त मात्र में ध्वंस हो जाता है। इस प्रकार परमात्मा के प्रति की जाने वाली भक्ति मुक्ति का कारण है परंतु वह युक्तियुक्त होनी चाहिए। परमात्मा के निरूपण को सुनकर उसके अनुसार चलना युक्तियुक्तता है। स्वयं के विचारों से की जाने वाली भक्ति स्वेच्छापूर्ण भक्ति कहलाती है।
अरिहंत भगवान् की भक्ति तीन प्रकार से होती है-१. श्रद्धा से, २. प्ररूपणा से और ३. स्पर्शना से। दर्शन-श्रावक श्रद्धा और यथावसर प्ररूपणा से भक्ति करता है। स्पर्शना रूप भक्ति में वह स्मरण, स्तुति, वन्दना, नमस्कार, श्रुतज्ञान का अभ्यास, प्रचार
और त्यागी वर्ग तथा साधर्मिक की यथाशक्ति सेवा करता है, प्रवचन-प्रभावनादि रूप स्पर्शना भी करता है, किंतु प्रत्याख्यान-परिज्ञा (विरति) रूपी-स्पर्शनी नहीं कर सकता।
जो देशविरति श्रावक हैं, वे उपरोक्त आराधना के अतिरिक्त देशविरत होकर आंशिक रूप से विरति की स्पर्शना भी करते हैं। जो सर्वविरत साधु-साध्वी हैं, वे भगवान् की आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करते हैं। जो अरिहंत परमात्मा की भक्ति सर्व १. महावीर चरित्र-प्रस्ताव-८, पत्र २८६, गा. ६।
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आराधक से आराध्य ८७
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प्रकार से एवं शुद्ध रूप से करते हैं, वे अपने आर्हन्त्य को प्रकट करके स्वयं अरिहंत बन जाते हैं। सिद्ध वात्सल्य
पवित्र देह के आन्दोलनों का अन्त होने पर जो अवस्था आती है वह सिद्ध की अवस्था है। यह केवलज्ञान की उपलब्धि के अनन्तर आत्मप्रदेशों की स्पंदनरहित अवस्था है। यह शाश्वत, ध्रुव और नित्य अवस्था है। अब ऐसे सिद्धों का वात्सल्य कैसे किया जाय, यह विचारणीय है। सिद्ध वात्सल्य करने के पूर्व साधक को एक बात का खास ख्याल रखना चाहिए कि वह कभी इस प्रश्न में न उलझ जाय कि अरिहंत भगवान की भक्ति और ध्यान तो सरलता से हो सकता है, क्योंकि वे साकार हैं, सशरीर हैं, किन्तु सिद्ध भगवंत तो अशरीरी-निराकार हैं, उनकी भक्ति और ध्यान कैसे किया जाय? क्योंकि हमें अरिहंत भगवान के ध्यान में भी उनके आकार में नहीं उलझ कर, उनकी निर्मल आत्म-दशा का चिन्तन करना है। यदि उनकी विशुद्ध दशा का चिन्तन नहीं किया गया और शारीरिक आकृति आदि में ही अटके रहे, तो उससे वास्तविक लाभ नहीं होगा। हमें अपनी आत्मा में वैसे गुण जगाने हैं, तो आत्मा का ही आलंबन लेना चाहिए। अरिहंत भगवान् की विशुद्ध दशा का चिंतन करने के लिए सिद्ध अवस्था का स्मरण होना चाहिए। वह अपनी आत्मा में भी क्षणभर के लिए परम विशुद्ध अवस्था का आरोपण कर शांति का आंशिक अनुभव करना है, अपने हृदय में सिद्ध परमात्मा की प्रतिष्ठा. कर के हृदय को मल से रहित शुद्ध बनाना है। इस प्रकार पवित्र ध्यान-धर्मध्यान के अभ्यास से पवित्र होता हुआ आत्मा इतना विशुद्ध हो जाता है कि कभी शुक्लध्यान में प्रवेश कर जाता है और क्षपकश्रेणी का आरोहण करके अरिहंत दशा को प्राप्त कर लेता है। ___ अरिहंत तो क्षेत्रविशेष और कालविशेष में कई भाग्यशालियों को प्रत्यक्ष भी होते हैं। किंतु सिद्ध भगवान् तो सदैव परोक्ष ही रहते हैं। परम विशुद्ध, अरूपी आत्मा, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी के सिवाय किसको प्रत्यक्ष हो सकती है? जिस भव्यात्मा पर दर्शनमोह का प्रभाव न हो, वह विकास की तरतमता एवं आत्मानुभूति द्वारा आत्मा के अरूपी स्वरूप को समझकर श्रद्धान कर सकता है।
सिद्ध पद की उत्कृष्ट आराधना करके अपने सोये हुए सिद्ध भाव को जाग्रत करना चाहिए और समस्त आवरणों का अन्त करके सिद्ध पद प्राप्त करने में प्रयत्लशील रहना चाहिए। सिद्धपद की उत्कृष्ट आराधना करते हुए यदि भावों में परम उल्लास आवे, उत्कृष्ट रस आवे, तो परमपुण्य प्रकृति तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करके अरिहंत पद प्राप्त किया जा सकता है। जिस लोकोत्तर मार्ग का अनुसरण करके सिद्ध भगवन्तों ने अपूर्व सिद्धि प्राप्त की, हम भी उस मार्ग पर चलकर, उस परम सिद्धि को प्राप्त करें।
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८८ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
प्रवचन वात्सल्य
अरिहंत और सिद्ध भगवान् की भक्ति के बाद तीसरा उपाय प्रवचन वात्सल्य है। प्रवचन का एक अर्थ है-जिनेश्वरों का उपदेश। प्रवचन को मोक्ष मार्ग का निर्देशक मानते हुए कहा है-इणमेव निग्गंथं पावयणं सच्चं अणुत्तरं नेआउयं संसुद्धं सल्लकत्तणं।
दूसरा अर्थ-निग्रंथ प्रवचन का धारक एवं प्रचारक चतुर्विध संघ होता है। इसलिए साध, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतर्विध संघ भी "प्रवचन" कहलाता है।
तीर्थ की प्रवृत्ति तीर्थंकर के उपदेश से होती है। तीर्थ की उत्पत्ति का आधार ही निग्रंथ प्रवचन है। तीर्थाधिपति के प्रथम उपदेश-प्रवचन के बाद तीर्थ की स्थापना होती. है। इसलिए निग्रंथ-प्रवचन के फलस्वरूप निष्पन्न हुए तीर्थ को भी "निग्रंथ-प्रवचन".. कहा गया है। कार्य में कारण का उपचार होना आप्तजन सम्मत है। अतएव चतुर्विध संघ भी निर्ग्रन्थ-प्रवचन है।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन निवृत्ति-प्रधान है। बन्धजन्य क्रिया की निवृत्ति और मोक्ष-साधना में प्रवृत्ति, निर्ग्रन्थ प्रवचन का लक्षण है। - प्रवचन का स्वरूप यह है१. प्रवचन यथावस्थित सकल जीवादि पदार्थों का प्ररूपक होता है।
२. वह अत्यन्त निर्दोष और अन्यों से अज्ञात ऐसे चरण और करण की क्रिया का आधार है।
३. त्रैलोक्यवर्ती शुद्ध धर्म संपत्ति से युक्त ऐसी महान आत्माओं ने जिन प्रवचन का आलंबन लिया है।
४. प्रवचन अचिन्त्य शक्ति से संपन्न है, अविसंवादी है, श्रेष्ठ नाव, समान है।
इस अर्हत्-प्रवचन में विश्व के जीव-अजीवादि समस्त पदार्थों के यथार्थ प्रकाशक जीवों के सूक्ष्म एकेन्द्रिय तक के अनेक प्रकार, आत्मा के शुद्धाशुद्ध स्वरूप की विस्तृत हकीकत, अजीव द्रव्यों में विशेषतः पुद्गल का और उसमें भी कर्म पुद्गल का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विस्तृत स्वरूप, तथा विश्व की विस्तृत व्यवस्था का स्वरूप मिलता है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आम्नव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन नवतत्त्वों में समा जाने वाले निखिल चराचर जगत का स्याद्वाद-अनेकांतवाद की शैली से यथावस्थित प्रकाशक अर्हत् प्रवचन है। __ अरिहंत परमात्मा का सान्निध्य एवं वात्सल्य करने का सरल एवं सुन्दर उपाय प्रवचन-वात्सल्य है। इसीलिये कहा है
अस्मिन् हृदयस्थे सति, हृदयस्थस्तत्वतो मुनींद्र इति ।
हृदयास्थिते च तस्मिन्नियमासर्वार्थसंसिद्धिः ॥१ १. षोडशक-प्रकरण-२/१४।
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आराधक से आराध्य ८९
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. अरिहंत-प्रवचन-सर्वज्ञ-वचन को हृदयांकित करने से अर्थात् चित्त में स्थापित करने से परमार्थ से सिद्धान्त द्वारा मुनींद्र सर्वज्ञ भगवान् की हृदय में स्थापना हो जाती है। अतः परमात्मा के हृदय में प्रतिष्ठित होते ही आत्मा स्वयं की सर्व अभीष्ट सिद्धियों को नियमेन अविलम्ब उपलब्ध कर सकता है।
प्रवचन वात्सल्यवान् आत्मा के रोम-रोम से यही उद्गार निकलते हैं-"अयमाउसो! णिग्गंथे पावयणे सच्चे, अयं अट्टे, अयं परमठे, सेसे अणठे।"
जिनेश्वर भगवन्तों का धर्म-शासन ही सत्य है। उनका बताया हुआ शाश्वत सुख का देने वाला मोक्षमार्ग ही सत्य, तथ्य और परमार्थ है। इसके सिवाय सभी बातें, सभी विषय, सभी प्रवचन और सभी अभिप्राय, अनर्थकारक हैं-दुःखदायक हैं। मैं दुर्भागी हूं जो, उन परम तारक के बताये हुए परमार्थ का सेवन नहीं कर सकता, उलटा विपरीत मार्ग-संसार-मार्ग पर चल रहा हूं। संसार बढ़ाने के कार्य कर रहा हूं। यह मेरी दुर्बलता है, अधम दशा है। मैं आत्म-शत्रुओं के प्रभाव में आकर अधर्म का आचरण कर रहा
___ अर्हत् प्रवचन के प्रति हार्दिक श्रद्धा, स्नेह और उसका स्वाध्याय करना तथा अन्य जिज्ञासुओं के अन्तःकरण में प्रवचन की प्रतिष्ठा करना प्रवचन वात्सल्य है। प्रवचन की भक्ति करना, अरिहन्त परमात्मा की भक्ति करने के समान है। प्रवचन वात्सल्य वही करेगा, जिसकी उसमें रुचि होगी, अटूट श्रद्धा होगी। जिन प्रवचनों में रुचि का परिणाम दर्शाते हुए कहा है
जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेणं ।
' अमला असंकिलिट्ठा, ते हुति परित्तसंसारी ॥ : जिन प्रवचनों में अनुरक्त रहने वाली पवित्रात्मा; अनन्त संसार भ्रमण को रोक कर परिमित संसारी हो जाती है। यह बात तो साधारण है। किन्तु यदि किसी भव्यात्मा में भावों की तीव्रता हो-उत्कृष्ट भक्ति हो, तो वह तीर्थंकर नाम-कर्म का भी उपार्जन कर लेते हैं। प्रवचन वात्सल्य करने वाला स्वयं प्रवचनकार-जिनेश्वर बन जाता है। वर्तमान चौबीसी के तीसरे तीर्थंकर संभवनाथस्वामी ने इस प्रवचन-वात्सल्य की साधना करके ही तीर्थंकर पद उपार्जित किया था। गुरु वात्सल्य ___ गुरु आत्म-बोध की प्रेरणा के शुभ स्रोत हैं और गुरु-वात्सल्य, आत्मीय सम्बन्धों की सचेतन व्याख्या है। गुरु और शिष्य का सम्बंध केवल एक परम्परा नहीं परंतु श्रद्धा
और समर्पण का, निष्ठा और अनुशासन का अनुबंध है। गुरु के बिना निर्वाण और परमसत्ता की प्राप्ति का पथ बेबूझ, अनचीन्हा और अनजाना रहता है। गुरु की अनुग्रह भरी नजर से वह पहेलियां बूझ जाती हैं, वह अनचीन्हा पथ परिचित हो जाता है, उस अनजान राह पर भी प्रत्येक कदम को प्रगतिशील वरदान प्रदान करती है।
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९० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
गुरु-शिष्य का संबंध वात्सल्य में परिणत हो जाने पर गुरु का प्रत्येक शब्द शिष्य के लिये वरदान बन जाता है और शिष्य का समर्पण गुरु की पवित्रता का परिणाम बन जाता है।
परम गुरु का योग, महान पुण्य के उदय से मिलता है। गुरु के प्रति समर्पण के साथ उनके शुभ विचारों से प्यार, गुरु को अप्रिय प्रवृत्ति का तिरस्कार तथा गुरु की आज्ञा का स्वीकार गुरु-वात्सल्य है। गुरु की आज्ञा का बहुमान सम्यग्दर्शन है और गुरु की आज्ञा का पालन यह सच्चा नमस्कार है। गुरु की सेवा, नमस्कार एवं बहुमान करने से आत्मा की शुद्ध पर्याय जागृत होती है और शुभ परिणामों की तीव्रता के कारण महान् शुभ पुण्य का उपार्जन होकर तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध हो जाता है। जिससे वह भव्यात्मा स्वतः जगद्गुरु-तीर्थाधिपति के पद को प्राप्त होकर अनेक भव्यात्माओं का तारक बन जाता है।
तत्त्वार्थसूत्र अध्ययन ६ के २४वें सूत्र में जहां तीर्थंकर नामकर्म के १६ कारणों का निर्देशन है वहां गुरुभक्ति के स्थान पर “आचार्य-भक्ति" शब्द का ही प्रयोग हुआ
भगवान महावीर के धर्मसंघ में आचार्य (धर्माचार्य) का पद अप्रतिम गौरवगरिमापूर्ण और सर्वोपरि माना जाता है। जैन धर्म में संघ के संगठन, संचालन, संरक्षण, संवर्द्धन, अनुशासन एवं सर्वतोमुखी विकास अभ्युत्थान का सामूहिक एवं मुख्य उत्तरदायित्व आचार्य पर रहता है। समस्त धर्म संघ में उनका आदेश अन्तिम निर्णय के रूप में सर्वमान्य होता है। यही कारण है कि जिनवाणी का यथातथ्य रूप से निरूपण करने वाले आचार्य को तीर्थंकर के समान और सकल संघ का नेता बताये गये हैं। स्थविर-वात्सल्य
जैन संघ में स्थविर का पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उन्मार्ग में प्रवृत्त मनुष्य को जो सन्मार्ग में स्थिर करे उसे स्थविर कहते हैं। स्थानांग? सूत्र में स्थविर के दस प्रकार बताये हैं। १. ग्राम स्थविर-जो गाँव की व्यवस्था करता है। सत्ता के द्वारा ये अपराधियों
को दंडित कर उसे सन्मार्ग पर लाते हैं। २. नगर स्थविर-नगरपालिका वाले जो विधानों के द्वारा व्यक्ति को सन्मार्ग पर
लाते हैं। आज के युग में जो मेयर कहलाते हैं वे नगर-स्थविर होते हैं। ३. राष्ट्र स्थविर अनेक प्रान्तों के समुदाय को राष्ट्र कहते हैं। राष्ट्रस्थविर प्रान्तों
___ के माध्यम से व्यक्ति की सुरक्षा करते हैं। १. स्थानांग सूत्र, स्थान १0, सूत्र ७६२-सवृत्ति
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आराधक से आराध्य ९१
४. प्रशास्तृ-स्थविर-धर्मोपदेश तथा शिक्षा देने वाले को कहते हैं। ५. कुल स्थविर-कुल की व्यवस्था को तोड़ने वाले व्यक्ति को दंडित करना कुल
स्थविर का काम है। ६. गण स्थविर-सज्जनों की रक्षा, दुष्टों को दंड इस तरह की नीति जिस
समुदाय में हो उसे गण कहते हैं। उस गण को सुचारु रूप से संचालित करने
वाले गण-स्थविर कहलाते हैं। ७. संघ स्थविर-संघ की सुरक्षा और रक्षण-शिक्षण तथा पोषण करने वाले
आचार्य संघ स्थविर हैं। ८. जाति स्थविर-जिसकी आयु ६० वर्ष से अधिक हो और जो संघ व्यवस्था में
कुशल हो, वह जाति-स्थविर माना जाता है। - ९. श्रुत स्थविर-स्थानांग और समवायांग सूत्रों के ज्ञाता श्रुत स्थविर कहलाते हैं।. १०. पर्याय स्थविर-२0 वर्षों से अधिक दीक्षा पर्यायवाला पर्याय स्थविर कहलाता
है। . तप संयम, श्रुताराधना तथा आत्मसाधना आदि साधक जीवन के उन्नायक कार्य जो संघ-प्रवर्तक द्वारा साधकों के लिए नियोजित किये जाते हैं, उसमें जो साधक अस्थिर हो जाते हैं, इनका पालन करने में जो कष्ट मानते हैं या इनका पालन करना जिनको अप्रिय लगता है, उन्हें जो आत्म-शक्ति-सम्पन्न दृढ़वेत्ता श्रमण उक्त अनुष्ठेय कार्यों में दृढ़ बनाता है, वह स्थविर कहा जाता है। बहुश्रुत वात्सल्य . बहुश्रुत-श्रुतज्ञान की विशेषता हो, वे "बहुश्रुत' कहलाते हैं। बहुश्रुत भी तीन प्रकार के होते हैं। जैसे-१. सूत्र बहुश्रुत, २. अर्थ बहुश्रुत, ३. तदुभय बहुश्रुत। सूत्रों का विशाल ज्ञान रखने वाले “सूत्र-बहुश्रुत" होते हैं। सूत्रों के अर्थ की विशिष्ट जानकारी वाले “अर्थ-बहुश्रुत' होते हैं और सूत्र तथा अर्थ दोनों के विशेषज्ञ "तदुभयबहुश्रुत" होते हैं। सूत्र-बहुश्रुत की अपेक्षा अर्थ बहुश्रुत (गीतार्थ) प्रधान होते हैं और अर्थ बहुश्रुत की अपेक्षा तदुभय बहुश्रुत प्रधान होते हैं।
बहुश्रुत मुनिवरों की भक्ति करने वाले के ज्ञानावरणीय कर्म की विशेष निर्जरा होती है और ज्ञानवृद्धि में अनुकूलता होती है। श्रुतज्ञान की वृद्धि से आत्मा केवलज्ञान के निकट पहुंचती है। उत्तराध्ययन के ११वें अध्ययन में बहुश्रुत और अबहुश्रुत के लक्षण और स्वरूप दर्शाते हुए कहा है____ इन पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती है-अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य।
चौदह प्रकार से व्यवहार करने वाला अविनीत कहलाता है और वह निर्वाण प्राप्त नहीं करता है। जो बार-बार क्रोध करता है, जो क्रोध को लम्बे समय तक बनाये
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९२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम रखता है, जो मित्रता को ठुकराता है, जो ज्ञान प्राप्त कर अहंकार करता है, जो स्खलना होने पर दूसरों का तिरस्कार करता है, जो मित्रों पर क्रोध करता है, जो प्रियमित्रों की भी एकान्त में बुराई करता है, जो असंबद्ध प्रलाप करता है, द्रोही है, अभिमानी है, रसलोलुप है, अजितेन्द्रिय है, असंविभागी है-साथियों में बांटता नहीं है और अप्रीतिकर है। __जो हंसी-मजाक नहीं करता है, जो सदा दान्त-शान्त रहता है, जो किसी का मर्म प्रकाशित नहीं करता है, जो आचारहीन न हो, जो रसलोलुप-चटोकरा न हो, जो क्रोध न करता हो, जो सत्य में अनुसक्त हो, इन आठ स्थितियों में व्यक्ति शिक्षाशील होता है। . ___ पन्द्रह प्रकार से व्यवहार करने वाला सुविनीत कहलाता है-जो नम्र है, अचपल है, अस्थिर नहीं है, दम्भी नहीं है, अकुतूहली है-(तमाशबीन नहीं है), किसी की निन्दा नहीं करता है, जो क्रोध को लम्बे समय तक पकड़ कर नहीं रखता है, जो मित्रों के प्रति कृतज्ञ है, ज्ञान को प्राप्त करके अहंकार नहीं करता है, स्खलना होने पर दूसरों : का तिरस्कार नहीं करता है, मित्रों पर क्रोध नहीं करता है, जो अप्रिय मित्र के लिए भी एकान्त में भलाई की ही बात करता है, जो वाक-कलह और मारपीट नहीं करता है, अभिजात (कुलीन) होता है, लज्जाशील होता है, प्रतिसंलीन (इधर-उधर की व्यर्थ चेष्टाएं न करने वाला आत्मलीन) होता है, वह बुद्धिमान् साधु विनीत होता है।
बहुश्रुत और उपाध्याय शब्द का व्याख्यार्थ समान होने से बीस स्थानक सम्बन्धी शास्त्रादि में इस पद को उपाध्याय पद या उपाध्याय वात्सल्य पद कहा गया है। __ आचार्य के बहुविध उत्तरदायित्वों के सम्यक् निर्वहन में सुविधा रहे, धर्म-संघ उत्तरोत्तर उन्नति करता जाए, श्रमणवृन्द श्रामण्य के परिपालन और विकास में गतिशील रहे, इस हेतु अन्य पदों के साथ प्रवर्तक का भी विशेष पद प्रतिष्ठित किया गया। प्रवर्तक पद बहुश्रुत पद का एक रूप है।
प्रवर्तक गण या श्रमण-संघ की चिन्ता करते हैं अर्थात् वे उसकी गतिविधि का ध्यान रखते हैं। वे जिन श्रमणों को तप, संयम तथा प्रशस्त योगमूलक अन्यान्य सत्प्रवृत्तियों में योग्य पाते हैं, उन्हें उनमें प्रवृत्त या उत्प्रेरित करते हैं। मूलतः तो सभी श्रमण श्रामण्य का निर्वाह करते ही हैं पर रुचि की भिन्नता के कारण किन्हीं का तप की ओर अधिक झुकाव होता है, कई शास्त्रानुशीलन में अधिक रस लेते हैं, कई संयम के दूसरे पहलुओं की ओर अधिक आकृष्ट रहते हैं। रुचि के कारण किसी विशेष प्रवृत्ति की ओर श्रमण का उत्साह हो सकता है पर हर किसी को अपनी क्षमता का भली-भांति ज्ञान हो, यह आवश्यक नहीं। प्रवर्तक का यह कर्तव्य है कि वे जिनको जिस प्रवृत्ति के लिए योग्य मानते हों, उन्हें उस ओर प्रेरित और प्रवृत्त करें। जो उन्हें जिस प्रवृत्ति के सम्यक् निर्वाह में योग्य न जान पड़ें, उन्हें वे उस ओर से निवृत्त करें।
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आराधक से आराध्य ९३ साधक के लिए इस प्रकार के पथ-निर्देशक का होना परम आवश्यक है। इससे उसकी शक्ति और पुरुषार्थ का समीचिन उपयोग होता है। ऐसा न होने से कई प्रकार की कठिनाइयां उपस्थित हो जाती हैं। उदाहरणार्थ-कोई श्रमण अति उत्साह के कारण अपने को उग्र तपस्या में लगाये पर उसकी दैहिक क्षमता इस प्रकार की न हो, स्वास्थ्य अनुकूल न हो, मानसिक स्थिरता कम हो तो वह अपने प्रयत्न में जैसा सोचता है, चाहता है, सफल नहीं हो पाता। उसका उत्साह टूट जाता है, वह अपने को शायद हीन भी मानने लगता है। अतएव प्रवर्तक का, जिनमें ज्ञान, अनुभव तथा अनूठी सूझ-बूझ होती है, दायित्व होता है कि वे श्रमणों को उनकी योग्यता के अनुरूप ही उनमें प्रवृत्त करें और योग्यता के प्रतिरूप ही, उनसे निवृत्त करें। .. संयम, तप आदि के आचरण में जो धैर्य और सहिष्णुता चाहिए, जिनमें वह होती है, वे ही उसका सम्यक् अनुष्ठान कर सकते हैं। जिनमें वैसी सहनशीलता और दृढ़ता नहीं होती उनका उस पर टिके रहना सम्भव नहीं होता। प्रवर्तक का यह काम है कि किस श्रमण को किस ओर प्रवृत्त करे, कहां से निवृत्त करे। गण को तृप्त-तुष्टउल्लसित करने में प्रवर्तक सदा प्रयत्नशील रहते हैं। तपस्वी-वात्सल्य ____ तपस्वियों की सेवा करने से भी आत्मा में अरिहंत पद की योग्यता बढ़ती है। तपस्वी, मुनि, ऋषि, अणगार, वाचंमय और व्रती ये साधु के पर्यायवाची नाम हैं। कहा भी है
"मुनिवर तपसी ऋषि अणगारजी रे, वाचंयमी व्रती साथ । . गुण सत्तावीश जेह अलंक्या रे, विरमी सकल उपाय ।। - इसका मुख्य कारण जैन संस्कृति की तपः प्रधानता है। पुरातन काल से ही श्रमण संस्कृति का परम पवित्र पुनीत आदर्श तप रूप प्राणतत्त्व में ही रहा हुआ है। श्रमण शब्द श्रम धातु से निष्पन्न होता है; जिसका अर्थ है श्रम करना। दशवैकालिक वृत्ति में आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने तप का अपर नाम श्रम भी दिया है। अतः श्रमण का अर्थ क्षीण काय तपस्वी हो सकता हैं। साधु-तपस्वी के लक्षण
सांसारिक उपाधियों से जिन्होंने विराम ले लिया है, जो नव प्रकार के भावलोच (पांच इन्द्रियों का संयम और चार कषायों के निग्रह रूप) और दसवाँ द्रव्यलोच मस्तकादि के केश को लोच करते हैं, पासत्यादि के भेदों से वर्जित, जिसमें
१. विजयलक्ष्मी सूरि कृत-"बीस स्थानक पूजा" . २. दशवकालिक वृत्ति १/३
३. सूयगडांग सूत्र १/६/१, शीलांकाचार्य कृत टीका, पत्र २६३
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९४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम संसार-सम्बन्धी किसी भी शोक का उद्भव नहीं होता है, दोष रहित आहार के ग्रहण करने वाले, चार प्रकार के अतिक्रम से रहित, पुण्य और पाप को यथायोग्य हेयोपादेय मानने वाले, संसार-मोक्ष को समभाव से देखने वाले, संसार रूप अटवी के त्याग के सच्चे हेतुरूप छठे गुणस्थान को स्पर्शने वाले, अध्यात्म संबंधी और योग संबंधी ग्रन्थों की विचारणा, वांचन और मननादि करने वाले ज्ञान और क्रिया इन दोनों का यथायोग्य प्रधानतः सेवन करने वाले सर्व प्रकार के दंभों एवं जंजालों से रहित और चारित्र रसिक होते हैं। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग
सातवें तपस्वी वात्सल्य पद तक के अधिकारी का अवलोकन हो गया, अब आता है अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग। अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग यानी ज्ञान का बार-बार उपयोग अर्थात् ज्ञान का निरंतर उपयोग। बीच में अंतर नहीं होवे ऐसा ज्ञानोपयोग। ___ ज्ञान उपयोग रूप है। उसके दो प्रकार हैं-एक तो लब्धि और दूरा उपयोग। लब्धि-नींद में स्पर्श, रसादि ज्ञान का उपयोग नहीं होना है। पांचों ज्ञान का सामर्थ्य सत्ता में है, परन्तु उसका उपयोग नहीं है। कृतार्थत्व उपयोग में है। लक्ष्मी है, परन्तु दान में दी नहीं जाती है, भोगी नहीं जाती है, अंत में उसका नाश तो है ही। ज्ञान लब्धि रूप में हमेशा रहता है परन्तु उपयोग रूप नहीं। यद्यपि अकाल में (अविहित काल में) स्वाध्याय का निषेध है, परन्तु अनुप्रेक्षा का निषेध नहीं है। जगत के स्वरूप की विचारणा हो सकती है। जानने की शक्ति-चेतना समान होने पर भी, जानने की क्रिया-बोधव्यापार व उपयोग-सब आत्माओं में समान नहीं देखा जाता। यह उपयोग की विविधता बाह्य-आभ्यन्तर कारण कलाप की विविधता पर अवलम्बित है। विषय भेद, इन्द्रिय आदि साधन भेद, देश काल भेद इत्यादि विविधता बाह्य सामग्री से सम्बन्धित है। आवरण की तीव्रता-मन्दता का तारतम्य आन्तरिक सामग्री की विविधता है। इस सामग्री-वैचित्र्य के कारण एक ही आत्मा भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न प्रकार की बोधक्रिया करता है और अनेक आत्मा एक ही समय में भिन्न-भिन्न बोध करते हैं। यह बोध की विविधता अनुभवगम्य है।
उपयोग के दो विभाग किये जाते हैं
१-साकार, २-अनाकार। जो बोध ग्राह्य वस्तु को विशेष रूप से जानने वाला हो-वह साकारें उपयोग। जो बोध ग्राह्य वस्तु को सामान्य रूप से जाननेवाला हो-वह अनाकार उपयोग।
साकार को ज्ञान या सविकल्पक बोध और अनाकार को दर्शन या निर्विकल्पक बोध भी कहते हैं।
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आराधक से आराध्य ९५
____ अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी आत्मा, श्री जिनेश्वरदेव के प्रति अत्यन्त श्रद्धालु होता है। निर्जरा करने वाला होता है। आराधना हेतु प्रथम सात पद में श्री अरिहंतादि गुणी विराजमान हैं। सर्चलाइट अच्छी हो परन्तु अक्षर तो तभी स्पष्ट दिखते हैं जबकि आँखें भी अच्छी हों। जैसे अंधे के लिये अच्छी से अच्छी बत्ती भी निरुपयोगी होती है, वैसे ही बिना उपयोग के आराधक को आराध्य की आराधना का तथाविध फल नहीं मिलता है। आराध्य को पहचानने के लिये, उनके गुणों को जानने के लिए और आराधना की विधि अपनाने के लिये ज्ञान आवश्यक है। . आठवें पद में ज्ञान है। नवमें पद में दर्शन है। दर्शन यानी श्रद्धा और ज्ञान यानी बोध। प्रथम गुण तो श्रद्धा का है, फिर भी यहाँ आठवें पद में ज्ञान को स्थान दिया गया, दर्शन से पहले ज्ञान को क्यों स्थान दिया गया ? बिना दर्शन का ज्ञान अज्ञान; फिर भी यहाँ प्रथम ज्ञान को स्थान क्यों दिया गया है ? ____ जब तक आत्मा में कल्याण की बुद्धि न आवे तब तक मोक्ष मार्ग के लिये विश्वास योग्य नहीं हो सकता। विश्वास योग्य कब माना जाय ? जो आस्रव को तथा बंध को हेय (त्याज्य) समझे, जो संवर निर्जरा को उपादेय आदरणीय समझे, जो मोक्ष को परम पुरुषार्थ माने-समझे वही विश्वास योग्य है। लौकिक व्यवहार में भी प्रथम विश्वास की अपेक्षा होती है। विश्वास से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, इसमें आश्चर्य नहीं है। जब. वस्तुस्थिति ऐसी है तो आठवें पद में ज्ञान और नवमें पद में दर्शन है। ऐसा क्रम क्यों दिया गया है ? इसका उत्तर यह हो सकता है कि सम्यक्त्व मात्र तीर्थकरत्व का साधन नहीं है; परन्तु उसकी विशुद्धि तीर्थकरत्व का साधन है। अतः
यहाँ दर्शन विशुद्धि पर ध्यान रखा गया है, यदि दर्शन ही साधन होता तो प्रत्येक • साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका तीर्थंकर हो जाते; क्योंकि सब सम्यक्त्वधारी हैं। तीर्थंकरत्व
का कारण सम्यक्त्व की विशुद्ध निर्मलता है। दर्शन विशुद्धि की पहचान के लिए ज्ञान • आवश्यक है, अतः ज्ञान पद प्रथम लिया गया है। दर्शन .
दर्शन शब्द का अर्थ होता है देखना किन्तु साथ ही प्रश्न होगा क्या देखना या क्या देखा जाता है ? यहाँ दर्शन शब्द का यही वस्तुतः अर्थ है कि-दृश्यते अनेन यथावस्थित मात्मतत्त्वम्' अर्थात् दर्शन वह है जिससे यथावस्थित आत्मतत्त्व देखा जाय।
यद्यपि आत्मा तो अदृश्य है, अमूर्त है। जो अदृश्य और अमूर्त हो वह तो अगोचर ही होता है; परन्तु यहाँ देखना अर्थ आत्म तत्व के ध्यान करने से घटित होता है। आत्मा शब्द का प्रयोग न कर आत्मतत्व शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ दर्शन से मतलब किसी नेत्रगोचर वस्तु का दर्शन नहीं परन्तु आत्मतत्त्व-चैतन्य के जड़ भावों के भेदज्ञान रूप ध्यान से है। १. स्याद्वादकल्पलता-२/९-९ ।
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९६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
भारतीय दर्शन में बलदेव उपाध्याय लिखते हैं, "दर्शन" शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-दृश्यते अनेन इति दर्शनम्-जिसके द्वारा देखा जाय वस्तु का सत्यभूत तात्त्विक स्वरूप। हम कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? इस सर्वतो दृश्यमान् जगत का सच्चा स्वरूप क्या है ? इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई ? इस सृष्टि का कौन कारण है ? यह चेतन है या अचेतन ? इस संसार में हमारे लिये कौन से कार्य कर्तव्य हैं ? जीवन को सुचारु रूप से बिताने के लिये कौनसा सुन्दर साधन-मार्ग है ? आदि प्रश्नों का समुचित उत्तर देना दर्शन का प्रधान ध्येय है। ___ आचारांग सूत्र के अन्तर्गत श्रमण भगवान महावीर के केवलज्ञान के समय हुई . अनुभूतियों एवं प्रवृत्तियों का उल्लेख करते हुए लिखा है-तत्पश्चात् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्रमण भगवान् महावीर ने आत्मा का और लोक का स्वरूप जानकर ........... धर्मकथन किया। दर्शन की व्याख्या ___दर्शन शब्द की विशेष महत्वपूर्ण व्याख्या करते हुए कहा है-"सुहे आयपरिणामे पण्णत्तं"-आत्मा का शुभ परिणाम दर्शन है। आत्मा का शुभ परिणाम कैसा होता है इसे । स्पष्ट करते हुए कहते हैं, यह प्रशस्त सम्यक्त्व मोहनीय पुंज के वेदन से, उपशम से या क्षय से प्रकटित होता है। __ दूसरी व्याख्या है-जो वस्तु जैसी हो उसको ठीक वैसी ही जानना, उसमें वैसी ही श्रद्धा करना दर्शन है। जिनप्रणीत भावों में यथार्थता का विश्वास कार्यरूप दर्शन है
और मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षयोपशम आदि से प्रकटित शुद्ध आत्मपरिणाम कारणरूप दर्शन है। तत्वपदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानना और उसमें भावपूर्वक श्रद्धा करने को दर्शन कहा है। ___ दर्शन की तीसरी व्याख्या होती है-देव, गुरु और धर्म ये तीन तत्त्व हैं; आत्मा में शुभभावों से इनकी प्रतिष्ठा करना दर्शन है। दर्शन का स्वरूप और प्राप्ति के उपाय
अनादि-अनंत संसार में जीव एवं जड़, ये दो पदार्थ मुख्य हैं। जड़ कर्मों का आत्मा के साथ योग होने से आत्मा सर्वथा मुक्त न होकर संसार में रहता है। इन कर्मों की विभिन्न ग्रन्थियाँ एवं स्थितियाँ हैं। इन जटिल एवं विचित्र विविध ग्रन्थियों के कुटिल जाल में जीव अनादि काल से बँधा हुआ है।
सम्यक्त्व प्राप्ति का सारा रहस्य इसी में समाया हुआ है। बाह्य उपचार के किसी भी प्रयोग में साधक तब तक सफल नहीं रह सकता जब तक इस भेद-ज्ञान को न जान पाए। १. भारतीय दर्शन-बलदेव उपाध्याय-उपोद्घात-पृ. ३ । .
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आराधक से आराध्य ९७
___ पाँच लब्धियों में पाँचवीं विशेष लब्धि करणलब्धि द्वारा जीव सम्यक्त्व तक पहुँच पाता है। क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि और प्रयोगलब्धि ये चार लब्धियाँ भव्य-अभव्य दोनों प्रकार के जीवों को प्राप्त होती हैं।'
करण का अर्थ परिणाम होता है और लब्धि का अर्थ प्राप्ति या शक्ति होता है। अर्थात् उस समय उस जीव को ऐसे उत्कृष्ट परिणामों की प्राप्ति होती है जिनसे अनादिकाल से बँधी गाँठे टूट जाती हैं।
ये परिणाम तीन प्रकार के होते हैं-यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। ये क्रमशः होते हैं और इनमें से प्रत्येक का काल अन्तर्मुहूर्त है। इन तीनों में ग्रन्थि देश पर्यन्त प्रथम करण होता है। ग्रन्थि-भेदन जब होता है उस समय दूसरा करण होता है तथा ग्रन्थि भेद के पश्चात् तीसरा करण होता है। ग्रन्थि का स्वरूप
परिणाम में रहना आत्मा का स्वभाव है, परंतु आत्मा जब अपने शुद्ध परिणाम दशा का त्याग कर पर-परिणति में रत हो जाता है, तब उसकी यह विभाव (पर) परिणति उसके कर्म-बंध का कारण बन जाती है। कर्मों के साथ आत्मा का अनैसर्गिक सम्बन्ध है। अपनी नैसर्गिकता का विस्मरण कर आत्मा मन-वचन-काया द्वारा राग युक्त प्रवृत्ति करता है और लोहा जैसे लोहकान्त (चुंबक) की ओर आकर्षित होता है वैसे ही जगत में सर्वत्र भरे हुए-पुद्गल परमाणुओं में से अपनी रुचि अनुसार पुद्गलों को अपनी ओर खींचता है और तीव्र या मंद स्थिति के अनुसार तदनुयुक्त प्रमाण में पुद्गलों का आत्मप्रदेश के साथ संधान होता है। यह संधान गांठों के रूप में होता है। अतः आत्मा और कर्म का अपना मूल स्वरूप एक दूसरे में परिणत नहीं होता है। गांठों को खोलकर कर्मों को हटाया जा सकता है। ये राग और द्वेष से बंधी होती हैं। ___कर्म बंध के पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं शुभाशुभयोग। इन कारणों में मिथ्यात्व अन्य सर्व कारणों की अपेक्षा आत्मा के साथ विशेष सम्बन्ध रखता है। आत्मतत्त्व का विस्मरण मिथ्यात्व है, इच्छाओं पर संयम रखने वाली शक्तियों का गोपन अविरति है। मद, विषय, कषाय, निंदा और विकथा से उत्पन्न तथा आत्मशोधन में बाधा रूप प्रवृत्ति प्रमाद है, राग-द्वेष वाली प्रवृत्ति कषाय है तथा मन, वचन एवं शरीर की सामान्य प्रवृत्ति योग है।
ये कर्म बंध चार प्रकार के हैं१-प्रकृतिबंध, २-स्थितिबंध, ३-अनुभागबंध, ४-प्रदेशबंध।
१. सम्यक्त्व सुधा-गाथा-४५९ । २. लोकप्रकाश-सर्ग-३, श्लो. ६०२ ।
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९८ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
१-प्रकृतिबंध-कर्म का मूल स्वभाव या प्रकृति। जीव के सद्गुणों को. जो वस्तु रोकती है उसे प्रकृति कहा जाता है, ऐसी वस्तु का जब जीव के साथ सम्बन्ध होता है तब उसे प्रकृतिबंध कहा जाता है।
२-स्थितिबंध-कर्मों की प्रकृति जितने समय के लिए जीव के साथ रहती है उस काल को स्थिति कहते हैं। कर्म के कालपरिणामस्वरूप बंध को स्थिति-बंध कहते हैं।
३-अनुभागबंध-कर्म का तीव्र मंदादि रस रूप परिणामविशेष अनुभागबंध है।
४-प्रदेशबंध-सामान्यतः परमाणु एक प्रदेशावगाही होते हैं। वैसे एक परमाणु का ग्रहण एक प्रदेश है। जीव कर्मबन्ध के द्वारा अनंत परमाणुओं को ग्रहण करता है। ये परमाणु यदि विस्तृत होते हैं तो अनन्त प्रदेशी बन जाते हैं, अतः अनंत प्रदेश का बंध . कहा जाता है। यथाप्रवृत्तिकरण
नदी में वर्षों से लुढ़कता पत्थर कालगति से लुढ़कते-लुढ़कते अपने आप गोल और . चिकना बन जाता है। जैसे किसी धान्य-पात्र में थोड़ा-थोड़ा अनाज डाला जाय. और . अधिकाधिक निकाला जाय, ऐसा करने से कभी समस्त धान्य समाप्त हो सकता है उसी प्रकार चिरसंचित कर्मरूप धान्य पात्र में आत्मा कभी किसी प्रकार से अनाभोग द्वारा अल्प कर्म को ग्रहण कर अनल्प का क्षय कर ग्रन्थिभेद को प्राप्त कर. यथाप्रवृत्तिकरण में प्रवेश करता है। अपूर्वकरण
अपूर्व अर्थात् भवचक्र में भटकते हुए, परिभ्रमण करते हुए कभी भी नहीं प्राप्त हुए आत्मा के अध्यवसाय जो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अवस्था-विशेष में वर्तते हैं, उसका नाम अपूर्वकरण है। ___इस करण में आत्मा का अपूर्व वीर्योल्लास जागृत होता हैं। शुभ अध्यवसाय के विकास का यहाँ प्रारम्भ होता है। साधक आत्मा यहाँ स्वयं के प्रबल वीर्य द्वारा इस "अपूर्वकरण" (मनः परिणाम) द्वारा ग्रन्थियों का भेदन कर डालता है। इस करण में प्रवेश करते ही जीव प्रथम समय में ही-१-अपूर्व स्थितिघात, २-अपूर्व रसघात, ३अपूर्व गुणश्रेणी और ४-अपूर्व गुण संक्रमण-ऐसी चार क्रियाओं का प्रारंभ करता है। स्थितिघात ___ स्थिति अर्थात् बँधे हुए कर्मों के आत्म-प्रदेशों के साथ बड रहने का कालमान। अपूर्वकरण में उन स्थितियों का अपूर्व-घात करता है। रसघात ___ अशुभ प्रकृतियों की सत्ता में रहे हुए रसाणुओं के अनंत भाग कर उसमें से एक अनंतवें भाग को छोड़कर शेष सर्व रसाणुओं का अन्तर्मुहूर्त में घात कर दिया जाता है।
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आराधक से आराध्य ९९ गुणश्रेणी
गुणश्रेणी का विवेचन करते हुए कहा है कि-उदयक्षण से लेकर प्रतिसमय असंख्यातगुणे कर्म दलिकों की रचना को गुणश्रेणी कहते हैं। पूर्वोक्त सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति आदि गुण वाले जीव क्रमशः असंख्यातगुणी निर्जरा करते हैं।' अपूर्व गुणसंक्रम
गुण संक्रम प्रदेश संक्रम का एक भेद है। इसमें प्रति समय उत्तरोत्तर असंख्यात गुणीत क्रम से अबध्यमान अनन्तानुबन्धी आदि अशुभ प्रकृतियों के कर्म दलिकों का उस समय बँधने वाली सजातीय प्रकृतियों में संक्रमण होता है। अनिवृत्तिकरण ___ अनिवृत्ति अर्थात् निवृत्ति का अभाव। निवृत्ति के कई अर्थ होते हैं। प्रसिद्ध दोनों अर्थ.इस प्रकार हैं
१-निवृत्ति याने. व्यावृत्ति अर्थात् वापस लौटना और २-निवृत्ति अर्थात् वैषम्य।
गुणस्थान क्रमारोह में अनिवृत्ति को समझाने के लिए प्रथम व्याख्या का प्रयोग करते हुए कहा है-निवृत्ति अर्थात् वापस लौटना। देखे हुए, सुने हुए और अनुभव किये हुए इत्यादि अनेक विषयादि रूप संकल्प-विकल्प रहित निश्चल रूप से केवल परमात्म रूप में ही एकाग्रध्यान परिणति रूप अध्यवसायों की अनिवृत्ति अर्थात् अध्यवसायों का पुनः विषय सन्मुख नहीं होना अनिवृत्तिकरण है। ____तत्त्वार्थ राजवार्तिक में अनिवृत्ति का अर्थ किया है-जीवों के परिणाम प्रथम समय में समान और परस्पर एक रूप होते हैं, द्वितीय समय में उससे अनन्तगुणे विशुद्ध होकर
भी एक रूप ही रहते हैं। इस तरह अनन्तकाल तक उत्तरोत्तर विशुद्ध परिणाम होते हैं। • इन सबका समुदाय अनिवृत्तिकरण है। परस्पर निवृत्ति भेद न होने से इस करण को
अनिवृत्तिकरण कहते हैं। - अनिवृत्तिकरण के जितने समय हैं उतने ही इसके परिणाम होते हैं। विशेषता यह है कि इसके प्रथमादि समय में जो विशुद्धि होती है, द्वितीयादि समय में वह उत्तरोत्तर अनंतगुणी होती है। अपूर्वकरण के स्थितिघात आदि चारों कार्य अनिवृत्तिकरण में भी चालू रहते हैं।
दर्शन सम्यक्त्व के विभिन्न प्रकार एक प्रकार
१-तत्त्वों के प्रति सम्यक् रुचि यह दर्शन का एक प्रकार है। इसीलिए स्थानांग सूत्र
दशन सन्
१. कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. ८३ । २. गुणस्थान क्रमारोह-सटीक गाथा ३८ की वृत्ति, पंत्र-२९ ।।
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१०० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम में “रागे दसणे" कहा है। जिसके द्वारा, जिससे अथवा जिसमें श्रद्धा होती है उसे दर्शन कहते हैं।
२-दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से प्रकट गुण दर्शन है।
३-दर्शनमोहनीय कमों के क्षयादि द्वारा प्रकटित तत्वों के श्रद्धान रूप आत्मा का परिणाम विशेष दर्शन है। दो प्रकार
स्थानांग सूत्र के अन्तर्गत दर्शन के दो प्रकार बताये हैं-सम्यग्दर्शन और . मिथ्यादर्शन। इनके भी परस्पर अनेक भेदानुभेद हैं-१-निसर्ग सम्यग् दर्शन और २अधिगम सम्यग् दर्शन। निसर्ग और अधिगम इन दोनों सम्यग्दर्शनों के प्रतिपाति और अप्रतिपाति ऐसे दो-दो भेद हैं।
निश्चय या नैश्चयिक सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्त्व ऐसे सम्यक्त्व के अन्य भी . दो प्रकार हैं। द्रव्य सम्यक्त्व और भाव सम्यक्त्व ऐसे भी सम्यक्त्य के दो प्रकार हैं। वीतराग सर्वज्ञ-जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित तत्वों का परमार्थ जाने बिना ही उसे सत्य मानकर श्रद्धा रखना “द्रव्य-सम्यक्त्व" कहा जाता है। जीवादि नवतत्व, नय, निक्षेप, स्याद्वाद आदि तत्त्वों को समझने से एवं तदनुसार वर्तन करने से. जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह "भाव सम्यक्त्व" है।
पौद्गलिक सम्यक्त्व और अपौद्गलिक सम्यक्त्व ऐसे भी सम्यक्त्व के दो प्रकार हैं। श्रीमद् राजचंद्रजी ने गाढ़ अथवा अवगाढ़ सम्यक्त्व और परमावगाढ़ सम्यक्त्व ऐसे भी सम्यक्त्व के दो प्रकार दर्शाये हैं।
गाढ़ और अवगाढ़ दोनों एक ही हैं। तीर्थंकरादि को गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी गाढ़ अथवा अवगाढ़ सम्यक्त्व होता है। यह सम्यक्त्व जीव. को चौथे गुणस्थान में होता है। क्षायिक सम्यक्त्व अथवा गाढ़ या अवगाढ़ एक समान ही है। परमावगाढ़ केचलियों को ही होता है। अवगाढ़ यानी दृढ़, परमावगाढ़ यानी अत्यधिक दृढ़।।
श्रीमद् राजचन्द्र ने इन सम्यक्त्वों का उल्लेख करते हुए कहा है कि "श्री यशोविजयजी ने आठवीं परादृष्टि में कहा है कि जहाँ केवलज्ञान होता है वहीं परमावगाढ़ सम्यक्त्व संभव हो सकता है। उनके इस कथन के अनुसार सम्यक्त्व के इस विशेष नाम का प्रयोग प्रस्तुत. दृष्टि में कहीं भी उपलब्ध नहीं है सिर्फ केवलज्ञान के वर्णन के समय आठवीं दृष्टि में ही "परं परार्थ"२ शब्द का प्रयोग जरूर प्राप्त होता है। संभव है इसी शब्द को श्रीमद्जी ने परमावगाढ सम्यक्त्व से प्रयुक्त किया हो। १. श्रीमद् राजचन्द्र (अगास से प्रकाशित) पृ. १७८ अनुक्रम नं. ९५९, समाधान क्रमांक ९r २. योगदृष्टि समुच्चय-श्लोक-१५५ ।
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आराधक से आराध्य १०१ - आत्मानुशासन में सम्यग्दर्शन के दस प्रकारों में नववा एवं दसवां अवगाढ़ और परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन बताया है। यहाँ स्पष्ट करते हुए कहा है कि अंग और अंगबाह्य (उपांग) श्रुत का अध्ययन करके जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसे अवगाढ़सम्यग्दर्शन कहते हैं। केवलज्ञान के द्वारा देखे गये पदार्थों के विषय में जो रुचि होती है वह यहाँ परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन इस नाम से प्रसिद्ध है। अर्थात् अवगाढ़ सम्यक्त्व श्रुतकेवली को और परमावगाढ़ केवली भगवान को होता है। तीन प्रकार
१-सम्यग् दर्शन, २-मिथ्यादर्शन और ३-सम्यग् मिथ्या दर्शन। दूसरी तरह से सम्यक्त्व के तीन प्रकार हैं-१-औपशमिक, २-क्षायिक और ३-क्षायोपशमिक।
दूसरे प्रकार से तीन प्रकार के सम्यक्त्व इस प्रकार हैं-कारक, रोचक और दीपक।
वीतराग प्रभु द्वारा प्ररूपित अनुष्ठानधर्म का योग्य आचरण करना तथा देववंदन, गुरुवंदन, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि करना कारक सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व क्रिया में रुचि अवश्य होती है। परन्तु पापोदय से रुचिमात्र होती है, सक्रियता नहीं होती है। यह रोचक सम्यक्त्व है। यह अविरत सम्यग्दृष्टि जीव को होता है जैसे सम्राट श्रेणिक। ___ जैसे दीपक पर को प्रकाशित करता है परन्तु अधःस्थान को प्रकाशित नहीं कर सकता (दीपतले अँधारो) वैसे इस सम्यक्त्व वाले अभव्य या मिथ्यादृष्टि होने पर भी अन्यों को उपदेश देकर उनमें सम्यक्त्व उद्भूत करा सकते हैं। जैसे-अंगारमर्दक आचार्य। तीसरे प्रकार से तीन प्रकार के सम्यक्त्व - श्रीमद् राजचंद्रजी ने इन सबसे अलग तीन प्रकार के सम्यक्त्व दर्शाये हैं
१-शुद्ध सम्यक्त्व-आप्त पुरुष के वचनों की प्राप्ति रूप, आज्ञा की अपूर्व रुचिरूप और स्वच्छंद निरोध युक्त आप्तपुरुष की भक्तिरूप शुद्ध सम्यक्त्व।
२-परमार्थ सम्यक्त्व-परमार्थ की स्पष्ट अनुभूति। ३-वर्धमान सम्यक्त्व-निर्विकल्प परमार्थ अनुभूति।
इनमें प्रथम सम्यक्त्व द्वितीय सम्यक्त्व के और द्वितीय सम्यक्त्व, तृतीय सम्यक्त्व के कारण रूप हैं। चार प्रकार के सम्यक्त्व
तीन प्रकार में बताये गये औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक में चौथा सास्वादन मिलने पर सम्यक्त्व के चार प्रकार होते हैं। १. आत्मानुशासनम्-श्लोक ११ । २. आत्मानुशासनम्-श्लोक १४ ।
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१०२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व के अभिमुख व अन्तराल कालावर्ती जीव, जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता तब तक के उसके परिणाम विशेष को सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं। सम्यक्त्व को प्राप्त कर जीव जब उसका (सम्यक्त्व का) वमन कर देता है। उस वमन के समय रहे सम्यक्त्व के स्वाद की स्थिति के परिणाम विशेष में यह सम्यक्त्व होता है। सास्वादन से मतलब है जिसका आस्वादन मात्र रह गया है। जैसे छाछ में से मक्खन निकालकर पुनः उसी में (छाछ में) डाल दिया जाय तो .. छाछ में वह एकदम मिलकर पूर्ववत् नहीं होता, वह अलग ही रहेगा वैसे ही सास्वादन . में आने वाले का मिथ्यात्व उतना घनिष्ठ नहीं होता। पाँच प्रकार के सम्यक्त्व
पूर्वोक्त दर्शाये गये चारों प्रकार के सम्यक्त्व में अर्थात् क्षायिक, औपशमिक,... क्षायोपशमिक और सास्वादन इन चार में एक वेदन सम्यक्त्व मिलाने पर सम्यक्त्व के . : पाँच प्रकार बनते हैं। ___ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में वर्तमान जीव, जब सम्यक्त्व मोहनीय के अन्तिम पुद्गल . के रस का अनुभव करता है, उस समय के उसके परिणाम को वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। वेदक सम्यक्त्व के बाद क्षायिक सम्यक्त्व ही प्राप्त होता है। दश प्रकार
स्थानांग सूत्र के अन्तर्गत सरागी जीवों के दश प्रकार के सम्यग्दर्शन बताये हैं१-निसर्गरुचि-तत्त्वों के प्रति स्वाभाविक रुचि।
२-उपदेशरुचि-गुरु के उपदेश से उद्भूत जीवादि भावों में श्रद्धा तथा रुचि रखना "उपदेश रुचि" है।
३-आज्ञारुचि-गुरु की आज्ञा में रुचि रखना आज्ञारुचि है। ४-सूत्ररुचि-सूत्र से जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसे सूत्ररुचि कहते हैं। .
५-बीजरुचि-जीवादि कोई एक तत्त्व के अनुसन्धान से अनेक तत्त्वों में और उनके अर्थों में उत्तरोत्तर श्रद्धा का विस्तार होता है। एक देश में उद्भूत रुचि से अनेक तत्त्वों में रुचि उत्पन्न होती है। जैसे एक बीज अनेक बीजों को उत्पन्न करता है वैसे बीजरुचि द्वारा एक व्यक्ति से अनेक व्यक्ति में सम्यक्त्व उत्पन्न होता है।
६-अभिगमरुचि-आगमों को अर्थपूर्वक जानना और तत्त्वों के प्रति रुचि अभिगम रुचि है।
७-विस्ताररुचि-विस्तार अर्थात् प्रसार। जिससे धर्मास्तिकायादि समग्र द्रव्यों के सर्व पर्यायों, सर्व नयों और प्रमाणों द्वारा जान लिया जाता है, वह विस्ताररुचि है।
-क्रियारुचि-दर्शन-ज्ञान-चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति और गुप्ति आदि क्रियाओं में भाव से जो रुचि होती है, वह क्रियारुचि है।
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आराधक से आराध्य १०३ ९-संक्षेपरुचि-जो निर्ग्रन्थ प्रवचन में अकुशल है, मिथ्याप्रवचनों से अनजान है परन्त कदष्टि का आग्रह न होने से अल्पबोध से ही जो तत्त्वश्रद्धा होती है वह संक्षेपरुचि है। जैसे मात्र "उपशम-संवर-विवेक" तीन पद सुनते ही जैन तत्त्व-ज्ञान न होने पर भी चिलातिपुत्र को उनमें रुचि हो गई। इस प्रकार बिना विशिष्ट ज्ञान के भी जो मोक्ष-तत्त्व की रुचि होती है, वह संक्षेपरुचि है।
१०-धर्मरुचि-जिनकथित अस्तिकाय धर्म (धर्मास्तिकायादि अस्तिकायों का गुण स्वभाव धर्म) में, श्रुतधर्म में और चारित्र धर्म में श्रद्धारूप रुचि का प्रकट होना धर्मरुचि है।
यही दश सम्यक्त्व आत्मानुशासन में कुछ विभिन्नता के साथ दर्शाये गये हैं। यहाँ रुचि या सम्यक्त्व शब्द का प्रयोग न करते हुए समुद्भव शब्द का प्रयोग किया है। १-आज्ञा समुभव
२-मार्ग समुद्भव ३-उपदेश समुद्भव . ४-सूत्र समुद्भव ५-बीज समुद्भव
६-संक्षेप समुद्भव ७-विस्तार समुद्भव ८-अर्थ समुद्भव ९-अवगाढ़
१०-परमावगाढ़ दर्शन का अधिकारी
आगम में दर्शन के आठ अंग एवं आठ आचार कहे हैं। इन आठ आचार का जो पालक होता है, वहीं इस सम्यग्दर्शन का अधिकारी होता है। सम्यग्दर्शन के आठ आचार इस प्रकार हैं
१-निःशंकता-इहलोक, परलोक, व्याधि, मरण, अपयश, अरक्षण, और आकिस्मक इन सात भयों से मुक्त रहना अथवा जिनोपदिष्ट तत्त्व में यह है या नहीं इस प्रकार की शंका नहीं करना निःशंकता है।
२-निष्कांक्षता-व्रतादिक क्रियाओं को करते हुए उनमें परभव के लिए भोगों की अभिलाषा करना, कर्म और कर्म के फल में आत्मीय भाव रखना और अन्य दृष्टि की प्रशंसा करना कांक्षा है। इस कांक्षा से रहित हो जाना निष्कांक्षता है। - ३-निर्विचिकित्सा-अपने उत्कर्ष की प्रशंसा करना और दूसरों का अपकर्ष चाहना चिकित्सा है। इससे जो रहित है वह निर्विचिकित्सा है। ___४-अमूढदृष्टि-मूढ़ता का परिहार करना अमूढ़दृष्टि है। विद्या-मंत्र की सिद्धि से अज्ञानी लोगों को आश्चर्य हो वैसे कार्य करने वाले बाल तपस्वियों के तप, विद्या आदि के प्रति सम्मान का भाव न रखना, उनको सत्य न समझना, उनसे सम्पर्क न रखना और उनकी प्रशंसा न करना अमूढ़ता है। १. आत्मानुशासनम्-श्लोक-११ ।
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१०४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
५-उपगूहन-आचार्य-उपाध्याय-तपस्वी-ग्लान-कुल-गण-संघादि की आहार-पानीवस्त्र-पात्र-शय्या-संस्तारक-औषध-भेषजादि द्वारा प्रशंसा करना उपगूहन है।
दूसरी तरह से रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग स्वभाव से ही शुद्ध है। यदि अज्ञानी अथवा असमर्थ लोगों के निमित्त से उसकी वाच्यता-निंदा हो तो उसका प्रमार्जन-निराकरण अथवा आच्छादन करना उपगूहन है।
तीसरी तरह से आत्मा की शुद्धि में दुर्बलता नहीं आने देना या उसकी पुष्टि करना तथा आत्मा को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप भाव से च्युत नहीं होने देना उपगूहन है।
६-स्थिरीकरण-जो श्रमण संयम पालन में अस्थिर हो जाता है, स्थिरीकरण द्वारा उन्हें पुनः उसमें स्थिर किया जाता है।
अपनी आत्मा को आत्मस्थिति में स्थिर करना स्वस्थिरीकरण है और अन्य की आत्मा को आत्मस्थिति में स्थिर करना परस्थिरीकरण है।
७-वात्सल्य-जैसे माँ को बच्चे के प्रति स्नेह होता है वैसा जगत के समस्त जीवों के प्रति वत्सलभाव रखना वात्सल्य है।
८-प्रभावना-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभाव से आत्मा को प्रकाशमान करना और अज्ञान रूप अन्धकार को दूर कर जिनशासन के माहास्य को प्रकाशित करना प्रभावना है। सम्यग्दर्शन के लक्षण
लक्षण अर्थात् जिसके द्वारा उस वस्तु को पहचाना जाय जैसे धूम के द्वारा अग्नि को पहचाना जाता है वैसे ही यहाँ कुछ ऐसे विशिष्ट लक्षणों को दर्शाया जाता है जिससे साधक में उपलब्ध सम्यक्त्व के अस्तित्व का बोध हो सके। यद्यपि सम्यक्त्व
आत्मा के शुभ परिणाम रूप है, हम देख सकें वैसा नहीं है फिर भी ये लक्षणं उपचार से सम्यक्त्व के अस्तित्व द्योतक माने गये हैं।
इसके पाँच प्रकार हैं१-शम-प्रशम-उपशम, २-संवेग, ३-निर्वेद, ४-अनुकंपा और ५-आस्तिक्य
१-शम-प्रशम-उपशम-सम्यक्त्व सप्तति में हरिभद्र-सूरि ने इसे उपशम कहा है, नवतत्त्व प्रकरण की टीका में अभयदेव सूरि ने इसे प्रशम कहा है और योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने इसे शम कहा हैं। इसकी तीन अलग-अलग व्याख्यायें होती हैं
१-अनन्तानुबन्धी कषायों का अनुदय, २-तत्त्वों के प्रति अप्रीति और अतत्त्वों के प्रति राग का अभाव, ३-क्रोध और विषय तृष्णा का उपशमन।
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आराधक से आराध्य १०५
., स्वाभाविक या कर्मों के अशुभविपाकों (दुष्ट फल) को जानकर कषायादि का उपशम होता है। इस उपशम से जीव अपराधी पर भी क्रोध नहीं करता है। महत अपराधी पर ताड़नादि का भी अवसर आ जाय तो भी क्रोध का अनुदय रखना शम-प्रशम या उपशम है। ... २-संवेग-संवेग अर्थात् मोक्ष की अभिलाषा।.
३-निर्वेद-संसार से वैराग्य होना निर्वेद है। मोक्ष की अभिलाषा को संवेग और संसार से विरक्तिभाव को निर्वेद कहते हैं।
४-अनुकंपा-दुखी जीवों पर दया करने की इच्छा अनुकम्पा है। .५-आस्तिक्य-तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं-जिनेश्वर द्वारा जो प्रवोदित (कथित) है वह सत्य है, निःशंक है। इस प्रकार की जो दृढ़ श्रद्धा है वह आस्तिक्य. है। दर्शन स्थान .
जिसमें दर्शन स्थिर होता है वह दर्शन स्थानक है उसके छह प्रकार हैं-१-आत्मा है, २-आत्मा नित्य है, ३-आत्मा कर्ता है, ४-आत्मा भोक्ता है, ५-आत्मा का मोक्ष हो सकता है और ६-मुक्ति के उपाय हैं। __आत्मा है-आत्मा, जिसमें चेतना रूप निशानी देखने में आवे। दूध और पानी जैसे एक-दूसरे में मिल जायें वैसे आत्मा और पुद्गल-शरीर एक दूसरे में मिल जायँमिश्र हो जायँ फिर भी. आत्मा पुद्गल से अलग ही है। जैसे पनीर बनाकर दूध-पानी अलग किये जाते हैं वैसे दर्शन द्वारा आत्मा और कर्म अलग किये जाते हैं। ___आत्मा नित्य है-जो पदार्थ, पदार्थ रूप से सत् होते हैं उनका किसी काल में सर्वथा अभावरूप नाश होता ही नहीं है। आत्मा भी (द्रव्य-गुण-पर्यायरूप) सत् पदार्थ है। अतः वह नित्य-शाश्वत है। ..आत्मा कर्ता है-मिथ्यात्व, अविरति, कषायादि-कर्मबन्ध के कारणों से युक्त आत्मा स्वयं उन कर्मों द्वारा उन-उन कर्मों को उपजाता है, बाँधता है। जगत में प्रत्येक जीव भिन्न-भिन्न प्रकार के सुख-दुखों की अनुभूति करते हैं। ये सुख-दुख किसी के देने लेने से नहीं होते हैं। . आत्मा भोक्ता है-आत्मा ही पुण्य और पापों के फलों का भोक्ता है।
आत्मा का मोक्ष होता है-दीपक के बुझ जाने पर अग्नि का सर्वथा नाश नहीं होता है परन्तु वे अग्नि तेजस्-पुद्गल रूपान्तरित होकर श्याम हो जाते हैं, अतः हमें प्रकाश की जगह अंधकार की प्रतीति होती है। वैसे ही आत्मा का जब कर्मरूप तेल सर्वथा समाप्त हो जाता है तो आत्मा अपनी अरूपी अवस्था को प्राप्त हो जाता है। आत्मा की कर्ममुक्त-सत्-अक्षय-निज-अरूपी अवस्था ही मोक्ष है। बंधनों से छूट जाने पर कैदी कैदखाने से मुक्त हो जाता है, समाप्त नहीं होता है। जैसे-रोगों का नाश होने पर
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१०६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
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आरोग्य स्वाभाविक ही उपलब्ध हो जाता है वैसे ही कर्म-बन्धनों के छूट जाने पर आत्मा मुक्त हो जाता है, ऐसी आत्मा की सम्पूर्ण आरोग्यवाली मुक्तावस्था ही मोक्ष है। ___ मोक्ष के उपाय हैं-मिथ्यात्व, अज्ञान और हिंसादि रूप अविरति आदि कर्म बंधन के मूलभूत कारण हैं। उनके प्रतिपक्ष रूप में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कर्ममुक्ति के कारण हैं। कर्ममुक्ति के कारणों को अपनाने से और कर्म-बंधन के कारणों को हटाने से मोक्ष हो सकता है। विनय-पद
कर्मों का विशेष प्रकार से अपनयन करना अर्थात् दूर करना विनय है। जो संसार को जो करता है वह विनय है। वस्तुतः विनय अन्तरंग भाव जगत की सूक्ष्म अवस्था है। विनय का बहिरंग रूप भी वास्तव में परगुण दर्शनरूप है। विनय भाववाचक संज्ञा है। जिनमें गुणों के दर्शन होते हैं; उन्हीं का विनय हो सकता है अन्यथा होने वाला केवल व्यवहार या औचित्य मात्र है। जिनागमों में “विनय" शब्द अधिकतर तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। १-विनय-अनुशासन। २-विनय-आत्मसंयम-शील (सदाचार)। ३-विनय-नम्रता एवं सद्व्यवहार। विनय सात प्रकार का है१-ज्ञान विनय
५-वचन विनय २-दर्शन विनय
६-काय विनय ३-चारित्र विनय
७-लोकोपचार विनय ४-मन विनय
१. ज्ञान विनय-निरंतर नया ज्ञान प्राप्त करे और अतीत में प्राप्त किये ज्ञान की आवृत्ति करे, तथा ज्ञान द्वारा संयम-कृत्य करे अर्थात् नये कर्मों का बंधन न करे और पूर्वकृत कर्मों को दूर करे, वह ज्ञान-विनय है।
२. दर्शन-विनय-जिनेश्वर द्वारा दर्शाये गये धर्मास्तिकायादि द्रव्यों को और अगुरुलघु आदि भावों को तत्स्वरूप में ही समझना, मानना तथा स्वीकारना दर्शन-विनय
है।
३. चारित्र विनय-विनय पूर्वक आठ प्रकार के कर्मों के समूह को रिक्त कर संयम मार्ग में यतनापूर्वक रहे फिर भी जो कर्म बंधे वे अल्प ही हों अतः इसे चारित्र विनय कहते हैं। ___४. मन विनय-मन से किये जाने वाले इस विनय के दो प्रकार हैं-अकुशलमननिरोध, और कुशलमन उदीरणा। आर्तध्यान, रौद्रध्यान आदि से मन को रोकना, अकुशल मन निरोध है और धर्मध्यान, शुक्लध्यान कुशलमन उदीरणा है।
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आराधक से आराध्य १०७ ५. वचन विनय-वचन से किया जाने वाला विनय चार प्रकार का है
१. हितवाणी-जिसका परिणाम.सुंदर हो। २. मितवाणी-जो अल्पाक्षर वाली हो।। ३. अकठोर-जो श्राव्यमधुर-कर्णप्रिय हो, अर्थात् जिसके सुनने से क्रोध
उत्पन्न न हो। ४. अनुपातिक-अनुसरने वाली वाणी बोलना। ६. कायिक विनय-काया से किये जाने वाला विनय आठ प्रकार का है
१. अभ्युत्थान-खड़े होकर स्वागत करना। २. अंजलिबन्ध-हाथं जोड़ना। ३. आसन-उन्हें आसन प्रदान करना। ४. अभिग्रह-गुर्वाज्ञा का पालन करना, उनकी वस्तुओं को यथावत्
यथास्थान रखना। ५. कृतिकर्म-नमस्कार करना। ६. शुश्रूषा-विधि अनुसार न बहुत दूर अथवा न बहुत नजदीक रहकर गुरु .. की सेवा करना।
७. अनुगमन-उनके जाते समय उन्हें छोड़ने जाना।
८. संसाधन-आते समय उनके सामने जाना और उनकी सेवा करना। ७. लोकोपचार विनय-विनय का सातवाँ भेद है-लोकोपचार विनय। इसे एक प्रकार का लोकव्यवहार भी कह सकते हैं। इसके सातं भेद बताये गए हैं, जो इस प्रकार
१. गुरु आदि के निकट रहना, २. उनकी इच्छानुसार वर्तन करना, ३. उनके किसी कार्य को पूरा करने के लिए साधन आदि जुटाना,
४. गुरुजनों ने जो उपकार किये हैं उनका स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञ . रहते हुए उस उपकार का बदला चुकाने का प्रयत्न करना।
५. रोगी आदि की सेवा के लिए तैयार रहना। ६. जिस समय जैसा व्यवहार और जैसा संभाषण उपयुक्त हो, वैसा करना
अर्थात् समयोचित व्यवहार करना, और
७. किसी के विरुद्ध आचरण न करना। आवश्यक
अरिहंत-पद प्राप्ति का ग्यारहवाँ उपाय "आवश्यक साधना" है।
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१०८ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
__ अवश्यं करणाद् आवश्यक। जो क्रिया अवश्य करने योग्य है उसी को “आवश्यक" कहते हैं। आत्मा सहज सुख का अनुभव तभी कर सकता है, जब उसके सम्यक्त्व, चेतना, चारित्र आदि गुण व्यक्त हों। इन गुणों से ही वह उस क्रिया को अपना आवश्यक-कर्म समझता है, इसीलिए ऐसी व्याख्या की है कि-गुणानां वश्यमात्मानं करोतीति आत्मा को दुर्गुणों से दूर कर गुणों से संयुक्त करना ही आवश्यक है। आ + वश्य = आवश्यक अथवा गुणशून्यमात्मानं गुणेरावासयतीति आवासम्। अर्थात् गुणों से शून्य आत्मा को जिन गुणों से वासित किया जाय वह आवश्यक है। प्राकृत में आवासक का भी “आवस्सय" होता है। यह कथन अनुयोग । चार सूत्र की निम्नोक्त गाथा से सिद्ध होता है।
आपाश्रयो वा इदं गुणानाम्, प्राकृतशेल्या आवस्सयं । प्राकृत भाषा में आधार वाचक आपाश्रय शब्द भी-“आवस्सयं" कहा जाता है। आचार्य मलयगिरि के अनुसार इन्द्रिय और कषाय आदि भाव शत्रुओं को जिस साधना • द्वारा ज्ञानादि गुणों से पराजित किया जाता है उसे आवश्यक कहते हैं। आचार्य बट्टेकेर के अनुसार-जो साधक राग, द्वेष, विषय, कषायादि के यशीभूत न बने उसे अवश कहा जाता है, उस अवश का जो आचरण है वह आवश्यक है।
आवश्यक के दो भेद किये गये हैं
१. दोष युक्त आवश्यक करने पर भी फिर से उस दोष का बार-बार सेवन करना, यह द्रव्य आवश्यक है।
२. भाव आवश्यक का अर्थ है-अंतर्दृष्टि में स्थिर होना, व्यवहार से परे होकर अध्यात्म में लीन होना। समभाव की साधना में आसीन रहता।
अनुयोगद्वार सूत्र में और भी आवश्यक सूत्र के छः प्रकार दर्शाये हैं-सामाइयं, चउयीसत्थओ, वंदणयं, पडिक्कमणं, काउसग्गो, पचक्खाणं।
१. सामायिक-समभाव, समता। २. चतुर्विंशतिस्तव-वीतराग देव की स्तुति। ३. वन्दन-गुरुर्देवों को वंदन, नमस्कार। ४. प्रतिक्रमण-वापस लौटना, विभाव से स्वभाव में लौटना, अधर्म से धर्म में ___ लौटना, पर की अनुभूति से मुक्त होकर स्वानुभूति को आत्मसात् करना। ५. कायोत्सर्ग-देहभाव का विसर्जन। ६. प्रत्याख्यान-गुरुसाक्षी से स्वेच्छापूर्वक ली जाने वाली प्रतिज्ञा।
१. प्रतिक्रमण सूत्र भाग-१। २. अनुयोगद्वार सूत्र-सू. २९, भाग १, पृ. १७८ (पूज्य घासीलालजी म. सा. कृत)
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आराधक से आराध्य १०९ निरतिचार शीलव्रत ___ जो नियम श्रद्धा और ज्ञान पूर्वक स्वीकार किया जाता है, उसे व्रत कहते हैं। इस अर्थ के अनुसार साधु के पाँच महाव्रत और श्रावक के बारह व्रत, व्रत शब्द में आ जाते हैं, फिर भी यहाँ व्रत और शील इन दो शब्दों का प्रयोग करके यह सूचित किया गया है कि चारित्र धर्म के मूल नियम अहिंसा, सत्य आदि पांच हैं और अन्य नियम तो इन मूल नियमों की पुष्टि के लिए ही हैं। . ____ हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह से निवृत्त होना-व्रत है। इसी व्रत शब्द पर व्रत करने वाले व्रात्य कहलाने लगे। आगे चलकर यह शब्द एक जाति-विशेष के नाम से प्रसिद्धं रहा।
अल्प अंश में विरति-अणुव्रत और सर्वांश में विरति-महाव्रत है। . उन व्रतों को स्थिर करने के लिए प्रत्येक व्रत की पांच-पांच भावनाएं हैं। यदि इन भावनाओं के अनुसार सदैव बर्ताव किया जाय, तो लिए हुए व्रत उत्तम औषध के समान प्रयत्नशील के लिए सुंदर परिणामकारक सिद्ध हो सकते हैं। वे भावनाएं क्रमशः इस प्रकार हैंप्रथम महाव्रत की पाँच भावना
१. ईर्या भावना, २. मन भावना, ३. वचन भावना ४. आदाणभांडमात्र निक्षेपणा भावना, ५. आलोकित पान भोजन भावना। द्वितीय महाव्रत की पाँच भावना .: १. सोच समझकर बोलना, बिना सोचे नहीं बोलना। . २. क्रोध से झूठ नहीं बोलना, ध्यान रखने पर भी यदि क्रोध आ जाय तो क्षमा
रखना। ३. लोभ से झूठ नहीं बोलना, ध्यान रखने पर भी यदि लोभ हो जाय तो संतोष
रखना। ४. भय से झूठ नहीं बोलना, ध्यान रखने पर भी यदि भय आ जाय तो धैर्य . . . रखना। - ५. हंसी मजाक से झूठ नहीं बोलना, हंसी मजाक का अवसर हो तब मौन
रखना। तृतीय महाव्रत की पाँच भावना
१. अठारह प्रकार के स्थान सोच समझकर उपयोग में लेना, बिना सोचे समझे .. उपयोग में नहीं लेना। २. सलाका, काष्ट, कंकर आदि सोच समझकर उपयोग में लेना, बिना सोचे
समझे उपयोग में नहीं लेना।
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११० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
३. उपाश्रय के दरवाजे न खोलना, न बंद करना और न ऊपर नीचे करना। ४. हवा रहित को सहित नहीं करना।
५. गुरु, ज्ञानी, तपस्वी, वृद्ध, रोगी एवं नवदीक्षित की सेवा करना। चतुर्थ महाव्रत की पाँच भावना
१. स्त्री-पुरुष-पशु रहित स्थान का उपयोग करना। २. स्त्री एवं पुरुष को एकांत स्थान में बात-चीत नहीं करना। ३. पूर्वभुक्त कामभोग याद नहीं करना। ४. प्रतिदिन अधिक आहार नहीं करना।
५. पुरुष को स्त्री के और स्त्री को पुरुष के अंगोपांग नहीं देखना। पंचम महाव्रत की पांच भावना १. मनोज्ञ (प्रिय) शब्द पर राग नहीं करना, अमनो (अप्रिय) शब्द पर द्वेष
नहीं करना। २. मनोज्ञ रूप पर राग नहीं करना. अमनोज रूप पर द्वेष नहीं करना। ३. मनोज्ञ रस पर राग नहीं करना, अमनोज्ञ रस पर द्वेष नहीं करना। ४. मनोज्ञ गंध पर राग नहीं करना, अमनोज्ञ गंध पर द्वेष,नहीं करना।
५. मनोज्ञ स्पर्श पर राग नहीं करना, अमनोज्ञ स्पर्श पर द्वेष नहीं करना। अणुव्रत इस प्रकार हैं
१. छोटे बड़े प्रत्येक जीव की मानसिक, वाचिक, कायिक हिंसा का पूर्णतया त्याग न हो सकने के कारण अपनी निश्चित की हुई गृहस्थमर्यादा, जितनी हिंसा से निभ सके उससे अधिक हिंसा का त्याग करना-यह अहिंसाणुव्रत है।
२-५. इसी तरह असत्य, चोरी, कामाचार और परिग्रह का अपनी परिस्थिति के अनुसार मर्यादित त्याग करना-वे क्रमशः सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अणुव्रत हैं।
६. अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार पूर्व, पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित करके उसके बाहर हर तरह से अधर्म कार्य से निवृत्ति धारणा. करनादिग्विरति व्रत है।
७. जिसमें अधिक अधर्म .संभव हो-ऐसे खान-पान, गहना-कपड़ा, बर्तन आदि का त्याग करके कम अधर्म वाली वस्तुओं का भी भोग के लिए परिमाण बांधनाउपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत है।
८. अपने भोगरूप प्रयोजन के लिए होने वाले अधर्म व्यापार के सिवाय बाकी के सम्पूर्ण अधर्म व्यापार से निवृत्त होना, अर्थात् निरर्थक कोई प्रवृत्ति न करनाअनर्थदण्डविरति व्रत है।
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आराधक से आराध्य १११
. ९. काल का अभिग्रह लेकर अर्थात् अमुक समय तक अधर्म प्रवृत्ति का त्याग करके धर्मप्रवृत्ति में स्थिर होने का अभ्यास करना-सामायिक व्रत है।
१०. सर्वदा के लिए दिशा का परिमाण निश्चित कर लेने के बाद भी उसमें से प्रयोजन के अनुसार समय समय पर क्षेत्र का परिमाण निश्चित करके उसके बाहर अधर्म कार्य से सर्वथा निवृत्त होना-देशविरति व्रत है।
११. अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा या दूसरी किसी भी तिथि में उपवास धारण करके और सब तरह की शरीर विभूषा का त्याग करके धर्म जागरणा में तत्पर रहना-पौषधोपवास व्रत है।
१२. न्याय से उपार्जित और जो खप सके-ऐसी खान-पान आदि के योग्य वस्तुओं का विधियुक्त शुद्ध भक्तिभाव पूर्वक सुपात्र को दान देना जिनसे कि उभय पक्ष को लाभ पहुंचे-अतिथिसंभाग व्रत है। क्षण-लव ___ "क्षण" और "लव' ये दोनों कालवाचक शब्द हैं। क्षण याने मुहूर्त का छठा भाग, ४८ मिनिट का छठा भाग याने आठ मिनिट जितना काल। “लव' याने मुहूर्त का ७७वां भाग। क्षणलव का उपलक्षणात्मक अर्थ संवेग, भावना और ध्यान विशेष अभिप्रेरित होता है। मुक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी भी इच्छा या अभिलाषा का नहीं होना संवेग है। जो परिणामों की स्थिरता होती है उसका नाम ध्यान है, और जो चित्त का एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में चलायमान होना है वह भावना है। भावनाओं का ध्यान में ही अन्तर्भाव नहीं होता है। क्योंकि, ध्यान और भावना दोनों ज्ञानप्रवृत्ति के विकल्प हैं। जब अनित्यादि विषयों में बार-बार चिन्तन धारा चालू रहती है तब वह ज्ञानरूप है और जब उनमें एकान्त चिन्तानिरोध होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है, तब वह ध्यान कहलाती है। ज्ञान का एक ज्ञेय में निश्चल ठहरना ध्यान है और उससे भिन्न भावना है। - किसी एक इष्ट वस्तु में मति का निश्चल होना ध्यान है। पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा कहलाता है। . आत्मा, अनात्मा आदि सम्बन्धों पर विचार करने से मन में एक जागृति, एक निर्वेद की लहर उठती है, जो आत्मा को वैराग्योन्मुखी बना देती है। __यह निर्वेद जो ज्ञानपूर्वक होता है, हमारी एक अन्तर्मुखी चेतना है। यह जाग्रत चेतना ही आगे चलकर ध्यान एवं समता का रूप धारण करती है। अतः भावना की १. ज्ञातासूत्र-अभयदेव सूरि कृत वृत्ति, पत्र-१३०/१।
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११२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
अगली सीढ़ी ध्यान व समता कही जाती है। “जिसके द्वारा मन को भावित किया जाय"१ उसे भावना कहते हैं।
आचार्य मलयगिरिजी ने "भावना को परिकर्म" कहा है। परिकर्म अर्थात् विचारों को बारंबार भावना से भावित करना। पूर्वकृत अभ्यास द्वारा भावना बनती है और भावना का पुनः पुनः अभ्यास करने पर ध्यान की योग्यता प्राप्त होती है। आगम में कहीं कहीं भावना को अनुप्रेक्षा भी कहा गया है। स्थानांगसूत्र में ध्यान के प्रकरण में धर्मध्यान आदि की चार अनुप्रेक्षा बताई गई हैं। वहाँ अनुप्रेक्षा का अर्थ भावना किया है। आचार्य उमास्वामी ने भी भावना के स्थान पर अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग किया है।
भावनाओं के बारह प्रकार हैं१. अनित्य-भावना
७. आनव-भावना २. अशरण-भावना
८.. संवर-भावना ३. संसार-भावना
९. निर्जरा-भावना ४. एकत्व-भावना
१०. धर्मदुर्लभ-भावना ५. अन्यत्व-भावना
११. लोकस्वरूप-भावना ६. अशुचि-भावना
१२. बोधिदुर्लभ-भावना चार भावना __जिस प्रकार बारह भावनाओं से शुभ चिन्तन को प्रोत्साहन मिलता है, उसी प्रकार निम्न चार भावनाओं से आत्मोन्नति में अग्रसर होने में सहायता मिलती है। ये चार भावनाएँ इस प्रकार हैं१. मैत्री
३. करुणा भाव २. प्रमोद भाव
४. माध्यस्थ भाव ध्यान
चित्त को किसी भी विषय पर स्थिर करना, एकाग्र करना ध्यान है। तत्वार्थ अधिकार में परिस्पंदन से रहित एकाग्र चिन्ता का निरोध ध्यान कहा है और उसे ही. निर्जरा एवं संवर का कारण बताया है। एकाग्र का अर्थ यहां मुख्य, सहारा, अवलंबन, आश्रय, प्रधान अथवा सन्मुख इत्यादि होता है। अनेक अर्थों-पदार्थों का अवलंबन होने से चिन्ता परिस्पन्दनवती होती है, उसे अन्य क्रियाओं से हटाकर एकमुखी करने का नाम ही एकाग्रचिन्ता निरोध है। गुणस्थान क्रमारोह में मन की स्थिरता को छद्मस्थ का ध्यान और काया की स्थिरता को केवली का ध्यान कहा है। १. परिकम्मेति वा भावनेति वा। __-बृहत्कल्प भाष्य भा. २, गा. १२८५ की वृत्ति पृ. ३९७
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आराधक से आराध्य ११३
तप
आत्मा जिससे वासना-इच्छा से रहित होती है उसे वीतराग प्रभु ने सम्यक् तप कहा है। "देह का तपन ही तप नहीं है परंतु जीव की विभाव दशा का छूट जाना ही तप है।" "इच्छानिरोधस्तपः” “तपसा निर्जरा च" ये तप की परिभाषाएं हैं। सम्यक् तप से संवर और निर्जरा दोनों होते हैं। इच्छा-निरोध के उपाय को दर्शाते हुए कहते हैं-"मैं आत्मा हूं, संकल्प-विकल्प से रहित हूं, इच्छा करना मेरा स्वभाव नहीं है।" इस प्रकार आत्मा के ज्ञान स्वभाव में एकाग्रता होने से इच्छा का निरोध होता है और निरोध रूप तप से संवर और निर्जरा होती है। सम्यक् तप द्वारा इच्छा का तथा सम्यक्तप के निमित्त से कर्म परमाणुओं का निरोध होता है। तप का उद्देश्य एवं परिणाम . ___ तप का मुख्य ध्येय जीवन-शोधन है। शास्त्रों में जहां-जहां तप का वर्णन किया गया है वहां इसी भाव की प्रतिध्वनि सुनाई देती है-“तवेण परिसुज्झई । “तवसा निज्जरिज्जइ" “तवसा धुणाई पुराणपावगं"३ “सोहओ तवो"४ इन शब्दों की ध्वनि में यही सकत छिपा हैं कि तप से आत्मा निर्मल, पवित्र एवं विशुद्ध हो जाता है।
गौतम स्वामी ने पूछा-भगवन् ! तप करने से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है ? उत्तर में भगवान ने कहा-तवेण वोदाणं जणयइ तप से व्यवदान होता है। व्यवदान का अर्थ है-दूर हटाना। तपस्या के द्वारा आत्मा कर्मों को दूर हटाता है। कर्मों
का क्षय करता है। कर्मों की निर्जरा करता है। बस यही तप का उद्देश्य है और यही • तप का फल है। . एक बार तुंगियानगरी के तत्वज्ञ श्रावकों ने भगवान पार्श्वनाथ के स्थविर श्रमणों से तत्व चर्चा करते हुए पूछा-भंते ! आप तप क्यों करते हैं ? तप का क्या फल हैतवे किं फले? उत्तर में श्रमणों ने कहा-तवे वांदाण फले-तप का फल है व्यवदान। जो वात भगवान महावीर ने गौतमस्वामी से कही है, वही बात पार्श्वसंतानीया श्रमणों ने श्रावकों से कही है-और समस्त तीर्थंकरों ने, आचार्यों ने भी यही बात कही है। - वास्तव में तप आत्म-शोधन की एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है। वह एक अखण्ड इकाई है। उसके अलग-अलग खण्ड नहीं है। किन्तु फिर भी उसकी प्रक्रियाएं, विधियाँ अलगअलग होने के कारण उसके अलग-अलग भेद भी बताये गये हैं। मूलतः आगमों में तप के दो भेद बताये हैं
१. उत्तराध्ययन सूत्र-अ. २८, गा. ३५। २. उत्तराध्ययन सूत्र-अ. ३0, गा. ६। ३. दशवैकालिक सत्र-अ. १०. गा. ७/ ४. आवश्यक नियुक्ति-गा. १०३। ५. उत्तराध्ययन सूत्र-अ. २९, सू. २७।
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११४ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
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१. बाह्य तप और
२. आभ्यंतर तप। बाह्य तप आभ्यन्तर तप का कारण रूप है। उसके छः प्रकार ये हैं(१) अनशन
आहार संयम (२) ऊनोदरी
आहार संतुलन (आहार-संयम) (३) भिक्षाचरी
अभिग्रह आदि के साथ विधिपूर्वक भिक्षा ग्रहण
करना। (इन्द्रिय संयम) (४) रस परित्याग- प्रणीत स्निग्ध एवं अति मात्रा में भोजन का त्याग।
(इन्द्रिय संयम) (५) काय क्लेश- शरीर को विविध आसन आदि के द्वारा कष्ट
सहिष्णु बनाकर साधना तथा उसकी चंचलता कम .
करना। (शरीर संयम) (६) संलीनता
शरीर, इन्द्रिय, मन, वचन आदि तथा कषाय आदि । का संयम करना, एकांत शुद्ध स्थान में रहना। .
(शरीर-संयम) बाह्य तप के ये छः भेद हैं।
आत्म संयम रूप आभ्यंतर तप के भी छः प्रकार हैं(१) प्रायश्चित्त- दोष विशुद्धि के लिये सरलता पूर्वक प्रायश्चित्त आदि
करना। (स्वदोष दर्शन) (२) विनय
गुरुजनों आदि का आदर, बहुमान एवं भक्ति करना।
(परगुण-दर्शन) . . (३) वैयावृत्य- गुरु, रोगी, गण, संघ आदि की सेवा करना।
(स्वार्थवृत्ति का विलोपन और परार्थवृत्ति का
प्रगटीकरण।) (४) स्वाध्याय
शास्त्रों का अध्ययन, अनुचिंतन एवं मनन करना। (स्व की अनुभूति के लिये लिया जाने वाला
आलम्बन।) (५) ध्यान
मन को एकाग्र कर शुभ ध्यान में लगाना (स्वाध्याय
का परिणाम) (६) व्युत्सर्ग
कषाय आदि का त्याग करना, शरीर की ममता छोड़कर उसे साधना में स्थिर करना एवं आवश्यक होने पर संघ आदि का भी त्याग करना। (ध्यान का परिणाम।)
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आराधक से आराध्य
इसके अतिरिक्त भी तप की परिभाषा, रूप, प्रकार इस प्रकार बताये हैंसराग -तप- किसी भौतिक आकांक्षा या प्रतिष्ठा, कीर्ति, लब्धि तथा स्वर्ग आदि की भावना से तप करना सराग तप है।
११५
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वीतराग -तप- आत्मा को कर्म बन्धनों से मुक्त करने के लिए कषाय रहित दृष्टि से जो तप किया जाता है वह वीतराग तप है। सराग तप निम्न कोटि का है, अल्पफलदायी है, वीतराग तप उत्कृष्ट कोटि का उत्तम फल देने वाला है।
त्याग
अरिहन्त पद प्राप्ति के बीस उपायों में १४वाँ उपाय "त्याग" है। आत्मा के अतिरिक्त अन्य पदार्थ के अध्यास का आत्म-परिणाम से निवर्तना त्याग है। जहाँ अनंत ज्ञान होता है वहीं अत्यंत त्याग सम्भव है । अत्यन्त ज्ञान का परिणाम ही अनन्त त्याग है। स्वरूप के विषय में स्थितप्रज्ञ रहकर पर-द्रव्यों पर से ममत्व हटा लेना, आसक्ति घटा देना परमार्थ त्याग है। जिन पर से ममत्य तो नहीं हटा फिर भी पदार्थ का छोड़ देना त्याग नहीं हो सकता क्योंकि आत्म द्रव्य स्वयं कभी भी परद्रव्य का ग्रहण नहीं करता है। जिसका ग्रहण ही नहीं होता उसका छोड़ना भी कैसे हो सकता है ? पर-द्रव्य तो सदा पृथक् ही है। अतः परद्रव्य के प्रति होने वाले राग-द्वेष का ही त्याग करना होता है। पर को पर जानकर उससे ममत्वभाव तोड़ना ही त्याग है।
पौद्गलिक रचनाओं में आत्मा को स्तभित कर बाहर से किया जाने वाला त्याग वास्तविक नहीं होता। अतः तीर्थंकर परमात्मा सर्वथा ममता रहित भावों में रमते हुए ही त्याग भाव में कदम रखते हैं। सचेतन या अचेतन परिग्रह दोनों की निवृत्ति रूप त्याग होता है। आभ्यन्तर तप उत्सर्ग करते समय नियत समय के लिए सर्वोत्सर्ग किया जाता है, पर त्याग धर्म में यथाशक्ति और अनियतकालिक त्याग होता है, अतः दोनों पृथक्-पृथक् हैं। इसी तरह शौचधर्म में परिग्रह के न रहने पर भी कर्मोदय से होने वाली तृष्णा की निवृत्ति की जाती है, पर त्याग में विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है। त्याग का अर्थ है स्वयोग्य दान देना ।
वैयावृत्य
अपनी स्वार्थवृत्ति का विलोपन और अन्य की परार्थवृत्ति का प्रगटीकरण, यह वैयावच्च है। सहिष्णुता, उदारता और समर्पणभाव - ये वैयावच्च के गुण हैं।
गुणाधिक संयमी, समान गुण वाले और साधर्मिक की विशुद्ध भाव से उल्लासपूर्वक वैयावृत्य करने से आत्मा के अशुभ पाप कर्मों की निर्जरा होती है और महान् शुभ कर्मों का बन्ध होता है।
सेवा किसी की भी की जाय, दुःखी दर्दी और अभावग्रस्त जीवों के जीवन तथा शान्ति के लिए, आवश्यक निर्दोष साधनों से सेवा करना भी लाभ का कारण है। इससे
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११६ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होता है, किन्तु आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित, साधर्मी, कुल, गण और संघ की भावपूर्वक भक्ति और सेवा सकाम-निर्जरा का कारण है। .
इस प्रकार यथोचित वैयावृत्य करने से और भावों की उत्कृष्टता से अरिहंत-पद के योग्य उत्कृष्ट शुभ कर्म का बन्ध हो सकता है। समाधि-भाव
समाधि-भाव आकुलता से रहित, मन की एकाग्रता से अध्यवसायों की पवित्रता से प्राप्त होता है। मन को पौद्गलिक अथवा पर के निमित्त से हटाकर धर्म चिन्तन में लगाने से समाधि-भाव (शान्ति) प्राप्त होता है। समाधिभाव का अभ्यास बढ़ने से आत्मा की स्थिरता भी बढ़ती है। यह स्थिरता धर्मध्यान के अवलम्बन से आत्मा को इतनी बलवान बना देती है कि जिससे कई चरम शरीरी जीव, निर्जरा के अति प्रबल वेग के - चलते क्षपक-श्रेणी का आरोहण करते हुए शुक्ल-ध्यानी बनकर अरिहंत दशा प्राप्त कर . लेते हैं!
समाधि दो प्रकार की होती है-सविकल्प और निर्विकल्प। सविकल्प समाधि में साधक मन को विशिष्ट ध्येय एवं मंत्र पर स्थिर करता है। शुद्ध संविकल्प समाधि में ज्ञानीजन यह भावना-भाते हैं___ “जाने अनजाने भी मैं अन्य की असमाधि का निमित्त रूप न बनूं। यथासंभव अन्यों की समाधि के प्रयत्न करता रहूं। इस भावना को सफल करने में मुझे चाहे कितने ही कष्ट सहने पड़ें, सह लूंगा। बिना अपराध के भी अन्यों के उपालंभ को समाधि में रहकर सह लूंगा परंतु उनकी समाधि नहीं टूटने दूंगा। मेरे समस्त पुण्य एवं शक्ति को लगाकर भी अन्य की समाधि की सुरक्षा करूंगा।"
ऐसे महान समाधिभाव वाले पुण्यात्मा इसी से तीर्थंकर पद के स्वामी बन सकते हैं। वीतराग भाव से युक्त निर्विकल्प समाधि केवल्यज्ञान की बीज है। इसे परम समाधि या सहज समाधि भी कहते हैं। अपूर्व ज्ञानग्रहण
तीर्थंकर-पद प्राप्ति का अठारहवां उपाय-अप्राप्त ज्ञान को प्राप्त करने में निरन्तर प्रयत्नशील रहना है। ज्ञान ऐसा सबल अवलम्बन है कि जिसके आश्रय से भव्यात्मा, ज्ञान के आवरण को नष्ट करता हुआ विशेष-विशेष ज्ञानी बनता जाता है। वह प्रारंभ में श्रुतकेवली और अन्त में केवल-ज्ञानी सर्वज्ञ बन जाता है। वैसे तो ज्ञान का स्वरूप आठवें पद अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में भी है। यहां नवीन जिज्ञासा रूप ज्ञान की पुष्टि को महत्व दिया गया है।
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आराधक-से आराध्य ११७ .......................................................
आत्मा के ज्ञानाभ्यास में लगे रहने से उसकी आत्म परिणति भी शुभ होती है। वह शुभ से शुभतर और शुभतम होती जाती है। किसी भी विषय पर अनुप्रेक्षा करते हुए, चिन्तन-मनन करते हुए आत्मा, विषय-कषाय की अशुभ परिणति से हट कर, आत्मशुद्धि की ओर अग्रसर होता है। यदि सतत अभ्यास होता रहे और एकाग्रता बढ़ती रहे, तो अशुभ की निर्जरा और परम उत्कृष्ट तीर्थंकर नाम-कर्म की पुण्य-प्रकृति का बन्ध भी हो सकता है।
स्वरूप दृष्टि से समझने के लिए ज्ञान के दो स्वरूप बताये गये हैं-१. बीजभूत ज्ञान और २. वृक्षभूत ज्ञान। प्रतीति में दोनों समान होने पर भी परिणाम से दोनों भिन्न हैं। वृक्षभूत ज्ञान से आत्मा के निरावरण होने पर उसी भव से मोक्ष प्राप्त हो जाता है और बीजभूत ज्ञान से कम से कम १५वें भव में अवश्य मुक्ति हो जाती है। - ज्ञान की प्राप्ति के लिये आत्मा को विभाव परिणति त्यागकर स्वभाव में रमण करना चाहिए और ज्ञान की आराधना करनी चाहिए। एक कोड वर्ष में अज्ञानी जितने कर्मों का क्षय कर सकता है ज्ञानी उतने कर्मों का श्वासोश्वास जितने काल में क्षय कर सकता है। सात गुणस्थान तक अनेकविध क्रिया कर्म द्वारा आत्मा की ज्ञान ज्योति अभिवर्धित होती है और आठवें गुणस्थान में क्षपक श्रेणी के प्रारंभ काल में ध्याता, ध्येय और ध्यान की एकाग्रता से पूर्वकृत कर्मों का प्रचंड विध्वंस शुरू होता है, और जीव अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान को प्राप्त कर सकता है। . जिसके द्वारा स्व-पर को, जड़-चैतन्य को, गुण-दोष को, हिताहित को, भक्ष्याभक्ष्य को, कर्तव्याकर्तव्य को पहचाना जाता है और जिसके द्वारा अनादि अज्ञान-अविद्याजड़ता का नाश होता है, ऐसा सम्यज्ञान अत्यंत उपकारक होने से सर्वथा ग्राह्य होता है। अप्रतिपाति अविनश्वर ऐसा ज्ञान तो सूक्ष्म निगोदावस्था में भी कायम रहता है। ऐसे ज्ञान के प्रमुख पांच और अवान्तर ५१ प्रकार हैं। ज्ञान के प्रमुख पांच प्रकार इस प्रकार हैं१: मतिज्ञान या आभिनिबोधिकज्ञान
चक्षु आदि इन्द्रियाँ और मन की सहायता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान "आभिनिबोधिक" कहलाता है। जैन दर्शन में इसका प्रचलित नाम “मतिज्ञान' है। यह इन्द्रियादि की सहायता से होता है। २. श्रुतज्ञान
इसका सामान्य अर्थ है-शब्दजन्य शास्त्रज्ञान। श्रुतज्ञान वंही है जो प्रामाणिक शास्त्रों से होता हो। श्रुतज्ञान दो प्रकार का माना गया है-अङ्ग विषयक श्रुतज्ञान और अङ्गबाह्य श्रुतज्ञान।
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११८ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम ३. अवधिज्ञान
अवधि का अर्थ है-सीमा। अतः इन्द्रियादि की सहायता के बिना कुछ सीमा को लिए जो रूपी-पदार्थ के विषय में अन्तःसाक्ष्यरूप ज्ञान होता है वह “अवधिज्ञान" कहलाता है। इस ज्ञान में अरूपी द्रव्यों का साक्षात्कार नहीं होता है। यह दिव्य ज्ञान की प्रथम अवस्था है। संक्षेप में इच्छित रूप से अवलोकन करने वाले आत्मा का बिना इन्द्रिय के अवलंबन के अमुक सीमा तक देखना अवधिज्ञान है। ४. मनः पर्यायज्ञान
दूसरों के मनोगत विचारों को जानने की शक्ति के कारण इसे “मनः पर्यायज्ञान" कहा जाता है। यह दिव्यज्ञान की दूसरी अवस्था है और अवधिज्ञान से श्रेष्ठ है। इस ज्ञान की उत्पत्ति भावों की विशेष निर्मलता और तपस्या आदि के प्रभाव से होती है। सरल और जटिल इन दो प्रकार के विचारों को जानने के कारण तत्वार्थसूत्र में इस ज्ञान के दो भेद किये गए हैं। इतना विशेष है कि इस ज्ञान के द्वारा दूसरे के मन में चिन्तनीय रूपी द्रव्यों का ही बोध होता है, अरूपी का नहीं। इस प्रकार अनिच्छित फिर भी मानसिक विशुद्धि के बल से जानना मनःपर्यवज्ञान है। • केवलज्ञान
चैतन्यदृष्टि में परिनिष्ठित पूर्ण शुद्ध ज्ञान केवलज्ञान है। त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों का एक साथ ज्ञान होना, यह दिव्यज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है। इस ज्ञान के उत्पन्न होने पर त्रिकालवर्ती ऐसा कोई भी द्रव्य नहीं बचता है जो इस ज्ञान का विषय न होता हो। यह पूर्ण एवं असीम ज्ञान है। इससे श्रेष्ठ कोई अन्य ज्ञान न होने के कारण इसे अनुत्तर, अनन्त, सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, आवरणरहित, अन्धकार रहित, विशुद्ध तथा लोकालोक-प्रकाशक बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त इस ज्ञान के धारण करने वाले को केवली, केवलज्ञानी तथा सर्वज्ञ कहा गया है।
इन पांच प्रकार के ज्ञानों में प्रथम दो ज्ञान इन्द्रियादि की सहायता से उत्पन्न होते हैं और ये किसी न किसी रूप में प्रायः सभी जीवों में पाए जाते हैं। यदि ऐसा न माना जाएगा तो जीव में जीवत्व ही न रहेगा क्योंकि चेतना को जीव का लक्षण स्वीकार किया गया है और चेतना दर्शन व ज्ञानरूप स्वीकार की गई है। एकांत निश्चय. नय से मति आदि चारों ज्ञान संपूर्ण शुद्ध ज्ञान की अपेक्षा से विकल्पज्ञान कहे जाते हैं। परन्तु संपूर्ण शुद्ध ज्ञान अर्थात् संपूर्ण निर्विकल्प ज्ञान की प्राप्ति में ये चार ज्ञान अवलंबनरूप हैं। इन चार में भी श्रुतज्ञान मुख्य है, केवलज्ञान की प्राप्ति में अन्त तक अवलंबन रूप रहता है। केवलज्ञान प्राप्ति के पूर्व ही यदि कोई उसका त्याग कर दें तो केवलज्ञान मिल नहीं सकता। केवलज्ञान की दशा प्राप्त करने का हेतु श्रुतज्ञान ही है।
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आराधक से आराध्य ११९
___ मति और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति-ग्राह्यता सर्व-पर्याय रहित अर्थात् परिमित पर्यायों से युक्त सब द्रव्यों में होती है। अवधिज्ञान की प्रवृत्तिं सर्व पर्याय रहित सिर्फ रूपी-मूर्त द्रव्यों में होती है।
मनःपर्यायज्ञान की प्रवृत्ति उस रूपी द्रव्य के सर्व पर्याय रहित अनन्तवें भाग में होती है। केवलज्ञान की प्रवृत्ति सभी द्रव्यों में और सभी पर्यायों में होती है। मति और श्रुतज्ञान के द्वारा रूपी, अरूपी सभी द्रव्य जाने जा सकते हैं पर पर्याय उनके कुछ ही जाने जा सकते हैं, सब नहीं।
यहाँ पर द्रव्यरूप ग्राह्य की अपेक्षा से तो दोनों के विषयों में न्यूनाधिकता नहीं है; परंतु पर्याय रूप ग्राह्य की अपेक्षा से दोनों के विषयों में न्यूनाधिकता अवश्य है। ग्राह्य पर्यायों की कमी-वेशी होने पर भी समानता सिर्फ इतनी है कि वे दोनों ज्ञान द्रव्यों के परिमित पर्यायों को ही जान सकते हैं, संपूर्ण पर्यायों को नहीं। मतिज्ञान वर्तमानग्राही होने से इन्द्रियों की शक्ति और आत्मा की योग्यता के अनुसार द्रव्यों के कुछ-कुछ वर्तमान पर्यायों को ही ग्रहण कर सकता है, पर श्रुतज्ञान त्रिकालग्राही होने से तीनों काल के पर्यायों को थोड़े-बहुत प्रमाण में ग्रहण कर सकता है।
__ मतिज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियों से पैदा होता है और वे इन्द्रियाँ सिर्फ मूर्त द्रव्य को ही ग्रहण करने का सामर्थ्य रखती हैं। फिर मतिज्ञान के ग्राह्य सब द्रव्य कैसे माने गए? इस प्रश्न के उत्तर में कहा है-मतिज्ञान इन्द्रियों की तरह मन से भी होता है, और मन स्वानुभूत या शास्त्रश्रुत सभी मूर्त, अमूर्त द्रव्यों का चिन्तन करता है। इसलिए मनोजन्य मतिज्ञान की अपेक्षा से मतिज्ञान के ग्राह्य सब द्रव्य मानने में कोई विरोध नहीं है। • स्वानुभूत या शास्त्रश्रुत विषयों में मन के द्वारा मतिज्ञान भी होगा और श्रुतज्ञान भी। उसमें अन्तर केवल इतना ही है कि जब मानसिक चिन्तन, शब्दोल्लेख सहित हो तब श्रुतज्ञान और जब उससे रहित हो तब मतिज्ञान।
परम प्रकर्ष प्राप्त परमावधिज्ञान जो अलोक में भी लोकप्रमाण असंख्यात खण्डों को देखने का सामर्थ्य रखता है वह भी सिर्फ मूर्त द्रव्यों का साक्षात्कार कर सकता है, अमूर्तों का नहीं। इसी तरह वह द्रव्यों के भी समग्र पर्यायों को नहीं जान सकता। मनः पर्याय-ज्ञान भी द्रव्यों को ही साक्षात्कार करता है पर अवधिज्ञान जितना नहीं। क्योंकि अवधिज्ञान के द्वारा सब प्रकार के पुद्गल द्रव्य ग्रहण किये जा सकते हैं पर मनः पर्याय ज्ञान के द्वारा तो सिर्फ मनरूप बने हुए पुद्गल और वे भी मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्तर्गत ही ग्रहण किये जा सकते हैं। इसी से मनःपर्यायज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवां भाग कहा गया है। मनःपर्याय-ज्ञान भी कितना ही विशुद्ध क्यों न हो, पर अपने ग्राह्य द्रव्यों के संपूर्ण पर्यायों को नहीं जान सकता। यद्यपि मनःपर्याय ज्ञान के द्वारा साक्षात्कार तो सिर्फ चिन्तनशील मूर्त मन का ही होता है, पर पीछे होने
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१२० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम वाले अनुमान से तो उस मन के द्वारा चिन्तन किये गये मूर्त, अमूर्त सभी द्रव्य जाने जा सकते हैं। ___ मति आदि चारों ज्ञान कितने ही शुद्ध क्यों न हों, पर वे चेतना शक्ति के अपूर्ण विकास रूप होने से एक भी वस्तु के समग्र भावों को जानने में असमर्थ हैं। यह नियम है कि जो ज्ञान किसी एक वस्तु के संपूर्ण भावों को जान सके वह सब वस्तुओं के संपूर्ण भावों को भी ग्रहण कर सकता है, वही ज्ञान पूर्ण ज्ञान कहलाता है, इसी को केवलज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान चेतनाशक्ति के संपूर्ण विकास के समय प्रकट होता है। इसलिए इसके अपूर्णताजन्य भेद-प्रभेद नहीं हैं। कोई भी ऐसी वस्तु या ऐसा भाव नहीं .. है जो इसके द्वारा प्रत्यक्ष न जाना जा सके। इसी के कारण केवलज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्य और सब पर्यायों में मानी गई है। ___एक आत्मा में एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक अनियत रूप से होते हैं। . अर्थात् किसी आत्मा में एक, किसी में दो, किसी में तीन और किसी में चार ज्ञानं तक : होना संभव है, पर पाँचों ज्ञान एक साथ किसी में नहीं होते। जब एक होता है तब केवलज्ञान समझना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान परिपूर्ण होने से उस समय अन्य अपूर्ण किसी ज्ञान का होना संभव ही नहीं। जब दो होते हैं तब मति और. श्रुत, क्योंकि पाँच ज्ञान में से नियत सहचारी दो ज्ञान ये ही हैं। शेष तीनों एक दूसरे को छोड़कर भी रह सकते हैं। जब तीन ज्ञान होते हैं तब मति, श्रुत और अवधिज्ञान या मति, श्रुत और मनः पर्यायज्ञान क्योंकि तीन ज्ञान अपूर्ण अवस्था में ही संभव होते हैं और उस समय चाहे अवधिज्ञान हो या मनःपर्यायज्ञान पर मति, श्रुत-दोनों अवश्य होते हैं। जब चार ज्ञान होते हैं तब मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय, क्योंकि ये ही चारों ज्ञान अपूर्ण अवस्थाभावी होने से एक साथ हो सकते हैं। केवलज्ञान का अन्य किसी ज्ञान के साथ साहचर्य इसलिए नहीं है कि वह पूर्ण अवस्थाभावी है और शेष सभी अपूर्ण अवस्थाभावी। पूर्णता तथा अपूर्णता का आपस में विरोध होने से दो अवस्थाएँ एक साथ आत्मा में नहीं होती। दो, तीन या चार ज्ञानों का जो एक साथ कथन किया गया है वह शक्ति की अपेक्षा से, प्रवृत्ति की अपेक्षा से नहीं। मति, श्रुत दो ज्ञान वाला या अवधि सहित तीन ज्ञान वाला कोई आत्मा जिस समय मतिज्ञान के द्वारा किसी विषय को जानने में प्रवृत्त हो उस समय वह अपने में श्रुत की शक्ति या अवधि की शक्ति होने पर भी उसका उपयोग करके तद् द्वारा उसके विषयों को जान नहीं सकता है। इसी तरह वह श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति के समय मति या अवधि शक्ति को भी काम में नहीं ला सकता है। यही बात मनःपर्याय की शक्ति के विषय में भी समझनी चाहिए। सारांश यह है कि एक आत्मा में एक साथ अधिक से अधिक चार ज्ञान शक्तियाँ हों तब भी एक समय में कोई एक ही शक्ति जानने का काम करती है। अन्य शक्तियाँ उस समय निष्क्रिय रहती हैं।
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आराधक से आराध्य १२१
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श्रुतभक्ति
सतत् ज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न करने के अतिरिक्त श्रुत-भक्ति भी एक उपाय है। ज्ञान प्राप्ति का प्रयत्न श्रद्धायुक्त हो और साथ ही भक्ति पूर्वक हो, तो विशेष फल देता है। भक्ति रहित-उपेक्षापूर्वक मात्र विषय को समझने-समझाने के लिए ही हो, तो वह भौतिक फल देकर रह जाता है।
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान- ज्ञान के इन पाँच प्रकारों में एक .श्रुतज्ञान ही ऐसा है, जो दूसरों से लिया या दिया जा सकता है और पढ़ या सुनकर प्राप्त किया जाता है। अक्षर-अनक्षर आदि का भेद श्रुतज्ञान में ही है। लिपि का व्यवहार भी श्रुत में ही होता है। यों तो केवलज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम है। ज्ञान की पूर्णता और पराकाष्ठा केवलज्ञान में ही है, किन्तु वह जिन भव्यात्माओं को प्राप्त होता है, वह उन्हीं के लिए उपकारक है। क्योंकि केवलज्ञान न तो किसी को दिया जाता है और न किसी से लिया जाता है। केवल ज्ञानी सर्वज्ञ भगवान् अपने केवलज्ञान से जानकर जो भाव फरमाते हैं, वही भाव श्रोता के लिए श्रुतज्ञान हो जाता है। तात्पर्य यह कि अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान से जानकर जो कुछ कहा जाता है, वह "वचन-योगश्रुत" होता है-द्रव्य-श्रुत है और श्रोता के लिए वही भाव श्रुतश्रुतज्ञान हो जाता है। ___ गुरु के समीप रहकर सुनकर ही ज्ञान-ग्रहण की परम्परा थी इसलिये इसका नाम श्रुत माना जाता है। आचारांगादि का प्रारम्भ इस बात की पुष्टि करता है। इसमें प्रारम्भ में “सुयं मे" शब्द का प्रयोग श्रुत की इस वास्तविकता का परिचय है।
: श्रुत का भक्तिपूर्वक पठन-मनन हो, स्वाध्याय हो, दूसरे भव्य जीवों को श्रुत-भक्ति में जोड़ने की प्रवृत्ति, श्रुतभक्ति है। इसकी उत्कृष्ट आराधना से अरिहंत पद प्राप्ति का सामर्थ्य प्रकट होता है। प्रवचन-प्रभावना - प्रवचन-प्रभावना, यह तीर्थंकर पद प्राप्ति का अन्तिम उपाय है। आगमों में इस पद का प्रवचन प्रभावना यह एक ही नाम उपलब्ध होता है, परन्तु अन्य साहित्य में शासन प्रभावना तथा तीर्थ प्रभावना ऐसे दो नाम प्राप्त होते हैं। प्रवचन, शासन तथा तीर्थचाहे किसी भी शब्द का प्रयोग किया जाय, अभिप्राय एक ही है। शासन और तीर्थ दोनों का अर्थ तो एक ही है। इतना ही नहीं परन्तु इनके अतिरिक्त श्रुतधर्म, मार्ग तथा प्रवचन ऐसे अन्य नाम भी हैं। प्रयक्त नाम विधान में "मार्ग" शब्द भी 'प्रवचन का एकार्थवाची है। तत्वार्थ सूत्र में तीर्थंकर-नामकर्म हेतु सोलह कारणों के निर्देशन में प्रवचन-प्रभावना शब्द न होकर मार्ग प्रभावना नामक पन्द्रहवां कारण स्पष्टतः इससे अभिन्न है।
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१२२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम
यहाँ तीर्थ शब्द को प्रवचन शब्द का एकार्थवाची मानने पर एक प्रश्न होता है कि तीर्थ तो साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप होता है। यदि तीर्थाधिपति (तीर्थंकर) भी प्रवचन हैं तो उनके निमित्त से निष्पन्न तीर्थ कैसे प्रवचन कहा जाता है ?
इसका समाधान श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने बहुत सुंदर किया है। यहाँ पर "जत्थेव पइट्ठियं नाणं"१ प्रस्तुत प्रश्न का खास समाधान है। जहाँ ज्ञान की प्रतिष्ठा होती है वह प्रवचन है। तीर्थ के अतिरिक्त इन प्रवचन में प्रयुक्त ज्ञान की प्रतिष्ठा कहाँ हो सकती है? ___प्रवचन का धारक एवं प्रचारक चतुर्विध संघ (तीर्थ) होता है। तीर्थ की प्रवृत्ति तीर्थंकर के उपदेश से होती है। तीर्थ की उत्पत्ति का आधार ही तीर्थंकर का. प्रवचन है। तीर्थाधिपति के उपदेश के बाद ही तीर्थ की स्थापना होती है। अतः प्रवंचन के फलस्वरूप निष्पन्न हुए तीर्थ को भी प्रवचन कहा गया है। ___अरिहंत अर्थ कहते हैं और गणधर उनके सूक्ष्मार्थ को बहुअर्थवाले सूत्र में. गूंथते हैं-रचते हैं और शासन के हित हेतु इसका प्रवर्तन करते हैं। इस प्रकार प्रवचन के मुख्य प्रदाता, उत्पत्तिकर्ती या रचयिता अर्थ से अरिहंत और सूत्र से गणधर भगवान हैं। परन्त इसकी प्रवत्ति समिति-गप्ति चारित्राचार के. पालन में होती है। इसलिए पाँच-समिति और तीन गुप्ति को “अष्टप्रवचन माता" कहते हैं। अष्टप्रवंचनमाता में जिनेन्द्र कथित द्वादशांग रूप समग्र प्रवचन गर्भित है। अतः इन्हें प्रवचन. की माताजन्मदात्री का सम्मान प्राप्त हुआ है। जिस प्रकार माता अपने बच्चे की रक्षा-सुरक्षा और पालन-पोषण करती है वैसे ही यह प्रवचन-माता साधक का पालन-पोषण करती है।
प्रस्तुत पद प्रवचन-प्रभावना है। अतः प्रवचन के साथ प्रभावना का भी इस पद में उतना ही महत्व है। प्रवचन की तरह प्रभावना का भी जैन-साधना में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है।
प्रवचन प्रभावना दो तरह से होती है-व्यवहार से एवं निश्चय से। श्रावक वर्ग दान, स्वामिवात्सल्य आदि द्वारा शासन प्रभावना करते हैं और श्रमण वर्ग तप श्रुतादि द्वारा करते हैं। यह व्यवहार प्रभावना है। शासन पर आये उपसर्गों को हटाकर जीवों को शासनप्रेमी बनाने हेतु विविध स्तोत्रों की रचना कर हमारे प्राचीन महर्षियों ने विशिष्ट प्रकार की प्रभावना की है। भद्रबाहु स्वामी का "उपसर्गहर स्तोत्र" मानतुंगसूरि का "भक्तामर स्तोत्र" सिद्धसेन दिवाकर का “कल्याण मंदिर स्तोत्र" आदि हमारी प्राचीन स्तोत्र रचनाएँ शासन-प्रभावना के अविस्मरणीय उदाहरण रहे हैं।
व्यवहार प्रभावना गुण के बल से मिथ्यात्व, विषय, कषाय आदि जो सम्पूर्ण विभाव परिणाम हैं, जो परमतों का प्रभाव है उसको नष्ट करके शुद्धोपयोग. लक्षण १. जीतकल्प सूत्र भाष्य, गा. १
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आराधक से आराध्य १२३
स्वसंवेदन ज्ञान से निर्मल ज्ञान, दर्शन रूप स्वभाव के धारक निज शुद्ध आत्मा का जो प्रकाशन अर्थात् अनुभव है वह निश्चय प्रभावना है। यही प्रभावना तीर्थकर नामकर्म के उपार्जन का अपूर्व कारण बन जाती है।
यहाँ व्यवहार-प्रभावना को निश्चय-प्रभावना का आधार माना गया है। यही कारण है जो विजयसेठ और विजयासेठानी को भोजन देने हेतु आमन्त्रणदाता ने समस्त आर्हतों को निमन्त्रण दिया और व्यावहारिक प्रभावना की। उस युगल की वास्तविक शील पालन की सत्यता सिद्ध हुई। उत्तर मथुरा में, जिनमत प्रभावना करने का स्वभाव है-जिसका ऐसी उरविला महादेवी को प्रभावना के निमित्त जब उपसर्ग हुआ तब वज्रकुमार नामक विद्याधर श्रमण ने आकाश में जैनरथ को फिराकर धर्म की प्रभावना की।
बौद्धों द्वारा जैन शासन पर होने वाले कुप्रभावों को अपनी आत्मशक्ति से पराभूत कर महासूरि मेरुप्रभ ने उत्तमोत्तम शासन-प्रभावना द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया। . . ..
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खण्ड-३
स्वरूप-दर्शन
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अध्याय ५
च्यवन कल्याणक
कल्याणक
च्यवन १. उच्चकुल की प्रधानता २. ज्ञान समन्वित च्यवन ३.. त्रैलोक्य में अपूर्व प्रभाव ४. स्वप्न-दर्शन ५. स्वप्नों के कारण ६. स्वप्नों के फल के काल ७. स्वप्नों के विभिन्न प्रकार एवं स्वरूप ८. तीर्थंकर की माता को चौदह स्वप्न ९. स्वप्न-फल १०. इन्द्रों द्वारा कल्याणक-उत्सव
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कल्याणक
जैन शास्त्रों में तीर्थंकरों की पाँच घटनाओं को प्रधान घटनाएँ बताया गया है, और उन घटनाओं को कल्याणक कहा है। क्योंकि ये अवसर जगत् के लिए अत्यंत कल्याण व मंगलकारी होते हैं। अरिहंत परमात्मा का इस धरती पर आना, जन्म ग्रहण करना, दीक्षा लेना, केवलज्ञान प्राप्त करना और निर्वाण होना-ये पाँचों ही प्रसंग तीनों ही लोक के जीव-प्राणियों के लिए कल्याणकारक ही होते हैं। उनका परकल्याण में स्वकल्याण समाविष्ट होता है। लोकोत्तर अवस्था को प्राप्त अरिहंत परमात्मा की ये बहुत महत्वपूर्ण सर्वोपरि अवस्थाएँ हैं।
कल्याण स्वरूप लोकोत्तर उपलब्धि के साथ कल्याणक से लौकिक आनंद भी उपलब्ध होता है। इसीलिए कहा है कि
- नारकाणमपि मोदन्ते यस्य कल्याणपर्वसु अरिहंत के कल्याण-पर्व पर (सर्व कल्याणक अवसर पर) नरक के जीवों को भी आनंद की उपलब्धि होती है। च्यवन - च्यवन यह तीर्थंकरों के गर्भागमन का दूसरा नाम है। अरिहंत परमात्मा के लिये यह वह बेला है जिसमें वे समस्त कर्म-लीलाओं को समाप्त करने के लिए अपने अंतिम भव के देह रूप का प्रत्यक्ष सद्भाव पाते हैं।
हजारों वर्षों से तीर्थंकर के अभाव से व्यग्र, व्यथित भव्यात्माओं के पुण्य-प्रभाव की इस परिणाममयी बेला में इन मुक्ति के मार्गदाता का उद्भव होता है। उद्भव के अप्रत्यक्ष भाव से अभाव टूटता है, प्रभाव प्रकट होता है। च्यवन तो कई आत्माओं का होता है, पर परमात्मा का च्यवन ही कल्याणकरूप माना जाता है। च्यवन से ही इनका परमात्मत्व पृथ्वी लोक पर अपूर्व प्रतिभा झलका देता है।
मुक्ति के महापथ की उपलब्धि में अपूर्व प्रवेश। “सर्व जीव करूँ शासन रसिक" की भावना को सफल करने की प्रयोगशाला में प्रथम प्रवेश है च्यवन। अनेकों जीवों पर अनुग्रह कर उनके उद्धार एवं निस्तार पूर्ण उत्सुकता का सफल प्रवेश द्वार यह च्यवन है। कैवल्य प्राप्ति में प्रवेश-पत्र प्राप्त कराने वाले इस अन्तिम भव की, लक्ष्य सिद्धि की यह समुद्भव-बेला अत्यंत पुण्यमयी होती है। इसी कारण सारे संसार के अंधकार का क्षणभर में विनाश हो जाता है। सर्वलोक में सभी जीवों को उद्योत तथा प्रसन्नता की अनुभूति होती है। मानवीय गर्भ-प्रवेश से इसका मूल्यांकन नहीं होता। यह
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१३० स्वरूप-दर्शन विश्वोद्धारक विराट् मूर्ति के चौदह रज्जू लोक में होने वाले विस्तृत प्रकाश पुंज का पार्थिव रूप में पृथ्वी पर प्रवेश है। यह परम दशा तो मात्र तीर्थंकरों को ही होती है। ऐसे परम तारक रूप में जीवन उनका ही हो सकता है जिन्होंने इस विशेष कर्म का निकाचन किया हो। जीवन से तो कई आदरणीय, पूजनीय, अर्चनीय होते हैं पर गर्भ प्रवेश से ही गुण निष्पन्न होने वाले पूजनीय अन्य कौन हो सकते हैं ? गर्भ में ही अरिहंत की अपूर्व शक्ति का एक नमूना देखिये-गर्भ में ही अपूर्व शक्ति एवं करुणा दृष्टि के परम पात्र हैं परमात्मा महावीर। “मेरे हिलने-डुलने से माता को काया कष्ट होगा"-ऐसा सोचकर स्थिर रहते हैं। पर, परिणाम कुछ उलटा आता है। माता त्रिशला . तो बालक के अकंप भाव से शंकाशील एवं संवेदनशील बन गईं। मोह-प्रचुर माता की .. इस अवस्था का निरीक्षण कर, ज्ञान बल से स्वयं के सोपक्रम मोहनीय कर्म को और । माता पिता के सोपक्रम आयुष्यकर्म को जानकर तत्काल टूटने वाले आयुष्य कर्म को . अटूट वैराग्य की बलिहारी चढ़ाकर प्रतिज्ञावान् बन गये। ऐसी अपूर्व वीर्य शक्ति क्या अन्य जीवों में च्यवन के समय संभव हो सकती है? __ जैन दर्शन की मार्मिकता गर्भ में ही झलका देते हैं, श्रमण भगवान महावीर। कौन . बलवान है-नियति या पुरुषार्थ ? जिस समय जो बनने वाला होता है वह बनता है इसका नाम है नियति। जीवात्मा स्वयं के प्रयास से जो सर्जन या विसर्जन करता है वह है पुरुषार्थ।
निरुपक्रम कर्म नियति प्रधान होते हैं और सोपक्रम कर्म पुरुषार्थ प्रधान होते हैं। अतः तीर्थंकर परमात्मा गर्भ में भी आवश्यक ऐसी औचित्य की आराधना कर सर्वोत्कृष्ट ऐसे स्वात्मतत्व का विकास करते हैं।
द्रव्य निक्षेप की अपेक्षा से च्यवन होते ही अरिहंत परमात्मा को अरिहंत तीर्थकर या जिन आदि कहा जाता है। ___ अरिहंत परमात्मा की प्रस्तुत व्याख्या यद्यपि उनके केवलज्ञान के पश्चात् होने वाली विलक्षणता को विशेष मानकर की गई है, परन्तु जन्म से ही अरिहंत के आर्हन्त्य का प्रारम्भ हो जाता है। भगवान ऋषभदेव के समवसरण के बाहर रहे हुए मरीचि को भरत महाराजा ने इसी द्रव्य निक्षेप की अपेक्षा से अरिहंत मानकर वंदना की थी।
उनको अरिहंत मानकर ही च्यवन काल से ही शक्रेन्द्रादि उनकी सेवा, पूजा तथा अर्चना करते हैं तथा उनके विशेष अवसरों पर महोत्सव भी मनाते हैं। अतः च्यवन से ही अरिहंत का तीर्थंकर नामकर्म के प्रदेशोदय का प्रारम्भ हो जाता है और केवलज्ञान - के बाद विपाकोदय का प्रारम्भ होता है। ___ अरिहंत देवलोक या नरक से ही च्युत होकर इस मनुष्यभव में आते हैं। तिर्यंच से नहीं। देवलोक से अरिहंत के आगमन को च्यवन और नरक से आगमन को उद्वर्तन कहा जाता है।
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च्यवन कल्याणक १३१
च्यवन से पूर्व देवलोक में अरिहंत परमात्मा की स्थिति अन्य देवों की अपेक्षा विलक्षण होती है। भावी जन्म में अरिहन्त बनने वाले देव आर्हन्त्य के विशिष्ट प्रभाव से अंतिम समय तक अधिक कान्तिमय एवं प्रसन्न होते हैं। अन्य देव च्यवन के भय से भयभीत होकर छः मास पूर्व ही फूल की भाँति मुझ जाते हैं, म्लान हो जाते हैं, परन्तु अरिहंत बनने वाले देवों में ऐसा नहीं होता है। अन्य देवों की भाँति च्यवन के विशेष चिन्ह भी इनमें नहीं पाये जाते हैं।
नरक में भी अन्य जीवों की अपेक्षा अरिहंत को अल्प पीड़ा होती है। उच्चकुल की प्रधानता
अरिहंत अन्त्यकुल में, प्रांतकुल में, अधमकुल , तुच्छकुल में, दरिद्रकुल में, कृपणकुल में, भिक्षुक कुल में अथवा ब्राह्मण कुल में जन्म नहीं लेते हैं, परन्तु उग्रकुल में, भोगकुल में, राजकुल में, इक्ष्वाकु कुल में, क्षत्रिय कुल में, हरिवंश कुल में तथा वैसे प्रकार के अन्य उत्तम कुल वाले वंशों में जन्म लेते हैं।' ज्ञान समन्वितं च्यवन
च्यवन एवं जन्म के समय अरिहंत प्रभु मतिज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान इन तीन ज्ञान से युक्त होते हैं। ..
अवधिज्ञान का प्रमाण सर्व अरिहंतों में समान नहीं होता, परन्तु प्रमाण का आधार उनके पूर्वजन्म के ज्ञान के प्रमाण पर निर्भर होता है। देव या नरक गति में जितने प्रमाणवाला अवधिज्ञान हो उसी प्रमाण में यहाँ अवधिज्ञान होता है। ज्ञान के प्रभाव से तीर्थंकर प्रभु “चइस्समितिजाणई, सुहुमेणं से काले पन्नते," अर्थात् “मेरा च्यवन होगा" . ऐसा जानते हैं, च्यवन के पश्चात् तुरन्त ही "मेरा च्यवन हो गया" ऐसा जानते हैं। ज्ञान के प्रभाव से अतीत अनागत के भावों को जानते हैं। परन्तु च्यवन का काल अतिअल्प होने से “मैं च्युत हो रहा हूँ" ऐसा नहीं जानते हैं। त्रैलोक्य में अपूर्व प्रभाव
अरिहंत के गर्भावास के प्रभाव से सर्वदिशाएँ अन्धकार रहित हो जाती हैं, तीनों लोक में बिजली की भाँति महाउद्योत होता है, एवं सर्व दिशाएँ झंझावात रजकण आदि से रहित होकर निर्मल हो जाती हैं। जिस नक्षत्र में च्यवन होता है उसी नक्षत्र में जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणक होते हैं। .. तीनों जगत् में सुखकर्ता स्वामी के गर्भ में उत्पन्न होते ही त्रैलोक्य के प्राणियों के दुःखों का क्षणमात्र में नाश हो जाता है, और सर्व जीव सुख को प्राप्त होते हैं। च्यवन कल्याणक के प्रस्तुत स्वरूप से यह स्पष्ट होता है कि अरिहंत प्रभु के उपकार का प्रारम्भ उनके इस (मनुष्य) गति में प्रवेश करते ही हो जाता है। १. कल्पसूत्र-सूत्र १७.
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१३२ स्वरूप-दर्शन
ज्ञातासूत्र में प्रभु के च्यवन के समय पक्षी विजयसूचक शब्द बोलते हैं, सुरभियुक्त शीतल मन्द पवन भी प्रदक्षिणावर्त होकर बहता हुआ भूमि का स्पर्श करता है। समस्त पृथ्वी शस्य से आच्छादित एवं हरी भरी रहती है। जनपद हर्ष से हर्षित होते हैं। स्वप्न-दर्शन
च्यवन के प्रभाव से वातावरण में जो विशेषता होती है उसमें एक सर्वोपरि अद्भुत विशेषता १४ स्वप्नों की है। च्यवन काल पर ही जिनेश्वर की माता अनुपम, अनुत्तर, अद्भुत और अद्वितीय ऐसे चौदह स्वप्न देखती है। इन स्वप्नों की सर्वोपरि विशेषता एवं महत्व यही है कि ये स्वप्न इतने रहस्यों से भरे होते हैं कि इसके उद्घाटन में जिनेश्वर का सम्पूर्ण भविष्य झलकता है। इस प्रकार स्वप्न तीर्थंकर के भावी प्रतिभा एवं प्रभाव के परम प्रतीकरूप हैं। स्वप्न, स्वप्न होते हुए भी सत्य के निर्देशकरूप हैं। स्वप्नों के कारण
निमित्तशास्त्र के अंगों में 'स्वप्न-विद्या' का द्वितीय स्थान है। भारतीय साहित्य में स्वप्नागमन के नौ निमित्त कारण बताये हैं-(१) अनुभूत वस्तु (२) श्रुत वस्तु (३) दृष्ट वस्तु (४) वात, पित्त अथवा कफ-विकृति के कारण, (५) स्वप्नवाली प्रकृति के कारण, (६) चिंतित चित्त के कारण, (७) देवादि के सान्निध्य. के कारण, (८) धार्मिक स्वभाव के कारण और (९) अतिशय पापोदय के कारण। इनमें प्रथम के छह स्वप्न कारण शुभ
और अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं परन्तु उनका कोई फल नहीं होता है। अंतिम तीन निमित्त से आये हुए स्वप्न अपने फल देते हैं। अतः उनका शुभाशुभ फल निश्चित होता
स्वप्नों के फलने के काल __रात्रि के प्रथम प्रहर में आने वाले स्वप्न का फल बारह मास के भीतर मिलता है। द्वितीय प्रहर में आने वाले स्वप्न का फल छः मास के भीतर मिलता है। तीसरे प्रहर में आने वाले स्वप्न का फल तीन मास में मिलता है और चौथे प्रहर में आने वाले स्वप्न का फल एक मास में मिलता हैं। सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व जो स्वप्न आता है उसका फल दस दिन में प्राप्त होता है और सूर्योदय के समय देखे गये स्वप्नों का फल शीघ्र ही प्राप्त होता है। स्वप्नों के विभिन्न प्रकार एवं स्वरूप
स्वप्नों के विभिन्न प्रकार एवं स्वरूप का विश्लेषण गौतम स्वामी के पूछने पर भगवान् महावीर ने बहुत सुन्दर बताया है। भगवती सूत्र में इसी को प्रश्नोत्तर रूप में प्रस्तुतः किया है। जो इस प्रकार है :१. कल्पसूत्र सुबोधिका, टीका-पत्र-१२१ २. शतक १६, उ. ६, सू. ८-११
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च्यवन कल्याणक १३३ . . . . . . . . . . . . . . .
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प्रश्न-हे भगवन् ! स्वप्न कितने कहे गये हैं ? उत्तर-हे गौतम ! स्वप्न बयालीस कह गये हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! महास्वप्न कितने कहे गये हैं ? उत्तर-हे गौतम् ! महास्वप्न तीस कहे गये हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! कुल स्वप्न कितने कहे गये हैं.? उत्तर-हे गौतम ! कुल स्वप्न बहत्तर कहे गये हैं।
प्रश्न-हे भगवन् ! जब तीर्थंकर का जीव गर्भ में आता है, तब तीर्थंकर की माता कितने महास्वप्न देखकर जागृत होती है?
उत्तर-हे गौतम! जब तीर्थंकर का जीव गर्भ में आता है, तब तीर्थंकर की माता इन तीस महास्वप्नों में से चौदह महास्वप्न देखकर जागृत होती है। यथा-हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, कलश, पद्मसरोवर, रत्नाकर, विमान, रत्नराशि एवं अग्नि।
हे भगवन् ! स्वप्न दर्शन कितने प्रकार का कहा गया है?
हे गौतम ! स्वप्न दर्शन पाँच प्रकार का कहा गया है, यथा (१) यथातथ्यस्वप्नदर्शन, (२) प्रतानस्वप्न-दर्शन, (३) चिन्तास्वप्न दर्शन, (४) तद्विपरीतस्वप्न दर्शन और (५) अव्यक्तस्वप्न दर्शन। ___ मूल पाठ में स्वप्न दर्शन के सिर्फ पाँच प्रकार बताए गए हैं। विवेचक इसका विश्लेषण इस प्रकार कहते हैं :
सुप्त अवस्था में किसी भी अर्थ के विकल्प का अनुभव करना “स्वप्न" कहलाता है। इसके पाँच भेद हैं।
(१) यथातथ्य स्वप्न दर्शन-स्वप्न में जिस वस्तु-स्वरूप का दर्शन हुआ, जागृत होने पर उसी को देखना या उसके अनुरूप शुभाशुभ फल की प्राप्ति होना-यथातथ्य स्वप्न-दर्शन कहलाता है। इसके दो भेद हैं। यथा-दृष्टार्थाविसंवादी और फलाविसंवादी। स्वप्न में देखे हुए अर्थों के अनुसार जाग्रतावस्था में घटना घटित होना "दृष्टार्थाविसंवादी" स्वप्न हैं। जैसे-किसी मनुष्य ने स्वप्न में देखा कि किसी ने मेरे हाथ में फल दिया। जाग्रत होने पर उसी प्रकार का बनाव बने अर्थात् उसके हाथ में कोई फल दे। स्वप्न के अनुसार जिसका फल (परिणाम) अवश्य मिले वह “फलाविसंवादी" है। जैसे किसी ने स्वप्न में अपने आपको हाथी-घोड़े आदि पर बैठा देखा और जाग्रत होने पर कालान्तर में उसे धन-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति हो।
(२) प्रतानस्वप्न-दर्शन-प्रतान का अर्थ है विस्तार। विस्तार वाला स्वप्न देखना "प्रतान-स्वप्न' है। यह सत्य भी हो सकता है और असत्य भी।
(३) चिन्तास्वप्न-दर्शन-जाग्रतावस्था में जिस वस्तु की चिन्ता रही हो अथवा जिस अर्थ का चिन्तन किया हो, स्वप्न में उसी को देखना "चिन्तास्वप्न दर्शन" है।
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१३४ स्वरूप-दर्शन
(४) तद्विपरीत स्वप्न-दर्शन-स्वप्न में जो वस्तु देखी है, जाग्रत होने पर उससे विपरीत वस्तु की प्राप्ति होना "तविपरीत स्वप्न दर्शन" है। जैसे-किसी ने स्वप्न में अपने शरीर को अशुचि पदार्थ से लिप्त देखा, किन्तु जाग्रतावस्था में कोई पुरुष उसके शरीर को शुचि-पदार्थों से लिप्त करे।
(५) अव्यक्त स्वप्न-दर्शन-स्वप्न विषयक वस्तु का अस्पष्ट ज्ञान होना "अव्यक्त-स्वप्न-दर्शन" है।'
जिनसेन के अनुसार स्वप्न दो प्रकार के हैं-स्वस्थ अवस्था वाले और अस्वस्थ अवस्था वाले। जो धातुओं की समानता के समय दिखते हैं वे स्वस्थ अवस्था वाले हैं और इससे विपरीत अस्वस्थावस्था वाले हैं। स्वस्थ अवस्था में दिखने वाले स्वप्न सत्य और अस्वस्थ अवस्था में दिखने वाले स्वप्न असत्य होते हैं। स्वप्नों के और भी दो भेद होते हैं-एक देव से उत्पन्न होने वाले और दूसरे दोष से उत्पन्न होने वाले। प्रथम प्रकार के स्वप्न सत्य और द्वितीय प्रकार के स्वप्न असत्य होते हैं।२ तीर्थकर की माता को चौदह स्वप्न
सब तीर्थंकरों की माताओं को एक ही से स्वप्न आते हैं। दिखने के क्रम में क्वचित् अन्तर होने का उल्लेख कहीं-कहीं मिलता है-जैसे ऋषभदेव भगवान की माता । ने प्रथम वृषभ को स्वप्न में देखा था, और भगवान महावीर की माता ने प्रथम सिंह को स्वप्न में देखा था। श्री शीलांकाचार्य के अनुसार पार्श्वनाथ भगवान की माता ने ११वां भवन एवं १२वाँ क्षीर सागर का स्वप्न देखा था।
इन चौदह स्वप्नों में क्रम के अतिरिक्त एक दूसरा अन्तर आता है १२वें स्वप्न में। नरक से आने वाले अरिहंतों की माता १२वें स्वप्न में “भवन" देखती है और स्वर्ग से आने वालों की माता "विमान" देखती है।
दिगम्बर ग्रन्थों में १६ स्वप्न और श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार १४ स्वप्न माने जाते हैं। दिगम्बर परम्परा में स्वप्नों की संख्या १६ मानी है। उसमें उपर्युक्त १४ स्वप्नों में ध्वजा का स्थान नहीं है अतः शेष १३ के अतिरिक्त मत्स्ययुगल, सिंहासन एवं नागेन्द्र भवन ये तीन स्वप्न अधिक माने जाते हैं। विमान एवं भवन सम्बन्धी मान्यता का वहाँ कोई उल्लेख नहीं है। यद्यपि पद्मपुराण की प्रस्तावना में स्वप्नों की संख्या १५ मानी है- इसमें सिंहासन नामक स्वप्न का उल्लेख नहीं है।
पूर्वोक्त बताये गये महत्वपूर्ण स्वप्नों में १४ महास्वप्नों को देखकर प्रसन्न हुई जिनेश्वर की माता अपने पति राजन् के पास जाकर दर्शित स्वप्नों को सुनाती है। - १. भगवतीसूत्र-शतक-१६ उ. ६. सूत्र १ की टीका २. आदिपुराण-पर्व-४१, श्लो, ५६-६१ (भाग-१-पृ.२१) ३. महापुराण-१, सर्ग १२वी, श्लोक-१५५-१६१
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च्यवन कल्याणक १३५ ...................
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स्वप्न फल
इन स्वप्नों को सुनकर राजा उसका फलार्थ कहते हैं।
फलार्थ कहने की दो पद्धतियाँ हैं-एक तो प्रत्येक स्वप्न का रहस्य और दूसरा सर्व स्वप्नों का सीधा फलितार्थ कहना जैसे-अहो स्वामिनी! अब तुम्हें, कुल में केतु रूप, कुलप्रदीप, कुलपर्वत, कुलावतंसक, कुलतिलक, कुलकीर्तिकर, कुल वृद्धिकर, कुलदिनकर, कुलाधार, श्रमण वर्ग को संसार रूप अरण्य से पार पहुँचाने वाला, मोक्ष मार्ग का प्रकाशक, पर-हितकर्ता, उत्तम विवेक से युक्त, आकाश में चन्द्र समान श्रेष्ठ, धर्म चक्रवर्ती अरिहंत ऐसा पुत्र होगा तथा वह पुत्र संसार कूप में गिरते हुए प्राणियों के अवलम्बन के लिए स्तम्भसमान, इन्द्र-नरेन्द्रों से वंदनीय, लोकोत्तर गुणों से युक्त, त्रैलोक्य-रक्षक, तीनों लोकों को आनंदित करने वाला, समस्त वैरीचक्र का विजेता और महाप्रभावशाली जिनेश्वर होगा। सर्व स्वप्नों का सामुदायिक फल-रहस्य यह है कि वे चौदह राजु लोक के अग्रभाग के ऊपर रहने वाले होंगे अर्थात् चौदह राजु लोक के स्वामी होंगे और चौदह पूर्व के सर्जनहार होंगे। ___ सत्तरिसयठाण में कहा है कि प्रथम अरिहंत ऋषभदेव भगवान की माता को जिनेश्वर के पिता ने तथा इन्द्रों ने फलितार्थ कहा था तथा अन्य जिनेश्वरों की माता को राजा या स्वप्नविद् विप्रों ने फलितार्थ कहा है। __. आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति में ऋषभदेव भगवान के जन्म के समय शक्र द्वारा स्वप्न फलकथन करने का उल्लेख है परन्तु वहीं पर कहीं ३२ इन्द्रों के आगमन का .दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया गया है।
स्वप्न रहस्य की यह पद्धति प्रत्येक स्वप्न के उद्देश्य को स्पष्ट करती है एवं स्वप्न के रहस्य का उद्घाटन करती है। स्वप्नों का रहस्य इस प्रकार है:- प्रथम स्वप्न में चार दाँतवाला हस्ति देखने से चार प्रकार के धर्मों का प्रबोधन करने वाले, महान पुरुषों के गुरु तथा अनन्तबल के एक स्थानक रूप, संसार रूप अरण्य के कर्म रूपी वृक्ष को जड़मूल से उखाड़ने वाले, दानमार्ग को प्रवर्तताने वाले और अतुल बल के स्वामी, राजमान्य, सदा उत्तम ऐसे पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी।
द्वितीय स्वप्न में वृषभ देखने से वे भरतक्षेत्र में बोधि निक्षेप करेंगे। मोहरूपी कीचड़ में फंसे हुए धर्म रूपी रथ को निकालने वाले, साधु जनों को संसार रूपी अरण्य से पार उतारने में समर्थ, मार्गगामी, क्षमाभार का उद्धार करने वाले अतुल बल से उज्ज्वल, शुभ, दर्शनीय और समस्त लोक में ज्येष्ठ होंगे।
तृतीय स्वप्न में सिंह को देखने से वे राग-द्वेष आदि रूप हाथियों द्वारा त्रस्त भव्यप्राणी रूपी रक्षक पुरुषों में सिंह के समान धीर, निर्भय, शूरवीर, अस्खलित
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१३६ स्वरूप-दर्शन पराक्रम वाले, अशुभ कर्म रूप हस्तियों का नाश कर मोती समान उज्ज्वल यश से तीन लोक को विभूषित करने वाले, साहस में अग्रणी और अन्य की सहायता से रहित, उत्तम कार्य को करने वाले और अनन्त बल से युक्त होंगे।
चतुर्थ स्वप्न में लक्ष्मी देखने से सांवत्सरिक दान देकर तीर्थंकर पद के अपार ऐश्वर्य का उपयोग करने वाले, तीन लोक की साम्राज्यलक्ष्मी के स्वामी, अविलम्ब ही विश्व का दारिद्र्य दूर कर प्राणियों के सम्पूर्ण सुखों का विस्तार करने वाले, सम्माननीय, सदानंदी, और सुमेरु पर्वत के मस्तक पर देवों द्वारा अभिषेक को प्राप्त होंगे।
पंचम स्वप्न में पुष्पमालाओं को देखने से वे तीनों भुवनों को मस्तक पर धारण . करने के योग्य, यथार्थ त्रैलोक्य पूज्य, पुण्यवान, शुभ दर्शनीय, अखिल जगत के माननीय, आदरणीय, त्रिभुवन की जनता के हृदयरूपी मंदिर में निवास करने वाले, गुण के संसर्ग द्वारा व्याप्त, गंध से मनोहर, अपनी सुवास से विश्व को वासित करने । वाले और समीचीन धर्म के प्रवर्तक होंगे।
छठे स्वप्न में चन्द्र देखने से वे स्वामी भामण्डल से विभूषित मोहरूपी अंधकार को नष्टकर सम्पूर्ण जगत् के उद्योतकर्ता, अठारह दूषणों से रहित, अत्यन्त तेजस्वी, जगत् जनों के प्रमोद दाता, वाणी द्वारा मोहान्धकार के दूरकर्ता, पंकहर्ता, मार्गदर्शक, सम्यग्दृष्टि की रुचि पैदा करने वाले, मिथ्यात्वी लोगों द्वारा दुर्निरीक्ष्य और देदीप्यमान प्रभा के धारण करने वाले होंगे। ____ सातवें स्वप्न में सूर्य देखने से वे स्वामी भामंडल से विभूषित, अठारह दूषणों से रहित, अत्यंत तेजस्वी, जगत् जनों के प्रमोददाता, मोहांधकार को नष्ट कर संपूर्ण जगत के उद्योतकर्ता, पंकहर्ता, मार्गदर्शक, सम्यक्दृष्टि को रुचि पैदा करने वाले और देदीप्यमान प्रभा के धारण करने वाले होंगे।
अष्टम स्वप्न में ध्वजा देखने से वे धर्मरूपी ध्वजा से विभूषित, महान् प्रतिष्ठा वाले, धर्मध्वजी, असाधारण उत्साह वाले, विश्वरूपी महल के शिखर को सजाने वाले, आगे फरकते हुए दिव्यधर्म ध्यज से सुशोभित, स्वयं की प्रभुता का विस्तार करने वाले रलकोटेश्वर के धाम रूप, वंश के अग्रभाग में वे प्रासादध्वज की भाँति आरूढ़ होने वाले होंगे।
नवम स्वप्न में कलश देखने से वे स्वामी धर्मरूप महल के शिखर स्वरूप सर्व अतिशयों से सम्पन्न, सदाचार परायण, त्रैलोक्य को कल्याण से आपूरित करने वाले संयमी होकर उच्चतम उज्ज्वल धर्म प्रासाद के शिखर पर स्थित रहने वालें, सुव्रत द्वारा सुशोभित, सुमनस् की श्रेणियों से पल्लवित देह वाले, स्वयं के अमृत से अन्य को तृप्त करने वाले एवम् अनेक निधियों के स्वामी होंगे।
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च्यवन कल्याणक १३७ ......................................................
___ दशम स्वप्न में पद्मसरोवर देखने से स्वामी देव निर्मित स्वर्ण कमलों पर पदन्यास करने वाले, संसार रूप अरण्य में पाप-ताप से तप्त मनुष्यों के संताप हर्ता, सुवयस् (समान-अवस्थावाले युवकों) को संतोष देने वाले, कमलावलियों से सुशोभित एवं अनेक लक्षणों से युक्त होंगे। ___ ग्यारहवें स्वप्न में रत्नाकर-क्षीर समुद्र के दर्शन से वीर परमात्मा केवलज्ञान रूप रन के स्थानक रूप, स्वच्छ जलरूप समस्त जीवों के प्रति मैत्री से परिपूर्ण, मर्यादा नहीं त्यागने वाले; पराभूत नहीं होने वाले, समुद्र समान पवित्र, क्लेश रहित मर्यादा का पालन करने वाले, सद्गुण रूप रल के भंडार, सहन अलंघ्य एवं अपरिमित प्रमाण वाले होंगे। ___ बारहवें स्वप्न में विमान दर्शन से परमात्मा वैमानिक देवों के पूज्य होंगे। सर्वत्र महोदय को प्राप्त करेंगे तथा दिव्य गीत नृत्यों से युक्त इन्द्रों के द्वारा पूजे जाएंगे।
तेरहवें स्वप्न में, रत्नराशि देखने से वे रत्न प्रकारों से विभूषित, सर्वगुण संपन्न, रत्नों की खान के समान देवों से सेवित, रनों से भी अधिक मूल्यवान, प्राणियों के ज्ञान, दर्शन, चारित्रं रूप रत्नत्रयदाता तथा चिंतित अर्थ के दाता एवं नायक रूप होंगे। ___ चौदहवें स्वप्न में निधूम अग्नि के दर्शन से वे स्वामी भव्यप्राणी रूप सुवर्ण की शुद्धि करने वाले, अन्य तेजों को फीका करने वाले, अशुभ कर्मरूप जंगलों को भस्मीभूत करने वाले एवं स्वयं के प्रताप से दिशाओं के समूह का अतिक्रमण करने वाले, देवों के प्रमुख, परम पवित्र तथा जड़ता का हरण करने वाले, परम शुद्धि करने वाले तथा कर्म रूपी ईंधन. को जलाने वाले होंगे।
दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार ध्वजा को छोड़कर शेष तीन स्वप्न अन्य माने जाते . हैं उनका रहस्य जिनसेन के अनुसार इस प्रकार है___सिंहासन देखने से जगद्गुरु होकर धर्म साम्राज्य प्राप्त करेंगे, मत्स्ययुगल देखने से वे सुखी होंगे और नागेन्द्र भवन को देखने से अवधिज्ञान से युक्त होंगे। इन्द्रों द्वारा कल्याणक उत्सव
तीर्थंकर के च्यवन के अवसर पर इन्द्रों के आसन चलायमान होते हैं। अवधिज्ञान के उपयोग से वे तीर्थंकर भगवंत का जन्म हुआ जानते हैं और तत्काल ही सिंहासन, पादपीठ व पादुका त्यागकर शक्रस्तव के योग्य आसन में स्थिर होकर, दाहिना घुटना जमीन पर और बायां घुटना ऊपर उठा हुआ जरा झुका हुआ, मस्तक और हाथ से ललाट का स्पर्श कर प्रणिपात मुद्रा में शक्रस्तव सहित जिनवन्दन करते हैं।
तदनंतर इन्द्र भगवान के पास आते हैं। आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति में कहीं शक्रागम एवं कहीं ३२ इन्द्रों के आगमन का कथन है। उत्तराध्ययन सूत्र की वृत्ति में शक्र के आगमन का उल्लेख मिलता है। १. उत्तरांध्ययन सूत्र-केशी गौतमीय वृत्ति
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१३८ स्वरूप-दर्शन
इन्द्र भूमण्डल पर आकर प्रथम जिनेश्वर की माता को तीन प्रदक्षिणा करते हैं, प्रणाम करते हैं और बाद में माता की स्तुति करते हुए उनकी प्रशंसा करते हैं और नारीपद की प्राप्ति का गौरवमय आदर्श प्रस्तुत करते हैं। बाद में गर्भस्थित जिनेश्वर की स्तुति करते हैं। ___ इस अवसर पर इन्द्र के वचन से वैश्रमण यक्ष की आज्ञा से तिर्यग्जृम्भक देव अथवा सौधमेन्द्र की आज्ञा से कुबेर तीर्थकर के पिता के भवन तथा सम्पूर्ण नगरी को कोटि स्वर्ण के ढेर, मणि, मौक्तिक, प्रवाल, कर्केतम और नीलमणि आदि रत्नों के समूह, चीन, अर्धचीन, देवदूष्य आदि श्रेष्ठ वस्त्रों का समूह तथा अन्य सर्व भोग्य. ' पदार्थों से भरते हैं।
तदनन्तर इन्द्र नन्दीश्वर द्वीप जाकर अष्टान्हिका महोत्सव कर बाद में स्वस्थान लौटते हैं। इन्द्र महाराज की आज्ञा से देवियाँ निरन्तर तीर्थंकर की माता की सेवा में . उपस्थित रहती हैं।
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अध्याय ६
जन्म-कल्याणक
जन्म . १. उत्तम योगों में जन्म २. जन्म प्रभाव से उद्योत एवं आनंद ३. प्रकृति पर प्रभाव . ४. दिशाकुमारियों का आगमन ५. इन्द्र देव आगमन ६. जन्माभिषेक-महोत्सव ७. परमात्मा को दिव्य वस्तुओं की सौगात ८. दिव्य-वृष्टि ९. पांच अप्सराओं द्वारा परिपालन . १०. अंगुष्ठ में देवों द्वारा अमृत स्थापना ११. अरिहंत के देह का वर्णन
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जन्म-कल्याणक
जन्म
जन्म और मृत्यु तो अनेक जीवों के अनादिकाल से होते हैं। किन्तु तीर्थंकर के अतिरिक्त अन्य किसी के जन्म को जन्म-कल्याणक नहीं कहा जाता है। अनेकों भव्यात्माओं के भव्यत्व की सफलता जिनके जन्म में निहित है, उन वीतराग अरिहंत प्रभु के जन्म को जन्म-कल्याणक कहा जाता है-जिनका जन्म ही कल्याण करने वाला है। अन्य जीवों की अपेक्षा इनके जन्म का सर्वोपरि महत्व तीर्थंकर नाम-कर्म के प्रदेशोदय और विपाकोदय के सफल हेतु रूप है। इनका जन्म ही अनेकों के जन्म-मृत्यु को मिटाने का कारणरूप है। ____ असंख्य आत्माओं के उद्धार की सक्रिय वीर्योल्लास शक्ति को साथ लेकर आने वाले अपार्थिव आत्मतत्व के अपूर्व ज्ञाता अरिहंत का इस पृथ्वी पर पार्थिव स्वरूप में यह अन्तिम जन्म है। हजारों भव्यात्माओं को जन्म-मृत्यु के बन्धनों से मुक्ति दिलाने वाले समस्त परमाणु पुंज के साकार सच्चिदानन्द परमात्मा का यह अन्तिम जन्म है। ___ अरिहंत के पंचकल्याणक में जन्म-कल्याणक का द्वितीय स्थान है। प्रभु के जन्म कल्याणक की अद्वितीय विशेषताएँ हैं। जन्म के अवसर पर देव-देवियों का आगमन एवं महोत्सव मनाने मात्र से ही इनके जन्म की विशेषता है, ऐसा नहीं है। किन्तु प्रबल पुण्य के प्रकर्ष से युक्त जिन-जन्म की अन्य भी कई विशेषताएँ हैं। जिस राजकुल में उनका जन्म होता है वहीं पर केवल सुखावह नहीं अपितु सम्पूर्ण लोक के सुखदाता बनकर ही जन्म से ही वे जन्मकृत अतिशयों से युक्त होते हैं। प्राकृतिक वातावरण उनको अनायास सार्नुकूल होता है। अतः अर्हत् जन्म की स्थिति एवं प्रभाव का उनके जन्म-कल्याणक में अधिक महत्व है। उत्तम योगों में जन्म
जब सर्व ग्रह उच्च स्थिति में आये हुए हों, बलवान् हों, शुभ निमित्त प्राप्त हुए हों, छत्रादि शुभ जन्म योग आये हों, शुभ लग्न का नवांश हो तब अर्धरात्रि में अरिहंत भगवान् को माता जन्म देती है।'
ये उच्चग्रह इस प्रकार होते हैं-मेष राशि का सूर्य दश अंश, वृषभ राशि का चन्द्र तीन अंश, मकर राशि का मंगल अट्ठाईस अंश, मीन राशि का शुक्र सत्ताईस अंश,
१. ज्ञातासूत्र-अ. ८; कल्पसूत्र-९३; आदिनाथ चरित्र-पृ. ११७.
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१४२ स्वरूप-दर्शन
तुला राशि का शनि बीस अंश। इस प्रकार राशियों के साथ ग्रहों का सम्बन्ध उच्च कहलाता है। ___छत्रादि योग इस प्रकार कहलाते हैं-द्वितीय, द्वादश, प्रथम एवं सप्तम भवन में उच्चग्रह आये हों तब छत्रयोग होता है। तत्समय जन्म लेने वाला पुत्र राजा होता है। ___धन द्वितीय स्थान में, व्यय बारहवें स्थान में, रिपु छठे स्थान में, मृत्यु आठवें स्थान में हो तब सिंहासन नाम का योग होता है। यह योग देवों को भी दुर्लभ होता है।
तृतीय, पंचम, नवम एवं एकादश स्थान में ग्रह आते हैं तब बल नाम का योग होता है। वह सर्व प्रकार का सुख करने वाला है। चन्द्र से सप्तम स्थान में बृहस्पति हो .. अथवा चन्द्र संयुक्त बृहस्पति हो तब जीवयोग होता है। यह योग चिरायुकर्ता और सुखदाता है।
सर्व केन्द्र स्थान में जब सौम्य ग्रह आये हों तब चतुः सागर योग होता है।' ऐसे उत्तम योगों में जिनेश्वर भगवान् का जन्म होता है।
षट् पुरुष चरित्र में कहा है-“तेषां जन्मक्षणे तु भवन्ति शुभस्थानस्याः सर्वे शुभा . ग्रहा:२" जन्म क्षण में सर्व शुभग्रह शुभ स्थान वाले हो जाते हैं। जन्म-प्रभाव से उद्योत एवं आनंद __ जिस समय अरिहंत भगवान का जन्म होता है उस समय उनके जन्म के प्रभाव से तीनों लोक में अंधकार का नाश करने वाला उद्योत क्षणभर में ही सर्व लोक में फैल जाता है।
स्थानांगसूत्र के अन्तर्गत उद्योत होने के पाठ में उद्योत के कारणों का उल्लेख करते हुए कहा है।
चार कारणों से लोक में उद्योत-प्रकाश होता है(१) जिनेन्द्र देव के जन्म पर, (२) जिनेन्द्र देव के प्रव्रज्या ग्रहण के अवसर पर, (३) जिनेन्द्र देव के केवलज्ञान महोत्सव में और (४) जिनेन्द्र देव के निर्वाण महोत्सव में।
शीलांकाचार्य के अनुसार यह उद्योत क्षणभर ही होता है। परन्तु षट्पुरुषचरित्र में इसकी अवधि अन्तर्मुहूर्त की बताते हुए कहा है “स्यादन्तर्मुहूर्त नारकादीनामपि
सौख्यम्।"४
१. काललोक प्रकाश-सर्ग-३० श्लो. ७०-७५ २. पत्र-३५ ३. पत्र-३४ ४. पत्र-३५
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जन्म-कल्याणक १४३ ......................................................
इस उद्योत के अतिरिक्त एक दूसरा उद्योत भी होता है। प्रथम उद्योत अरिहंत परमात्मा के जन्म लेते ही क्षणमात्र में ही हो जाता है, परन्तु दूसरा उद्योत जिसके कारण को स्पष्ट करते हुए आचारांगादि में कहा है कि जिस रात्रि में तीर्थंकर भगवान का जन्म होता है उस रात्रि में भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और विमानवासी (वैमानिक) देव देवियों के नीचे ऊपर आने-जाने से एक महान दिव्य उद्योत-देवसंगम एवं देव कोलाहल होता है। जन्म के प्रभाव से तीनों लोक में आनन्द
तीर्थंकर भगवान के जन्म के प्रभाव से तीनों लोक में आनन्द और सुख का प्रसार होता है। क्षणभर नारकी जीवों को भी अपूर्व ऐसे सुख की प्राप्ति होती है। जिनको कभी दुःख से विश्राम नहीं है ऐसे नारकी जीवों के सर्व दुःख भी प्रभु के माहात्म्य से दूर हो जाते हैं और क्षणभर उन्हें सुख की प्राप्ति होती है। षट्पुरुषचरित्र में नारकियों को भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त सुख होने का लिखा है। प्रभु के जन्म के प्रभाव से नारक जीव, मनुष्य, जलचर, स्थलचर, खेचरादि प्राणियों को भी स्वर्गवासी देवों की तरह अपूर्व सुख की प्राप्ति होती है। इस प्रकार प्रभु के जन्म के समय समग्र विश्व आनन्दित होता है। कहते हैं, “तदानन्दमयो जज्ञे, विश्वो विश्वत्रयीजनः"। प्रकृति पर प्रभाव
अरिहंत परमात्मा के जन्म के समय अन्य प्राकृतिक वातावरण भी अद्वितीय सुन्दर, अपूर्व एवं असदृश होता है। शीतल मंद सुगन्धित पवन प्रदक्षिणावर्त होता है, पृथ्वी धन-धान्य से समृद्ध होती है, प्रत्येक व्यक्ति के मन में स्वाभाविक आनन्द प्रमोद होता है। दिशामण्डल प्रसन्न होता है, आकाशमण्डल मनोहर दिखता है, देव दुंदुभि बजती है। दिशावलय शुभ्र होता है। भूमि पर प्रसरने वाला पवन मानो भूतल में उत्पन्न होने वाला हो वैसा अनुकूल होकर दक्षिणावर्त बनकर मन्द-मन्द बहता है। चारों ओर
शुभशकुन का सूचन होता है। वायुदेव भूमण्डल शुद्ध करते हैं, मेघ कुमार गंधोदक की . वृष्टि करते हैं, पृथ्वी के रजकण शांत हो जाते हैं। ऋतुदेवी पंचवर्णी पुष्पों की वृष्टि .. करती है तथा दिशाएँ निर्मल एवं प्रसन्न होती हैं। पुत्र जन्म के अवसर पर तीर्थंकरों की माता को अन्य माताओं की तरह प्रसव पीड़ा नहीं होती है क्योंकि तीर्थंकरों का यह स्वाभाविक प्रभाव है- “स एष तीर्थनाथाना प्रभावो हि स्वभावजः"१।
षट्पुरुषचरित्र में इस वर्णन को बहुत सुन्दर रूप से प्रस्तुत करते हुए कहा है कि सम्पूर्ण जगत आनन्दमय होता है, सुर-असुरों के परस्पर वैर के अनुबन्ध का विनाश होता है, तिर्यंच और मानवों की आधि-व्याधियों का उपशमन होता है। लोक में रहने वाले क्षुद्र जीव भी उपद्रव रहित हो जाते हैं। लोगों के हृदय सद्बुद्धि वाले होते हैं। मन १. अजितनाथ चरित्र-पर्व २, सर्ग ३, श्लो. १२५
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१४४ स्वरूप-दर्शन हर्षित हृदय वाले होते हैं। असत्य वचनों का प्रयोग नहीं होता है। लोभ से अन्यायवृत्ति नहीं होती है। मन के संकल्प, संताप रहित होते हैं। वचनों का व्यापार पर-पीड़ा से रहित होता है। काया से अशुभ क्रियाकलाप का अभाव रहता है। कृतकृत्य भाव से मनःशुद्धि होती है, दूसरों के गुणग्रहण की अभिवृद्धि होती है, घर-घर में महोत्सव मनाये जाते हैं, मंगलगीत गाये जाते हैं।
दिशाकुमारियों का आगमन प्रभु के जन्म के प्रभाव से ५६ दिशाकुमारियों के आसन चलायमान होते हैं। . अवधिज्ञान के उपयोग से प्रभु के जन्म का अवसर जानकर चार हजार सामनिक . ' देवियों सहित वे स्वस्थान से क्रमशः पृथ्वी पर आती हैं। अपने दिव्य यान-विमान से भगवान के जन्म-भवन को तीन बार प्रदक्षिणा करती हैं। फिर ईशान कोण में पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर विमान रखकर अरिहंत भगवान की माता के पास आती हैं, आकर अरिहंत व उनकी माता को तीन बार प्रदक्षिणा करके दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से आवर्तन करके अंजलि सहित स्तुति करती हैं
हे जगज्जननी ! हे विश्वोत्तम लोक दीपिके ! हे महापुरुष को जन्म देने वाली महामाता ! जगत् के मंगल कर्ता, अज्ञान हर्ता, चक्षुदाता, जगत्वत्सल, हितकर्ता, मार्गदाता, रागद्वेष-विजेता, सर्व पदार्थ के ज्ञाता, सर्व तत्वों के प्रज्ञाता, अनासक्त ऐसे उत्तम पुरुष की तुम जननी हो। हम दिक्कुमारिकाएं अरिहंत का जन्मोत्सव करने यहां आई हैं। आप हमसे भयभीत न होवें।
ये दिशाकुमारिकाएं आठ-आठ एवं चार-चार के समुदाय से.आठ विभागों में से आती हैं। ये इसी विभाग में तिर्यग्लोक में या अधोलोकादि स्थानों में रहती हैं। अतः वे क्रमशः अपने-अपने समुदाय सहित आती हैं और वहीं प्रसूति (शुचि) कर्म करती हैं। सभी समुदाय की अपनी निश्चित की हुई प्रवृत्तियां होती हैं। अतः वे आकर अपने कार्य में उपरोक्त प्रकार से स्तुति कर संयुक्त हो जाती हैं।
उनके स्थान, आगमन एवं प्रवृत्ति निम्न कोष्ठक में हैं, जिसका सारा विवरण ज़म्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के पाँचवें अधिकार से सम्बन्धित है। आगम से अधिक या विभिन्न उल्लेखों के सन्दर्भ वहां दिये गये हैं। १. अधोलोकवासिनी
उनकी प्रवृत्ति दिशाकुमारियां १. भोगंकरा ईशान कोण में जाकर वैक्रिय समुद्घात करती हैं। २. भोगवती संख्यात योजन का दण्ड बनाती हैं। रल यावत् सर्वतक वायु ३. सुभोगा
की विकुर्वणा करती हैं, फिर उस मृदु, अनुधृत भूमितल.को
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४. भोगमालिनी
५. तोयधारा
६. विचित्रा
७. पुष्पमाला
८. अनिन्दिता
२. ऊर्ध्वलोकवासिनी दिशाकुमारियां
१. मेघरा
२. मेघ
३. मेघा
४. मेघमालिनी
५. सुवत्सा ६. वत्समित्रा
७. वारिषेणा.
८. बलाहका
३. पूर्व रुचिकाद्रि
निवासिनी दिशा
कुमारियां
१. नंदोत्तरा
२. नंदा
३. आनंदा
४. नंदिवर्धना
५. विजया
६. वैजयंती
७. जयंती
८.. अपराजिता
जन्म-कल्याणक १४५
विमल करने वाला, मनोहर, सर्वऋतु के सुगंधित पुष्पों की गंध का विस्तार करने वाले वायु से तीर्थंकर भगवान् के | जन्म भवन से सर्वतः एक योजन की परिधि में भूमि साफ करती हैं। हजार स्तंभों से विभूषित प्रासाद ( सूतिकागृह) की विकुर्वणा करती हैं।
यह विकुर्वित प्रासाद ( सूतिका गृह) पूर्व दिशाभिमुख होता है बाद में संवर्तक वायु को संहरती हैं।
उनकी प्रवृत्ति
ईशान कोण में जाकर बादल की विकुर्वणा कर पानी-गंधोदक की वृष्टि कर उस प्रमार्जित भूमि को राजा के प्रांगण की तरह रज रहित, पंक रहित, सुगंधित और शीतल करती हैं। उन पुष्पों को विकुर्वित कर अधोमुखी वृन्त वाले पंचवर्णी पुष्पों की जानुप्रमाण वृष्टि करती हैं और उसे शक्र सभा के प्रांगणवत् बनाती हैं। बाद में कृष्णागुरु, कुंदरुक, तुरुष्कादि धूप की सुगंध से पृथ्वी को सुवासित कर देवों के क्रीड़ा स्थल की तरह क्षेत्र की जगह करती हैं।
प्रवृत्ति
मणि के दर्पण को हाथ में रखकर मांगलिक गीत गाती हुई माता के पास पूर्व दिशा में खड़ी रहती हैं।
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१४६ स्वरूप-दर्शन
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४. दक्षिण रुचिकादि निवासिनी दिशा
उनकी प्रवृत्ति कुमारियां १. समाहारा स्वच्छ जल से आपूरित मणि सुवर्ण के अष्ट कलश २. सुप्रज्ञा लेकर जिनेश्वर की माता के अत्यन्त निकट नहीं, अत्यन्त ३. सुप्रबुद्धा दूर नहीं इस प्रकार दक्षिण दिशा की ओर खड़ी रहती हैं। ४. यशोधरा ५. लक्ष्मीवती ६. शेषवती ७. चित्रगुप्ता
८. वसुधरा ५. पश्चिम रुचिकाद्रि निवासिनी दिशा
उनकी प्रवृत्ति कुमारियां १. इलादेवी | सुवर्ण की दंडीयाले तालेवृन्द अपने कर कमल में ग्रहण २. सुरादेवी
कर माता के पास पश्चिम दिशा की ओर खड़ी रहती हैं। ३. पृथ्वीदेवी ४. पद्मावती ५. एकनासा ६. नवमिका
(अनवमिका) ७. भद्रा ८. सीता (अशोका)
६. उत्तर रुचिकादि
निवासिनी दिशा
उनकी प्रवृत्ति
कुमारियां
१. अलम्बुसा
(आलम्बुषा) २. मिश्रकेशा (मिश्रकेशी)
| मणि के समूह से सुशोभित, महत् दंड से विस्तृत, श्वेत
चैवर लेकर जिनेश्वर की माता के उत्तर दिशा की ओर खड़ी रहती है। |
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जन्म-कल्याणक १४७ ......................................
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३. पुण्डरीका ४. वारुणी ५. हासा (वासा) ६. सर्व प्रभा ७. श्री ८. ही
७. विदिशा की
रुचिकाद्रि निवासिनी दिशाकुमारियां
उनकी प्रवृत्ति
१. चित्रा . २. चित्रकनका ३. सुतेरा ४. वसुदामिनी
जिनेश्वर की माता के चारों ओर विदिशाओं में हाथ में दीपक लेकर खड़ी रहती हैं।
८. मध्य रुचिकादि निवासिनी १. रूपा २. रूपांशा ३. सुरूपा ४. रूपकावती
उनकी प्रवृत्ति-ये चार दिशाकुमारियां तीर्थंकर के चार अंगुल छोड़कर शेष नाभिनाल का छेदन कर उसे गड्ढे में गाढ़ देती है, फिर उस गड्ढे को रल व . वज्ररत्नों से भरती हैं और उस पर हरतालिका पीठ बाँधती है। बाद में जिनेश्वर के
जन्म गृहं के दक्षिण, पूर्व और उत्तर तीन दिशाओं में मनोहर कदलीगृह की रचना करती हैं। उसके मध्यभाग में चतुःशाल भुवन रचती है और उसमें तीन सिंहासन बनाती हैं। प्रथम भगवान सहित माता को दक्षिण दिशा के कदलीगृह में सिंहासन पर बैठा कर शतपाक, सहस्रपाक आदि सुवासित तेलों से उनका अभ्यंगन (मर्दन) करती है। बाद में पूर्व दिशा के कदलीगृह के सिंहासन पर दोनों को बैठाकर गंधोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदक ऐसे तीन प्रकार के पानी से स्नान कराती है और सुवासित कोमल गंध काषायी वस्त्रों द्वारा अंग पोंछकर उनको घनसार अगरु से मिश्रित हरिचन्दन का विलेपन करती हैं। देवदुष्यादि वस्त्रालंकार से दोनों को सुसज्जित कर उत्तर दिशा के कदलीगृह में ले जाकर आभियोगिक देवताओं द्वारा मंगवाये गये
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१४८ स्वरूप-दर्शन चुल्लहिमवंत पर्वत के सुवासित गोशीर्ष चन्दन से अग्निहोम (शांतिकर्म) करती हैं, फिर भूमिकर्म कर दोनों को रक्षा पोटली बांधती हैं। फिर भगवान के कर्ण मूल में दो गोल पाषाणों को टकराकर शुभाशीर्वाद देती हैं-"अहो भगवन् ! आप चिरायु हो।" बाद में भगवान् और उनकी माता दोनों को जन्म-भवन में लाती हैं।
जन्म की सर्व क्रियाएँ दिशाकुमारियों द्वारा सम्पन्न हो जाने के बाद आगमानुसार तथा कुछ ग्रन्थकारों के अनुसार वे कार्य सम्पन्न कर वहीं गाती हुई खड़ी रहती हैं और उस समय इन्द्रों के आसन चलायमान होते हैं। इन्द्र-देव आगमन
५६ दिशाकुमारियों द्वारा जन्म-महोत्सव के पश्चात् देवताओं के आसन चलायमान होते हैं क्योंकि आसन चालयमान होने के तीन कारणों में अरिहंत जन्म भी एक कारण है। आसन चलायमान होते ही वे अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा अरिहंत भगवान का जन्म हुआ जानते हैं। पादपीठ से नीचे उतरकर मुंह पर उत्तरीय वस्त्र लगाकर प्रभु की . स्तुति करते हैं। सभी देवेन्द्रों की प्रवृत्ति ऐसी ही होती है।
प्रथम शक्रेन्द्र (सौधर्मेन्द्र) की आज्ञा से उनका पदात्यानिकाधिपति हरिणैगमेषी-एक योजन विस्तारिणी "सुघोषा" घंटा को तीन बार बजाकर तीर्थंकर के जन्म महोत्सव हेतु सौधर्मेन्द्र के साथ प्रयाण करने की उद्घोषणा करते हैं। इस घंटा के बजाने से अन्य बत्तीस लाख विमानों के घंटों के एक साथ वैसे ही शब्द होते हैं। विमान प्रासादों में प्रतिध्वनित होकर वे शब्द लक्षगम हो जाते हैं। ___ इस महत् प्रतिध्वनि को सुनकर सर्व देव अपनी तैयारी के साथ सौधर्मेन्द्राधिपति के साथ परमात्मा के जन्माभिषेक महोत्सव हेतु प्रस्थित होते हैं। सौधर्मेन्द्र के साथ आने वाले देव-समूह में कुछ वंदनार्थ आते हैं, कुछ पूजार्थ, कुछ तीर्थंकर के वचनों के अनुवर्ती बनकर और कुछ-यह हमारा जीताचार है, ऐसा मानकर आते हैं। .
शक्रेन्द्र की आज्ञा से पालक नामक देव वैक्रिय समदघात द्वारा मणिरत्न वेष्टित एक लाख योजन के विस्तार वाले देवयान-विमान की विकुर्वणा करता है। सौधर्मेन्द्र अपने चौरासी हजार सामानिक देवों के परिवार सहित मनुष्य लोक में तीर्थंकर भगवान के पास आते हैं। स्थानांगसूत्र में इसका स्पष्ट उल्लेख है कि अरिहंत के जन्म, प्रव्रज्या एवं ज्ञानोत्पाद महिमा के समय देव-समागम यानी मनुष्य लोक में देवागमन होता है। ___ उस दिव्य विमान से युक्त सौधर्मेन्द्र तीर्थंकर के जन्म-नगर में जन्म-भवन तक आते हैं। उस भवन की दिव्य-यान विमान से तीन बार प्रदक्षिणा करके भगवानतीर्थंकर के जन्म भवन से ईशानकोण में पृथ्वी से चार अंगुल ऊंचा दिव्य यान-विमान रखते हैं, फिर आठ अग्रमहिषियों और गंधर्वानीक व नृत्यानीक उस विमान के पूर्व
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जन्म-कल्याणक १४९ ............................................... दिशा की पंक्तियों से नीचे उतरते हैं, तत्पश्चात् शक्र देवेन्द्र चौरासी हजार सामानिक देव सहित उस दिव्य-यान-विमान के उत्तर दिशा की पंक्तियों से नीचे उतरते हैं और अन्य देव देवियाँ दक्षिण पंक्ति से नीचे उतरते हैं।
शक्र देवेन्द्र अपने चौरासी हजार सामानिक देव सहित दुंदभि बजाते हुए भगवान तीर्थंकर के जन्म-भवन में प्रवेश करते हैं। __यथास्थान पहुंचकर सौधर्मेन्द्र तीर्थंकर और उनकी माता को प्रणाम कर प्रथम माता की स्तुति करते हुए उन्हें ऐसा सूचित करते हैं-“ओ रत्नकुक्षि धारिणी ! तू धन्य है, पुण्यशालिनी है, कृतार्थ है। मैं शक्र नामक देवेन्द्र, भगवान तीर्थंकर का जन्म महोत्सव करूँगा अतः भयभीत न होना।" ऐसा कहकर माता को अवस्वापिनी निद्रा देकर जिनेश्वर सदृश प्रतिरूप विकुर्वित कर माता के पास रखते हैं और जिनेश्वर को ग्रहण करते हैं। ___ पुत्र विरह के दुःख से माता दुःखी न हो अतः उन्हें द्रव्य निद्रा से निद्रित की जाती हैं। जन्म महोत्सव में शामिल देवों में से किसी दुष्ट देव द्वारा कौतूहल वश निद्रा का अपहरण किया जाय अथवा कोई परिजन आवे और नवजात शिशु को न देखकर विषाद करे अतः इन्द्र प्रभु का प्रतिरूप तैयार कर माता के पास रख देते हैं। ___ शीलांकाचार्य द्वारा उल्लेखित उद्धरणों में आगमोक्त विवरण से कुछ भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। जो इस प्रकार है
१. चउपन्न पुरिसचरियं के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में सौधर्मेन्द्र स्वयं जिनेश्वर को .. उठाते हैं जब कि चउपन्न पुरिसचरियं में माता के पास से जिनेश्वर को उठाने का कार्य इन्द्र स्वयं कहीं भी नहीं करते हैं। यह कार्य हरिणगमेषी देवों से ही करवाते हैं।
२. शीलांकाचार्य के अनुसार अवस्थापिनी निद्रा से इन्द्र स्वयं निद्रित करते हैं तो : कभी वे हरिणैगमेषी को इस कार्य के लिए आज्ञा भी देते हैं-यहाँ तक तो ठीक है परंतु पार्श्वनाथ चरित्र एवं महावीर चरित्र में एक नई बात उल्लेखित की है कि इस निद्रा
से न केवल माता को ही निद्रित किया जाता है परन्तु समग्र राजपरिवार एवं नगरजनों '. को भी निद्रित किया जाता है।४ ___ उपरोक्त विभिन्न दृष्टिकोण में लेखक के अभिप्राय का आधार न जाने क्या हो ? ऐसी कोई प्रचलित परम्परा हो अथवा कोई अन्य आधार हो, यह नहीं कह सकते हैं। परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि इन्द्र के स्वयं तीर्थंकर को ग्रहण न करने का कारण भी इस ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता है। १. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-पंचम वक्षस्कार। २. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-सटीक-पृ. ४०४। ३. चउपन्न महापुरिस चरिय-पृ. ३५ ४. चउपन्न महापुरिस चरियं-पृ. २५९
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१५० स्वरूप-दर्शन
इससे विपरीत हेमचन्द्राचार्य ने तो इन्द्र के हाथों से ही प्रभु को ग्रहण करने का स्पष्ट उल्लेख करते हुए यहां तक कहा है कि प्रभु को ग्रहण करने के पूर्व इन्द्र "भगवान् मुझे आज्ञा प्रदान करो"१ इस प्रकार विनयपूर्वक कहकर बाद में अपने चंदन विलेपित हाथों में प्रभु को ग्रहण करते हैं। जन्माभिषेक महोत्सव
मैं अपनी वैक्रिय शक्ति को सफल करू-ऐसा सोचकर शक्रेन्द्र स्वयं के विकुर्वित(परिकल्पित) पांच रूप से प्रभु को ग्रहण करते हैं। जिसमें एक रूप से प्रभु को अपने करतल में ग्रहण करते हैं, एक रूप से पीछे रहकर छत्र धारण करते हैं, दो रूप से . दोनों ओर चंवर बींजते हैं और एक रूप से हाथ में वज्र धारण कर तीर्थंकर भगवान् के आगे चलते हैं।
शक्रेन्द्र स्वयं के पांच रूप इसलिए विकुर्वित करते हैं कि परमात्मा पांच इन्द्रियों के विजेता, पांच विषयों के हर्ता, पांच महाव्रतों के पालन कर्ता, पांच समिति के.धारक, पंचाचार में प्रवीण, पंचम (कैवल्य) ज्ञान को प्राप्त करने वाले, पंचम (मोक्ष) गति को प्राप्त करने वाले हैं अतः पंचपरमेष्ठी में प्रमुख ऐसे परमात्मा की मैं स्वयं पांच रूपों द्वारा सेवा करूँ। या यह सोचकर कि परमात्मा की सेवा का लाभ मैं स्वयं ही लूं।
अपने पांच रूपों द्वारा इन्द्र प्रभु को ग्रहण कर आकाशमार्ग से मेरु पर्वत पर पहुंचते हैं। शीलांकाचार्य के अनुसार वे अर्धपलकार में ही मेरु पर्वत पर पहुंचते हैं। देवभद्राचार्य (पार्श्वनाथ चरित्र) के अनुसार शक्रेन्द्र निमेष मात्र में मेरु पर्वत पर पहुँच जाते हैं। हेमचन्द्राचार्य के अनुसार वे अन्तर्मुहूर्त में मेरुपर्वत पर पहुंचते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के अन्तर्गत समय की कोई निश्चित अवधारणा प्रस्तुत नहीं है तदपि, उपर्युक्त उल्लेखों से इतना तो स्पष्ट है कि परमात्मा को लेकर शक्रेन्द्र अत्यन्त द्रुत एवं दिव्य गति से ही मेरु पर्वत पर पहुंचते हैं।
सौधर्मेन्द्र जन्म-स्थान से एवं अन्य इन्द्र स्वस्थान से ही मेरु पर्वत पर जाते हैं।
प्रभु को लेकर सौधर्मेन्द्र देववृन्द सहित मेरु पर्वत के शिखर पर जयध्वनि के साथ पहुंचकर पांडुकबला नाम की शिला पर जो अरिहंत भगवान के अभिषेक के योग्य विचित्र-रलों के प्रभापटल रूप जल से प्रक्षालित है, ऐसे सिंहासन पर भगवान को अपने उत्संग में धारण कर पूर्वाभिमुख होकर बैठते हैं।
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में अरिहंत के जन्माभिषेक महोत्सव हेतु १० वैमानिक के, २० भवनपति के, ३२ याणव्यंतर के एवं २ ज्योतिष के इस प्रकार ६४ इन्द्र मेरु पर्वत पर आते हैं, परन्तु सुमवायांग सूत्र के अन्तर्गत इन्द्रों की ३२ संख्या ही गिनाई है वह इस प्रकार-चमर, बलि, धरण, भूतानंद, घोष, महाघोष आदि भवनपति के २० १. त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र-पर्व-१, सर्ग २, श्लो. ४१८
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जन्म-कल्याणक १५१ .............................
(सूर्य-चन्द्र) ज्योतिषी के २, और शक्र, ईशान, सनत्कुमार, यावत् प्राणत, अच्युत (आदि वैमानिक के १०) इस प्रकार कुल ३२ इन्द्र होते हैं। यदि मूलतः इन्द्रों की संख्या ३२ हो तो ६४ इन्द्रों का मेरु पर्वत पर आने का उल्लेख कैसे उचित होगा ? अतः अभयदेव सूरि ३२ इन्द्रों वाले सिद्धांत की टीका में ६४ इन्द्रों की संख्या दर्शाते हुए कहते हैं-यहाँ १६ व्यंतरेन्द्र एवं १६ अनपन्नी-पनपन्नी आदि वाणव्यंतर इन्द्र अल्पअवधि वाले होने से उनकी विवक्षा नहीं की है।
टीकाकार अभयदेव सूरि के उपर्युक्त ६४ इन्द्रों के समाधान से जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति का प्रस्तुत कथन उपयुक्त है। कहीं-कहीं ३२ इन्द्रों के एवं कहीं ६४ इन्द्रों के आगमन का उल्लेख है। हरिभद्रसूरि ने “आवश्यक नियुक्ति की वृत्ति" में, शीलांकाचार्य ने "चउपन्त्रमहापुरिसचरियं" में, आचार्य गुणचन्द्र ने “महावीर चरियं" में ३२ इन्द्रों के आगमन का कथन है। इनके उत्तर काल के आचार्यों ने प्रायः सर्वत्र ६४ इन्द्रों के आगमन का ही उल्लेख किया हैं। यद्यपि हेमचन्द्राचार्य ने इन संख्या के अतिरिक्त ज्योतिष के असंख्यात इन्द्रों के आगमन की विशेषता बताई है।
अच्युतेन्द्र की आज्ञा से उनके आभियोगिक देव ईशानकोण में जाकर कलशादि विकुर्वित करते हैं। ये कलश निम्नोक्त आठ प्रकार की वस्तुओं के होते हैं
१. स्वर्णमय २. रजतमय ३. रत्नमय ४. स्वर्ण-रजतमय ५. स्वर्ण-रत्नमय ६. रजत-रत्नमय ७. स्वर्ण-रजत-रत्नमय ८. मृत्तिकामय ९. चन्दनमय।
चन्दनमय कलश जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में अधिक गिना है। अन्य ग्रन्थकारों ने पूर्वोक्त आठ ही प्रकार के कलश गिनाये हैं। ये सर्व प्रकार के कलश १००८ प्रमाण होते हैं।
इन कलशों की निश्चित संख्या का प्रमाण दर्शाते हुए सेनप्रश्न में कहा है
कुल कलशों की संख्या एक करोड़ साठ लाख होती है, जो इस प्रकार है-अच्युत इन्द्र तक बासठ इन्द्रों के ६२ अभिषेक, मनुष्य लोक के एक सौ बत्तीस, चन्द्र-सूर्य के .. १३२ अभिषेक, इस प्रकार १९४ इन्द्रों के १९४ अभिषेक, तथा असुर कुमार की
दक्षिण एवं उत्तर दिशा को मिलाकर १०, इन्द्राणी के १0 अभिषेक, नागकुमारादि नवनिकाय के दक्षिण एवं उत्तर दिशा की जाति की अपेक्षा से १२, इन्द्राणियों के १२. अभिषेक, व्यंतर की चार इन्द्राणियों के चार अभिषेक, ज्योतिषी की चार इन्द्राणियों के चार अभिषेक, प्रथम दो देवलोक की १६ इन्द्राणियों के १६ अभिषेक, सामानिक देवों का एक अभिषेक, त्रायस्त्रिंशकदेवों का एक अभिषेक, लोकपालों के चार अभिषेक, पर्षदा के देवों का एक अभिषेक, अनीकाधिपति का एक अभिषेक एवं प्रकीर्णक देवों का एक अभिषेक इस प्रकार कुल अभिषेक २५0 होते हैं।
सुवर्णादि आठ जाति के आठ-आठ हजार कलश होने से एक अभिषेक में ६४ हजार कलश होते हैं। ६४ हजार को २५० से गुणने पर एक करोड़ साठ लाख होते हैं।
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१५२ स्वरूप-दर्शन __ये कलश पच्चीस योजन ऊँचे, बारह योजन चौड़े एवं एक योजन नाली के मुँह वाले होते हैं। .
कलशों की तरह आठ प्रकार के झारियां, दर्पण रल के करंडीये सुप्रतिष्ठिक डिब्बियां, थाल, पत्रिकाएं, और पुष्पों की चंगेरिया भी उन्हीं संख्या में तैयार होते हैं।
इन सामग्रियों को विकुर्वित कर बाद में वे क्षीरोदधि का क्षीरोदक सहस्र दल कमल आदि तथा पुष्पोदक मागधादि तीर्थ का पानी एवं मृत्तिकादि गंगादि महा-नदियों के जल, चुल्ल हिमवंत के आंवलादि पदार्थ, पुष्प, गंध तथा सिद्धार्थ मांगलिक औषध्यादि एवं इसी प्रकार पद्मद्रह के जल, कमल; वर्षधर, वैताद्य आदि पर्वत पर ... सर्व महाद्रह, सर्व क्षेत्र, सर्व चक्रवर्ती के विजय, सुदर्शन, भद्रशालवन, नंदनवन, सौमनसवन, पंडगवन आदि से जल, कमल, गोशीर्ष चन्दन, मलयगिरि चंदनादि अन्य . सुवासित पदार्थ को ग्रहण कर जन्माभिषेक के स्थान पर उपस्थित होते हैं। ___अच्युतेन्द्र दस हजार सामानित देव, तैतीस त्रायस्त्रिंशक देव, चार लोकपाल, तीन परिषदा, सात अनीक, सात अनीक के अधिपति, चालीस हजार आत्मरक्षक देव सहित स्वाभाविक और वैक्रियवाले सुंदर कमल से प्रतिष्ठित (अवस्थित – रखे हुए) अर्थात् कमल से युक्त ऐसे जल से महत् शब्द (जय-घोषणा) पूर्वक अभिषेक करते हैं। इसमें सर्व कलश एवं सर्व औषध्यादि मांगलिक पदार्थों का उपयोग किया जाता है। ___ इस अभिषेक के समय कुछ देव पंडगवन को जाते हैं, कुछ देव रजत वृष्टि करते हैं, कुछ देव सुवर्ण वृष्टि करते हैं, कुछ देव वज्र याने हीरा की वृष्टि करते हैं, कुछ देव आभरण, पत्र-पुष्प, बीज, माला, गंध, चूर्ण, सुवासित द्रव्यादि की वृष्टि करते हैं। कुछ देव तत, वितत, घन और झुषिर ऐसे चार प्रकार के वाजिंत्रं बजाते हैं, कुछ देव उत्क्षिप्त, षडता, मंदाइक और रौचितावसान ऐसे चार प्रकार के गीत गाते हैं, कुछ.देव अंचित, द्रुत, आरभद एवं भंसोल ऐसे चार प्रकार के नृत्य करते हैं, कुछ देव इष्टांतिक, प्रतिश्रुतिक, सामन्तोविनिपातिक एवं लोकमध्यावसानिक ऐसे चार प्रकार के अभिनय करते हैं। कुछ देव बत्तीस प्रकार के नाटक करते हैं। इत्यादि विविध प्रकार से देवसमुदाय इस स्नात्र महोत्सव को मनाते हैं।
स्नात्र महोत्सव के पश्चात् जयध्वनि के साथ अच्युतेन्द्र सुकोमल, सुवासित गंध काषायिक वस्त्र से तीर्थंकर के गात्र को पोंछते हैं, अलंकारों से विभूषित करते हैं, और सुन्दर रत्न पहना कर अष्ट कर्म क्षय निमित्त, अष्ट लब्धि प्राप्त करने हेतु अखण्ड रजतमय अक्षत से अष्ट मंगल का आलेखन करते हैं
१. दर्पण-आदर्श, २. विद्वानों को कल्याणकारी भद्रासन, ३. अर्थसंगत् वर्धमान,
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जन्म-कल्याणक १५३ ................................
४. लक्ष्मी से पूर्ण उदित कुंभ, ५. प्रशस्त मत्स्ययुग्म, ६. अज्ञान नाशक श्रीवत्सक, ७. नंदावर्त और ८. स्वस्तिक
इस प्रकार अष्ट मंगल का आलेख कर उनका अष्ट प्रकार से पूजन अर्चन करते हैं। ____ तदनन्तर पाटलवृक्ष के, मालती के, चंपक के, अशोक वृक्ष के, पुन्नाग के, नाग के,
और कोरंट वृक्ष के पत्रों और पुष्पों का जानुप्रमाण ढेर कर चन्द्रप्रभ वज्र वैदूर्य रत्नमय विमल दंडवाले कांचनमणि रत्न जैसा कृष्णागुरु, श्रेष्ठ कुंदरुवक, तरुवक जिसमें जलाते हैं वैसा, धूप देने का. वैदर्य रत्नमय कडछा ग्रहण कर जिनेन्द्र को उसका धूप देकर भगवान से सात आठ पांव पीछे सरकते हैं, फिर दशों अंगुलियों से अंजलि कर अर्थयुक्त, पुनरुक्ति दोष से रहित १०८ विशुद्ध पाठ से युक्त, महाकाव्य द्वारा परमात्मा की स्तुति करते हैं। बाद में बाम जानु को ऊपर उठाकर, मस्तक पर अंजलि कर इस प्रकार बोलते हैं- “तुम्हें-नमस्कार हो। हे सिद्ध-बुद्ध-ज्ञाततत्व-नीरज-कर्मरजरहितश्रमण-समाहित-अनाकुल चित्त-समाप्त (सम्यक् प्रकारेण प्राप्त) समायोगिन्-मन-वचनकाया के कुशल योग वाले शल्य विनाशक-निर्भय-निराद्वेष-निर्मम-निस्संग-निर्लेपनिःशल्य-मानमर्दक-गुणरत्ल-शीलोदधि अनंतज्ञानमय-धर्म के चातुरंत चक्रवर्ती ! हे · अरिहंत! आपको नमस्कार हो।" • अच्युतेन्द्र की तरह ईशानादि अन्य इन्द्र एवं भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी के . इन्द्र सपरिवार पर्युपासना कर अभिषेक करते हैं। तत्पश्चात् इशानेन्द्र अपने विकुर्वित
(निर्मित-दिव्य सामर्थ्य से उत्पादित) पंचस्वरूप से परमात्मा को अपने हाथ में ग्रहण कर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बैठते हैं। एक स्वरूप से पीछे छत्र धारण करते हैं, दो रवरूप से दोनों ओर चामर बींजते हैं, और एक स्वरूप से आगे शूल लेकर खड़े होते हैं।
सौधर्मेन्द्र की तरह इशानेन्द्र भी पाँच रूप धारण करते हैं। परन्तु सौधर्मेन्द्र पाँचवें रूप में आगे वज्र लेकर चलते हैं और ईशानेन्द्र आगे शूल लेकर खड़े रहते हैं। ___ वैसे भी इन्द्र अपने मूल रूप में तो आते नहीं हैं, जिस रूप में (वैक्रिय शरीर से) वे वहाँ रहते हैं उसे स्वाभाविक वैक्रिय शरीर कहते हैं और इससे भी अलग मूल वैक्रिय के अतिरिक्त वे उत्तरवैक्रिय शरीर से पृथ्वी पर आते हैं। क्योंकि इन्द्र के द्वारा भरत को यह बताने पर कि “राजन् ! स्वर्ग में हमारा जो रूप होता है उसे तो मनुष्य देख भी नहीं सकते हैं।" १. त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र-पर्व-१, सर्ग ३, श्लोक २१४-२२२
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१५४ स्वरूप-दर्शन __ यह सुनकर भरत के द्वारा मूलरूप बताने के आग्रह को नहीं टालते हुए इन्द्र ने उचित अलंकारों से सुशोभित अपनी एक उंगली भरत को बताई। परन्तु उस उंगली का रूप अत्यन्त तेजस्वी होने से भरत नहीं देख सके।
तत्पश्चात् सौधर्मेन्द्र दर्शनीय, सुन्दर, मनोहर एक समान सदृश रूप वाले वृषभ के चार रूप चार दिशा में विकुर्वित करते हैं। ___ हेमचन्द्राचार्य ने वृषभ के स्वरूप का स्फुटार्थ करते हुए कहा है कि ये वृषभ स्फटिक रल के बने हुए हैं। उनके उत्तरवर्ती अन्य कुछ आचार्यों ने इन विचारों का ही. शायद अनुकरण करते हुए वृषभों को सूर्यकांत मणि के भी कहे हैं। परन्तु यह उपयुक्त.. नहीं लगता है क्योंकि स्फटिक रत्न या सूर्यकांत मणि के बने हुए वृषभ में सौन्दर्य अधिक हो सकता है परन्तु साथ ही वे नकली भी लगते हैं जब कि वास्तविक रूप में । मनोहरता होती है। यद्यपि होते तो वे भी विकुर्वित ही परन्तु दैवीय प्रभाव से . तथास्वरूप लगते हैं। . ___यहाँ पर मूल आगमकारों ने इसकी स्पष्टता हेतु “पासाइए" शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ होता है प्रसन्नताजनक। इससे वृषभ की वास्तविकता अधिक स्पष्ट . होती है। इन वृषभ के आठ शृंगों में से आठ जल धाराएँ प्रथम ऊपर की ओर जाती हैं और एकत्र होकर भगवान के मस्तक पर गिरती हैं। ये जल धाराएँ अत्यन्त निर्मल एवं उज्ज्वल होती हैं, इसकी उज्ज्वलता का वर्णन करते हुए मानतुंगाचार्य श्रेयांसनाथ चरित्र में कहते हैं कि जलधारा चन्द्र जैसी उज्ज्वल होती है। वृषभाभिषेक के पश्चात् इन्द्रजालिक जिस प्रकार इन्द्रजाल का उपसंहार करते हैं वैसे इन्द्र अपने उस विकुर्वित रूप का उपसंहार कर ८४ हजार सामानिक देवों सहित क्षीरोदक से भरे हुए हजारों कलशों द्वारा अभिषेक करते हैं।
उपरोक्त आगम प्रमाणों के अतिरिक्त अन्यत्र कुछ भिन्नता पाई जाती है जैसे
(१) शीलांकाचार्य के अनुसार ३२ इन्द्र इसी प्रकार वृषभों के रूप से. जलधारा द्वारा पहले अभिषेक करते हैं और बाद में १००८ सुवर्ण कलेशों से सर्वौषधियुक्त क्षीरोदधि के जल द्वारा विधिपूर्वक अभिषेक करते हैं।
(२) महावीर चरियं में प्रथम वृषभों द्वारा क्षीरोदक से अभिषेक और बाद में कलशों द्वारा क्षीरोदक के अभिषेक होने का उल्लेख है।
(३) सुपार्श्वनाथ चरित्रकार ने प्रथम जलधारा से एवं बाद में क्षीरोदक से अभिषेक होता है, ऐसा कहा है। ____ (४) वासुपूज्यचरित्र में वृषभ रूप से क्षीर की धारा से अभिषेक करने का कहा
(५) अमरचन्द्रसूरि के अनुसार वृषभ रूप से दूध की धारा द्वारा अभिषेक क्रिया जाता है।
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जन्म-कल्याणक १५५ क्षीरोदक समुद्र का जल क्षीर जैसा है अतः कहीं पर क्षीर शब्द का और कहीं "तोय" शब्द का प्रयोग हुआ है। किन्तु दोनों से क्षीरोदक का ही अर्थ समझना चाहिए। __ यह रूप वृषभ का ही क्यों लेते हैं ? चार रूप, आठ श्रृंग एवं अष्ट धाराओं से क्या मतलब है? इन प्रश्नों के समाधान भिन्न-भिन्न आचार्यों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से दिये हैं। तीर्थंकर साक्षात् धर्म स्वरूप हैं-ऐसा धर्म-दान, शील, तप एवं भाव रूप भेद से चार प्रकार का है, परमात्मा अरिहंत ऐसे धर्म के दाता हैं, देशक हैं, नाथ हैं, सारथी हैं तथा श्रेष्ठ चतुरन्त चक्रवर्ती हैं।
पानी को अष्ट धाराओं से प्रवाहित कर इन्द्र ऐसा संतोष मानता है मानों आठों दिशाओं के स्वामी परमात्मा को यश की भेंट चढ़ा रहे हों। आगम के अतिरिक्त प्रायः अन्य सर्व ग्रन्थकर्ताओं के अनुसार स्तुति, धूपदान, पूजन, अर्चन एवं अष्ट मंगल का आलेखन इन्द्र द्वारा स्नान महोत्सव के सम्पन्न होने के बाद का है।
शीलांकाचार्य के अनुसार अभिषेक के पश्चात इन्द्राणी सुवासित पदार्थों द्वारा जिनेश्वर को विलेपन करती है, वस्त्रालंकार पहनाती है, एवं परमात्मा के सौन्दर्य की प्रशंसा करती हुई उनकी स्तुति करती है। __ सौधर्मेन्द्र अपने पाँच रूप विकुर्वित कर अरिहंत को ग्रहण कर दिव्यगति से माता के पास पहुँचते हैं, तीर्थंकर के प्रतिरूप एवं अवस्वापिनी निद्रा का संहरण कर अरिहंत भगवान को माता के पास रखते हैं। परमात्मा को दिव्य वस्तुओं की सौगात ___अरिहंत भगवान को यथास्थान रखकर सौधर्मेन्द्र, दिव्यवस्त्र देवदूष्य-युगल एवं कुण्डल-युगल, उच्छीर्षक उपधान (तकिया) के नीचे रखते हैं और सुशोभित ऐसा श्रीदाम काण्ड नामक कंदुक उनके पास रखकर वहाँ से लौट जाते हैं। दिव्य वृष्टि ___ तत्पश्चात इन्द्र की आज्ञा से वैश्रमण देव ने जृम्भक देवों द्वारा बत्तीस करोड़ हिरण्य, बत्तीस करोड़ सुवर्ण, सैंतीस करोड़ रत्न, बत्तीस करोड़ नंद नामक वृत्तासन, बत्तीस करोड़ भद्रासन, तथा अन्य विशिष्ट वस्तुओं से तीर्थंकर के भवन को भरवाते हैं। आचारांग में जन्माभिषेक के पूर्व भी देव देवियों द्वारा अमृत, सुगन्धित पदार्थ, चूर्ण, पुष्प, रजत, स्वर्ण एवं रत्नों की बहुत भारी वर्षा होने का उल्लेख है।
शीलांकाचार्य के अनुसार देव स्वयं रनों की वृष्टि करते हैं। वृष्टि के पश्चात शक्र देवेन्द्र आभियोगिक देवों को बुलाकर कहते हैं-अहो देवानुप्रियो ! भगवान तीर्थंकर के जन्म नगर में महापथ में बड़े-बड़े शब्द उद्घोषणा करके ऐसा बोलो-“अहो भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी एवं वैमानिक देव देवियाँ सुनो कि जो कोई तीर्थंकर भगवान तथा
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१५६ स्वरूप-दर्शन उनकी माता के बारे में अशुभ चिंतन करेगा उसके मस्तक के आर्यकमंजरी की तरह सात टुकड़े हो जायेंगे।"
अरिहंत भगवान का जन्म महोत्सव करके भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिषी एवं वैमानिक देव नंदीश्वर द्वीप में जाकर अष्टान्हिका महोत्सव करते हैं। पाँच अप्सराओं द्वारा परिपालना
जन्म के बाद पाँच धायमाताओं द्वारा तीर्थंकर का लालन-पालन होता है। उनके पाँचों के काम इस प्रकार हैं-(१) दूध पिलाना, (२) स्नान कराना, (३) वस्त्रालंकार 'हनाना; (४) क्रीड़ा कराना और (५) गोद में खेलाना। अंगुष्ठ में देवों द्वारा अमृत स्थापना भगवान के आहार सम्बन्धी मन्तव्य में भद्रबाहु स्वामीने कहा है कि
देसूणगं च वरिसं सक्कागमणं च वंसठवणा य ।
आहारमंगुलीए ठवंति देवा मणुण्णं तु In देवों ने भगवन्त की अंगुली में मनोज्ञ आहार स्थापित किया क्योंकि-सर्व तीर्थंकर माता का स्तनपान नहीं करते हैं। जिस समय आहार की इच्छा होती है उस समय स्वयं की अंगुली का पान करते हैं। चउपन्न महापुरुष चरियं के अनुसार अंगुष्ठ में देवों द्वारा आहार की नहीं परन्तु अमृत की प्रतिष्ठा जाती है। __इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा है कि जिस प्रकार सूर्य अमृता नाड़ी (इडा नाड़ी) के समूह में अमृत को स्थापित करते हैं। गुरु जिस प्रकार भव्य प्राणी के हृदय में सद्बोध को स्थापित करते हैं। वैसे ही सौधर्मेन्द्र विविध आहार के रस-अमृत को अरिहंत अंगुष्ठ में स्थापित करते हैं। नियुक्तिकार शीलांकाचार्य, गुणचंद्राचार्य एवं मलयगिरि के अनुसार यह प्रवृत्ति सौधर्मेन्द्र स्वयं करते हैं।
अरिहंत की देह का वर्णन __अरिहंतों का संस्थान समचतुरन और संघयण वज्रऋषभनाराच होता है। शरीर-स्थित वायु का वेग अनुकूल होता है। पद्म-कमल या 'पद्म' नामक गन्ध द्रव्यं
और उत्पल-नील कमल या 'उत्पलकुष्ठ' नामक गंध द्रव्य की सुगंध के समान निःश्वास से सुरभित (प्रभु का) मुख होता है। उनकी त्वचा कोमल और सुन्दर होती है। प्रभु की देह का मांस रोग रहित, उत्तम, शुभ अतिश्वेत और अनुपम होता है। अतः जल्लकठिन मैल, मल्ल-अल्प प्रयत्न से छूटने वाला मैल, कलंक-दाग, पसीने और रज के दोष से रहित (भगवान का) शरीर होता है-उस पर मैल जम ही नहीं सकता है। अतः अंग-प्रत्यंग उज्ज्वल कान्ति से प्रकाशमान होते हैं। १. आवश्यक नियुक्ति गा. १८९
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जन्म-कल्याणक १५७
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___अत्यन्त ठोस या सघन, स्नायुओं से बद्ध, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त पर्वत के शिखर के समान आकार वाला और पत्थर के वृत्तपिण्ड के समान (भगवान का) मस्तक होता है। बाल कोमल, सुलझे हुए, स्वच्छ, चमकीले, पतले-सूक्ष्म, लक्षणयुक्त, सुगंधित, सुन्दर, काले और लटों के समूह से एकत्रित धुंघराले प्रदक्षिणावर्त छल्लेदार होते हैं। केश के समीप में केश के उत्पत्ति के स्थान की त्वचा दाडिम के फूल के समान प्रभायुक्त, लाल सोने के समान (वर्ण) निर्मल और उत्तम तेल से सिञ्चित होती है अर्थात् चिकनाई से युक्त चमकीली होती है। . उनका उत्तमांग घन, भरा हुआ और छत्राकार होता है। ललाट आधे चाँद के समान, घाव आदि के चिन्ह से रहित, सम, मनोज्ञ व शुद्ध होता है। मुख सौम्य होता है। मनोहर या संलग्न ठीक ढंग से मुख के साथ जुड़े हुए या आलीन प्रमाण से युक्त कान होते हैं, अतः वे सुशोभित होते हैं। दोनों गाल मांसल और भरे हुए होते हैं। भौंहें कुछ झुके हुए धनुष के समान (टेढ़ी) सुन्दर, पतली, काली और कान्ति से युक्त होती हैं। नेत्र खिले हुए सफेद कमल के समान होते हैं। आँखें बरौनी-भाँपन से युक्त धवल होती हैं। नाक लम्बी, उन्नत और आयत होती है। संस्कारित शिलाप्रवाल-मूंगे और बिम्बफल के समान अधरोष्ठ होते हैं। दाँतों की श्रेणी श्वेत, सुश्लिष्ट और सु-संबद्ध होती है। दाँत अखण्ड, मजबूत, अविरल-परस्पर सटे हुए, दो दाँतों के बीच का अन्तर अधिक नहीं हो ऐसे, सुस्निग्ध-चिकने, चमकीले और सुन्दराकार होते हैं। तालु और
जीभ के तले, तपे हुए सोने के समान लाल होते हैं। भगवान् की दाढ़ी-मूंछे कभी नहीं . बढ़ती हैं-सदा एक-सी रहती हैं और सुन्दर ढंग से उँटी हुई-सी रम्य होती हैं। चिबुक
ठुड्डी मांसल, और सुन्दराकार, प्रशस्त और विस्तीर्ण होती है। : ग्रीवा श्रेष्ठ, सुन्दर और चार अंगुल की उत्तम प्रमाण से युक्त और दक्षिणावर्त रेखाओं से अलंकृत होती है। स्कंध-कंधे समान प्रमाण से युक्त सभी विशेषताओं से सम्पन्न और विशाल होते हैं। उनके बाहु गाड़ी के जुड़े (जूए) के समान (गोल और
लम्बे) मोटे, देखने में सुखकर और दुर्बलता से रहित पुष्ट पांचों कलाइयों से युक्त होते ' हैं। बाहु हृष्ट-पुष्ट स्थिर और स्नायुओं से ठीक ढंग से और बंधी हुई-सन्धियों-हड्डियों
के जोड़ से युक्त सूक्ष्म रोम से अत्यंत सुशोभित होते हैं। प्रभु के हाथ के तले लाल, उन्नत, कोमल, भरे हुए, सुन्दर और शुभ लक्षणों से युक्त होते हैं। अंगुलियों के बीच में (उन्हें मिलाने पर) छिद्र दिखाई नहीं देते हैं। अंगुलियाँ पुष्ट, कोमल और श्रेष्ठ होती हैं। अंगुलियों के नख ताम्बे के समान कुछ-कुछ लाल, पवित्र, दीप्त और स्निग्ध, हाथ में चन्द्राकार, सूर्याकार, शंखाकार, चक्राकार और दक्षिणावर्त स्वस्तिकाकार रेखाएँ होती
. भगवान का वक्ष-छाती, सीना सुवर्ण शिलातल के समान सुभग, उज्ज्चल, प्रशस्त, समतल, मांसल, विशाल और चौड़ा होता है। उस पर 'श्रीवत्स' स्वस्तिक, कुंभ, सिंह,
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१५८ स्वरूप-दर्शन मृग आदि विशेष के चिन्ह होते हैं। मांसलता के कारण पसलियों की हड्डियां दिखाई नहीं देती हैं। स्वर्णकांति-सा (सुनहरा) निर्मल, मनोहर और रोग के पराभव से आघात से रहित (भगवान का) देह होता है, जिसमें पूरे एक हजार आठ, श्रेष्ठ पुरुषों के लक्षण होते हैं। उनके पार्श्व-बगल नीचे की ओर क्रमशः कम घेरे वाले होते हैं, देह के प्रमाण के अनुकूल, सुन्दर, उत्तम बने हुए और मितमात्रिक-न कम न ज्यादा, उचित रूप से मांस से भरे हुए पुष्ट और रम्य होते हैं।
वक्ष और उदर पर सीधे और समरूप से एक-दूसरे से मिले हुए, प्रधान पतले, काले स्निग्ध, मन को भाने वाले, सलावण्य-सलोने और रमणीय रोमों की पंक्ति होती हैं। दृढ़ मांसपेशियों से युक्त कुक्षि होती है। मत्स्य का-सा उदर होता है। गंगा के भंवर के समान, दाहिनी ओर घूमती हुई तरंगों वाली सूर्य की तेज किरणों से विकसित कमल के मध्य भाग के समान गंभीर और गहन नाभि होती है। त्रिदंड, मूशल, सार पर चढ़ाए हुए श्रेष्ठ स्वर्ण दर्पणक-दर्पण दंड और खड्गमुष्टि-मूठ के समान श्रेष्ठ, वज्रवत क्षीण (देह का) मध्य भाग होता है। रोग शोकादि से रहित प्रमुदित श्रेष्ठ अश्व . और सिंह (की कटि) के समान श्रेष्ठ घेरे वाली कटि होती है। .
श्रेष्ठ घोड़े के (गुप्तांग के) समान अच्छी तरह (गुप्त) बना हुआ उत्तम गुह्यभाग होता है। भगवान् का शरीर लेप से लिप्त नहीं होता है। श्रेष्ठ हाथी के समान पराक्रम
और विलास युक्त चाल होती है। हाथी की सैंड़ के समान जंघाएँ होती हैं। पाद ग्रन्थियाँ गूढ़ और सश्लिष्ट होती हैं। शुभ रीति से स्थापित रखे हुए चरण होते हैं। क्रमशः बढ़ी घटी हुई (या बड़ी छोटी) (पैर की) अंगुलियां होती हैं। ऊँचे उठे हुए, पतले ताम्रवर्ण
और स्निग्ध (पैर के) नख होते हैं। लाल कमल दल के समान कोमल और सुकुमार पगतलियां होती हैं। इस प्रकार की अपूर्व सौन्दर्य की राशि-देह-यष्टि में श्रेष्ठ पुरुषों के एक हजार आठ लक्षण होते हैं।
पर्वत, नगर, मगर, समुद्र और चक्र रूप श्रेष्ठ चिन्हों और स्वस्तिक आदि मंगल चिन्हों से अंकित चरण होते हैं। भगवान का रूप विशिष्ट होता है। धुएँ से रहित जाज्वल्यमान अग्नि, फैली हुई बिजली और अभिनव-सूर्य किरणों के समान भगवान् का तेज होता है।
भगवान के जन्म से ही कार्मिक अणुओं के प्रवेश द्वारों को बंद कर दिया होता है। अतः निरुपलेप-द्रव्य से निर्मल देह वाले और भाव से कर्मबन्ध रूप लेप से रहित होते हैं। प्रेम-मिलन के भाव, राग-विषयों का अनुराग, द्वेष-अरुचि के भाव और मोह मूढ़ता-अज्ञान भाव से अतीत होते हैं।
निर्ग्रन्थ प्रवचन के उपदेशक, शास्ता-आज्ञा के प्रवर्तक, नायक और प्रतिष्ठापक उन-उन उपायों के द्वारा व्यवस्था करने वाले होते हैं। धर्म की प्ररूपणा, संघ की स्थापना रूप भविष्य का प्रायोगिक वीर्योल्लास उनमें जन्म से ही झलकता है। .
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अध्याय ७
प्रव्रज्या-कल्याणक
प्रव्रज्या १. लोकांतिक देवों का आगमन २. सांवत्सरिक दान की व्यवस्था एवं विधि ३. महायोग के महापथ पर महाभिनिष्क्रमण ४. . प्रव्रज्या-विधि-(वस्त्राभूषण त्याग) ५. सिद्धों को नमस्कार एवं सावधयोग के प्रत्याख्यान ६. निर्मल विपुलमति मनःपर्यवज्ञान का आविर्भाव ७. संयमानुष्ठान विधि एवं हेतु ८. स्वाश्रित साधना • ९. अनुत्तर योगविधि १०. अरिहंत परमात्मा के ध्यान में ध्येय ११.. अरिहंत की तपश्चर्या १२. अरिहंत की आहार चर्या १३. अरिहंत की विहार चर्या १४. परीषह विजेता अरिहंत १५. उपसर्ग विजेता अरिहंत
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प्रव्रज्या-कल्याणक
सम्यग्दर्शन सरागसंयम में परिणत होता है और सरागसंयम वीतराग चारित्र में परिणत होता है। इसी वीतराग चारित्र को प्रकट करने हेतु पुरुषार्थ मूर्ति अरिहंत प्रव्रज्या मार्ग में अणगार बन अभिनिष्क्रमण करते हैं। सर्वविरति बनकर ही कर्मों के साथ संग्राम करने के लिए ये संसार त्यागकर संयम मार्ग में संक्रमण करते हैं। इनका आत्मवीर्य अपूर्व होता है। सामान्य आत्माओं की तरह इनकी पूर्व अवस्था में ऐसा कोई अल्प प्रयास ये महात्मा नहीं करते हैं। वैसे तो च्यवन से ही उनका जीवन साधनामय ही होता है और बाद में वे सीधे सर्वविरति बनकर अणगार हो जाते हैं। उदितोदित पुण्यबल होने पर परम त्याग के पथिक बन हजारों विराग योग्य भव्य आत्माओं के दिव्य प्रेरणादीप बनकर प्रव्रजित हो जाते हैं।
अरिहंत परमात्मा स्वोद्धारक ही नहीं होते हैं, विश्वोद्धारक भी होते हैं। जन्म से ही अनासक्त होने पर भी उस अनासक्ति को साकार रूप देने की उनकी यह उत्सुकता बहुधा विचारणीय हो जाती है। यह उत्सुकता कई बार कुछ जिज्ञासाएँ प्रकट करती है कि-जो अन्तर्मन से अणगार हैं उन्हें आगारत्याग की क्या आवश्यकता है ? जो जन्म से वैरागी है, उन्हें संयमन्नर्या ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है? अरिहंत को आगार में ही कैवल्य की अपूर्व लब्धि संभव हो सकती है। परन्तु विश्वोद्धार घर में सम्भव नहीं। पर-उद्धार की प्रतिज्ञा तो तीसरे जन्म में ही ये कर चुके होते हैं। वह विशिष्ट विश्वदया प्रव्रज्या के अतिरिक्त परिणाम रूप नहीं बन सकती है। __इनके प्रव्रज्या हेतु से हम अनजान नहीं हैं। जो हेतु सम्यग्दर्शन की उपलब्धि से उद्भूत होता है, बीस या उनमें से कुछ विशिष्ट कारणों से व्यवहृत होता है और सर्व जीवों को शासन रसिक बनाने की मंगल भावना से संयुक्त होता है वही यहां प्रव्रज्या का साकार रूप बन जाता है।
वीतराग दशा और कैवल्य सिद्धि की प्राप्ति हेतु प्रव्रजित होने वाले साधक परसहाय की इच्छा.नहीं करते हैं, दीन भाव नहीं रखते हैं, और कौतुहल प्रिय नहीं बनते हैं। यही कारण था जो श्रमण भगवान महावीर ने शक्रेन्द्र की सहायता भी अस्वीकृत की। घाति चतुष्टय कर्मों के क्षय के अतिरिक्त अब इनका अन्य कोई लक्ष्य नहीं, विकास की इस महायात्रा का प्रारम्भ प्रव्रज्या से ही होता है। प्रयोग केवलज्ञान द्वारा विश्वोद्धार से होता है और विराम निर्वाण में होता है। ऐसी यह अवस्था-त्रय की सुलीनता कल्याण-त्रय की मंगलकारिता बन जाती है।
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१६२ स्वरूप-दर्शन
____ अरिहंत परमात्मा जन्म से ही अनासक्त योगी होते हैं। बाल्यकाल, राज्य, विवाहादि परिस्थितियों में से गुजरने पर भी वे किसी भी प्रवृत्ति में आसक्त नहीं होते हैं। बिना अध्ययन के भी अनेक पूर्वजन्मों के संस्कारों के कारण वे विद्या में पारगामी एवं वर्चस्वी होते हैं, बालक होने पर भी दक्ष एवं स्थविरों की तरह प्रौढ़ बुद्धि वाले होते हैं। ___ क्रीड़ा में, राग से पराङ्मुख होते हैं, बाल्यावस्था के योग्य अनुचित चेष्टाओं से रहित होते हैं, जगत् में उत्कृष्ट ऐसे सौन्दर्य, भाग्य एवं सौभाग्य से सुशोभित होते हैं, स्पजन, परिवार के नेत्रों के आनंददाता होते हैं, प्रियंकर, प्रियालापी एवं द्वेषीजनों को भी प्रिय लगने वाले होते हैं। यौवन द्वारा घोतित होने पर भी जितेन्द्रिय एवं आत्मस्थिरता वाले होते हैं। बाहर से राग दर्शाने पर भी अंतर में प्रवालवत् विशुद्ध होते हैं, चक्रवर्तीत्व को प्राप्त करने पर भी सर्वथा अनासक्त होते हैं।
दिगम्बर मान्यता के अनुसार जिनके प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, इन आठ कषायों का ही केवल उदय रह जाता है ऐसे सभी । अरिहंत अपनी आयु के प्रारम्भिक आठ वर्षों के बाद निसर्गतः आंशिक संयमशील हो जाते हैं। यद्यपि उनके भोगोपभोग की वस्तुओं की प्रचुरता, रहती है फिर भी उनकी उसमें कोई आसक्ति नहीं होती है। उनकी वृत्ति नियमित रहती है तथा असंख्यातगुणी निर्जरा का कारण होती है। लोकांतिक देवों का आगमन ___ अनासक्ति में ही जीवन व्यतीत करते हुए उचित एवं योग्य समय पर स्वज्ञान से ही स्वयं प्रव्रज्या का अवसर जान लेते हैं एवं दीक्षा के एक वर्ष पूर्व ही “एक वर्ष पश्चात् मैं अभिनिष्कमण करूँगा (प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा)" ऐसा निर्णय करते हैं। उनके इस प्रकार के निर्णय को ब्रह्म नामक पांचवें कल्प में स्थित लोकान्तिक देव आसन कम्प से यह जानते हैं कि हम लोकान्तिक देवों की ऐसी मर्यादा (प्रणालिका) है कि जब अरिहंत के निष्कम का अवसर आता है तब उन्हें सम्बोधन करना चाहिए। ऐसा सोचकर ये ईशानकोण में जाकर वैक्रिय समुद्घात से उत्तरवैक्रिय की विकुर्वणा कर अपने आत्म प्रदेशों को रत्नमय दण्डाकार रूप में बाहर निकालकर, उत्कृष्ट गति से, जहां अरिहंत भगवान विराजमान हों वहां आकर आकाश में अधर खड़े रहकर इस प्रकार कहते हैं-सर्व जगत् के जीवों के हितकारी हे अरिहंत ! आप तीर्थ की प्रवृत्ति करो। हे भगवान ! हे लोकनाथ ! आप दीक्षा अंगीकार करो। भव्यजीवों को समझाओ। चतुर्विध संघरूप धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करो, क्योंकि वह धर्म तीर्थ भव्यजीवों के लिए मुक्ति-प्राप्ति का कारण होने से निःश्रेयस्कर होगा। १. महापुराण-सर्ग-५३, श्लो. ३५
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प्रव्रज्या कल्याणक १६३ ___सर्व अरिहंत स्वयं संबुद्ध होते हैं। गर्भावस्था में ही तीन ज्ञान से युक्त होते हैं। अतः वे अपने प्रव्रज्या-अवसर को भली-भाँति जानते हैं। उन्हें सावधान करने की आवश्यकता नहीं होती है। फिर भी लोकान्तिक देवों की यह प्रवृत्ति केवल उनकी परम्परा के पालन हेतु ही होती है। अतः लोकान्तिक देवों का संबोधन वस्तुतः अरिहंत परमात्मा के उत्पन्न वैराग्य की सराहना मात्र ही समझना चाहिए। सांवत्सरिक दान की व्यवस्था एवं विधि
अरिहंत भगवान “मैं अभिनिष्कमण करूँगा" ऐसा निर्णय करते हैं। उस समय विचलित आसन से इन्द्र अरिहंत भगवान के अभिनिष्क्रमण का अवसर जानते हैं एवं ऐसा सोचते हैं कि दीक्षा के पूर्व अरिहंत एक वर्ष तक दान करते हैं। इसे मनोवांछित दान, वात्सरिक दान, सांवत्सरिक दान, महादान, वार्षिक दान या सांवत्सरिक महादान कहते हैं। यह दान प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख याने एक वर्ष में तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख (३८८,८000000) स्वर्णदीनारों का होता है। हम शक्र-देवेन्द्रों का यह त्रिकालवर्ती जीताचार (परम्परागत आचार) है कि अभिनिष्क्रमण हेतु तत्पर तीर्थंकर को (तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख अर्थ संपत्ति-स्वर्ण दीनारें) पहुंचायी जायं।
आगमादि के अनुसार तो इसी समय अर्थात् आसन चलायमान होते ही तुरन्त शक्रेन्द्र वैश्रमण देवों द्वारा इसकी व्यवस्था करते हैं। वर्ष भर तक प्रतिदिन नियमानुसार इनमें से उपयोग किया जाता है। परन्तु विनयचन्द्रसूरि ने मल्लिनाथ चरित्र में कहा हैयथोक्त दान की प्रतिदिन की व्यवस्था प्रतिदिन की जाती है।
देवों द्वारा की जाने वाली इस व्यवस्था में उपयोगी धन देवों द्वारा विकुर्वित नहीं होता है परन्तु वे ऐसा निधान लाते हैं जिस पर किसी का स्वामित्व न हो, जो कुलनाश के कारण अधिकार विहीन हो, जो श्मशानों में हो, पर्वतों में हो, बिना चिन्ह का हो, अटवी या अरण्य में हो, शून्यगृह या नगरी में तथा अन्यान्य किसी स्थान में हो-वे दान हेतु इसे एकत्रित कर तीर्थंकर के भंडार में पहुंचाते हैं।
प्रतिदिन चलने वाली दान की यह विधि सूर्योदय से प्रारंभ होकर प्रातःकालीन भोजन काल तक चलती है। प्रातःकालीन भोजन के दो अर्थ होते हैं-जलपान (नाश्ता) और भोजन काल। जलपान का समय प्रथम प्रहर और भोजनकाल का अर्थ दो प्रहर पर्यन्त का माना जाता है।
स्वर्णदीनारों के लिये आगम में हिरण्ण शब्द का प्रयोग हुआ है। अर्थोल्लेख से इसका द्रव्यधन, सुवर्ण, रजत, स्वर्ण एवं रजत के सिक्के आदि अर्थ होते हैं।
ये दीनारें शक्रेन्द्र के आदेश से वैश्रमण देव, देव माया द्वारा आठ ही समय में निपजाकर तीर्थंकर के घर में भरते हैं तथा इस पर तीर्थंकर भगवान का एवं उनके माता पिता का नाम होता है।
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१६४ स्वरूप-दर्शन
स्वर्ण मोहरों के अतिरिक्त दिये जाने वाले अन्य दान की व्यवस्था तीर्थकर भगवान के पिता अथवा अग्रज द्वारा होती है।
तीर्थंकरों के निष्कमण समय वरवरिका की घोषणा की जाती है। वरवरिका यानी "वर याचवं"-"वर याचो, वर याचो" इस प्रकार की जाने वाली घोषणा को सामयिक परिभाषा से “वरवरिक" कहते हैं। इस घोषणा से याचकों को यथेच्छ दान दिया जाता है।
ज्ञातासूत्र एवं कुछ चरित्रों के अनुसार अरिहंत परमात्मा द्वारा दिया जाने वाला यह दान सनाथों को, अनाथों को, पन्थिकों को, पथिकों को, खप्परधारियों को, भिक्षुओं . को दिया जाता है। __ आवश्यक सूत्र की वृत्ति में कहा है कि यह दान चारों निकाय के देव-दानव-मानव तथा उपलक्षण से इन्द्र भी ग्रहण करते हैं।
ज्ञाता सूत्र की टीका तथा उपदेश प्रसाद आदि ग्रन्थों के अनुसार यह दान चौंसठ इन्द्र, चक्रवर्ती राजा, श्रेष्ठी आदि सर्व इसे ग्रहण करते हैं एवं उनके भिन्न-भिन्न शुभ . परिणाम भी होते हैं। जैसे चौंसठ इन्द्रों में तथा देवों में १२ वर्ष तक विग्रह नहीं होता . है। चक्रवर्ती आदि राजाओं के भंडार अक्षुण्ण रहते हैं। श्रेष्ठी आदि लोगों के यश, कीर्ति एवं मान की वृद्धि होती है। रोगी का पुराना रोग समाप्त होता है एवं १२ वर्ष तक नया रोग नहीं होता है। चाहे जो कोई भी इसे ग्रहण करें परंतु इतना तो निर्विवाद है कि अभव्य तो इसे ग्रहण नहीं कर सकता है। अतः भव्यात्मा ही इसे. ग्रहण कर सकते हैं।
संतोषी होने पर भी लोग जिनेश्वर भगवान के कर-कमल से गृहीत दान को बहुत महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली मानते हैं। __इस प्रसादी (शेष) से भंडार में लक्ष्मी की वृद्धि होगी। ऐसा मानकर अल्प मात्रा में ग्रहण करते हैं। कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि परमात्मा दीक्षा लेने वाले हैं, अतः इनके हाथों से प्रसाद रूप इस दान को ग्रहण कर लेना चाहिए। ऐसा होने से दान लेने वाले अल्प होते हैं अतः दान भी परिमित और संख्या वाला होता है। महायोग के महापथ पर महाभिनिष्क्रमण
सांवत्सरिक महादान स्वरूप अनुपम अजोड़ अनुकंपादान करने के पश्चात सर्वप्राणियों के समूह सम्बन्धी अभयदान देने की इच्छा वाले जगद्गुरु सर्वविरति स्वीकार करने के लिए उधत होते हैं। इस समय सर्व इन्द्र एवं भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी एवं वैमानिक देव देवियाँ अपने रूप, वेश एवं चिन्हों से युक्त होकर; १. आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति-पत्र-१३६;
आवश्यक मलयगिरि वृत्ति-पत्र-२०३
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प्रव्रज्या-कल्याणक १६५ ........................
स्वविमानों पर आरूढ़ होकर, बादर पुद्गलों को छोड़कर सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करके उत्कृष्ट, शीघ्र, चपल, त्वरित और दिव्य प्रधान देवगति से नीचे उतरते हुए तिर्यक् लोक में स्थित असंख्यात द्वीप समुद्रों को उल्लघंन करते हुए आते हैं।
वहाँ आकर वे मनोहर रूप वाले देवच्छंद का निर्माण करते हैं और उस पर एक विस्तृत पादपीठयुक्त सिंहासन का निर्माण करते हैं तथा उस पर तीर्थंकर परमात्मा को बैठाकर अभिषेक की तैयारी करते हैं। अभिषेक के समय आभियोगिक देवों द्वारा निर्मित १00८ सुवर्णादि कलशों का उपयोग करते हैं। ___ अभिषेक के पश्चात् वैक्रिय लब्धि से निर्मित पुष्पमालाओं से अलंकृत शतः स्तम्भ युक्त शिबिका में प्रशस्त अध्यवसाय एवं शुभ लेश्याओं से युक्त परमात्मा को बैठाते हैं। नदी जिस प्रकार दूसरी नदी में मिल जाती है उसी प्रकार तीर्थंकर भगवान के पिता द्वारा निर्मित शिबिका. में यह देव निर्मित शिबिका अनुप्रविष्ट हो जाती है। तत्पश्चात् अरिहंत परमात्मा प्रदक्षिणा कर उस शिबिका में स्थित सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर विराजते हैं।
इस शिबिका को सब से पहले मनुष्य हर्ष एवं उल्लास के साथ उठाते हैं। तत्पश्चात् आचारांग सूत्र के अनुसार इस शिबिका को पूर्व दिशा से सुर-वैमानिक देव उठाते हैं, दक्षिण से असुरकुमार, पश्चिम से गरुड़कुमार और उत्तर दिशा से नागकुमार उठाते हैं। ज्ञातासूत्र के अनुसार शक्र देवेन्द्र देवराज शिबिका के दक्षिण दिग्भागवर्ती ऊपर के दण्ड को पकड़ते हैं, उत्तर दिग्भागस्थ ऊपर के दण्डे को ईशानेन्द्र पकड़ते हैं, दक्षिणदिग्भागवर्ती नीचे के दण्डे को चमरेन्द्र पकड़ते हैं एवं उत्तर दिग्भागस्थ नीचे के 'दण्डे को बलीन्द्र उठाते हैं तथा अवशिष्ट भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक इन्द्र अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार शिबिका का परिवहन करते हैं। समवायांग सूत्र के अनुसार शिबिका को आगे देव वहन करते हैं, दाहिनी ओर से नागकुमार वहन करते हैं, असुरेन्द्रादिक पीछे से वहन करते हैं और उत्तर की ओर से गरुड़ गरुड़ध्वज . अर्थात् सुपर्ण कुमार वहन करते हैं।
प्रभु के शिबिका में बिराज जाने पर निष्क्रमणविधि बहुत भव्य एवं अद्भुत होती है। सर्वप्रथम उनकी शिबिका के आगे क्रमानुसार अष्टमंगल द्रव्य उपस्थित होते हैं(१) स्वस्तिक, (२) श्रीवत्स, (३) नन्दिकावर्त, (४) वर्धमान, (५) भद्रासन, (६) कलश, (७) मत्स्य और (८) दर्पण।
अष्ट मंगल के पीछे अनारोह वाले (जिस पर कोई न बैठा हो ऐसे) १०८ हाथी, १०८ अश्व और १०८ प्रधान पुरुष, तत्पश्चात् चार प्रकार की सेना होती है, उसके बाद हजार योजन ऊँचा एवं हजार ध्वजाओं से युक्त महेन्द्र ध्वज (इन्द्र ध्वज) आदि अनेक भव्य एवं अद्भुत वस्तुओं से युक्त यह निष्क्रमण विधि होती है। शिबिका के
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१६६ स्वरूप-दर्शन साथ चलने वाले लोग परमात्मा की भावी कुशलता, सफलता, कल्याणमयता एवं मांगल्य की सद्भावना करते हुए उनके पास एवं पीछे पैदल चलते हैं। प्रव्रज्या-विधि-(वस्त्राभूषण त्याग)
इस प्रकार महोत्सव पूर्वक उद्यान में आकर अशोकादि वृक्ष के नीचे थोड़ी सी हस्त प्रमाण ऊँची भूमि पर भगवान की शिबिका को स्थापित करते हैं (ठहरा देते हैं)। तब भगवान उसमें से शनैः शनैः नीचे उतरते हैं और सर्व आभरणालंकार का परित्याग करते हैं। आचारांग सूत्र के अनुसार इन आभरण एवं अलंकारों को उनके (भगवान के) चरणों में बैठकर वैश्रमण देव भक्ति पूर्वक हंस के समान श्वेत वस्त्र में स्थापन.. करते हैं। ज्ञाता सूत्र, महावीर चरित्र आदि चरित्र ग्रन्थों में ऐसा कहीं भी उल्लेख न होकर अरिहंत परमात्मा की माता तथा अन्य कुल वृद्धा द्वारा ग्रहण करने का उल्लेख. .
दीक्षा के अवसर पर इन्द्र अरिहंत के बाँये स्कन्ध पर देवदुष्य वस्त्र डालते हैं। . यहाँ पर प्रश्न होता है कि क्या अरिहंत इस वस्त्र को ग्रहण करते हैं ? क्योंकि सांसारिक सर्व वस्त्राभूषणों का त्याग करने वाले परमात्मा देवप्रदत्त उस देवदुष्य को कैसे ग्रहण करते हैं ? आचारांग के अन्तर्गत इसका अप्रत्यक्ष समाधान प्रस्तुत किया गया है। यहाँ इन्द्र ने जब देवदुष्य अर्पण किया तब भगवान महावीर की मनोभावना का यथायोग्य दिग्दर्शन कराते हुए कहा है कि "मैं इस वस्त्र से हेमन्तकाल में शरीर को ढक लूँगा"। इस आशय से भगवान ने वस्त्र ग्रहण नहीं किया।
वस्त्रग्रहण करने के तीन कारण होते हैं(१) हेमन्त (सर्दी) में शीत से बचने के लिए, (२) लज्जा ढकने के लिए और (३) जुगुप्सा को जीतने का सामर्थ्य न हो तो।
भगवान् ने इन तीनों कारणों से वस्त्र को स्वीकार नहीं किया। वे समस्त परीषहों को जीतने में समर्थ थे। अतः उन्होंने वह वस्त्र अपने उपयोग के लिए स्वीकार नहीं किया, परन्तु पूर्व तीर्थंकरों द्वारा आचरित परम्परा को निभाने के लिए उन्होंने देवदुष्य
को स्वीकार किया। ____ “अनुधर्मिता" शब्द का अर्थ चूर्णि में गतानुगत किया है। इसका अभिप्राय यह है कि भगवान ने दीक्षा के समय एक वस्त्र रखने की परम्परा का पालन किया। चूर्णि में इसका दूसरा अर्थ "अनुकालधम्म" भी दिया गया है और उसका अभिप्राय यह बतायाहै कि पूर्व में भी तीर्थंकरों ने वस्त्र धारण किया था अतः मुझे भी करना चाहिए।' १. आचारांग चूर्णि-श्रु. १, अ. ९, पत्र-२९९ ।
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प्रव्रज्या-कल्याणक १६७
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__ अब यह देवदुष्य वस्त्र आचारांग सूत्र के अनुसार दीक्षा के पूर्व अभिनिष्क्रमण के समय ही तीर्थंकर अंग पर धारण कर निष्कमण करते हैं।
यद्यपि ज्ञाता सूत्र में देवदुष्य वस्त्र का कोई उल्लेख ही नहीं है। गुणचंद्राचार्य आदि कई चरित्र कर्ताओं ने चरित्र अंगीकार करने के पश्चात् इन्द्र द्वारा देवदुष्य वस्त्र देने का कहा है। यह कथन कुछ विचारणीय है क्योंकि .प्रतिज्ञाबद्ध होकर परमात्मा क्या पहले देवदुष्य ग्रहण करेंगे ? वस्त्रालंकार का त्यागकर अरिहंत भगवान पंचमुष्ठि लोच करते हैं तब देवराज शक्रेन्द्र वज्रमय थाल या वस्त्र में उन केशों को ग्रहण करते हैं
और हे भगवन् ! आप आज्ञा दें-ऐसा कहकर उन केशों को क्षीरोदधि (क्षीर समुद्र) में प्रवाहित कर देते हैं। सिद्धों को नमस्कार एवं सावधयोग के प्रत्याख्यान
तत्पश्चात शक्रेन्द्र की आज्ञा से सभी वाजिंत्र आदि से होने वाले शब्द बन्द कर दिये जाते हैं और तब अरिहंत परमात्मा, सिद्धों को नमस्कार कर "मैं सर्व सावधकर्मों का त्रिविध परित्याग करता हूँ और सामायिक चारित्र ग्रहण करता हूँ।" इस प्रकार कहकर प्रव्रज्या अंगीकार करते हैं।
आवश्यक चूर्णि, आवश्यक वृत्ति तथा कल्पसूत्र वृत्ति आदि में इस प्रकार कहा है कि
सव्वातित्थगरावि य णं सामाइयं करेमाणा भणंति-करेमि सामाइयं-सव्वं सावज्ज जोगं पच्चक्खमि जाव वोसिरामि, भदंति त्ति ण भणति जीतमिति। __चारित्र ग्रहण करते समय जिनेश्वर भगवान "भते" शब्द का प्रयोग नहीं करते हैं। भदंत शब्द का प्रयोग नहीं करना यह तीर्थंकर भगवान का जीताचार है। तत्वार्थ • वृत्ति में इन सब से सर्वथा विपरीत ही कहा है. करोमि भदन्त ! सामायिकं सर्वान् सावधान् योगान् प्रत्याचक्षे इत्येवं, न चास्यान्यो
भदन्तोऽन्यत्र सिद्धेभ्यः आचारार्थ त्वनेन सिद्धान् वा प्रयुक्तम्।२। - इनकी मान्यतानुसार तीर्थंकर "भदन्त" शब्द कहते हैं, परन्तु प्रभु को सिद्ध से
अन्य कोई भदंत नहीं है अतः "सिद्धेभ्यः" ऐसा कहते हैं। ऐसा उनका आचार है। निर्मल विपुलमति मनःपर्यवज्ञान का आविर्भाव ___ क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र ग्रहण करते ही अरिहंत परमात्मा को अढाईद्वीप और दो समुद्रों में स्थित संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानने वाला, उत्तम परमार्थ वाला, अतिशय प्रकाश वाला मनःपर्यवज्ञान होता है। क्योंकि तीर्थकर जब तक
१. आवशएक चूर्णि-भा. १, पत्र-१६१ । २. तत्त्वार्थवृत्ति-कारिका १६ की व्याख्या-पृ. १३ ।
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१६८ स्वरूप-दर्शन
गृहवासी होते हैं तब तक तीन ज्ञान से युक्त होते हैं और चारित्र अंगीकार करने के पश्चात् यावत् छद्मावस्था पर्यन्त चार ज्ञान वाले होते हैं।
प्रचंड किरणों वाले सूर्य के ताप से संतप्त बने हुए पथिक को मार्ग में आती हुई वृक्ष की छाया जिस प्रकार सुखदायक होती है वैसे ही प्रभु के दीक्षा महोत्सव के समय नारक जीवों को भी क्षणमात्र सुख प्राप्त होता है तथा उस समय अज्ञानरूप अंधकार को नाश करने से प्रकटित महातपश्चर्या के तेज वाले परमात्मा का समस्त त्रिभुवन में विद्युत् सदृश महाप्रकाश प्रसर जाता है।
ऐसे प्रतिपन्न चारित्र वाले एवं समासादित मनः पर्यवज्ञान वाले तीर्थंकर विविध आसनों में तप करते हुए विविध उपसर्गों को सहते हुए यथोचित ईर्यासमिति का पालन करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते हैं।
संयमानुष्ठान विधि एवं हेतु
पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, पनक- निगोद बीज, हरी वनस्पति एवं त्रसकाय के जीवों को सर्व प्रकार से जानकर - इन सब जीवों का अस्तित्व है और उनमें चेतना है ऐसा जानकर उनकी हिंसा का त्याग करके वे विचरते हैं। इस प्रकार अरिहंत परमात्मा स्वतः ही तत्वों को जानकर ( स्वयंबुद्ध० होकर) आत्मशुद्धि की ओर मन, वचन और काया के त्रियोग को संयत कर, मायादि कषायों से मुक्त होकर, सत्प्रवृत्तिमय रहकर समिति और गुप्ति की प्ररिपालना करते हैं। हेय, ज्ञेय और उपादेय को जानकर वे स्वयं न पाप करते हैं, न अन्य से करवाते हैं और न पाप कर्म करने वाले का अनुमोदन करते हैं।
शरीर के ममत्व का परित्याग करके अनुपम विहार से एवं अनुपम संयम, संवर, तप, ब्रह्मचर्य, क्षमा, निर्लोभता, समिति, गुप्ति, सन्तोष, कायोत्सर्गादि स्थान और अनुपमक्रियानुष्ठान से युक्त होकर आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं। स्वाश्रित साधना
देव-देवेन्द्रों से पूजित होने पर भी अरिहंत प्रभु, परम स्वावलम्बी एवं परम स्वाश्रित होते हैं। वे किसी देव-दानव या मानव का कभी सहारा नहीं लेते हैं, न वे स्वयं सहारा चाहते हैं। न सामने से आये सहारे को स्वेच्छा से स्वीकृत करते हैं। भगवान पार्श्वनाथ और महावीर की साधना में धरणेन्द्र, सिद्धार्थदेव, शक्रेन्द्र आदि का सेवा में आकर उपसर्गदाताओं को हटाने का उल्लेख आता है, परन्तु स्वयं महावीर या भगवान पार्श्वनाथ ने या अन्य किसी भी तीर्थंकर ने कभी उनकी सहायता की इच्छा नहीं की ।
साधना की पूर्वावस्था में शक्रेन्द्र द्वारा उपसर्ग को देखे जाने पर भगवान महावीर को यह प्रार्थना करना कि हे भगवन् ! प्रव्रज्या पालते हुए बारह वर्ष पर्यन्त आपको
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प्रव्रज्या-कल्याणक १६९ ...................................................... दुःखजनक, सामान्य जनों को जीवन त्याग के प्रवर कारण, बलवन्तों को भी प्रकम्पित करने वाले ऐसे उग्र उपसर्ग होंगे। तो प्रभु ! आपकी सेवा में वैयावृत्य करने की अनुज्ञा अर्पित करने की मुझ पर कृपा कीजिये।
उस समय भगवान ने उत्तर में कहा-हे सुरेन्द्र! किंतु न भूयं एवं नो भवइ न भावि कइयावि। जं तित्थयरा तुम्हारिसस निस्साए पुवकयकम्भं खवइंसु खविस्संति य खवेंति वा निच्छियं सक्क। ......" ..................ते नियवीरियकम्भक्खएण अन्नोऽत्थि नोवाओ।
हे शक्र ! भूत भविष्य वर्तमान में ऐसा कभी नहीं होता है कि किसी की निश्रा में रहकर स्वयं के पूर्वकृत कर्म का क्षय हो। यदि पर के सामर्थ्य से कर्मक्षय संभव होता तो लोच, ब्रह्मचर्य, विविध तप-विधान आदि सर्व विफल हो जाते। अत्यन्त संक्लिष्ट चित्त से जिसका रसविपाक निकाचित किया है ऐसे कर्म स्वयं को भोगने ही पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त उनकी निर्जरा नहीं हो सकती है। कर्म से विवश बना हुआ यह जीव स्वयं ही शुभ या अशुभ कर्म भोगता है। अतः स्वयं के बल से ही कर्मों का क्षय करने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय ही नहीं है। ऐसे विविध महाउपसर्गों को पूर्व से ही जान कर मैंने यह संयम स्वीकार किया है। तो मुझे इन उपसर्गों से कौन सा भय है। ___इसी भाव से भावित होकर श्रमण भगवान महावीर ने शूलपाणि यक्ष के मन्दिर में कोपायमान यक्ष के अत्यन्त रौद्र और दुःसह ऐसी सात प्रकार की अपार वेदनाएं समस्त रात्रि पर्यन्त सहन की। एक ही रात्रि में शिरोवेदना, श्रवण वेदना, नेत्रवेदना, .दंतवेदना, नखवेदना, नासावेदना और पृष्ठवेदना ये सातों वेदनाएँ जिनका नाम सुनकर ही सामान्य व्यक्ति का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाये, जिनका स्वरूप भी पीड़ादायी हो, प्रभु ने परम समता के साथ सहन की। दृढभूमि देश में पेढाल गाँव के बाहर ध्यानाश्रित प्रभु को संगम ने छः महिने पर्यन्त असह्य उपसर्ग किये परंतु प्रभु पूर्ववत् निश्चल रहे,
अल्पसहाय की इच्छा' भी यदि अरिहंत को हो तो इन्द्र इनकी सेवा में आतुर रहता है। . परंतु परमात्मा स्वात्म चिंतन में निमग्न रहते हैं। - प्रत्येक अरिहंत के शासन-रक्षक यक्ष-यक्षिणी होते हैं, जो समय-समय पर शासन की संकट से रक्षा और उनके भक्तों की इच्छा पूर्ण करते रहते हैं। अरिहंत परमात्मा अपने कष्ट-निवारणार्थ उन्हें भी याद नहीं करते ।। अनुत्तर योगविधि ___ आभ्यंतर एवं बाह्य सांसारिक सर्व बन्धनों से मुक्त अरिहंत परमात्मा कर्म-बन्धन की मुक्ति हेतु यत्नशील होकर साधना करते हैं। साधना के मुख्य दो अंग हैं-ध्यान एवं तपश्चर्या। अरिहंत के ध्यान का कोई निश्चित स्थान नहीं होता है। क्योंकि वे ग्रामानुग्राम विचरते हुए बाहर उद्यान में निवास करते हैं। अतः कभी अरण्य में तो
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१७0 स्वरूप-दर्शन
कभी उद्यान में यत्र तत्र जहाँ अवसर हो वहाँ वे विभिन्न आसनों ने निश्चलतापूर्वक ध्यान करते हैं। कभी वे पत्थर के स्तंभ की तरह निश्चल होकर क्षुद्र उपद्रव या भय को नहीं गिनते हुए प्रतिमा धारण कर रात्रि निर्गमन करते हैं, कभी वे चित्त को अत्यन्त निश्चल रखकर इन्द्रियों का रुन्धन कर परम आत्म तत्व की ध्यान रूप अग्नि में कमल पत्रवत् कोमल देह को तपाते हुए दिन-रात निर्गमन करते हैं। ___ कुछ साधक ध्यान के विषय में आसनों का आग्रह रखते हैं परंतु अरिहंत के ध्यान के लिये किसी विशेष प्रकार के आसन का आग्रह नहीं रहता। वे पद्मासन, पर्यंकासन, वीरासन, गोदोहिका, उत्कटिका आदि किसी भी आसन में द्रव्य-शरीर से. तथा भाव से निश्चल होकर प्रशस्त ध्यान करते हैं।
श्रमण भगवान महावीर ने साधना के ग्यारहवें वर्ष में जो ध्यान साधना की वह अवश्य मननीय है। उन्होंने एक रात्रि की प्रतिमा की साधना की। आरम्भ में तीन दिन का उपवास किया। तीसरी रात को शरीर का व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) कर खड़े हो गए। दोनों पैर ऊपर से सटे हुए थे और नीचे के पैर एड़ी से दो अंगुल और आगे से चार अंगुल अंतर से स्थिर थे। दोनों हाथ पैरों से सटकर नीचे की ओर झुके हुए थे। दृष्टि का उन्मेष-निमेष बन्द था। उसे किसी एक पुद्गल (बिन्दु) पर स्थिर कर और सब इन्द्रियों को अपने-अपने गोलकों में स्थापित कर ध्यान में लीन हो गए थे।
ग्यारहवें वर्ष में ही सानुलठ्ठिय गाँव में विहार कर रहे थे। वहाँ श्रमण भगवान महावीर ने भद्रप्रतिमा की साधना प्रारम्भ की। वे पूर्व दिशा की ओर मुँह कर कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़े हो गए। चार प्रहर तक ध्यान की अवस्था मे खड़े रहे। इसी प्रकार उन्होंने उत्तर, पश्चिम और दक्षिण दिशा की ओर अभिमुख होकर चार-चार प्रहर तक ध्यान किया। इस प्रतिमा में आनन्द की अनुभूति करते हुए इसी श्रृंखला में ही वे महाभद्रप्रतिमा के लिए प्रस्तुत हो गए। उसमें भगवान् ने चारों दिशाओं में एक-एक दिन-रात का ध्यान किया। वे ध्यान के इसी क्रम में सर्वतोभद्र प्रतिमा की साधना में लग गये। उसमें भगवान् चारों दिशाओं, चारों विदिशाओं, ऊर्ध्व और अधः इन दशों दिशाओं में एक-एक दिन रात तक ध्यान करते रहे। इस प्रकार भगवान् ने कुल मिलाकर सोलह दिन-रात तक निरंतर ध्यान-प्रतिमा की साधना की। अरिहंत परमात्मा के ध्यान में ध्येय
किसी भी साधक के लिए ध्येय अत्यावश्यक है। श्रमण भगवान महावीर प्रहर-प्रहर दिन पर्यन्त ध्यान करते थे। उनका मुख्य ध्येय उनकी आत्मा ही है; क्योंकि वे स्वयं अपनी आत्मा के वैराग्य मार्ग में प्रविष्ट होकर स्वयं का ही ध्यान करते हैं। इसके अतिरिक्त अप्रतिज्ञा-आकांक्षा से रहित होकर वे जिन अन्य ध्येयों में ध्यानस्थ होते हैं ये ये हैं
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प्रव्रज्या-कल्याणक १७१
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(१) ऊर्ध्वलोक के द्रव्यों का साक्षात्. करने के लिए ऊर्ध्व-दिशापाती ध्यान। (२) अधोलोक के द्रव्यों का साक्षात् करने के लिए अधो-दिशापाती ध्यान। (३) तिर्यक् लोक के द्रव्यों को साक्षात् करने के लिए तिर्यक्-दिशापाती ध्यान। (४) ऊर्ध्वगामी, अधोगामी और तिर्यग्गामी कर्म। (५) संसार, संसार-हेतु और संसार-परिणाम-कर्म विपाक। (६) मोक्ष, मोक्ष-हेतु और मोक्ष-सुख। (७) आत्म-समाधि, परसमाधि और ज्ञानादि समाधि। आचारांग चूर्णि में कहा है कि
अरिहंत कभी बाह्य पुद्गल-बिन्दुओं पर दृष्टि को स्थिर रखकर अनिमेष नयन से भी ध्यान करते हैं। अरिहंत भगवान् आन्तरिक भावों द्वारा ध्यान में द्रव्य-गुण-पर्याय के नित्य-अनित्य आदि का चिन्तन तथा स्थूल-सूक्ष्मादि पदार्थों का ध्यान एवं आत्मनिरीक्षण करते हैं।
निरंतर ध्यान करते हुए वे निद्रा का सेवन नहीं करते हैं, यदि कभी उन्हें निद्रा आती भी है; तो वे सावधान होकर आत्मा को जगाने का यल करते। निद्रारूप प्रमाद को संसार-भ्रमण का कारण जानकर भगवान सदा अप्रमत्त भाव से संयम साधना में सावधान रहते हुए भी यदि कभी झपकी भी आने लगती तो वे शीतकाल में भी रात को बाहर निकलकर मुहूर्त मात्र चंचमण करके पुनः ध्यान एवं आत्मचिन्तन में संलग्न हो जाते हैं। . .
भगवान् के ध्यान का स्वरूप दर्शाते हुए कहा गया है कि
नासिका के अग्रभाग पर नेत्रों को स्थिर रखकर ध्यान करते हैं। वैसे तो सर्व अरिहंत आर्त एवं रौद्र ध्यान का त्याग कर प्रथम धर्मध्यान में स्थित रहते हैं तथा बाद में कर्मरूप ईंधन के जलाने में दावानलवत् शुक्लध्यान का प्रारम्भ करते हैं। तीर्थंकरों की तपश्चर्या
दीक्षा के पश्चात् तत्काल ही मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होने से अरिहंत चार ज्ञान से युक्त होते हैं, देवों से भी पूजित होते हैं, निश्चयपूर्वक मोक्षगामी होते हैं, फिर भी वे स्वयं के बल-वीर्य का गोपन न करते हुए तपविधान में उद्यत रहते हैं; क्योंकि सर्व कर्मक्षय हेतु अरिहंत चारित्र ग्रहण करते हैं और भाव उपधान बाह्य आभ्यंतर तप द्वारा आठों कर्म क्षीण करते हैं। इसीलिए आचारांग नियुक्तिकार तप अनुष्ठान द्वारा कर्मग्रन्थि भेदन का उपादान जानकर बारह प्रकारों की क्रियाओं की प्रधानता दर्शाते हैं
और वृत्तिकार इसे अधिक स्पष्ट कर इस प्रकार दर्शाते हैं. तप के सामर्थ्य से ही कर्मों का अवधूनन, धूनन, नाशन, विनाशन, ध्यापन, क्षपण, शुद्धिकरण, छेदन, भेदन, फेडण, दहन, धावन होता है।
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१७२ स्वरूप-दर्शन अवधूनन :- अपूर्वकरण द्वारा कर्मग्रन्थि भेद का उपादान जानना। धूनन :-भिन्न ग्रन्थिवालों का अनिवृत्तिकरण द्वारा सम्यक्त्व में रहना। नाशन :- कर्मप्रकृति का स्तिबुक संक्रमण द्वारा एक प्रकृति का द्वितीय प्रकृति में
संक्रमण होना। विनाशन :- शैलेशी अवस्था में सम्पूर्ण कर्मों का अभाव। ध्यापन :- उपशम श्रेणि में कर्म का उदय में नहीं आना। क्षपण :- अप्रत्याख्यानादि क्रम द्वारा क्षपक श्रेणि में मोहादि का अभाव होना। छेदन :- उत्तरोत्तर शुभ अध्यवसाय में आरूढ़ होने से स्थिति को कम करना। भेदन :- बादर संपराय अवस्था में संज्वलन लोभ का खंड-खंड करना। स्फेटन :- चतुःस्थानादिक रसवाली अशुभ प्रकृति का त्रिरसादि बनाना। दहन :- केवलीसमुद्घात रूप ध्यानाग्नि द्वारा वेदनीय कर्म को भस्मसात् करना :
तथा अन्य कमों को दग्ध रज्जुवत् बनाना। धावन :- शुभ अध्यवसाय से मिथ्या पुद्गलों को सम्यक्त्वभावी बनाना आदि होता
___ है। अतः तप अत्यन्त आवश्यक है। . तप सर्व तीर्थंकर करते नहीं, उनसे तप हो जाता है। आत्मभाव की लीनता में देहभावों को भूल जाना तप है। अतः मैं बेला करूँ, तेला करूँ ऐसे निश्चय से तप करते नहीं, तप उनका हो जाता है। इसी कारण सभी के तप का प्रमाण समान नहीं होता, कर्मों के अनुसार तप होता है। ___वर्तमान चौबीसी के सर्व तीर्थंकरों का तप उपसर्ग रहित बताया है। (पार्श्वनाथ स्वामी का थोड़ा होने से नहीं जैसा गिना है) भगवान ऋषभदेव भी एक वर्ष से अधिक कुछ दिन आहार पानी रहित रहे थे। अन्य तीर्थंकर भी आंशिक तप करते हैं। परंतु वर्धमान स्वामी का तप उपसर्गयुक्त था।
श्रमण भगवान् महावीर दीर्घ तपस्वी कहलाते हैं। उनका साधनाकाल साढ़े बारह वर्ष और एक पक्ष का है। इतने काल में उन्होंने सिर्फ तीन सौ पचास दिन भोजन किया। निरंतर भोजन कभी नहीं किया। उपवास काल में जल कभी नहीं पिया। उनकी कोई भी तपस्या दो उपवास से कम नहीं थी। अरिहंत की आहार चर्या
अरिहंत-परमात्मा शरीर के लिए जितना अनिवार्य एवं आवश्यक हो उतना ही आहार करते हैं। वे हमेशा ऊनोदरिका ही करते हैं।
भगवान् की समत्व-साधना इतनी सुदृढ़ रहती है कि उन्हें जैसा भी भोजन मिलता है वे उसे समभाव से खा लेते हैं। कभी ठंडा भोजन मिलता है तो कभी गर्म। कभी
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प्रव्रज्या-कल्याणक १७३ ......................................................... पुराने कुल्माष (कुल्थी-कल्थी) बुक्कस और पुलाक जैसा नीरस भोजन मिलता है तो कभी परमान्न जैसा सरस भोजन। परंतु इन दोनों प्रकारों में उनकी मानसिक समता विखंडित नहीं होती है।
श्रमण भगवान् महावीर के लिए आचारांग सूत्र के अन्तर्गत भगवान् के रुक्ष आहार एवं निर्जल तप को महत्व देते हुए कहा है कि
श्रमण भगवान महावीर ग्रीष्म ऋतु में उत्कट आसन से सूर्य के सन्मुख होकर आतापना लेते थे और रुक्ष आहार, बेर का चूर्ण एवं उड़द के बाकुले का आहार करते थे। उनका यह प्रयोग वर्षों तक चला। दधि आदि से मिश्रित आहार, शुष्क आहार, बासी आहार, पुराने कुल्माष और पुराने धान्य का बना हुआ आहार, जौ का बना हुआ आहार तथा सुन्दर आहार के मिलने या न मिलने पर संयमयुक्त भगवान किसी प्रकार का रागद्वेष नहीं करते हैं। अरिहंत की विहार चर्या
तीर्थंकरों की.कोई भी . क्रिया छहकायजीवों की सुरक्षा सहित होती है। अतः विहारचर्या भी समिति एवं गुप्ति से युक्त होती है। वे पुरुष प्रमाण आदि से संकड़े और अग्र विस्तीर्ण मार्ग को आँख से देखते हुए अर्थात् युग परिमित भूमि का अवलोकन करते हुए ईर्यासमिति में ध्यान देकर चलते हैं।
श्रमण भगवान् महावीर की विहारचर्या का एक महत्वपूर्ण अवलोकन हम आचारांग सूत्र के अन्तर्गत कर सकते हैं। जब श्रमण भगवान विहार करते थे तब अप्रतिबद्ध विहारी वे भगवान् युग प्रमाण मार्ग का अवलोकन करते हुए यल पूर्वक चलते थे। वे न इधर-उधर देखते थे और न पीछे की ओर देखते थे। किसी के पूछने पर उत्तर नहीं देते और मौन रहते थे। __विहार करते हुए भगवान् स्थान के लिये किसी प्रकार की प्रतिज्ञा नहीं रखते हैं। विहार करते-करते जहाँ चरम पौरुषी का समय आता वहीं रात्रि व्यतीत करते हैं। वे गाँव में एक रात्रि और शहर में पांच रात्रि रहते हैं। कभी भींतवाले खाली घरों में, सभाओं में (विश्रांति गृहों में), पानी की प्याऊ में, दुकानों में, कभी लुहार की शाला में, घास के बने हुए मंचों के नीचे निवास करते हैं। कभी ग्राम के बाहर बने हुए मकानों में तो कभी नगर में निवास करते हैं। कभी खंडहरों में, श्मशान में और कभी वृक्ष के नीचे ही ठहर जाते हैं।
इस प्रकार भगवान् साधना की सुरक्षा करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते हैं और योग्य स्थानों में स्वयं को समायोजित कर संयम में अनुष्ठित रहते हैं। उनकी ध्यान साधना के लिए कोई निर्धारित समय नहीं रहता है। कभी दिन में तो कभी रात में भी करते हैं। वे कभी निर्जनस्थान में कायोत्सर्ग करके खड़े होते। उस समय चोर, जार या अन्य
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१७४ स्वरूप-दर्शन
लोग आकर उन्हें पूछते कि तू कौन है ? क्यों खड़ा है ? ध्यानमग्न भगवान् की ओर से उत्तर न मिलने पर वे लोग क्रोध से भर जाते और मारने लगते परन्तु वे योगीश्वर प्रतिशोध का विचार तक न करते हुए समाधि में लीन रहते। जब भगवान् चिन्तन-मनन में लीन होते। उस समय कोई पूछता कि यहाँ कौन खड़ा है ? तो भगवान् (ध्यान में न होते तो) उत्तर देते कि "अहमसि ति भिक्खु"-मैं भिक्षु हूँ। ऐसा कहने पर यदि वह क्रोध से भरा हुआ उस स्थान को छोड़ने के लिए कहता तो भगवान् वहां से चल देते थे। अथवा (जाने का अवसर न होने पर) उस गृहस्थ के कुपित होने पर भी भगवान् मौन रहकर, यहां प्रधान आचार है, ऐसा मानकर सब कुछ सहन करने के लिए तैयार होकर ध्यान-लीन हो जाते थे।
शिशिर ऋतु में भी संयमेश्वर भगवान् इच्छा रहित होकर किसी वृक्षादि के नीचे रहकर शीत सहन करते थे। किसी समय अत्यधिक शीत हो तो मात्र रात्रि में बाहर रहकर समभाव से अन्दर आकर ध्यानस्थ होकर शीतस्पर्श सहन करते थे।
वे दीर्घ तपस्वी भगवान महावीर दुर्गम्य लाट देश के वज्रभूमि और शुभ्रभूमि नाम के दोनों विभाग में विचरे थे। परीषह विजेता परमात्मा
क्रम पूर्वक संयम मार्ग में यथोक्त प्रवृत्ति करते हुए अरिहंत परमात्मा तदनुरूप गुणस्थानों पर आरोहण करते हैं। साधना की इस सम्यक् प्रवृत्ति में आने वाले परीषहों को यथोचित सहते रहते हैं। परीषह कुल बाईस हैं :(१) क्षुधा (८) स्त्री
(१५) अलाभ (२) तृषा (९) चर्या
(१६) तृणस्पर्श , (३) शीत (१०) निषधा
(१७) रोग (४) उष्ण (११) शय्या . (१८) मल (५) दंशमशक (१२) आक्रोश
(१९) सत्कार पुरस्कार (६) नाग्न्य (१३) वध
(२०) प्रज्ञा (७) अरति (१४) याचना
(२१) अज्ञान
(२२) अदर्शन। इन परीषहों में प्रमत्तसंयत आदिं बादर सम्पराय तक के गुणस्थान के साधक को ज्ञानावरणादि समस्त निमित्तों के विद्यमान रहने से विद्यमान सभी परीषह होते हैं। .
सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान वाले, छद्मस्थ वीतरागी के उपशांतमोहनीय नामक ग्यारहवें गुणस्थान वाले और क्षीणमोहनीय नामक बारहवें गुणस्थान वालों को १४ परिषह होते हैं। वे ये हैं
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प्रव्रज्या-कल्याणक १७५
(१) क्षुधा
(८) वध (२) तृषा
(९) अलाभ (३) शीत
(१०) रोग (४) उष्ण
(११) तृणस्पर्श (५) दंशमशक
(१२) मल (६) चर्या
(१३) प्रज्ञा और (७) शय्या
(१४) अज्ञान इनको मोहजन्य (१) नग्नता, (२) अरति, (३) स्त्री, (४) आसन (निषद्या), (५) दुर्वचन, (६) याचना, (७) सत्कार-पुरस्कार और (८) अदर्शन ये आठ परिषह नहीं होते हैं।
बारह गुणस्थानों को पार कर तेरहवें गुणस्थान में आने पर अरिहंत परमात्मा को ग्यारह परीषह होते हैं। उपरोक्त कथित चौदह परीषहों में से अलाभ, प्रज्ञा और अज्ञान इन तीन को छोड़कर वेदनीय आश्रित ग्यारह होते हैं। क्योंकि यहाँ जिनेन्द्र भगवान् ने ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय इन घातिकर्मों का नाश कर दिया होता है। - प्रस्तुत विवेचन के सम्बन्ध में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में कुछ मतभेद है। यह मतभेद सर्वज्ञों के कवलाहार करने न करने के सम्बन्ध में है। दिगम्बर सम्प्रदाय वाले केवली को कवलाहार नहीं मानते हैं और श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले मानते हैं। इसीलिये दिगम्बरीय व्याख्याग्रन्थ “एकादश जिने" इस रूप को मानकर भी इसकी व्याख्या दो तरह से की गई है, तथा वे दोनों संप्रदायों के तीव्र मतभेद के बाद की ही है ऐसा स्पष्ट मालूम पड़ता है। पहली व्याख्या के अनुसार ऐसा अर्थ किया जाता है कि जिन सर्वज्ञ में क्षुधा आदि ग्यारह परीषह (वेदनीय कर्मजन्य) हैं, लेकिन मोह न होने से वे क्षुधा आदि वेदना रूप न होने के कारण सिर्फ उपचार से द्रव्य परीषह हैं। दूसरी व्याख्या के अनुसार "न" शब्द का अध्याहार करके ऐसा अर्थ किया जाता है कि जिनमें वेदनीय कर्म होने पर भी तदाश्रित क्षुधा आदि ग्यारह परीषह मोह के अभाव के कारण बाधा रूप न होने से हैं ही नहीं। उपसर्ग-विजेता अरिहंत ___ जिनके द्वारा जीव को श्रुत चारित्र रूप धर्म से विचलित किया जाता है, उन्हें उपसर्ग कहते हैं। वे उपसर्ग चार प्रकार के हैं(१) दिव्य-देवकृत
जैसे संगम का भगवान महावीर के प्रति किया
गया उपसर्ग। (२) मानुषी-मनुष्यकृत जैसे गौशाला का भगवान महावीर के प्रति
किया गया उपसर्ग।
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१७६ स्वरूप-दर्शन (३) तिर्यग्-यौनिककृत जैसे चंडकौशिक का भगवान महावीर के प्रति
किया गया उपसर्ग। (४) आत्म संवेदनीय (स्वकृत) अपने आप होने वाले :-जैसे बैठे-बैठे पैर आदि
का शून्य हो जाना। दिव्य उपसर्ग के चार प्रकार हैं-(१) हास्य से, (२) प्रद्वेष से, (३) विमर्श परीक्षा से तथा (४) पृथग्विमात्रा से (विविध प्रकार के हास्यादि से)।
मनुष्य सम्बन्धी उपसर्गों के भी चार प्रकार हैं(१) हास्य से, (२) प्रद्वेष से, (३) विमर्श से तथा (४) कुशील प्रतिसेवन से। .
तिर्यंच सम्बन्धी चार उपसर्ग हैं-(१) भय से, (२) प्रद्वेष से, (३) आहार हेतु तथा (४) अप्रत्यलयन संरक्षण (बालक और स्थान की रक्षा के लिए)।
आत्म संवेदनीय उपसर्ग के भी चार प्रकार हैं(१) संघट्टण - जैसे आँख में रजकण संघट्टित किये जाने पर, (२) प्रपतनक - गिरने से, (३) स्तम्भन - अवयवों के रह जाने से तथा, . (४) श्लेषणक - वातादि पैरादि के संकोच जाने से।
विभिन्न प्रांतों में एवं प्रदेशों में विचरते हुए अरिहंतों को देव, मनुष्य और तिर्यच सम्बन्धी जो भी उपसर्ग प्राप्त होते हैं वे उन सब उपसर्गों को खेद रहित बिना दीनता के समभाव पूर्वक सहन करते हैं। मन, वचन तथा काया से गुप्त होकर उन उपसर्गों को भली भाँति सहन करते हैं और उपसर्ग-दाताओं को क्षमा करते हैं तथा सहिष्णुता और स्थिर भावों से उन पर विजय प्राप्त करते हैं। इस प्रकार अरिहंत परमात्मा
आदरदाता या अनादर कर्ता, स्तुतिकर्ता यां निंदा कर्ता, भक्ति युक्त या भक्ति विहीन सभी प्राणियों के प्रति समान भाव वाले होते हैं, किसी के प्रति भी इन्हें पक्षपात नहीं होता है। शत्रु या मित्र में ये समान भाव वाले होते हैं। आहार-विहार एवं व्यवहार में सर्वत्र समभाव पूर्वक उग्र तप में अपना साधनाकाल व्यतीत करते हैं।
खेत, पर्वत, गिरि, गह्वर, गुफादि में पहुंचकर देहावस्था संकुचित. करके उसे संयमित कर मन को ध्यान की पराकाष्ठा तक ले जाकर विविध आसनों में अरिहंत केवलज्ञान प्राप्त करते हैं।
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अध्याय ८
केवलज्ञान-कल्याणक
केवलज्ञान
१. केवलज्ञान की उत्पत्ति एवं स्वरूप २. अरिहंत और सामान्य केवली में अन्तर ३. कैवल्य महिमा ४. समवसरण ५. अष्टादशदोषरहितता ६. बारह मुण ७. प्रातिहार्य ६. अतिशय ९. चार मूलातिचार १०. चौंतीस (३४) अतिशय-विभाजन ..
११. वचनातिशय देशना-विवरण... १. देशना की आवश्यकता एवं परिणाम त्रिपदी
१. दार्शनिक परम्परा में त्रिपदी का गौरव एवं महत्व २. विश्व व्यवस्था ३. संघ व्यवस्था
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केवलज्ञान-कल्याणक
परमात्मा के पुरुषार्थ की बेला जब परिणाम में प्रकट हो जाती है तब सर्वत्र प्रकाश-प्रकाश-प्रकाश की भव्य ज्योति झलक उठती है। केवलज्ञान के अनन्त प्रकाश में सारा संसार प्रकाशित हो उठता है। इस परम विजयश्री का सम्मान करने हेतु प्रकृति भी मानो उतावली हो उठी हो वैसे सर्वत्र सारे लोक में उद्योत की आभा खिल उठती है। चौदह रज्जू लोक में आनंद और प्रसन्नतामयी एक पुण्य प्रभा प्रसर जाती है। केवल का अर्थ एक है, पूर्ण है। अतः जो पूर्ण अनन्त ज्ञान है, वह केवलज्ञान है।
शुक्लध्यान की अंतरिका में वर्तते हुए; ध्यान की श्रेणियों पर आरोहण करते करते अनावरण को उपलब्ध करना ही अरिहंत का केवलज्ञान है। पुण्य जाग उठते हैं, पुण्यात्माओं को मानो अनुग्रह स्वयं परमात्मा का साकार रूप लेकर आज धरती पर उतर पड़ा है। महान शक्ति का संचार जिनके प्रत्येक चेतना प्रवाह में बह रहा है, वे ही तो हैं वीतराग-तीर्थंकर-अरिहंत केवली। उनके प्रत्येक आत्म प्रदेश से जगत् के समस्त भव्यात्मा के निस्तार का वीर्य है। उनके सर्व प्रदेशों में शक्ति के द्वार खुल गये हैं।
सर्व पर्यायों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो गई, उनकी अनावृत चेतना में दूरस्थ पदार्थ अपने आप प्रतिबिंबित होने लगते हैं। न कोई जिज्ञासा, न कुछ जानने का प्रयास। सब कुछ सहज और संब कुछ स्वाभाविक। तीर्थंकर नाम कर्म का क्षय देशना के अतिरिक्त नहीं हो सकता है। सराग भाव की करुणा जब निवृत्त होती है तब सहज भाव की करुणा प्रकट होती है और सहज भाव की करुणा का दूसरा नाम है केवलज्ञान। यह सहज करुणा सहज परार्थ साध कर पुण्यात्माओं के पुण्य का परिणाम . रूप और भव्यात्माओं के भव्यत्व के परिपाक रूप वरदान बनकर दिव्य देशना में परिणत होती है। उनकी दिव्य देशना का पुण्य स्पर्श बुझे हुए अनेकों भव्य जीवों में परम प्रेरणा की ज्योति जगा देता है। अगणित आत्माओं के गहरे मिथ्यात्व अंधकार को सम्यग्दर्शन के महाउद्योत में परिवर्तित कर देता है। इस देशना की दिव्य ज्योति की विराट प्रभा में परमार्हत का दिव्य चैतन्य झलकता है। रागी महारागी बनते हैं और महारागी परमविरागी बनते हैं। अरिहंत परमात्मा की अनुग्रह कला ऐसी अद्भुत है।
इस कल्याणक के वर्णन में मुख्य दो वस्तुओं का विचार किया जाएगा-(१) केवलज्ञान की उत्पत्ति-स्वरूप एवं परमात्मा का तीर्थंकर नाम कर्म का विपाकोदयकाल, (२) परमात्मा का सातिशय स्वरूप एवं समवसरण वर्णन तथा देशना स्वरूप। केवलज्ञान की उत्पत्ति एवं स्वरूप
कायोत्सर्ग ध्यान में अनुरक्त अरिहंत परमात्मा अप्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान से
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१८० स्वरूप-दर्शन अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में पहुंचते हैं। पूर्वगत श्रुत के अर्थ में से शब्द पर
और पुनः शब्द पर से अर्थ में विचरण करते हुए परमात्मा "पृथक्व वितर्क सविचार" नामक शुक्लध्यान के प्रथम चरण का ध्यान करते हैं। इस ध्यान में वे एक द्रव्य में उत्पाद, व्यय और ध्रुव इन पर्यायों के विस्तार द्वारा भिन्न-भिन्न भेदों से तथा विविध प्रकार के नय के अनुसार विचार करते हुए जीव और अजीव को अलग कर गुण पर्याय का विचार करते हैं।
जिस प्रकार सिंह पर्वत के एक शिखर से दूसरे शिखर पर आरोहण करता है वैसे ही प्रभु अपूर्वकरण से “अनिवृत्तिबादर" नामक गुणस्थान को प्राप्त करते हैं। तदनन्तर एक चरण से दूसरे चरण पर चढ़ते हुए दशवें सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान पर पहुंचते हैं। जिस प्रकार पथिक एक ग्राम से दूसरे ग्राम पहुंचता है, वैसे स्वामी मोह का साय करते हुए क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान पर पहुंचते हैं, उस बारहवें गुणस्थान के प्रान्त भाग में "एकत्व वितर्क अविचार" नामक शुक्लध्यान के द्वितीय चरण को ध्याते हैं। एक द्रव्य के अवलम्बन से रहे हुए अनेक पर्यायों में से एक ही पर्याय का आगमानुसार विचार करना और मन आदि योगों में भी एक से दूसरा विचार जिसमें नहीं हो उसे “एकत्व वितर्क अविचार" कहा जाता है। यह ध्यान योग की चपलता से रहित एक पर्याय में चिरकाल तक टिकता है। अतः बिना पवन के मकान के दीपक की तरह स्थिर (निश्चल) रहता है।
ध्यानांतरिका में प्रवेश करने से पूर्व इस ध्यान में परमात्मा अपने मन. को एक परमाणु पर इस तरह स्थिर करते हैं जिस तरह विषहर मंत्र से सारे शरीर में फैला हुआ विष सर्पदंश के स्थान में आ जाता है। ईंधन के समूह को हटाने से थोड़े इंधन में रही हुई आग जैसे अपने आप ही बुझ जाती है, वैसे ही उनका मन भी सर्वथा निवृत्त हो जाता है। ___ध्यानांतरिका की प्राप्ति सयोगी केवली नामक तेरहवें गुणस्थानक में केवलज्ञान के समय होती हैं। इस ध्यान में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय तथा मोहनीय ऐसे चार घाति कर्मों का नाश होता है।
इसी से जगत में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो जिनेश्वर भगवन्त जानते न हों और देखते न हों। इसी कारण वे तीनों जगत् के पूज्य हैं। निष्कंप, दुर्जेय, महामोहनीय आदि कर्म-समूह को भेदन में समर्थ, हृदय में उल्लसित महाशुक्लध्यान के प्रसार वाले, अन्तर्मुहूर्त में प्राप्त किये हुए छद्मस्थ वीतरागभाव वाले, जिन्होंने घनघाति कर्मों के विनाश से आत्मा की स्वभावदशा सम्पादित की है, लोकालोक के पदार्थों को प्रकाशित करने हेतु दीपक समान, संसार का उच्छेद करने वाले, अनुपम प्रभा वाले ऐसे प्रभु को तीनों लोक के सकल भाव, अनुभाव और सद्भाव प्रकाशित करने वाला, अनंत
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केवलज्ञान-कल्याणक १८१ अक्षत-अनुत्तर-नियाघात निरावरण-कृत्स्न-प्रतिपूर्ण साकार और अनाकार स्वरूप-अप्रतिहत-अक्षय-लिंगरहित-वरविशेषणयुक्त-अविनाशी-लोकालोक को प्रकाशित करने वाला, मूर्त-अमूर्त-पदार्थों को समझने में समर्थ, जीव को स्वाभाविक लब्धियुक्त कैवल्यवर ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न होता है। - केवलज्ञान हो जाने से वे भगवान्, अरिहंत, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी,
अरहस्यभागी, नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देवलोक की सर्व पर्यायों को जानते व देखते हैं। बह पर्यव, आगति-गति-स्थिति-च्यवन-उपपात, भोगे हुए, किये हुए, सेवे हुए, प्रकट कर्म, रहस्य कर्म और मन-वचन-काया के योगादि रूप जीव के सर्व भाव जानते हैं, अजीव की भी सर्व पर्यायें जानते हैं। मोक्ष मार्ग के विशुद्धतर मार्ग को जानते व देखते हुए, यह मोक्षमार्ग मुझे व अन्य जीवों को हित-सुख-निस्तार एवं सर्व दुख से मुक्त करने वाला है और परम-सुख देने वाला होगा-ऐसा जानते हैं।
स्थानांग ‘सूत्र. के अन्तर्गत केवलियों के दश अनुत्तर-उत्कृष्ट दर्शाये हैं-१. अनुत्तर ज्ञान, २, अनुत्तर दर्शन-क्षायिक सम्यक्त्व, ३. अनुत्तर चारित्र-क्षायिक चारित्र, ४.
अनुत्तर तप-शुक्लध्यानरूप, ५. अनुत्तर वीर्य, ६. अनुत्तर क्षमा, ७. अनुत्तर निर्लोभता, ८. अनुत्तर सरलता, ९. अनुत्तर मार्दव और १०. अनुत्तर लाघव। ____टीकाकार अभयदेव सूरि ने अनुत्तर शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है-ये ज्ञान दर्शन आदि परमात्मा के आन्तरिक गुण अन्य सर्व छद्मस्थ जीवों के गुणों से अनुत्तर-श्रेष्ठ होते हैं।
केवलज्ञान सदा किसी भी पात्र-पदार्थ या व्यक्ति रूप किसी सहायता से रहित, निरपेक्ष, पर्यायरहित और अखंड होता है।
केवली भगवान् सर्व पदार्थ को सर्वांग से प्रतिबिम्बसार, टंकोत्कीर्णवत् और अक्रम से जानते हैं। सब कुछ जानते हुए भी वे कभी व्याकुल नहीं होते हैं। निश्चय से स्व को और व्यवहार से पर को जानते हैं अतः केवलज्ञान स्वपरप्रकाशकत्व का समन्वय है। अरिहंत और सामान्य केवली
केवली और अरिहंत में समानता होते हुए भी अंतर है। यह अन्तर मात्र परमाणु जितना है, वह भी केवलज्ञान में नहीं परंतु पुण्य प्रकृति में ही है। घातीकर्मों का क्षय कर केवलज्ञान का उपार्जन करने वाले केवली हैं। अरिहंत की तरह उनमें केवलज्ञान और केवलदर्शन होता है फिर भी वे अरिहंत नहीं कहलाते। __ ऋषभदेव से वर्धमान महावीर तक चौबीसों अरिहंत केवली होने के साथ-साथ अरिहंत भी हैं। केवली और अरिहंत में वीतरागता एवं ज्ञान की समानता होते हुए भी अन्तर इतना ही है कि अरिहंत के साथ आठ प्रातिहार्य होते हैं। जन्म, दीक्षा या ज्ञान के बाद चौंतीस अतिशय होते हैं। प्रवचन सभा रूप समवसरणादि होते हैं। .
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१८२ स्वरूप-दर्शन कैवल्य महिमा
अरिहंत प्रभु को केवलज्ञान होते ही इन्द्रों के आसन चलायमान होते हैं। इस समय सौधर्मेन्द्र सिंहासन कांपने का कारण जानने के लिए अवधिज्ञान का उपयोग करते हैं। दीपक के प्रकाश में जैसे चीजें दिखती हैं वैसे ही सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से जान लेते हैं कि भगवान को केवलज्ञान हुआ है। वे तुरन्त ही रत्नसिंहासन और रल की पादुकाएं छोड़कर खड़े होते हैं। गीतार्थ गुरु का शिष्य जैसे गुरु की बताई हुई अवग्रह (अनुकूल) भूमि पर कदम रखता है वैसे ही वे अरिहंत की दिशा की ओर सात आठ कदम रखते हैं, और अपने बाएं घुटने को कुछ झुकाकर, दाहिना घुटना, दोनों हाथ और मस्तक से पृथ्वी को छूकर प्रभु को नमस्कार करते हैं। फिर खड़े हो, पीछे फिर, उस सिंहासन को अलंकृत करते हैं। पश्चात तत्काल ही सभी देवताओं को बुलाकर बड़ी ऋद्धि के साथ भक्ति सहित प्रभु के पास आते हैं। अन्य सभी इन्द्र भी आसनकंप से स्वामी को केवलज्ञान हुआ है यह बात जानकर, अहंपूर्विका से, (मैं पहले जाऊँ) प्रभु के पास • महोत्सव हेतु आते हैं।
इन इन्द्रों और देवों के आगमन से और उनके द्वारा. प्रभु का कैवल्य महोत्सव मनाने से उस महिमापर्व पर समस्त लोक में भावोद्योत होता है।
त्रिषष्टि शालाका पुरुष चरित्र में आदिनाथ प्रभु के केवलज्ञान के अवसर का वर्णन करते हुए कहा है
दिशः प्रसेदुरभवन्, वायवः सुखदायिनः। .
नारकाणामपि तदा, क्षणं सुखमजायते ॥ . . उस समय-प्रभु के केवलज्ञान के समय दिशाएँ प्रसन्न हुईं, सुखकारी हवा चलने लगी और नरक के जीवों को भी एक क्षण के लिए सुख हुआ। इस प्रकार बाह्य वातावरण में अद्भुत शांति छा जाती है। ___ उपरोक्त दोनों सन्दर्भो में कुछ विभिन्नता पाई जाती है। स्थानांग सूत्र के अनुसार उद्योत का कारण केवलज्ञान ही न होकर उसकी महिमा है। इसी कारण कहा है-तिहिं ठाणेहिं लोगुज्जए सिया, तं जहा. "अरहताणं णाणुप्पाय महिमासु
। अभिप्राय यह है कि केवलज्ञान से समस्त लोक प्रसन्न होता है और इसके महिमापर्व से उद्योतमय होता है। .
समवसरण वैभवानुसार विस्तार वाले, वस्त्राभूषण से सजे हुए, देव-परिवार सहित वे इन्द्र महाराज आकर अरिहंत प्रभु का केवलज्ञान महोत्सव करने हेतु देव-समूह को आज्ञा करते हुए कहते हैं-समवसरण की भूमि तैयार करो।
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केवलज्ञान-कल्याणक १८३
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तीर्थंकरों का केवलज्ञान नव द्वारों से वर्णित होता है। वे नव द्वार इस प्रकार हैं(१) समवसरण विधि द्वार, (२) सामायिक प्ररूपणा द्वार, (३) रूपवर्णन द्वार, (४) पृच्छा (संशय-निवारण) द्वार, (५) व्याकरण द्वार, (६) श्रोत परिणाम द्वार, (७) वृत्तिदान (प्रीतिदान), (८) देवमाल्यद्वार (बलि-विधान) और (९) माल्यानयन द्वार (तीर्थंकर की देशना के पश्चात् गणधर-देशना द्वार)।' समवसरण विधि द्वार
· जहाँ पूर्व कभी भी समवसरण न हुआ तो उस स्थान पर तथा जहाँ महाधिक देव आया हो, उस स्थान पर वायु उदकवर्दल और पुष्पवर्दल विकुर्वणा द्वारा आभियोगिक देव तीन प्रकारों वाला समवसरण बनाते हैं।
वस्तुतः समवसरण धर्मसभा का दूसरा नाम है। भरतेश वैभव में समवसरण के अन्य नाम दर्शाते हुए कहा है-"जिनसभा, जिनवास और जिनपुर ये एक ही अर्थवाचक शब्द हैं। जिनेन्द्र भगवान जिस स्थान में रहते हैं वह इस नाम से पहचाना जाता है।'' यद्यपि समवायांग सूत्र में इस शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकार कहते हैं-समोसरणे ति समवसरणं त्रयाणां त्रिषष्ट्याधिकानां प्रवादिशतानां मतपिण्डन रूपंसमवसरण यानी तीन सौ तिरसठ (३६३) प्रवादियों के मत का समूह। किन्तु इस पर से इतना तो निश्चित है कि धर्मसभा के अतिरिक्त अन्य किसी सभा-स्थानों के लिए इस
शब्द का प्रयोग नहीं किया है। . यहाँ समवसरण शब्द से मतलब एक ऐसा सभाभवन जिसमें बिराज कर अरिहंत परमात्मा मोक्षमार्ग का उपदेश करते हैं। इसका अन्तःप्रदेश बारह भागों में विभक्त किया जाता है, जिससे उसमें बैठे हुए भव्य जीव निकट से अरिहंत प्रभु के दर्शन कर सकें
और उनका उपदेश सुन सकें। यह एक ऐसी धर्मसभा है जिसकी तुलना लोक में अन्य किसी सभा से नहीं की जा सकती। यह स्वयं उपमान है और यही स्वयं उपमेय है। . देव, दानव, मानव, पशु सब बराबरी में बैठकर धर्मश्रवण के अधिकारी बनते हैं, यही इसकी सर्वोपरि विशेषता है। समानता के आधार पर की गई व्यवस्था द्वारा यह स्वयं प्रत्येक प्राणी के मन में वीतराग भाव को जागृत करने में सहायक है, इसलिए इसकी समवसरण संज्ञा सार्थक है। __ समवसरण के स्थान पर “समशरण" शब्द का प्रयोग भी हो सकता है और तब उसकी व्याख्या इस प्रकार हो सकती है कि सभी प्रकार के जीव चारों ओर से आकर अरिहंत-परमात्मा की शरण ग्रहण करते हैं। अभिधान राजेन्द्र में कहा है-“सम्यग् एकी भावेन, अवसरण-एकत्र गमनं मेलापकः समवसरणम्।" यहाँ पर एकत्र होना अर्थ किया गया है। १. आवश्यक नियुक्ति-गा. ५४३
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१८४ स्वरूप-दर्शन ___ इन्द्र की आज्ञा से कार्यों के अधिकारी अभियोगिक देव आकर समवसरण रचना का प्रारम्भ करते हैं। वायुकुमारदेव एक योजन प्रमाण भूमि में से कंकरादि दूर करते हैं। उस पर मेघकुमार देव शरद् ऋतु की वर्षा की तरह सर्व रज को उपशान्त करते हैं। व्यंतरदेव, चैत्य के मध्यभाग की तरह कोमल रत्नों की शिलाओं से उस जमीन का फर्श बनाते हैं। प्रातःकाल के पवन की तरह, ऋतु की अधिष्ठायिका देवियां जानु तक खिले हुए पुष्पों की वर्षा करती हैं। समवसरण के प्रकार ___ इस भूमि के तैयार हो जाने पर उस पर समवसरण तैयार होता है। समवसरण के . दो प्रकार हैं-वृत्त (गोलाकार) और चतुरन (चौरस)। इन दोनों की विभिन्नता एवं नाप बाद में दिया जाएगा। दोनों की रचना-विधि समान होती है। प्राकार-निर्माण में नियोजित निर्माता देव एवं द्रव्य __इन्द्र और अन्य देव समुदाय मणि-कांचन के कंगूरों से विभूषित तीन प्राकार बनाते . हैं। आभ्यंतर, मध्य और बाह्य ऐसे तीन प्रकार के प्राकार अनुक्रम से रत्न, कनक
और रजत के होते हैं और वे अनुक्रम से वैमानिक, ज्योतिषी और भवनपति देवों द्वारा विकुर्वित होते हैं। बृहत्-कल्प भाष्य के अनुसार ये कंगूरे के तीनों प्राकार वैमानिक देव ही करते हैं। तथा उन सर्व प्राकारों के द्वार रत्नमय होते है और उन द्वारों को अनेकों रत्ल के ध्वजा पताका एवं तोरणों से सजाये जाते हैं।
साधारण समवसरण में इस प्रकार होता है, परन्तु जब कोई ऋद्धिवान् देव आते हैं तो वे अकेले भी ये सब कुछ उतने ही समय में कर सकते हैं।२ .
आभ्यन्तर, मध्य और बाह्य इन तीन प्राकारों को प्रथम, द्वितीय और तृतीय प्राकार भी कहा जाता है। परंतु कभी-कभी, कहीं-कहीं, बाह्य को प्रथम, मध्य को द्वितीय और आभ्यन्तर को तृतीय प्राकार कहा जाता है। फिर भी इसकी व्यवस्था में कोई फर्क नहीं पड़ता है। अन्य चरित्रकर्ताओं में तो यह अन्तर मिलता है, परन्तु हेमचन्द्राचार्य ने तो भगवान् ऋषभदेव के चरित्र में आभ्यन्तर को प्रथम इस प्रकार क्रम दर्शाया है और अजितनाथ चरित्र में बाह्य को प्रथम बताया है। इन प्राकारों का विशेष-वर्णन करने के लिए यहाँ प्रथम अर्थात् बाह्य याने रजत् वाला प्राकार ऐसा क्रम समझना। प्राकार त्रय के स्वरूप एवं उद्देश्य-रंजत का प्रथम प्राकार___यह प्रथम प्राकार जमीन से सवाकोस ऊँचा और स्वर्ण, रल के मणिमय पीठ पर रचा जाता है। जमीन से दश हजार सोपान चढ़ने के पश्चात रजत का प्रथम प्राकार १. गाथा-११७८-११७९ २. आवश्यक नियुक्ति गाथा-५५४
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केवलज्ञान-कल्याणक १८५
आता है। इसका प्रत्येक सोपान एक हाथ ऊँचा और एक हाथ चौड़ा होता है। अतः यह प्रथम प्राकार जमीन से ढाई हजार धनुष अर्थात् सवाकोस ऊँचा होता है। हाथ का यह प्रमाण जिनेश्वर के निज देह प्रमाण-अनुसार समझना।
समवसरण के प्रत्येक प्राकार की दीवालें पांच सौ धनुष ऊंची और ३३ धनुष तथा ३२ अंगुली चौड़ी होती हैं। दीवालों की यह ऊंचाई भगवान ऋषभदेव के समवसरण की समझनी चाहिए। क्योंकि सर्व तीर्थंकरों के देहमान से दीवालों की ऊँचाई ५00 धनुष उचित नहीं बैठती है। अतः सर्व तीर्थंकरों के समवसरण की दीवालें उनके देहमानवत् ऊँची समझनी चाहिए।
इस दीवाल पर सुवर्ण के स्फुरायमान कांतिवाले कंगूरे होते हैं। इस प्राकार के चार द्वार होते हैं। प्रत्येक द्वार पर पांचालिका, मणिमय छत्र और मकर के चिन्हवाले ध्वजाओं से सुन्दर ऐसे तीन तोरण होते हैं। प्रत्येक द्वार पर ध्वजाएँ, अष्ट मांगलिक, पुष्पमालाएँ, श्रेणियाँ, कलश और वैदिकाएं होती हैं तथा देवगण कृष्णागरु और तुरुष्कादि के दिव्य धूप को विस्तार करने वाली अनेकों धूपघटिकाएं वहाँ पर विकुर्वित करते हैं। इसमें मधुर जल वाली, मणिमय सोपानों वाली वापिकाएं होती हैं। (वापिकाओं की संख्या चतुष्कोण समवसरण के वर्णन में आएगी।) इसके-प्राकार के पूर्व द्वार पर तुंबरु नामक देव, दक्षिण द्वार पर खट्वांगी नामक देव, पश्चिम द्वार पर कापलि नामक देव और उत्तर द्वार पर जटामुकुटधारी देव द्वारपाल की तरह होते हैं, उनमें तुंबरु नामक देव भगवान का प्रतिहारी कहलाता है, क्योंकि पूर्व द्वार से ही प्रभु
ऊपर आते हैं। इस प्राकार के अन्दर चारों ओर का समान भूमिका प्रतर ५० (पचास) . धनुष प्रमाण होता है। इस प्राकार में वाहन रहते हैं और देव, मनुष्य और तिर्यच
आते-जाते समय एक दूसरे से मिलते हैं। - स्वर्णिम द्वितीय प्राकार
प्रथम वप्र के प्रतर भाग को पार करने पर द्वितीय प्राकार के सोपानों का प्रारम्भ होता है। ये सोपान भी एक हाथ ऊंचे और चौड़े होते हैं। ये कुल पांच हजार होते हैं अर्थात् इतने सोपान चढ़ने के पश्चात् सुन्दर आकार वाला स्वर्णिम द्वितीय प्राकार आता है। इसके कंगूरे रत्न के होते हैं। द्वार रचना एवं अन्य सुशोभन प्रथम की भांति समझना। ___ इस प्राकार के पूर्व द्वार में जया नाम की दो देवियां द्वारपालिका की तरह होती हैं, ये श्वेतवर्ण वाली होती हैं, इनके करयुगल अभयमुद्रा से सुशोभित होते हैं। (अभयमुद्रा यानी “मा भैषीः' (डरना नहीं) ऐसा हाथ के विशिष्ट आकार से दर्शाना।) १. काललोक प्रकाश-सर्ग-३०, श्लो. ५३२-५३४ २. समवसरण रचनाकल्प-गाथा-५
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१८६ स्वरूप-दर्शन दक्षिण द्वार पर विजया नाम की रक्तवर्णवाली, हाथ में अंकुशधारिणी दो द्वारपालिका देवियां होती हैं। पश्चिम द्वार पर अजिता नाम की पीत (पीले) वर्ण वाली हाथ में पाशधारिणी दो देवियां होती हैं। उत्तर द्वार पर अपराजिता नाम की मकराढ्य धारिणी नील वर्ण वाली दो देवियां रहती हैं। यहां मकरवाली इस प्रकार लिखने से मगर रूप तिर्यंच नहीं समझना क्योंकि समवसरण रचना कल्प में इसे "सकच्छरा" और पाठांतर में “सत्थकरा" अर्थात् शस्त्रसहित शब्द से सूचित किया है। तात्पर्य यह है कि मकर नामक कोई प्राणी न होकर स्पष्टतः शस्त्रविशेष ही होता है। त्रिशष्टि शलाका पुरुष चरित्र के अन्तर्गत ऋषभदेव चरित्र में चतुर्थ शस्त्र का नाम मकर न होकर "मुद्गर पाणयः" हाथ में मुद्गर होना कहा है। ____ द्वितीय प्राकार का प्रतर-समतल भूमिभाग पांचसौ धनुष प्रमाण होता है। इस प्राकार में शेर, मृग, हरिण आदि तिर्यंच रहते हैं। पशुशाला की भाँति यहां तिर्यंचों का निवास नहीं होता है, परंतु परमात्मा के अतिशय प्रभाव से पुण्य-प्राप्त पशुओं को भी प्रभु की . देशना श्रवण करने की इच्छा होती है और इसलिए वे समवसरण में आते हैं। अतः उनके बैठने की यह स्वतंत्र व्यवस्था द्वितीय प्राकार में होती है। ये तिर्यंचप्राणी न केवल देशना श्रवण ही करते हैं अपितु श्रवणानुसार हृदयस्पर्श कर वे इसका महत् परिणाम भी पाते हैं। उदाहरण के लिए देखिये-भगवान् श्री धर्मनाथस्वामी के समवसरण में अंजलि सहित श्री गणधरदेव धर्म जिनेश्वर से प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् ! ये देव, असुर, मनुष्य, तिर्यंचादि लाखों जीव यहाँ समवसरण के अंदर पर्षदा में बैठे हुए हैं। उनमें सर्व प्रथम कौन सा जीव कर्मक्षय कर सिद्धस्थान में जाएगा? भगवान ने कहा-हे देवानुप्रिय! तेरे पास से जो हल्के पीले रंग का चूहा आता है वह पूर्वेभव का स्मरण हो जाने से वैराग्य प्राप्तकर निर्भीक होकर यहां आता है। मेरे दर्शन से वह अतिशय प्रसन्न हो गया है। जिसकी आँखें हर्षाश्रु से भरी हुई हैं, कर्ण विकस्वर हो गये हैं, और जिसके सर्वांग में रोमांच हो रहे हैं, ऐसा यह चूहा सर्व पाप-रज से मुक्त होकर अनाबाध अक्षय सुख के स्थानरूप सिद्धस्थान को हम सब की अपेक्षा सर्वप्रथम प्राप्त करेगा!
तिर्यंच प्राणियों की बैठक के अतिरिक्त इस प्राकार में एक अद्भुत चीज और होती है, और वह है प्रभु के विश्रामहेतु ईशानकोण में देवों द्वारा विकुर्वित मणिमय दिव्य देवच्छंद। क्योंकि देशना के पश्चात् जैसे कमल के चारों तरफ भौंरे घूमते हैं, वैसे ही सर्व इन्द्रों से परिवृत प्रभु उत्तर द्वार से होकर इस द्वितीय प्राकार में स्थिर देवच्छंदक पर विश्राम लेने पधारते हैं। ___ मुनिसुव्रतस्वामि चरित्र में सुरों-देवों के साथ अन्तर द्वार मार्ग से प्रभु के निर्गमन होने का उल्लेख है। यहाँ अन्तर द्वार शब्द के प्रयोग का कारण नहीं बताया है। संभव है यहाँ पर भी उत्तर द्वार शब्द का प्रयोग किया गया हो परंतु समयान्तर से यह लिपिदोष हुआ हो, अथवा उत्तर द्वार को ही अन्तर द्वार कहा है।
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केवलज्ञान-कल्याणक १८७
रत्नमय तृतीय वप्र
द्वितीय प्राकार का प्रतर समाप्त होते ही तृतीय प्राकार के सोपानों का प्रारम्भ होता है। ये कुल ५000 हजार हैं। इन सोपानों का अतिक्रमण कर लेने पर भव्यात्मा रत्नमय तृतीय प्राकार को प्राप्त होता है। इस प्राकार के कंगूरे मणिरल के हैं। इस वप्र की भीतों की लम्बाई और चौड़ाई तथा चारों द्वारों की रचना आदि पूर्ववत् ही समझना। इस वप्र के पूर्व द्वार में सोम नामक वैमानिक देव सुवर्ण जैसी कांति वाला, हाथ में धनुष धारण किया हुआ द्वारपाल होता है। दक्षिण द्वार में गौर अंगवाला व्यंतर जाति का, हाथ में दंड धारण किया हुआ यम नामक देव द्वारपाल होता है। पश्चिम द्वार पर ज्योतिषी जाति का रक्तवर्ण वाला हाथ में पाश लिए वरुण नामक देव होता है और उत्तर 'द्वार पर भवनपतिनिकाय का श्याम कांति वाला हाथ में गदा धारण किया हुआ धनद नामक देव होता है। यद्यपि जहाँ अहिंसा की प्रतिष्ठा है वहाँ अस्त्र-शस्त्र लेकर खड़े रहना संगत प्रतीत नहीं होता है फिर भी ऐसा लगता है कि इन वर्णनों पर राजसी वैभव की छाया पड़ी है, चरित्रकारों का मानस वैदिक परंपराओं के वर्णनों से प्रभावित है-अतः वीतराग जीवन से विपरीत वर्णन करते चले गये हैं।
इस तीसरे प्राकार के मध्य में एक कोस छः सौ धनुष लंबा चौड़ा समभूतल पीठ है। यह तीसरा वप्र वैमानिक देव बनाते हैं।
_ यह तो बाह्य वर्णन हुआ इसके अतिरिक्त इसकी कई आंतरिक अद्भुत विशेषताएं . हैं जिनका वर्णन आगे किया जाएगा। . अब समवसरण का मान, नाप, प्राकारादि दर्शाते हैं। समवसरण-मान
रत्नमय प्राकार के मध्य का समभूतल पीठ एक कोश और ६00 धनुष प्रमाण है। इस प्राकार के सोपानों का प्रारम्भ सुवर्णमय (मध्य) प्राकार से होता है। इस मध्य प्राकार का मूल प्रतर ५० धनुष होता है-दोनों ओर मिलाने पर सम्पूर्ण प्रतर भाग १00 धनुष प्रमाण होता है। इस प्राकार में रहे हुए रजत प्राकार के सोपान ५000 हैं। ये कुल १२५० धनुष विस्तार में हैं। व्यास के दोनों छोर मिलाने पर कुल २५00 धनुष होते हैं। सोपानों का विस्तार और मूल प्रतर-विस्तार में मिला देने से इस द्वितीय प्राकार का विस्तार २६00 धनुष अर्थात् एक कोश ६०० धनुष होता है। इसी प्रकार सुवर्ण प्राकार के सोपान रजत प्राकार के भीतर होने से इस प्राकार का विस्तार भी एक कोश ६०० धनुष होता है। इस प्रकार तीनों प्राकारों का प्रतर विस्तार ३ कोश १८00 धनुष होता है। तीनों प्राकारों की दीवारें ३३ धनुष और ३२ अंगुल चौड़ी होती हैं। तीनों दीवारों की चौड़ाइयों का विस्तार मिलाने से ९९ धनुष और ९६ अंगुल होते हैं तथा व्यास मान से दोनों ओर से मिलकर १९८ धनुष और १९२ अंगुल होते
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१८८ स्वरूप-दर्शन हैं। १९२ अंगुल के दो धनुष होते हैं, अतः कुल २00 धनुष होते हैं। इन्हें ऊपर के ३ कोश १८०० धनुष प्रतर विस्तार में मिला देने से २000 धनुष होते हैं और ' २000 धनुष का एक कोश होता है। इस प्रकार कुल विस्तार चार कोश अर्थात् एक योजन का हुआ। अब रहे प्रथम प्राकार के सोपान। ये १० हजार सोपान समवसरण के बाह्य भाग में विस्तृत हैं। इस नाप का परिमाण इस प्रकार है।
२४ अंगुल = १ हाथ, ९६ अंगुल = १ धनुष
४ हाथ = १ धनुष, २०00 धनुष = १ कोश
४ कोश = १ योजन। दोनों पार्श्व के संयोग से लंबाई और चौड़ाई का नाप बताते हुए काललोक प्रकाश में कहा है-“अरिहंत के सिंहासन के नीचे के भू-भाग से एक पार्श्व पृथ्वी, बाह्य गढ़ के बाहर के भागपर्यन्त दो कोश भूतल होता है। इस प्रकार चारों दिशा में दो-दो पार्श्व का संयोग करने से लम्बाई और चौड़ाई चार कोश अर्थात् एक योजन प्रमाण होती है। . बाह्य सोपान के पर्यन्त भाग तक का भूतल जिनेश्वर के अधस्थ महीतल से सवातीन कोश होता है। वह इस प्रकार दश हजार सोपान के २५०० धनुष = उसका सवा कोश उपरोक्त एक भाग वाले दो कोश में मिलाने से होता है। इस प्रकार यह समवसरण चारों तरफ के सोपानों से अधिकाधिक ऊँचा है, और इसकी कुल ऊँचाई सवा तीन कोश अर्थात् एक योजन में ७५ धनुष कम इस प्रकार होती है। __ अब इसका परिधि मान बताते हैं-रत्नमय प्राकार की परिधि एक योजन और ४४३ धनुष में कुछ कम होती है। सुवर्ण के प्राकार की परिधि दो योजन, ८६५ धनुष
और दो हाथ में तीन अंगुल कम (४५ अंगुल) होती है। रजत के प्राकार की परिधि तीन योजन, १३३३ धनुष, एक हाथ और आठ अंगुल होती है। एक योजन के समवसरण की परिधि (परिमंडलाकार-वृत्ताकार-रेखा-नाप) तीन योजन १२९८ धनुष से कुछ अधिक होती है।
पद्मानंद महाकाव्य में अंगुल का प्रमाण आत्मांगुल से गिनने का कहा है। आत्मांगुल का अभिप्राय है उस काल और उस क्षेत्र के मनुष्यों की अंगुली। चतुष्कोण समवसरण
वृत्त समवसरण की भाँति चतुष्कोण (चौरस) समवसरण भी देवेन्द्रों द्वारा निर्मित एवं अद्भुत होता है। वृत्त समवसरण की तरह इसमें तीन प्राकारादि सब वैसा ही होता है, सिर्फ आकार चौरस और इसी कारण प्रतर-दीवालादि के नाप में अन्तर पाया जाता
समवसरणस्तव में इस समवसरण का वर्णन करते हुए कहा है-प्रत्येक दीवालें
१. गाथा-६ और उसकी अवचूरि-पत्र-४
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केवलज्ञान-कल्याणक १८९
१00 धनुष प्रमाण होती हैं। प्रथम और द्वितीय वप्र के मध्य का अन्तर डेढ़ कोश अर्थात् १ कोश और १000 धनुष। द्वितीय और तृतीय प्राकार की दीवालों का अन्तर कुल मिलाकर एक कोश होता है और तृतीय प्राकार के मध्यभाग का अन्तर वृत्त समवसरण की तरह १ कोश ६०० धनुष प्रमाण होता है।
अवचूरि में इसे अधिक स्पष्ट किया गया है। चतुष्कोण समवसरण में बाह्य थप के प्राकार की दीवालें योजन मध्य में नहीं गिनने से बाह्य और मध्य अर्थात् रजत् और सुवर्ण के प्राकार का अन्तर १000 धनुष होता है। अवचूरिकार का यह मन्तव्य मूलपाठ से अलग पड़ता है। स्तोत्रकार ने यह द्वितीय और तृतीय प्राकार (स्वर्णमय
और रत्नमय) के बीच माना है। अवचूरिकार ने प्रथम का अन्तर द्वितीय में और द्वितीय का. प्रथम में माना है।
द्वितीय वप्र की दीवारें १00 धनुष प्रमाण हैं। द्वितीय और तृतीय प्राकार का अन्तर १५00 धनुष होता है।
तृतीय प्राकार की दीवारें १०० धनुष प्रमाण हैं। इस वप्र से १३00 धनुष आगे . मध्य पीठ हैं। - इस प्रकार मिलकर कुल ४000 धनुष होते हैं। उसके दो कोश हुए इस प्राकार दोनों ओर का मिलकर ४ कोश अर्थात् एक योजन का यह चतुष्कोण समवसरण हुआ। ___ अवचूरि के प्रस्तुत पाठ का मन्तव्य यह है कि चतुष्कोण समवसरण में प्रत्येक प्राकार की दीवालें यद्यपि १00 धनुष प्रमाण हैं; परंतु प्रथम रजत प्राकार की दीवालों को योजन के मध्य में न गिनते हुए बाहर गिनी हैं। वृत्त समवसरण में रजत प्राकार के सिर्फ सोपान ही बाहर गिने थे परन्तु यहाँ तो इसमें दीवालें भी बाहर गिनी जाती हैं। यह इस प्रकार हुआ
प्रथम प्राकार - मूल विस्तार - १000 धनुष द्वितीय प्राकार - दीवाल
- १00 धनुष - मूल विस्तार - १५00 धनुष - तृतीय प्राकार - दीवाल
- १00 धनुष - मूल विस्तार - १३00 धनुष
कुल - ४000 धनुष = २ कोश अब प्रश्न यह होता है-प्रथम प्राकार का मूल विस्तार १000 धनुष का है उसमें द्वितीय प्राकार के एक हस्त प्रमाण वाले १२५० धनुष प्रमाण-विस्तार में (वृत्त की गिनती) रहने वाले ५000 सोपान और प्रतर दोनों कैसे समा सकते हैं ?
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१९० स्वरूप-दर्शन
वृत्त समवसरण का मान ठीक बैठ जाता है पर चतुष्कोण समवसरण के नाप में ही यह प्रश्न उठता है। समवसरणस्तव में स्तोत्रकार दोनों समवसरण का वर्णन करते समय तीनों प्राकारों की रचना विशेष (स्वर्ण रजतादि) तथा कंगूरे आदि का सामान्य वर्णन कर वृत्त और चतुष्कोण में जो अलगाव है वहीं सीधा दर्शाते हैं-कि “वृत्त समवसरण की दीवालें ३३ धनुष और ३२ अंगुल चौड़ी और ५00 धनुष ऊँची होती हैं, एक कोश ६00 धनुष प्रमाण वाले वे प्राकार रलमय चार द्वारों से युक्त होते हैं। चतुष्कोण समवसरण की दीवालें १०० धनुष चौड़ी होती हैं, प्रथम और द्वितीय प्राकार में ११/२ (डेढ़) कोश (३000 धनुष) का अंतर है तथा द्वितीय और तृतीय . प्राकार के मध्य १ कोश (२000 धनुष) का अन्तर है और पूर्ववत् (तृतीय प्राकार. की तरह) १ कोश ६00 धनुष समझना। अवचूरिकार ने प्रस्तुत मन्तव्य में जो परिवर्तन किया है वह हम प्रथम देख आये हैं। अब स्तोत्रकार बस यहाँ से आगे चलकर कहते हैं-एक हाथ प्रमाण ऊँचे दश हजार सोपान चढ़ने पर प्रथम वप्र आता है . उसका ५० धनुष प्रतर है, तत्पश्चात् ५000 सोपान आते हैं उनके चढ़ने पर द्वितीय वप्र उसका भी ५० धनुष प्रतर, तत्पश्चात् पुनः ५000 सोपान चढ़ने पर तृतीय वप्र आता है, जो एक कोश और ६00 धनुष प्रमाण विस्तार वाला है। __ अब प्रश्न होता है कि प्रतर के ५० धनुष छोड़कर शेष ९५० धनुष के विस्तार में एक हाथ ऊँचे १२५० धनुष विस्तार में समा जाने वाले ५000 सोपान कैसे समा सकते हैं ?
यद्यपि इस प्रश्न का समाधान जटिल है, कुछ मार्गदर्शन अवश्य मिलता है, वह इस प्रकार कि सोपानों की संरचना सीधी न होकर कुछ मोड़ वाली होगी। सोपान
समवसरण की संरचना में सर्वाधिक महत्व सोपानों का है; क्योंकि इस रचना का आधार सोपान ही है। सम्पूर्ण समवसरण सोपानों द्वारा ही ऊपर उठा हुआ है। समवसरण में सोपान ही स्तम्भ या नींव का काम करते हैं। अतः इसकी रचना चारों ओर से विस्तृत और सुन्दर है। अतः १000 धनुष के विस्तार में ५000 सोपानों की रचना इस प्रकार होनी चाहिए कि जिससे यह चतुष्कोण समवसरण और उसका प्रथम प्राकार अत्यन्त सुशोभित हो उठे। ___ सोपानों की संरचना इस प्रकार हो सकती है कि पूर्वद्वार की ओर से ऊपर चढ़ने वाला व्यक्ति १000 सोपान चढ़कर प्रथम प्राकार तक आता है, इस प्राकार के ५० धनुष प्रतर विभाग को पार कर सोपान तक आता है। सोपान का स्थान ९५० धनुष है वहाँ ५000 सोपानों की व्यवस्था है। दोनों प्राकारों के बीच के दर्शाये हुए सीधे अन्तर के साथ प्रतर भूमि और एक हस्त-प्रमाण ५000 सोपानों का समावेश यद्यपि
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केवलज्ञान-कल्याणक १९१
असंभव है, फिर भी दूसरी तरह से विचारने पर (दिया गया यह अंतर यदि बराबर है ऐसा मान लिया जाय तो) ऐसा लगता है कि सोपान चढ़ने के क्रमारोह की मूल दिशा कुछ परिवर्तन वाली होनी चाहिये। और वह भी इस प्रकार की “सीधी दिशा में कुछ सोपान चढ़ जाने पर, आगे के सोपान को काटकोन में घुमा देने पर (diversion कर) विदिशा में ६00 से ८00 सोपान ऊपर जाने पर घुमाव को पुनः मूलदिशा में काटकोण से मिला दिया जाय। इस प्रकार की रचना से मूल दिशा (परमात्मा के प्रति) का सीधा अंतर मात्र २० से २५ सोपानों जितना रहता है जब कि ऊपर जाने का क्रम नियमतः उतना ही होता है। दूसरी तरह से इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि पूर्व द्वार से चढ़ने वाला साधक पूर्व द्वार से जब १८९६ सोपान चढ़ जाता है, तब उसका मोड़ दक्षिण की ओर हो जाता है और वहाँ उसे ६०४ सोपान मिलते हैं, उसके चढ़ जाने पर दूसरा मोड़ उत्तर दिशा का आता है, इस मोड़ पर भी उसे ६०४ सोपान आते हैं, उन सोपानों को जब वह आरोहण कर लेता है उसे तीसरा मोड़ पश्चिम दिशा का मिलता है, इस मोड़ पर मुड़ जाने पर वह पुनः पूर्ववत् पूर्व दिशा पर चढ़ना शुरू करता है और यहाँ उसे १८९६ सोपान पार करने होते हैं, इनका आरोहण कर लेने पर वह भव्यात्मा द्वितीय प्राकार का द्वार एवं प्रतर प्राप्त करता है। पूर्व दिशा की तरह ही अन्यत्र त्रिदिशा की भी संरचना समझ लेनी चाहिए।
इस प्रकार स्वाभाविक ही अल्प स्थान में उतने सोपान समा सकते हैं। सर्व दिशाओं में इसी प्रकार की रचना विधि से यह समवसरण अधिकाधिक सुंदर एवं देदीप्यमान दिखाई देता है। .
उपरोक्त समाधान अपूर्ण ज्ञान-दृष्टि से विचारा गया है, तत्व तो केवलीगम्य है। फिर भी प्राकार-अंतर, सोपान और सोपान-रचना आदि में बीच की बातों को नहीं विचारने पर, साधक का लक्ष्य तो परमार्थ का ही होता है। सामान्य व्यक्ति (यहाँ मार्गानुसारी) की दृष्टि से इसका परमार्थ विचारने पर तो परमात्म-गुणों के प्रकट होने से उनको प्राप्त समवसरण आदि की भव्यता सामान्य व्यक्ति के आत्म-ऐश्वर्य स्वयं में भी प्रकट होने में सहायक हैं। ऐसे ही कुछ प्रशस्त मोह में भव्यात्मा परमात्म-भक्ति और . तदनंतर आत्म भक्ति में आल्हादक भाव से संयुक्त होता है। बहुधा यह संयुक्तता अनेकों जीवों के अनंत कर्मों की निर्जरा के कारण रूप बनती है, भव्यात्मा निरावरण होकर परमपद के प्रति संयोजित होता है।
वृत्त और चतुष्कोण समवसरण में इनके अतिरिक्त एक और भी अन्तर पाया जाता है वह यह कि समवसरण रचना कल्प के अनुसार वृत्त समवसरण में बाह्य प्राकार में दो-दो वापिकाएँ और चतुष्कोण समवसरण में एक-एक वापिका होती है
और समवसरणस्तव के अनुसार इससे उल्टा अर्थात् चतुष्कोण समवसरण में दो-दो वापिकाएँ और वृत्त समवसरण में एक-एक वापिका होने का उल्लेख है।
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१९२ स्वरूप-दर्शन
यद्यपि महावीर चरियं, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र आदि में हरेक द्वार पर वापिका होने का उल्लेख है। संख्या यहाँ नहीं दर्शायी है। श्री पद्मानंद महाकाव्य में वापिका का वर्णन करते हुए कहा है "रजत के विशाल वप्र के भीतर दोनों ओर वापिकाएँ सुशोभित होती रहती हैं, इनमें सुवर्ण कमल प्रफुल्लित हुए रहते हैं, इनका जल स्वादिष्ट एवं निर्मल रहता है, इन वापिकाओं के जल के दर्शन मात्र से चित्त को आल्हाद होता है, स्पर्श करने से खेद दूर होता है और पान करने से व्यक्ति निरोगी रहता है।"
इन वर्णनों को देखने से ऐसा लगता है कि वापिकाओं की संख्या अनिश्चित ही रहती है। चरित्रों में यद्यपि कहीं भी वृत्त या चतुष्कोण का कोई विभेद नहीं दर्शाया गया है।
समवसरण की सम्पूर्ण सामान्यभूमि का एवं समवसरण के आकार का वर्णन पूर्व. ही दे चुके हैं, यहाँ पर अब दिगम्बर ग्रन्थों में जो अन्तर आता है, उसका उल्लेख किया जाता है।
समवसरण की सम्पूर्ण सामान्यभूमि का आकार दर्शाते हुए कहीं सूर्यमण्डल के सदृश गोल' इन्द्रनीलमणिमयी और कहीं चौकोर (चतुष्कोण ) २ आकार की बतायी है। इसका विशेष स्वरूप दर्शाते हुए कहा है - इसकी भूमि कमल के आकार की होती है, और गन्धकुटी तो कर्णिका के समान ऊँची उठी होती है और बाह्यभूमि कमलदल के समान विस्तृत होती है। यह इन्द्रनीलमणि से निर्मित होती है। इसका बाह्य भाग दर्पणतल के समान निर्मल होता है। देशकाल के अनुसार समवसरण भूमि का उत्कृष्ट विस्तार बारह योजन और जघन्य विस्तार एक योजन है। तिलोयपण्णत्ति में तीर्थंकरों के समवसरण का अलग-अलग विस्तार दर्शाते हुए कहा है- भगवान ऋषभदेव के समवसरण की भूमि बारह योजन प्रमाण विस्तार से युक्त थी, बाद में भगवान अजितनाथ से लेकर नेमिनाथ पर्यन्त के प्रत्येक तीर्थंकर के समवसरण की सामान्यभूमि दो कोस कम और पार्श्वनाथ स्वामी एवं वर्धमान स्वामी की योजन के चतुर्थ भाग से कम थी। यहाँ जो सामान्यभूमि का प्रमाण बतलाया गया है, वह अवसर्पिणी काल का है। उत्सर्पिणी काल में इस से विपरीत है। विदेह क्षेत्र के समस्त तीर्थंकरों के समवसरण
भूमि बारह योजन प्रमाण ही रहती है। कोई आचार्य पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों की समवसरण भूमि को बारह योजन प्रमाण मानते हैं।
सोपानों की लम्बाई और चौड़ाई बताते हुए कहा है-वृषभादिक चौबीस तीर्थंकरों में से भगवान् नेमिनाथ पर्यन्त क्रमशः चौबीस और एक योजन कम चौबीस को चौबीस से
१. तिलोयपणत्ति - चउत्थो महाधियारो गा. ७१६ (पूर्वाद्ध) ।
२. हरिवंशपुराण - सर्ग ५७, श्लो. ६-८ ।
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ज्ञान-कल्याणक १९३ .......................................................
भाग देने पर जो लब्ध आवे उतनी सोपानों की लम्बाई जाननी चाहिए। भगवान् पार्श्वनाथ के समवसरण में सीढ़ियों की लम्बाई अड़तालीस से भाजित पाँच कोश और वीरनाथ के अड़तालीस से भाजित चार कोस प्रमाण थी। वे सीढ़ियाँ एक हाथ ऊँची और एक हाथ ही विस्तार वाली थीं। सोपानों की यह ऊँचाई आदि श्वेताम्बरों के अनुसार ही होने पर एक अद्भुतता दिगम्बर ग्रन्थों में पाई जाती है वह यह कि इनके अनुसार “पर्वत के ऊपर धूलीशाल तक अर्धकोश दूर होता है, अतः जोर से आवाज देने पर वहाँ तक सुनाई दे सकता है।"
परम्परागत मान्यता के अनुसार कुछ विभिन्नताएँ भी पायी जाती हैं जो इस प्रकार
सोपान-आरोहण
ये बीस हजार सोपान क्रमशः चढ़ने की आवश्यकता नहीं होती है। अथवा सोपान पर पैर रखते ही वहाँ के पादलेप के प्रभाव से क्षण मात्र में अंतिम सोपान तक पहुंचा जा सकता है, और जिनेन्द्र के दर्शन भी हो सकते हैं, यह वहाँ का अतिशय है। अन्यथा एक हाथ ऊँचे २० हजार सोपान कैसे पार किये जा सकते हैं ? परमात्मा के प्रभाव से इसकी सफलता मान लेने पर भी समय की मर्यादा तो किसी भी हालत में नहीं बैठ सकती।
यद्यपि श्वेताम्बर मान्यता इससे बहुत कुछ भिन्न है। श्वेताम्बर परम्परा में परमात्मा के प्रभाव से सोपानों का चढ़ जाना माना गया है।
बालग्लानजर्जरादीनां सोपानाधारोहतां श्रमो व्याधिश्च प्रभु प्रभावान्न भवेत् ......... अर्थात् प्रभु के प्रभाव से बाल, ग्लान और जरापीड़ित वृद्ध लोगों को भी सोपानों को चढ़ते समय किंचित् मात्र भी श्रम या व्याधि का अनुभव नहीं होता है। प्राकारों का आधिक्य
श्वेताम्बर ग्रन्थों में समवसरण के तीन प्राकार माने जाते हैं, दिगम्बर परम्परा में . ९ प्राकार माने जाते हैं। भरतेश वैभव में एक समवसरण के वर्णन में कहा है-यह 'समवसरण के ९ प्राकार हैं। उनमें एक तो नवरत्न से निर्मित, एक माणिक्यरल से निर्मित और पाँच सुवर्ण से निर्मित और दो स्फटिक रल से निर्मित हैं। इस प्रकार यह देवनगरी ९ परकोटों से वेष्ठित है। पहला परकोटा नवरत्नों से, दो सुवर्ण से, एक पद्मरागमणि से और तीन सुवर्ण से निर्मित हैं। तदनंतर दो स्फटिक से निर्मित है।
समवसरण के वर्णन में ४ साल व पाँच वेदिकाओं का वर्णन करते हैं। इन नव परकोटों से हो ४ साल और पाँच वेदिकाओं के विभाग होते हैं। चारों दिशाओं में चार द्वार हैं। और चारों ही द्वारों के बाहर अत्यन्त उन्नत चार मानस्तंभ विराजमान हैं। . ९ परकोटों में से ८ परकोटों के द्वार पर द्वारपाल हैं। नौवें परकोटे के द्वार पर द्वारपाल नहीं है।
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१९४ स्वरूप-दर्शन
प्रथम प्राकार में सुवर्ण से निर्मित गोपुर और रल से निर्मित सुशोभित भवन होते हैं। उससे आगे उत्तम तीर्थगंधोदक नदी के रूप में दूसरे प्राकार भूमि में बह रहा है। अत्यंत मधुर सुगंध से युक्त फूल का बगीचा तीसरे प्राकार के भूमितल पर मौजूद है। चौथी प्राकार भूमि में उद्यान, वन, चैत्यवृक्ष आदि मौजूद हैं। पाँचवीं भूमि में हाथी, अश्व, बैल आदि भव्य तिर्यंच प्राणी रहते हैं। छठी वेदिका में कल्पवृक्ष, सिद्धवृक्ष आदि सुशोभित हो रहे हैं। सातवीं वेदिका जिनगीत, वाद्य, नृत्य आदि के द्वारा सुशोभित हो रही है। आठवीं वेदिका में मुनिगण, देवगण, मनुष्य आदि भव्य विराजमान हैं। द्वारपाल से रहित नौवें प्राकार में तीन पीठ हैं उस पर परमात्मा विराजित हैं। उनमें . एक पीठ वैडूर्यरत्न के द्वारा निर्मित है, उसके ऊपर सुवर्ण द्वारा निर्मित दूसरा पीठ है। .. उसके ऊपर अनेक रत्नों से निर्मित तीसरा पीठ है। इस प्रकार रत्नत्रय के समान एक के ऊपर एक तीन पीठ हैं। __ दूर से ही मानस्तम्भों को देखने से मान से युक्त मिथ्यादृष्टि लोग अभिमान से . रहित हो जाते हैं, इसलिए इनको "मानस्तम्भ" कहते हैं। इन मानस्तम्भों की ऊँचाई : अपने-अपने तीर्थंकर के शरीर की ऊँचाई से बारह गुनी होती है। प्रत्येक मानस्तम्भ के . मूलभाग स्फटिकमणि से निर्मित वृत्ताकार होते हैं। इनके उज्ज्वल वैडूर्य मणिमय उपरिम भाग चारों ओर से चामर, घंटा, किंकिणी, रत्नहार एवं ध्वजा इत्यादिकों से विभूषित होते हैं।
सब समवसरणों में तीन कोटों के बाहर चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में क्रम से पूर्वादिक विधि के आश्रित द्रह (वापिकाएँ) होती हैं। पूर्व मानस्तम्भ के पूर्वादिक भागों में क्रम से नन्दोत्तरा, नन्दा, नन्दिमती और नन्दिघोषा नामक चार द्रह होते हैं। दक्षिण मानस्तम्भ के आश्रित पूर्वादिक भागों में क्रमशः विजया, वैजयन्ता, जयन्ता और अपराजिता नामक चार द्रह होते हैं। पश्चिम मानस्तम्भ के आश्रित पूर्वादिक भागों में क्रम से अशोका, सुप्रतिबुद्धा (सुप्रसिद्धा या सुप्रबुद्धा), कुमुदा और पुण्डरीका नामक चार द्रह होते हैं। उत्तर मानस्तम्भ के आश्रित पूर्यादिक भागों में क्रम से हृदयानन्दा, महानन्दा, सुप्रतिबुद्धा और प्रभंकरा नामक चार द्रह होते हैं। ये द्रह समचतुष्कोण, कमलादिक से संयुक्त, टोत्कीर्ण और वेदिका, चार तोरण एवं रत्नमालाओं से रमणीय होते हैं। सर्व द्रहों के चारों तटों में से प्रत्येक तट पर जल क्रीड़ा के योग्य दिव्य द्रव्यों से परिपूर्ण मणिमय सोपान होते हैं। इन ग्रहों में भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी देव क्रीड़ा में प्रवृत्त होते हैं, तथा वे मनुष्य एवं किन्नर युगलों के कुंकुमपंक से पीतवर्ण के लगते हैं। प्रत्येक कमलखंड अर्थात् द्रह के आश्रित निर्मल जल से परिपूर्ण दो-दो कुण्ड होते हैं, जिनमें देव, मनुष्य और तिर्यच अपने पैरों की धूलि को धोया करते हैं। वापिकाओं का स्थान एवं स्वरूप श्वेताम्बर परम्परा से बिल्कुल भिन्न है।
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केवलज्ञान-कल्याणक १९५
तृतीय प्राकार का आन्तरिक स्वरूप
समवसरण का बाह्य स्वरूप एवं विश्लेषण तथा अन्य दो प्राकारों का आन्तरिक स्वरूप विवेचित हो चुका है। अब यहाँ महत्वपूर्ण तृतीय प्राकार के भीतर की अद्भुतता का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है। इस तृतीय प्राकार का आभ्यन्तर भाग ही सम्पूर्ण समवसरण की सार्थकता एवं रहस्य का मूल कारण है। इसको न समझते हुए केवल समवसरण के बाह्य स्वरूप का वर्णन पढ़ना निरर्थक है, क्योंकि भक्ति से विवश देवकृत यह परमात्मा की बाह्य ऐश्वर्य-सम्पत्ति से अनन्तगुनी अधिक मूल्यवान परमात्मा की आन्तरिक सम्पत्ति है। ऐसे अनन्य महा आन्तरिक ऐश्वर्य के स्वामी इस प्राकार में विराजकर भव्यजीवों को उद्बोधन करते हैं। इस रहस्य को यदि किसी प्रकार अप्रधान मान लिया जाय तो हम परमार्थ से बहुत दूर निकल जायेंगे। हम समवसरण आदि को इसलिए इतना अधिक महत्व नहीं देते कि यह देवों एवं इन्द्रों द्वारा निर्मित होता है। यह तो उनकी भक्ति का निर्माण-परिणाम है। हमें उससे क्या ? फिर भी परमात्मा के मिलन में रहस्य रूप हमारी परमभक्ति में सहायक रूप होने से ही हम इसके स्वरूप-दर्शन, विवेचन या ध्यान को अपना विषय बनाते हुए इसे अपना मुख्य ध्येय मान लेते हैं। अच्छा तो चलो अब परमात्मा के मिलन-स्थान रूप तृतीय प्राकार में.................| यहाँ हैं हमारे परम कृपानिधान, रागद्वेष विजेता परमात्मा। यहाँ है मोक्षमार्गदर्शिनी भगवद्वाणी। .
सुवर्ण-प्राकार में रहे हुए रत्नमय वप्र के ५000 सोपानों को पार कर लेने पर हम तृतीय वप्र का भव्य भूतल पाते हैं, परम उपकारी, मोक्षमार्ग-दर्शक परम प्रभु को पाते हैं। : इस वप्र के समभूतल १ कोश ६०० धनुष के मध्य में एक मणिरत्नमय पीठ होता है, उसकी ऊँचाई जिनेश्वर के देहप्रमाण होती है। इसके चार द्वार होते हैं और चारों दिशा में तीन-तीन सोपान होते हैं। इसकी लम्बाई और चौड़ाई २00 धनुष होती है, और यह पृथ्वीतल से ढाई कोस ऊँचा है। . उस पीठ के मध्य भाग में उत्तम ऐसा अशोक वृक्ष होता है, यह विस्तीर्ण शाखा वाला और गाढ़ छाया वाला तथा एक योजन विस्तार वाला है। जिनेश्वर के देहमान से यह बारहगुना ऊँचा होता है और चारों ओर से पुष्प, (तीन) छत्र, केतु, पताका और तोरणों से संयुक्त होता है। इस अशोक वृक्ष के ऊपर एक और वृक्ष रखा जाता है, जिसका नाम है चैत्यवृक्ष। चैत्यवृक्ष अर्थात् वैसा वृक्ष जिसके नीचे परमात्मा को केवल ज्ञान हुआ होता है। इस चैत्यवृक्ष को देवविकुर्वित अशोक वृक्ष के ऊपर निक्षिप्त किया जाता है। ये चैत्यवृक्ष सभी जिनवरों के भिन्न-भिन्न होते हैं। ___ यहाँ पर कुछ मान्यता ऐसी भी है कि वैसा नहीं परन्तु वही वृक्ष जिसके नीचे केवलज्ञान हुआ हो उसे ही अशोकवृक्ष पर रखा जाता है परंतु यह अनुचित हैं। ऐसा
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१९६ स्वरूप-दर्शन
मान लेने पर कई निरुत्तर प्रश्न सामने आते हैं। क्या इसे देव रखते हैं ?.या यह अपने आप ऊपर चढ़ जाता है ? ऐसा तो नहीं हो सकता। यदि देव या मानव रखते हैं तो क्या इसे जड़ से उखाड़ लिया जाता होगा ? ऐसा अनुचित व्यवहार भी कैसे हो सकता है ? पूजा या भक्ति का यह भी क्या तरीका होता है ? जिन्होंने समस्त सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों के जीवन और जीने के अधिकार पर सोचा विचारा और परम मैत्री से अभय कर परमात्मा बने उनके ज्ञान की पूजा किसी का प्राण लेकर कैसे की जा सकती है ? मेरी मान्यता के अनुसार देव-समूह वैसा ही वृक्ष बनाकर प्रतीक के रूप में उसे अशोकवृक्ष पर रखकर उस वनस्पति-वृक्ष का भी बहुमान करते हैं, जिसके नीचे प्रभु की पुण्यप्रभा पृथ्वी पर प्रकट हुई है। ___ अशोकवृक्ष के नीचे मूल में अरिहंत का देवच्छंद (उपदेश) देने का स्थान होता है। वहाँ चार दिशाओं में चार सिंहासन होते हैं। वे सिंहासन उद्योत वाले रनों से जड़े हुए
और अनेक हीरों से युक्त होते हैं। उन सिंहासनों के आगे रत्नों की ज्योति से. प्रकाशमान एक-एक पादपीठ होते हैं। ऊपर तीन छत्र, आसपास दो चामर, सामने सुवर्णकमल के ऊपर एक-एक धर्मचक्र होता है। चारों दिशाओं में चार महाध्वज होते
___ ऐसे भव्य समवसरण के दिव्य तृतीय वप्र में, देवों द्वारा विकुर्वित सुवर्ण-पद्म पर पादन्यास करते हुए परमात्मा पूर्व द्वार से प्रवेश करते हैं। सुवर्ण कमल ___ जत्थ भगवतो पादा तत्थ देवा सत्त पउमाणि सहस्सपत्ताणि णवणीतफासाणि विउव्यति, मग्गतो तिन्नि पुरओ तिनि एग पायाणिक्कमे, एगे भणति, मग्गतो सत्त पउमणि दीसंति, जत्थ पाओ कीरति ताहे अन्नं दीसति, मग्गओ सत्तं दीसति, मग्गओ सत्त दो पादेसु एवं णव-देवों द्वारा विकुर्वित (परिकल्पित) परमात्मा के आगे चलते हुए, सुवर्ण-कमल पर पादन्यास करते हुए परमात्मा समवसरण में प्रवेश करते हैं। आवश्यक चूर्णि के उपरोक्त पाठ के अनुसार पद्मों की संख्या सात और नव दोनों हो सकती हैं क्योंकि आगे तीन कमल, पीछे तीन कमल तथा एक पर भगवान का चरण (इस प्रकार सात और दूसरे प्रकार से दो पर पादन्यास और सात कमलों का पीछे रहना इस प्रकार नव कमल।) यद्यपि पीछे वाला मन्तव्य चूर्णि के अनन्तर साहित्य में अधिक मान्य किया गया है। इसी के अनुसार हेमचन्द्राचार्य कहते हैं-प्रभु के आगमन के समय देव सुवर्ण के नव कमल बनाकर क्रमशः प्रभु के आगे रखने लगे। उनमें दो-दो कमलों पर स्वामी चरण न्यास करने लगे और जैसे ही परमात्मा के चरण अगले कमलों पर पड़ते हैं, वैसे ही देवता पीछे वाले कमलों को आगे कर देते हैं।
केवलज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् अरिहंत परमात्मा के चरण भूमि को स्पर्शते ही नहीं हैं और इसलिए देवता ऐसे अनुपम दिव्य पद्मों की विकुर्वणा करते हैं। विकुर्वणा
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केवलज्ञान-कल्याणक १९७
के समय देवों के समस्त अध्यवसाय भक्ति से आपूरित होते हैं। अतः ऐसे कमल अन्य समय संभव भी नहीं हो सकते हैं। जब ये देव निर्मित ही हैं तो ये परमात्मा की उपस्थिति के अतिरिक्त काल में क्यों नहीं बन सकते हैं ? इसके उत्तर में शीलांकाचार्य कहते हैं-"तओ तप्पहावुप्पण्णकणयकमल-ये पद्म परमात्मा के प्रभाव से ही उत्पन्न होते हैं।" अतिरिक्त काल में ये संभव नहीं हो सकते हैं।
नवतत्वों के प्रतीक समान ये दिव्य सुवर्ण कमल एक हजार पंखुड़ियों वाले होते हैं। अन्य सुवर्ण-वस्तुओं की भाँति ये स्पर्श में कठोर न होकर नवनीत समान मृदु होते हैं। इन सुवर्ण कमलों पर सुशोभित परमात्मा के कर्म निवारक चरण कमल का वर्णन करते हुए भक्तामर स्तोत्र में कहा है__“विकस्वर ऐसे सुवर्ण के नवीन कमलों के पुंज जैसी कान्तिवाले और सर्वतः पर्युल्लास करती हुई नाखूनों की किरणों की शिखाओं द्वारा मनोहर ऐसे परमात्मा जहाँ चरण रखते हैं वहाँ देववृन्द सुवर्ण के नवकमलों की परिकल्पना (विरचना) करते हैं।"
भक्तामर की यह गाथा मंत्र-पदों से गर्मित है। उनकी विधि पूर्वक आराधना करने से सुवर्ण आदि धातुओं के व्यापार में अत्यन्त लाभ होता है, राज्य सन्मान मिलता है
और उनका वचन आदेय माना जाता है ऐसी परंपरा प्रचलित है। प्रदक्षिणा एवं नमन
समवसरण में आकर चैत्यवृक्ष या सिंहासन को तीन प्रदक्षिणा करते हैं। जीताचार से अरिहंत प्रभु प्रदक्षिणा करते हैं-ऐसा पाठ नियुक्ति का है, पर यहाँ प्रदक्षिणा किसको दी जाती है इस बारे में कुछ भी नहीं लिखा है। चूर्णिकार इसी गाथा की चूर्णि में "चेतियरुक्खं आदाहिणं" यह प्रदक्षिणा चैत्यवृक्ष को की जाती है, ऐसा कहते हैं। परन्तु कुछ चरित्रकर्ता चैत्यवृक्ष को प्रदक्षिणा करने का कहते हैं और कुछ चरित्रकर्ता सिंहासन को प्रदक्षिणा करने का कहते हैं।
चाहे चैत्यवृक्ष को प्रदक्षिणा करने का कहें चाहे सिंहासन को अर्थ एक ही है। क्योंकि अशोकवृक्ष के ऊपर चैत्यवृक्ष होता है और चैत्यवृक्ष को ही चार सिंहासन लगे हुए होते हैं। प्रस्तुत प्रक्रिया का महत्व दर्शाते हुए मल्लिनाथ चरित्र में ऐसा कहा है कि“विदधेऽवश्यकार्याणि जिना अपि वितन्वते" अवश्य करने का कार्य तो जिनेश्वर भी करते हैं। ___ एक समाधान यह भी है कि वृक्ष प्रदूषण को हटाने वाला और शुद्ध वायु के द्वारा वातावरण को विशुद्ध एवं विस्तृत करने वाला माना जाता है। बाहर से आते हुए जीवों को दूर से पहले इसी के दर्शन होते हैं। इसे प्रदक्षिणा देने से प्रभु की देह रश्मियाँ वृत्ताकार होकर विस्तृत हो जाती हैं। अल्फा कणों का विस्तार होता है। आनंद एवं प्रसन्नता का प्रसार होता है। पूरे वातावरण में मधुरता छा जाती है। "मैं ऐसा करूँ
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१९८ स्वरूप-दर्शन इसलिये ऐसा होवे"-ऐसी कोई कामना तीर्थंकर नहीं करते हैं। परंतु यह सब सहज हो जाता है। जैसे देशना भी सहज देते हैं। ऐसी साहजिकता से हो जाने वाली वास्तविकता को ही जीताचार कहा जाता है। वरना किसी परंपरागत नियमों के पालन की अनिवार्यता से अरिहंत जुड़े या बँधे नहीं होते हैं।
प्रदक्षिणा करके "नमो तित्थस्स" कहकर तीर्थ को नमस्कार करते हैं। यहाँ शंका हो सकती है कि जिस तीर्थ की रचना वे करते हैं उसी को वे क्यों प्रणाम करते हैं ? यह भी समवसरण में जहाँ कि आगार और अणगार धर्म की प्ररूपणा और तीर्थ की स्थापना होती है। “नमो-तित्थस्स" कहकर यहाँ कौनसी आचारविधि की अभिव्यक्ति की . जा रही है ? ___"नमो" शब्द एक महत्वपूर्ण भाववाचक संज्ञा है। जिसका अर्थ होता हैं नमन हो। मैं नमन करता हूँ और नमन होवे इसमें बहुत अन्तर है। नमस्कार करना कर्तव्य है, व्यवहार है। नमस्कार हो जाना साहजिकता है। आदरभावों को प्राप्त कर नमस्कार सहज हो जाते हैं। करना कर्तव्य है, व्यवहार एवं आचार है। तीर्थंकर द्वारा तीर्थ के ' प्रति होने वाला नमस्कार तीर्थ का महत्व है। जिसकी उन्हें स्थापना करनी है वह धर्म . भी तीर्थ है। जिस रूप में करनी है वह संघ भी तीर्थ है। जिस प्रवचन की प्ररूपणा होती है वह भी तो तीर्थ है। इतना ही नहीं तीर्थंकर बनाने वाला यह शासन जिसको पाकर साधक तीर्थंकर बनता है वह भी तीर्थ है।
फिर समस्त धर्म का प्रारंभ भी अहं के विसर्जन द्वारा संभव है और नमन के बिना अहं का विसर्जन असंभव है। अतः तीर्थ के नमस्कार रूप प्रभु का यह जीताचार संपूर्ण शासन के प्रति महान प्रेरणा है, स्थापना की जाने वाले तीर्थ का आदर है और एक अनिवार्यता का शुभ आरंभ है। इस प्रकार “नमो तित्थस्स" तीनों काल का शुभ सामंजस्य और सृष्टि के सत्त्व को प्रकट करने वाला महत्त्वपूर्ण योगबल है।
आवश्यक चूर्णि में इसका समाधान इस प्रकार प्रस्तुत किया है-श्रुतज्ञान से भगवान् का तीर्थंकरत्व होता है। परमात्मा श्रुतज्ञान व्यतिरिक्त (रहित) होने पर भी श्रुतज्ञान से वचनयोग वाले होकर धर्म कहते हैं। लोक पूजित का पूजक है तो यदि मैं इसकी पूजा करूँ तो लोग भी इसे “तीर्थकर इसको महान मानते हैं तो न जाने इसमें क्या होगा ?" ऐसा सोचकर इसकी पूजा और रक्षा करेंगे।
विनयमूलक धर्म की प्ररूपणा करनी है तो मैं ही क्यों न पहले इसका पालन करूँ? सिंहासन पर आरूढ़ परमात्मा
तीर्थ को नमस्कार करके परमात्मा पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर बैठते हैं। सिंहासन का वर्णन करते हुए तिलोयपण्णत्ति में कहा है-तृतीय पीठ के ऊपर एक-एक गंधकटी होती है। गन्धकुटियों के मध्य में पादपीठ सहित, उत्तर स्फटिक मणियों से निर्मित और घटाओं के समूहादिक से रमणीय सिंहासन होते हैं। रनों से खचित उन सिंहासनों की
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ऊँचाई तीर्थंकरों की ऊँचाई के योग्य हुआ करती हैं। अरिहंत परमात्मा उन सिंहासनों के ऊपर आकाश-मार्ग में चार अंगुल के अन्तराल से स्थित रहते हैं।
भरतेश-वैभव में कहा है-सबसे ऊपर के पीठ पर उनके रत्नों के द्वारा कीलित चार सिंह होते हैं। उन सिंहों के ऊपर हजार दल वाला एक सुवर्ण कमल होता है। उस पद्मकर्णिका से ४ अंगुल स्थान को छोड़कर उस कमल का स्पर्श न करते हुए अरिहंत प्रभु पद्मासन में विराजित होते हैं। बारह प्रकार की पर्षदा
प्रभु के सिंहासन पर विराजने पर श्रोताओं के बैठने की विशेष व्यवस्था समवसरण की विशिष्टता है।
प्रथम ज्येष्ठ गणधर अथवा दूसरे गणधर (सबसे बड़े सबसे पहले होते हैं वे न हों तो उनसे छोटे इस प्रकार क्रम समझना) अरिहंत प्रभु को प्रणाम कर अग्निकोण में प्रभु के पास बैठते हैं, उनके पीछे अन्य गणधर बैठते हैं। तत्पश्चात् केवलज्ञानी जिनेश्वर को तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करके अनुक्रम से बैठे हुए गणधरों के पीछे बैठते हैं। केवली भगवान केवलज्ञानवान होने पर भी गणधरों की पदस्थ स्थिति का गौरव संभालते हैं। केवलज्ञानी कृतकृत्य होने से और उनका कल्प होने से वे जिनेश्वर को नमन नहीं करते हैं परंतु अरिहंत से नमस्कृत ऐसे तीर्थ को नमन करते हैं। केवलज्ञानी के पीछे मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी चौदहपूर्वी आदि बैठते हैं। उनके पीछे अतिशय वाले साधु बैठते हैं। उनके पीछे अन्य मुनिवृन्द बैठते हैं। वे सर्व अरिहंत, तीर्थ, गणधर
और केवलियों को और अरिहंतादिक को नमस्कार कर बैठते हैं। उनके पीछे वैमानिक . देवी अरिहंतादिक को नमस्कार कर खड़ी रहती हैं, उनके पीछे साध्वियों खड़ी रहती
हैं। इस प्रकार की पर्षदाएँ पूर्वद्वार से समवसरण में प्रवेश कर अरिहंतादिक को तीन प्रदक्षिणा देकर अग्निकोण में स्थित होती हैं।
' भवनपति, वाणव्यंतर एवं ज्योतिषी देवियाँ दक्षिण द्वार से प्रवेश कर नैऋत्यकोण में बैठती हैं। बैठने का यह विधान नियुक्तिकार ने बतलाया है। हेमचन्द्राचार्य ने खड़ी रहती हैं ऐसा कहा है। भवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क देव पश्चिम दिशा से प्रवेश कर वायव्य कोण में बैठते हैं। इन्द्रसहित वैमानिक देव, राजन् पुरुष एवं स्त्रियाँ उत्तर द्वार से प्रवेश कर ईशान कोण में बैठते हैं। इस प्रकार प्रत्येक दिशा में तीन-तीन संनिविष्ट होते हैं। अल्पऋद्धिवाले देव महर्द्धिक देवों को प्रणाम कर स्व-स्थान पर बैठ जाते हैं। यहाँ एक दूसरे से मत्सरभाव नहीं होता है।
उपरोक्त विवरण में एक नया सन्दर्भ मिलता है, वह यह कि साधु उत्कटिकासन में बैठकर, देवियाँ तथा साध्वियाँ खड़ी रहकर और अन्य सर्व पर्षदाएँ सूर्य समान परमात्मा की देशना बैठकर ही श्रवण करती हैं।' १. काललोक प्रकाश-सर्ग-३०, श्लो. ९४०-९४१, पृ. ३०७ ।
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२00 स्वरूप-दर्शन
समवसरण वृत्ताकार है। परमात्मा बीच में और श्रोतावर्ग उनके चारों तरफ रहता है। आने और बैठने का विशेष क्रम जो ऊपर दर्शाया है, वह भी दक्षिणावर्त ही है। इसी प्रकार आकर प्रभु को प्रदक्षिणा भी दक्षिणावर्त दी जाती है। इस प्रकार पुरातन काफी वृत्तियों का परावर्तन तो प्रभु के प्रवचन के पूर्व ही हो जाता है। फिर दूसरी बात समवसरण में निर्धारित उपरोक्त क्रम, व्यवस्था विशेष हेतु ही है बाकी तो उसकी रचना ऐसी है-सबसे पीछे बैठा हुआ स्वयं को प्रभु के निकट ही पाता है। सम + अवसरण = समवसरण। जहाँ सभी के अवसरण (बैठने की व्यवस्था) समान है उसे समवसरण कहा जाता है।
समवसरण की दूसरी विशेषता यह भी है कि उपरोक्त क्रम जो वैधानिक है और रत्नगणी हैं वे आदरणीय हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ कोई भी कभी भी आवे अपने नियत मंडल में जाकर बैठता है। कोई बाद में आकर आगे बैठने की धृष्टता नहीं करता है। चाहे वह कोई भी हो; क्योंकि समवसरण समभाव का आगार है।
विदिशाएँ .. श्रवण विधि
अग्निकोंण
बैठकर खड़े रहकर
नैऋत्य कोण
"
बारह प्रकार की आगमन द्वार पर्षदा
एवं दिशाएँ १. साधु २. वैमानिक
देवियाँ ३. साध्वियाँ ४. भवनपति देवियाँ दक्षिण ५. व्यंतर देवियाँ ६. ज्योतिषी
" देवियाँ ७. भवनपति देव पश्चिम ८. व्यंतरदेव ९. ज्योतिषी देव १०. इन्द्र सहित
वैमानिक देव ११. मनुष्य १२. मनुष्य की
स्त्रियाँ
व्यायव्य कोण
उत्तर
ईशान कोण
तिर्यंच द्वितीय प्राकार में देशना श्रवण करते हैं।
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केवलज्ञान-कल्याणक २०१
दिगम्बर-परम्परा
प्रस्तुत श्वेताम्बरीय बारह पर्षदा के वर्णन से दिगम्बर परम्परा में बहुत कुछ विभिन्नता पाई जाती है। वह यह कि यहां पर बारह कोठों की विभिन्न तैयार की हुई व्यवस्था ही होती है। अतः इनके अनुसार निर्मल स्फटिकमणि से निर्मित दीवालों के बीच में बारह कोठे होते हैं। इन कोठों की ऊंचाई तत्कालीन जिनेन्द्र की ऊंचाई से बारहगुणी होती है। इन बारह कोठों में कौन किस प्रकार बैठते हैं इसका वर्णन करते हुए कहा है. प्रथम कोठे में अक्षीणमहानसिक ऋद्धि तथा सर्पिरानव, क्षीरानव व अमृताम्रवरूप रसऋद्धियों के धारक गणधर देव-प्रमुख साधु बैठा करते हैं।
स्फटिक मणिमय दीवालों से निर्मित दूसरे कोठे में कल्पवासिनी देवियां और तीसरे कोठे में आर्यिकायें (साध्वियां) तथा श्राविकाएँ बैठा करती हैं। ___ चतुर्थ कोठे में संयुक्त ज्योतिषी देवों की देवियां और पांचवें कोठे में व्यन्तर देवों की देवियां बैठा करती हैं। . __छठे कोठे में भवनवासिनी देवियां और सातवें कोठे में दश प्रकार के भवनवासी देव बैठते हैं।
आठवें कोठे में किन्नरादिक आठ प्रकार के व्यन्तर देव और नौवें कोठे में सूर्यादिक ज्योतिषी देव बैठते हैं। - दशवें कोठे में सौधर्म स्वर्ग आदि से लेकर अच्युत स्वर्ग तक के देव और उनके इन्द्र तथा ग्यारहवें कोठे में चक्रवर्ती, माण्डलिक राजा एवं मनुष्य बैठते हैं।
बारहवें कोठे में हाथी, सिंह, व्याघ्र और हरिणादिक तिर्यंच जीव बैठते हैं। इनमें पूर्व वैर को छोड़कर शत्रु भी उत्तम मित्रभाव से युक्त होते हैं। भगवत् प्रभाव से सभी का समावेश
समवसरण बारह कोस प्रमाण ही होने पर भी कितने ही जिज्ञासु श्रोता आवें उसमें सभी समा जाते हैं। करोड़ों योजा के विस्तार का आकाश प्रदेश जिस प्रकार अवकाश देता है, उसी प्रकार समागत भव्य भगवत्-प्रभाव से समवसरण में समा जाते हैं। जिस प्रकार हजारों नदियां आकर मिलें और पानी कितना ही बरसे तो भी- समुद्र उस पानी को अपने में समा लेता है व अपनी मर्यादा से बाहर नहीं जाता है, उसी प्रकार समवसरण आये हुए समस्त भव्यों को स्थान देता है।
एक-एक समवसरण में पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण विविध प्रकार के जीव जिनदेव की वन्दना में प्रवृत्त होते हुए स्थिर रहते हैं। कोठे के क्षेत्र से यद्यपि जीवों का क्षेत्रफल असंख्यातगुणा है, तथापि वे सर्व जीव जिनदेव के माहात्म्य से एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं। जिन भगवान् के माहात्म्य से बालक प्रभृति जीव प्रवेश करने अथवा
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२०२ स्वरूप-दर्शन निकलने में अंतर्मुहूर्त काल के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं। इसमें मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते हैं तथा अनध्यवसाय से युक्त, संदेह से संयुक्त और विविध प्रकार की विविधताओं से युक्त जीव भी नहीं होते हैं।
ऐसे अपूर्व समवसरण को जिस साधु ने पहले कभी न देखा हो वह यदि समवसरण से बारह योजन भी दूर हो तो उसे आना ही पड़ता है। यदि वह न आवे तो उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।' बलि-विधान
ऐसे अद्भुत समवसरण में प्रभु देशना देते हैं। आवश्यकनियुक्ति, बृहत्कल्पभाष्य एवं चरित्रों में एक और भी कथन है कि देशना के पश्चात् छिलकों से रहित, अखंड
और उज्ज्वल शालि (चावल) से बनाया हुआ और थाल में रखा हुआ चार प्रस्थ (सेर) बलि समवसरण के पूर्व द्वार से अन्दर लाया जाता है। देवगण उसमें खुशबू डालकर दुगुना सुगंधित बना देते हैं। प्रधान पुरुष उसे उठाकर लाते हैं। उसके आगे दुंदुभि बजती है। उनकी निर्घोष (ध्वनि) से दिशाओं के मुखभाग प्रतिघोषित (प्रतिध्वनित) हो उठते हैं। स्त्रियाँ उसके पीछे मंगलगीत गाती हुई चली आती हैं। यह ऐसा लगता है मानों प्रभु के प्रभाव से जन्मा हुआ, पुण्य का समूह हो। फिर कल्याणरूपी लता समूह के बीज समान तथा त्रिभुवन के विघ्नसमूह को नष्ट करने वाला वह बलि प्रभु की प्रदक्षिणा कराके उछाला जाता है। मेघ के जल को जैसे चातक ग्रहण करता है वैसे ही आकाश से गिरते हुए उस बलि के आधे भाग को देवता अन्तरिक्ष में ही (जमीन पर गिरने से पहले ही) ग्रहण कर लेते हैं। पृथ्वी पर गिरने के बाद उसका (गिरे हुए का) आधा भाग चक्रवर्ती या राजा ग्रहण करते हैं और जो शेष रह जाता है उसे गोत्र वालों की तरह अन्य सर्व लोग आपस में बांट लेते हैं। उस बलि के प्रभाव से पूर्वोत्पन्न रोगों का नाश हो जाता है और छः महिने तक पुनः नये रोग नहीं होते हैं। यह विधि श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों को मान्य है। परंतु यह भावावेश की अभिव्यक्ति मात्र होनी चाहिए। क्योंकि अरिहंत को स्वयं इसमें कुछ नहीं करना होता है। समवसरण कब और कितने समय में रचा जाता है
ऐसा यह भव्य समवसरण कब और कितने समय में तैयार किया जाता है? इस प्रश्न के उत्तर में हेमचन्द्राचार्य कहते हैं-"जब समवसरण की आवश्यकता हो तब मानो वह पहले ही से तैयार रखा हो और उसे वहाँ से उठाकर रख दिया जाता है। ऐसे क्षणभर में ही देव और असुर मिलकर रचते हैं। इस प्रकार अतिशीघ्र इसकी रचना की जाती है। वह पहले से या हमेशा निर्मित नहीं होता है, परंतु क्षणभर में ही इसका निर्माण किया जाता है।
१. आवश्यक नियुक्ति-गा. ५६८; बृहत्कल्प भाष्य-गा. ११९५
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उदाहरणार्थ-श्रमण भगवान महावीर जिस नगरी में पधारने वाले हों और वहां यदि समवसरण की आवश्यकता हो तो देव तत्काल ही, प्रभु के आगमन के पूर्व ही समवसरण तैयार कर लेते हैं और परमात्मा उस नगरी में आकर सीधे उस समवसरण में ही प्रवेश करते हैं। . तात्पर्य यह है कि भगवान् जहां पधार रहे हों उस ग्राम, नगरादि में यदि पहले कभी समवसरण न हुआ हो वहां तथा कभी भक्तिवश महर्द्धिक देवों के आगमन आदि कारणों से जब समवसरण की आवश्यकता हो तब हर समय समवसरण की रचना की जाती है। इसी कारण चरित्रों से ऐसा ज्ञात होता है कि श्रमण भगवान् महावीर के कई ग्रामों में कितनी ही बार समवसरण लगे थे। इन में से कुछ समवसरणों की तालिका नीचे दी है
१. जृम्भीक ग्राम के बाहर-ऋजुबालुका नदी के तट पर २. मध्यमा नगरी के समीप-बहुशाल नामक उद्यान में, यह दूसरा समवसरण ___ अपापा नंगरी के समीप-महासेनवन उद्यान में होने का उल्लेख भी मिलता है। ३. बाह्मण कुंडग्राम में ४. क्षत्रिय कुंडग्राम में ५. कौशांबी नगरी में ६. कौशांबी नगरी में . ७. राजगृह नगरी-वैभरगिरि पर्वत के समीप ८. राजगृह नगरी
९. दशार्ण नगरी .. १०. कुंडग्राम
११. अपापानगरी .. दिगम्बर-मान्यता
- समवसरण की रचना का प्रस्तुत विधान श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार है, परंतु - दिगम्बर मान्यता इससे बिलकुल विपरीत है। उनके अनुसार समवसरण समुद्र में एक स्थान में ठहराये हुए नवरत्न निर्मित जहाज के समान होता है, एक बार निर्माण करने के पश्चात् यह सदा परमात्मा के साथ ही रहता है, जिस समय परमात्मा का विहार होता है उस समय वह आकाश में रहा हुआ समुद्र के जहाज के समान दर्शित होता है। जहाँ परमात्मा विश्राम करते हैं वहां वह भी ठहर जाता है। जैसे नाविक की इच्छानुसार जहाज की गति व स्थिति होती है वैसे ही परमात्मा के गमनागमन के अनुसार समवसरण की स्थिति होती है। यहां पर समवसरण का पुनः पुनः निर्माण एवं विनाश हो जाना नहीं माना गया है। इनके अनुसार तो समवसरण परमात्मा के मुक्तिगमन तक
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२०४ स्वरूप-दर्शन एक ही होता है। भगवन्त के मुक्त हो जाने पर उनके देह के साथ समवसरण भी अदृश्य हो जाता है, जैसे मेघपटल व्याप्त होकर अदृश्य हो जाता है। ___ इस परंपरा में समवसरण सम्बन्धी एक और भी विशेष विभिन्नता पाई जाती है। वह यह कि यह समवसरण जमीन से अधर आकाश में तीन लोक के आधारभूत राजमहल के समान होता है। भूलोक को अत्यन्त आश्चर्यकारक इस समसवरण का कोई आधार नहीं होता है। जमीन से अधर पांच हजार धनुष छोड़कर आकाश-प्रदेश में और धूलिसाल परकोट से एक हस्तप्रमाण छोड़कर होता है। अर्थात् पर्वत से धूलिसाल ५00 धनुष और धूलिसाल से हस्तप्रमाण इतना ऊँचा और अधर यह होता है फिर भी नीचे से जोर से आवाज देने पर ऊपर तक सुनाई दे सकती है। .. ___ सोपानों की प्रस्तुत मान्यता तो दैवीय रचना के अनुसार मानी जा सकती हैं, परंतु जमीन से पृथक सोपान तक चढ़ने की व्यवस्था के बारे में यहाँ मौन रखा गया है। पांचसौ धनुष अधर आकाशस्थित इस समवसरण के पहले सोपानों को मानव पशु या स्वयं परमात्मा वैसे छू सकते हैं और कैसे उपर चढ़ सकते हैं ? अतः संभव है प्रस्तुत मान्यता सिर्फ विहार-वर्णन के अनुसार हो और यह नाप भी इसी हेतु दिया गया हो
और परमात्मा जहाँ विराज जाते हों वहाँ समवसरण हस्तप्रमाण अंधर रह जाता हो। अथवा ५०० धनुष का यह नाप ऋषभदेव भगवान के समय के अनुसार हो, अतः परमात्मा की ऊँचाई के अनुसार समवसरण की भी ऊँचाई मानी गई हो. तो प्रत्येक तीर्थंकर की ऊँचाई जितनी ऊंचाई उस समय के समवसरण की हो सकती है। मनुष्य निज व्यवस्था से सहज पार कर सकता है। अष्टादशदोषरहितता
तीर्थंकर परमात्मा की आन्तरिक विशेषता का मूलाधार अष्टादशदोषरहितता है, वे अठारह दोष इस प्रकार हैं१. लाभान्तराय - आत्मा के सहज स्वरूप की उपलब्धि नहीं होना। . २. वीर्यान्तराय - आत्मा में अनन्त शक्ति, तेज, बल आदि होने पर भी
उसकी उपयोगरहितता होना। ३. भोगांतराय - आत्मा के सहज स्वरूप की अनुभूति नहीं होना। ४. दानांतराय आत्मा के सहज स्वरूप को अन्य में प्रकट नहीं करवा
सकना। ५. उपभोगांतराय - आत्मा का अनन्त ऐश्वर्य होते हुए भी उसका उपभोग
नहीं हो सकना। ६. हास्य
मजाक या मश्करी करना। ७. रति - अनुकूल पदार्थों पर आसक्ति करना।
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८. अरति - प्रतिकूल पदार्थों का तिरस्कार करना। ९. भय
भयभीत होना। १०. जुगुप्सा - मलिन वस्तुओं से घृणा करना। ११. शोक - मन विकल होना और संवेदनशील मानस। १२. दर्शनमोह-मिथ्यात्व- जो चीज जैसी है उसे वैसी नहीं समझना। १३. राग
सुख सामग्री में आसक्ति होना। १४. द्वेष . - दुःख-स्मरण कर अथवा दुःख उपजाने वाली वस्तु या
व्यक्ति के ऊपर क्रोध होना। १५. अविरति अप्रत्याख्यान-किसी भी वस्तु के त्याग का नियम प्रतिज्ञा
या प्रत्याख्यान नहीं होना। १६. अज्ञान - स्वरूप ज्ञान का अभाव। १७. निद्रा - नींद आना। १८. कामसेवन - स्त्री-पुरुष के परस्पर की मैथुनेच्छा। ___ उपरोक्त अठारह दोषों से रहित अरिहन्त परमात्मा होते हैं। ये अठारह दोष इतने गहन हैं कि सारी दुनिया के सर्व दोष इनमें समा जाते हैं, अतः जिनके इन सर्व दोषों का सर्वथा अभाव हो चुका है ऐसे व्यक्ति असाधारण मानव परमात्मा स्वरूप माने जायँ तो आश्चर्य भी नहीं माना जायेगा। क्योंकि एक दो नहीं सर्व अठारह दोषों की रहितता अरिहंत परमात्मा की आत्मविशुद्धि के बिना उपलब्ध नहीं हो सकती है। ऐसी • आत्म विशुद्धि हेतु साधक को सतत प्रयत्नशील रहना पड़ता है। • सप्ततिशतस्थानक में प्रकारांतर से अठारह दोष दर्शाते हुए कहा है
१. हिंसा, २. मृषावाद, ३. अदत्तादान, ४. क्रीड़ा, ५. हास्य, ६. रति, ७. अरति, ८. भय, ९. शोक, १०. क्रोध, ११. मान, १२. माया १३. लोभ, १४. मद, १५. मत्सर, १६. अज्ञान, १७. निद्रा और १८. प्रेम। बारह गुण - चार मूलातिशयों में अरिहंत के सर्व अतिशय समा जाते हैं। इन्हें मूलातिशय कहने का मतलब है कि ३४ अतिशय, वाणी के गुण, अष्टमहाप्रातिहार्य सब कुछ इन चार अतिशयों का विशद वर्णन है जिसे हम अतिशयों में देखेंगे।
१. अपायापगमअतिशय २. ज्ञानातिशय ३. पूजातिशय ४. वचनातिशय ये चार मूलातिशय और अष्ट महाप्रतिहार्य ऐसे १२ गुण अरिहंत के माने जाते हैं।
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२०६ स्वरूप-दर्शन प्रातिहार्य
तीर्थंकर परमात्मा को जब केवलज्ञान हो जाता है तब से चारों निकाय के देव प्रभु की सेवा में निरन्तर आते रहते हैं। देशना के समय सुवर्ण-रजत एवं मणिरत्न से युक्त तीन गढ़ वाले समवसरण में अष्टमहाप्रातिहार्य होते हैं जो केवलज्ञान की उत्पत्ति के बाद सतत साथ रहते हैं। अरिहंत परमात्मा की पहचान के ये विलक्षण चिन्ह हैं। क्योंकि तीर्थंकर परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी को हो नहीं सकते हैं। संख्या भी आठ ही होती है। आज तक जितने अरिहंत हुए हैं उन सभी को ये ही आठ प्रातिहार्य थे। इन प्रातिहार्यों को धारण करने की अर्हता वाले जो होते हैं वे ही अरिहंत कहलाते हैं। अरिहंत शब्द की व्याख्या में इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है।
बौद्ध साहित्य में बुद्ध को भी १५ प्रातिहार्य होने का उल्लेख प्राप्त होता है। यह मात्र सामयिकता का ही प्रभाव होना चाहिए। क्योंकि जैन दर्शन तो इस बात को. स्वीकार करता है कि प्रातिहार्य महावीर के पहले भी सर्व तीर्थंकरों को थे ही, और उनकी संख्या आठ ही थी, तथा वे भी एक ही समान थे, अलग नहीं। बौद्ध साहित्य में : बुद्ध को १५ प्रातिहार्य होने का उल्लेख है। परन्तु वे इन अष्ट महाप्रातिहार्य से सर्वथा . भिन्न हैं। प्रातिहार्य सम्बन्धी जो भी स्वरूप यहाँ दर्शाया गया है, वस्तुतः वह तपस्वियों की ऋद्धि और लब्धि है। संभव हैं तप के प्रभाव से बद्धको ऐसी लब्धियाँ प्राप्त हई हों। इन लब्धियों को ही यदि प्रातिहार्य कहा जाय तथा ऐसे प्रातिहार्य से जो युक्त हो उन्हें अरिहंत कहा जाय तो फिर अन्य साध और अरिहंत में क्या अंतर हो सकता है, क्योंकि जैन साहित्य में गौतमस्वामी आदि को भी लब्धियाँ थीं। इसी कारण वे सूर्य की किरणों का सहारा लेकर अष्टापद पर्वत पर सहज आरूढ़ हो गये थे। पात्र में रही अल्प खीर को चरण के अंगुष्ठ के स्पर्श मात्र से अनल्प कर उन्होंने १५०० तापसों को क्षीर का भोजन कराया था। ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ लब्धि के प्रयोग से अशक्य शक्य हो जाते हैं।
बुद्ध का प्रथम प्रातिहार्य है-उन्होंने क्रान्ति संपन्न और आशीविष चंड-नागराज के तेज को स्वयं के तेज द्वारा खींच लिया था। यह कथन प्रभु महावीर की एक घटना से मिलता हुआ है। चंडकौशिक ने भगवान महावीर के श्रीचरणों में दंश दिया। परन्तु महावीर ने उसके तेज का न हरण किया, न अभिभूत हुए। उन्होंने अपने करुणामय भावों से वास्तविकता को प्रकट किया। काटने के बाद भय से सर्प दूर जाता है कि शायद शिकार मेरे पर गिर जाएगा। परन्तु प्रभु को स्थिर देख उसने ऊपर भगवान की
आँखों में देखा, जहाँ विश्ववात्सल्य उभर रहा था। प्रभु ने वात्सल्यमय नयनों के परमतेज और परा वाणी के ओज से उसे संबोधित किया। इस वात्सल्यमय संबोधन से
१. विनयपिटक, महावग्ग महास्कन्धक १४, पृष्ठ २५
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चंडकौशिक का वीर्योल्लास प्रकट हो गया। प्रभु के अनिमेष नयनों में वह निर्निमेष देखता रहा। देखते ही देखते उन्हीं नयनों में उसने स्वयं का भी विशेष रूप देखा। सत् जाग ऊठा। असत् टल गया। मैत्री ने सत्व को जगाया। जागकर वह झुक गया। विभूति के श्रीचरणों में समर्पित हो गया। कोई प्रयोग नहीं था प्रभु का चंडकौशिक को सम्मोहित करने का। इसे महावीर का प्रातिहार्य नहीं परन्तु सहज करुणा-परम प्रभावना माना जाता है।
इसी प्रकार अन्य प्रातिहार्यों में भी बुद्ध की इच्छा होते ही फलादि का सहज मिलना, कपड़े धोने की शिला का निर्माण, शीत के प्रकोप में उष्णता का आगमन, पानी गिरते समय बुद्ध का नहीं भीगना आदि वस्तुएँ भी गिनी हैं जो उनकी इच्छा से होती हैं, किन्तु प्रातिहार्य अरिहंत की इच्छाओं की पूर्ति में नियोजित कोई औपचारिकता नहीं है। प्रत्येक अरिहंत का यह सहज स्वाभाविक स्वरूप है जो अरिहंत को ही होता है अन्य किसी को नहीं। सम-सामयिक परिणति को प्रातिहार्य कहने मात्र से प्रातिहार्य नहीं हो सकता। .
वस्तुतः प्रातिहार्य के शाब्दिक विन्यास में इसकी स्पष्टता है कि "प्रतिहारा इव प्रातिहाराः सुरपति नियुक्ता देवास्तेषां कर्माणि-कृत्यानि-प्रातिहार्यणि।" प्रातिहार्य की इस व्याख्या के अनुसार देवेन्द्रों द्वारा नियुक्त प्रातिहार सेवक का कार्य करने वाले देवता को अरिहंत के प्रतिहार कहते हैं और उनके द्वारा भक्ति हेतु विकुर्वित अशोकवृक्षादि को प्रातिहार्य कहते हैं। इसकी सरल व्याख्या इस प्रकार है-"प्रत्येकं हरति स्वगर्म पार्श्वमानयति" (प्रति+ह+अण्)
अष्ट महाप्रातिहार्य का वर्णन : चार मूलातिशय और अष्ट महाप्रातिहार्य-ये बारह अरिहंत परमात्मा के गुण माने जाते हैं। अतः सर्वातिशयों में अष्ट महाप्रातिहार्य का महत्व विशेषाधिक है। यद्यपि चौंतीस अतिशयों के अंतर्गत अष्ट महाप्रातिहार्य का भी समावेश हो जाता है, फिर भी बारह गुणों के कारण इनका विशेष महत्व माना जाता है। इसी कारण प्राचीन स्तोत्रों में • मंगलाचरण में इसी को विशेष स्थान देते हुए अरिहंत परमात्मा की स्तुति की गई है। ये
आठ अतिशय चौंतीस अतिशय के अंतर्गत होने पर भी प्रातिहार्य की तरह परमात्मा के साथ रहने से ये प्रातिहार्य कहे जाते हैं। जब समवसरण न हो तब भी ये अष्ट महाप्रातिहार्य परमात्मा के साथ ही रहते हैं।
ये अष्ट महाप्रातिहार्य इस प्रकार हैं :(१) अशोक वृक्ष (२) सुरपुष्पवृष्टि (३) दिव्यध्वनि
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२०८ स्वरूप-दर्शन (४) चामर (५) सिंहासन (६) भामंडल (७) दुंदुभि
(८) तीन छत्र अशोकवृक्ष
अष्ट महाप्रातिहार्य में अशोकवृक्ष सर्वप्रथम होता है।
समवायांग सूत्र के अनुसार अशोक वृक्ष की रचना यक्ष देवता करते हैं। पार्श्वनाथ चरित्र में अशोकवृक्ष को शक्र विकुर्वित करते हैं और वीतराग स्तव में कहा है कि
अशोकवृक्ष की रचना व्यंतर देवता करते हैं। ____ यह अशोकवृक्ष वेदिका से संयुक्त होता है तथा इसके मूल के पास देवच्छंद (देशना के अनन्तर बैठने का देव निर्मित स्थान) होता है और वहाँ चार दिशा में चार सिंहासन होते हैं। जगत में सर्वश्रेष्ठ सुन्दर वृक्ष इन्द्र के उद्यान में होता है। उस सुन्दर वृक्ष से भी. यह अशोक वृक्ष अनन्तगुना अधिक सुन्दर होता है।
अरिहंत परमात्मा जब समवसरण में पधारते हैं तब सर्वप्रथम अशोकवृक्ष को तीन प्रदक्षिणा करते हैं।
अशोकवृक्ष की विशिष्टता का कारण अरिहंत की समीपता ही है। ऐसे अशोकवृक्ष के नीचे अरिहंत परमात्मा का निर्मल स्वरूपं अत्यंत शोभायमान होता है। यह हमेशा अरिहंत परमात्मा के मस्तक पर रहता है। अरिहंत परमात्मा जब सिंहासन पर विराजमान होते हैं तब अशोकवृक्ष सिंहासन के ऊपर रहता है, तथा जब भगवंत विहार करते हैं तब भगवंत के साथ ही जन समुदाय पर भी छाया करता हुआ आकाश में चलता है। तात्पर्य यह है कि अशोकवृक्ष सदा अरिहंत के साथ ही रहता है।
वीतरागस्तव में इसका महत्व दर्शाते हुए कहा है-कषाय रूप दावानल से परितप्त और अत्यन्त कष्ट से पार की जाने वाली संसार रूप अटवी में अनादिकाल के परिभ्रमण से श्रान्त भव्य जीवों के लिए ये अरिहंत भगवंत ही महाविश्राम-वृक्ष हैं। __वह प्रमुदित होकर मानों ऐसा व्यक्त करता है कि “मैं तो अत्यंत भाग्यशाली हूँ कि इन विश्राम वृक्ष रूप भगवंत का भी मैं विश्रामवृक्ष हूँ क्योंकि ये अरिहंत भी अपने भक्तजनों के साथ स्वयं मेरी छाया में विश्रांति लेते हैं। इससे अधिक सौभाग्य जगत् में
और क्या हो सकता है ? सर्व जगत के मस्तक रूप रहे हुए भगवंत के भी मस्तक पर मैं हूँ।" ___अशोक वृक्ष का सुशोभन दर्शाते हुए प्रवचनसारोद्धार में कहा है-अशोकवृक्ष का स्कन्ध मनोरम आकार वाला होता है, शाखाएँ विशाल एवं विस्तीर्ण होती हैं एवं पल्लव
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केवलज्ञान-कल्याणक २०९ पत्रादि से नम्रीभूत होती हैं तथा अत्यन्त नजदीक, नवीन, कोमल रक्तवर्णक पल्लव समूह वाले पवन की मंद लहरों से चंचल और अविरल हिलते हुए पत्र वाला होता है। ___ अशोकवृक्ष के पुष्प सर्व ऋतुओं के, सुविकसित, सर्वोत्तम और उनमें से सतत निकलते हुए परिमल से आगत भ्रमरों से परिवेष्टित होते हैं तथा उन पर होने वाले भ्रमरों का रण-रण (झंकार) गुंजार वहाँ आये हुए भव्यात्माओं को श्रुति मधुर-संगीत अर्पित करता है। ____ अन्य सुशोभन :-पत्रों से संछन्न, पुष्पों एवं पल्लवों से समाकुल तथा छत्र, ध्वजा घंट एवं पलाकाओं से युक्त ऐसा श्रेष्ठ अशोकवृक्ष निरंघ्र गाढ़ छाया वाला और नीचे से यदि कोई देखता है तो उसे आकाश किंचित्मात्र भी दिखाई नहीं देता, सर्वत्र वृक्ष के पल्लव ही दर्शित होते हैं, ऐसा घना होता है। इसके नीचे बैठने वालों को तनिकमात्र भी सूर्य की धूप नहीं लगती, ऐसी गाढ़ छाया वाला होता है। उस छाया में अरिहंत परमात्मा भी अपने भक्त जनों के साथ विश्रान्ति लेते हैं। अतः सर्व जगत् के मस्तक पर रहा हुआ अशोक वृक्ष अरिहंत के मस्तक पर रहकर प्रमोद पाता है। पुष्प वृष्टि ___ समवायांग सूत्र में इस प्रातिहार्य हेतु पुष्योपचार शब्द का प्रयोग किया गया है। पुष्पोपचार का अर्थ टीकाकार ने पुष्प प्रकट किया है। पुष्प प्रकट का अर्थ होता है, पुष्प की व्यवस्थित संरचना, देवगण केवल पुष्प की वृष्टि ही करते हैं ऐसा ही नहीं है, वे पुष्प की सुव्यवस्थित रचना भी करते हैं। इस समय स्वस्तिक, श्रीवत्स आदि विशिष्ट .प्रकार की रचनाओं से यह पुष्पवृष्टि अत्यंत सुशोभित हो उठती हैं। ये पुष्प अधोमुखी वृन्तवाले, ऊपर से विकसित दलों वाले, अत्यन्त विकस्वर पंच वर्ण वाले, जल एवं स्थल से उत्पन्न, सुवासित, मनोहर, दिव्य एवं देवों द्वारा विकुर्वित होते हैं। पुष्प वर्णन
१. अधोमुखी वृन्त वाले, २. विकसित दलों वाले-विकस्वर, ३. पंचवर्णी ४. वैक्रिय से विकुर्वित ५. सुवासित
६. मनोहर पुष्पोपचार या पुष्पवृष्टि
१. जानुप्रमाण। . २. स्वस्तिक, श्रीवस्त आदि विशिष्ट प्रकार की प्रशस्त आकृतिमयी रचना में। ३. समवसरण में एक योजन तक और भगवन्त के आसपास सतत सर्वत्र।
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२१० स्वरूप-दर्शन ४. पुष्पवृष्टि में कल्पवृक्ष के पुष्प, पारिजात पुष्प, इत्यादि दिव्य पुष्प और
कुन्द-मुकुन्द, कमल, मालती आदि जलज स्थलज पुष्प सदृश होते हैं। ५. व्यंतर-देवता इन्द्रधनुष जैसी पंचवर्णी जानु प्रमाण पुष्पों की वृष्टि करते हैं। ६. सुवासित जल-बिन्दुओं से शुभ एवं मंद पवन से युक्त।
७. देवता एवं असुर हाथों द्वारा पुष्पवृष्टि करते हैं। दिव्य-ध्वनि
यह दिव्य ध्वनि देवताओं द्वारा की जाती है।
सर्वजनों को आह्वाददायक अरिहंत की ध्वनि को प्रातिहार्य क्यों कहा जाता है, ऐसा प्रश्न किया जाता है। इस प्रश्न के उत्तर में प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में कहा है - कि अरिहंत जब देशना देते हैं तब उनकी दोनों ओर रहे हुए देवताओं द्वारा वेणुवीणा
आदि की ध्वनियों से अरिहंत के शब्द विशेष कर्णप्रिय बनाये जाते हैं। भगवान प्रव्रजित होते हैं उस समय वाद्य बन्द कर दिये जाते हैं, वीणा, वेणु आदि की संगति नहीं होती है। यहाँ जितने अंश में देवों की ध्वनि (वाजिंत्र नाद) है उतने अंश में . प्रातिहार्य जानना।
वीतरागस्तव की टीका में इस बारे में कहा गया कि जब भगवंत देशना देते हैं । तब भगवान के स्वरों को देवगण चारों ओर एक योजन तक विस्तृत करते हैं। प्रसारित ध्वनि देवकृत होने से, उस अपेक्षा से दिव्य-ध्वनि कही जाती है। यह प्रातिहार्य
काललोक प्रकाश में कहा है कि___ मालकोश प्रमुख राग में कही जाती भगवान की देशना ध्वनि. में मिश्र होकर एक योजन तक फैलाई जाती है।
उपमिति में कहा है कि तीन प्राकार के बीच में बिराजमान भगवंत जब देशना देते हैं तब सतत आनन्दमयी ऐसी दिव्य ध्वनि सुनाई देती है। चामर
भुजाओं में अत्यंत मूल्यवान आभूषण पहने हुए दो यक्ष देव अरिहंत परमात्मा के दोनों ओर चामर वींजते हैं। चामरों की संख्या के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया गया है। वीतरागस्तव में चामरावली-चामरश्रेणी शब्द का उल्लेख किया गया है। जिससे ऐसा लगता है कि चामर अनेक हो सकते हैं पर संख्या का कोई विशेष क्रम श्वेताम्बर ग्रंथों में उपलब्ध नहीं होता है। दिगम्बर ग्रन्थों में इनकी निश्चित संख्या दर्शाते हुए कहा
चउसट्ठिचामरेहिं मुणालकुंदेन्दुसंखधवलेहिं ।
___ सुरकरपणच्चिदेहिं विज्जिज्जंता जयंतु जिणा ॥ १. तिलोयपण्णत्ति-चतुर्थ महाधिकार गा. ९२७, पृ. २६५
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केवलज्ञान-कल्याणक २११ . मृणाल, कुन्दपुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान सफेद तथा देवों के हाथों से नचाये गये चौंसठ चामरों से वींज्यमान जिन भगवान जयवन्त होवें।
ये चामर कमलनालों से सुन्दर तंतु जैसे स्वच्छ उज्ज्वल और सुन्दर आकार वाले होते हैं। चामर में रहे बाल (केश) इतने श्वेत एवं तेजस्वी होते हैं कि उनमें से चारों
ओर से किरणें निकलती हैं। दण्ड उत्तम रत्नों से खचित एवं सुवर्ण के होते हैं। वींजे जाते हुए ये चामर ऐसे लगते हैं, मानों इन्द्रधनुष नृत्य कर रहे हों। नमन और उन्नमन द्वारा सूचित करते हैं कि प्रभु को नमस्कार करने से सज्जन उच्चगति को प्राप्त करते हैं। झुककर नमस्कार करने वाले शुद्धभाव वाले होकर ऊर्ध्वगति यानी मोक्ष पद को प्राप्त करते हैं। सिंहासन
भगवन्त जब विहार करते हैं, तब पादपीठ सहित निर्मल स्फटिक मय उज्ज्वल सिंहासन भगवान के आगे आकाश में चलता है। भगवान विराजते हैं, तब समुचित स्थान पर नीचे व्यवस्थित हो जाता है। समवसरण में अशोकवृक्ष के मूल के चार दिशाओं में चार सिंहासन होते हैं।
सिंहासन का स्कन्दबन्ध (पीछे का पीठ टेकने का भाग) अत्यंत तेजस्वी एवं रक्तवर्ण का होता है। ये सिंहासन स्पष्ट दिखती ऐसी विकट दाढ़ाओं से युक्त विकराल सिंह जैसी आकृति पर प्रतिष्ठित होता है। यह सिंहासन अनेक उत्तम रलों से खचित होता है। रत्नों में से अनेक रंग की किरणें निकलती हैं। देवताओं द्वारा रचित ऐसे सुन्दर विशाल सिंहासन का वर्णन कौन कर सकता है। प्रत्येक सिंहासन के आगे जिनके रल में से अत्यन्त प्रकाशमान ज्योति समूह निकल रहा है, ऐसा पादपीठ होता है। उसका दिव्य प्रकाश ऐसा लगता है, मानो भगवान के पादस्पर्श की प्राप्ति से उल्लास वाला बन गया हो। __समवसरण के मध्य में चार दिशा में चार सिंहासन होते हैं। जिसमें एक सिंहासन पर परमात्मा स्वयं बिराजते हैं और अन्य तीन पर परमात्मा के तीन प्रतिरूप रहते हैं। भरतेश वैभव में सिंहासन का वर्णन करते हुए कहा है कि एक पीठ वैडूर्यरत्न के द्वारा निर्मित है, उसके ऊपर सुवर्ण के द्वारा निर्मित दूसरा पीठ है। उसके ऊपर अनेक रलों से निर्मित पीठ है। इस प्रकार रत्नत्रय के समान एक के ऊपर एक पीठत्रय विराजमान
सबसे ऊपर के पीठ पर अनेक रत्नों के द्वारा कीलित चार सिंह हैं। उनकी आंखें खुली व लाल, उठा हुआ पुच्छ एवं केशर, जटाजाल बिखरा हुआ है। पूर्व, पश्चिम, दक्षिण व उत्तर दिशा की ओर उनमें एक-एक सिंह की दृष्टि है। उन सिंहों के ऊपर एक सुवर्ण कमल हजार दल से युक्त है। केशर व कर्णिका से युक्त होने के कारण दशों
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२१२ स्वरूप-दर्शन ही दिशाओं को अपनी सुगंध से व्याप्त कर रहा है। तिलोयपण्णत्ति में सिंहासनों की ऊँचाई तीर्थंकर के बराबर बताई है। भामण्डल __ भामण्डल प्रातिहार्य प्रत्यक्ष परमात्मा के दर्शन में और अप्रत्यक्ष परमात्मा के ध्यान में अत्यन्त उपयोगी प्रातिहार्य है। समवायांग सूत्र के अंतर्गत इस मामण्डल का स्वरूप दर्शाते हुए कहा है-इसिं पिट्ठओगडठाणमि तेयमंडलं अभिसंजायई अंधकारे वि. य णं दस दिसाओ पमासेई। अर्थात् भगवन्त के मस्तक के बहुत ही नजदीक पीछे के भाग में तेजोमण्डल प्रभावों का एक वर्तुल घाति कर्मों का क्षय होते ही समुत्पन्न होता है। यह २.जोमण्डल अंधकार में भी दसों दिशाओं को प्रकाशित करता है। यहाँ भामण्डल को तेजोमण्डल नाम दिया गया है। अभिधान चिंतामणि में भामण्डल की व्याख्या करते हुए .
कहा है
“भानां प्रमाणां मण्डलं भामण्डलम्" अर्थात् भा-प्रभा, मण्डलं-वर्तुल। प्रभा-तेज का वर्तुल भामण्डल कहा जाता है। .
यह भामण्डल आकाश को प्रकाशित करने वाला, सूर्य के आकार को धारण करने वाला, परमात्मा के शरीर को उल्लसित करने वाला, अतिसुन्दर बारह सूर्यों की कांति से भी अधिक तेजस्वी, मनोहर होता है। इसकी तेजस्विता तीनों जगत के द्युतिमान पदार्थों की धुति का तिरस्कार करती है।
भामण्डल की आवश्यकता दर्शाते हुए वर्धमान देशना में कहा है-भगवन्त का रूप अति तेजस्वी होता है, अतः दर्शनार्थी को दर्शन अतिदुर्लभ होते हैं। उनके सर्व तेज का एक पिंड होकर परमात्मा के मस्तक के पीछे भामण्डल के रूप में रह जाता है। अतः परमात्मा के दर्शन करने की अभिलाषा वाले जीव उनके रूप को आनंद से देख सकते हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय की ऐसी भी मान्यता है कि भव्यात्मा इस भामण्डल में अपने बीते तीन भव, एक वर्तमान और आगामी तीन भवों को देख सकता है। दुंदुभि
परमात्मा के सान्निध्य में ऊपर आकाश में भुवनव्यापी दुंदुभि ध्वनि होती है। प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में "भैरि" और "महाढक" इसके पर्यायवाची शब्द कहे हैं।
दुंदुभि-नाद सुनते ही आबाल वृद्ध जनों को अत्यधिक आनंद का अनुभव होता है और देवाधिदेव अरिहंत के आगमन की सूचना भी सर्वजनों को एक साथ मिलती है। तीनों जगत् के सर्व प्राणियों को उत्तम पदार्थ की प्राप्ति में यह दुन्दुभि समर्थ है। सद्धर्मराज अर्थात् परम उद्धारक तीर्थंकर भगवान की समस्त संसार में जयघोषणा कर सुयश प्रकट करती है।
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केवलज्ञान-कल्याणक २१३
. यह दिव्य देव दुंदुभि देवों के हस्ततल से ताड़ित अथवा स्वयं शब्द करने वाली होती है। यह स्वयं के गंभीर नाद से समस्त अन्तराल को प्रतिध्वनित करती है। दुंदुभि-रहस्य
१. विश्व में गणधरादि आप्त-पुरुषों को परमात्मा का परिपूर्ण साम्राज्य अथवा धर्मचक्रवर्तित्व सूचित करता है।
२. विषय-कषाय में अनासक्त और निर्मोही होकर श्री अरिहंत की शरण में आओ ऐसी उद्घोषणा करता है।
३. अरिहंत के विद्यमान रहते हुए प्राणियों को कर्मजन्य कष्ट क्यों हो सके ? इस प्रकार घोषणा करता है। जो सचमुच पीड़ित हैं वह दुन्दुभि नाद से भगवान के आगमन का बोध पाकर उनका सान्निध्य ग्रहण करते हैं।
४. दुन्दुभि ध्वनि तीनों जगत के लोगों को प्रमाद त्यागकर मोक्ष नगरी के सार्थवाह ऐसे अरिहंत भगवंत की आराधना का निवेदन करता है।
५. अरिहंत का प्रयाणोचित कल्याण-मंगल सूचित करता है।
६. अरिहंत भगवंत के धर्मराज्य की घोषणा प्रकट करता है और आकाश में अरिहंत भगवंत के यश को सूचित करता है।
७. सम्पूर्ण, विश्व को जीतने वाले महान योद्धा मोहनरेन्द्र को अरिहंत भगवंत ने शीघ्र ही जीत लिया है ऐसा सूचित करता हुआ दुंदुभि नाद सर्वजीवों के सर्वभयों की एक साथ तर्जना करता है।
आतपत्र (छत्रस्त्रय) - भगवन्त जब विहार करते हैं, तब तीनों छत्र आकाश में ऊपर चलते हैं और भगवंत जब देशना हेतु बैठते हैं, तब देवगण ये तीनों छत्र उचित स्थान पर अशोकवृक्ष के नीचे और भगवान के ऊपर व्यवस्थित रूप से रखते हैं।
ये छत्र तीनों लोकों के साम्राज्य को सूचित करते हैं। शरदऋतु के चन्द्र समान श्वेत कुंद और कुमुद जैसे अत्यन्त शुभ्र और लटकती हुई मालाओं की पंक्तियों के समान अत्यन्त धवल एवं मनोरम होते हैं।
तीनों छत्र एक दूसरे के ऊपर रहते हैं। एक छत्र पर दूसरा और दूसरे के ऊपर तीसरा ऐसे तीन छत्र एक दूसरे के ऊपर रहते हैं।
प्रभु की प्रवर्धमान पुण्य-संपत्ति के प्रकर्ष समान ये छत्र भगवान के तीनों जगत् का स्वामित्व प्रसिद्ध करते हैं। आठों प्रातिहार्य का सुशोभन
इस प्रकार ये आठों महाप्रातिहार्य दृश्य की अपेक्षा से ऊपर नीचे चारों ओर सर्वतः विशेषाधिक महत्व से संपन्न होते हैं। भगवंत के मस्तक के ऊपर आकाश में
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२१४ स्वरूप-दर्शन चारों ओर रक्त वर्ण के पत्र पल्लव पुष्पों आदि से एक योजन व्यापी अशोक वृक्ष होता है। भगवंत के पादतल में पुष्पवृष्टि होती है। अशोकवृक्ष के ऊपर के वातावरण में जहाँ योजनव्यापी दुंदुभि नाद होता है वहाँ परमात्मा के पादतल में योजनव्यापिनी दिव्यध्वनि होती है। प्रकाश की अपेक्षा से समवसरण में चारु रूप वाले भगवंत का एवं तेजोमय भामण्डल का सौम्य और आँखों को आनंददायी प्रकाश सर्वत्र प्रसारित होता है। समवसरण के मध्य में भगवंत का, भामण्डल का, चामरों के मणिमय दंडों का, सिंहासनों के रत्नों का और तीन छत्रों का प्रकाश प्रसारित होता है, तब ऐसा लगता है कि ऐसा समुदित प्रकाश समवसरणं के अतिरिक्त अन्य कहीं भी उपलब्ध. नहीं हो . सकता है। फिर भी समवसरण के अतिरिक्त भी अष्ट महाप्रातिहार्य की यह अनुपम ..
अद्वितीय अपूर्व दिव्य भव्य ऐश्वर्य-सम्पन्न परमात्मा की विभूति उनके साथ ही होती है। जिसे देखकर अनेकों भव्य आत्मा इस अद्भुतता पर आश्चर्याविन्त होते हैं। . ___भक्ति से नम्रीभूत देवताओं द्वारा शुभानुबंधी महाप्रतिहार्य की रचना अरिहंत का... समग्र ऐश्वर्य है। अरिहंत प्रातिहार्य लक्ष्मी के दर्शन से भव्यात्मा पवित्र भावों से चिन्तन की गहराई पाते हैं। उदाहरणार्थ-मरुदेवी माता। अष्टापद पर्वत से नीचे उतरते समय • गौतमस्वामी ५00 तापसों को बोध देकर भगवान महावीर के पास ले आते हैं। उस समय प्रभु के प्रातिहार्यों को दूर से देखते ही उन पाँच सौ तापसों को केवलज्ञान हो गया। अतिशय
प्रातिहार्य या अतिशयों के बारे में लोगों की वैचारिक धारणा या मान्यता में विविधता पायी जाती है। मानने वाले इसे श्रद्धा से मानते हैं, नहीं मानने वाले इसमें कुछ निष्फल कारणों को खोजते हैं या इसे मात्र परिकल्पना कहकर टालने का प्रयास करते हैं। मान्यता भले ही दो हैं परन्तु इसका समाधान एक ही है। __ हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि सृष्टि का प्रेमपात्र सिर्फ वह ही बनता है जिसने सृष्टि के समस्त प्राणियों से मैत्री की है। अरिहंत भव से पूर्व तीसरे भव में ही जिसने सृष्टि के समस्त जीवों के आत्म-विकास की अनन्य अवस्था की व्यवस्था की भूमिका निर्माण की है।
केवलज्ञान होते ही अरिहंत परमात्मा अल्फा कणों के सुपरप्लान्ट बन जाते हैं। उनके समस्त परमाणु पूर्णतः आनन्दमय और प्रसन्नमय हो जाते हैं। ऐसी स्थिति सृष्टि के जीवों का शक्ति के अनुसार उनकी भक्ति करना या परमात्मा के शुभ परमाणुओं से सृष्टि में परिवर्तन होना, लोगों का आनन्दमय होना अत्यन्त साहजिकता है। उनके पवित्र औदारिक देह से आनन्दमय स्रोतों के नावित होने से सृष्टि में शुभत्व की प्रतिष्ठा होना कितना साहजिक और Scientific है, यह कोई भी प्रज्ञाशील प्राणी जान सकता
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केवलज्ञान-कल्याणक २१५ है और निःसन्देह मान भी सकता है। अतिशय याने परमात्मा के आनंददायी अल्फाकणों का विस्तार।
अतिशय परमात्मा का बाह्य ऐश्वर्य होने पर भी इन्हें “सर्व अतिशयों को परमात्मा की महा सम्पत्ति' मानने का विशेष कारण बाल जीवों पर परम उपकार रूप है। यद्यपि परमात्मा इस बाह्य ऐश्वर्य की अपेक्षा अपने आंतरिक ऐश्वर्य से अनंतगुना अधिक प्रभाव वाले हैं, परन्तु उन्हें समझने की क्षमता किन में संभव हो सकती है? क्योंकि स्वयं गणधर भी प्रभु के सर्वगुणों का वर्णन करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं।
परमात्मा के आन्तरिक प्रभाव को जानने के लिए तो परमात्मा ही बन जाना पड़ता है अर्थात् स्वयं के अतिरिक्त इसका ओर-छोर कोई नहीं पा सकता। इसी कारण बाह्य ऐश्वर्य जो आँखों देखा सत्य है और देवों द्वारा किया जाने वाला परम तथ्य हमारे आगम, पूर्वाचार्यों आदि द्वारा अतिशयों के रूप में हमें उपलब्ध होता है। ये अतिशय अनन्त होने पर भी यथाशक्ति स्वरूप की स्पष्टता हेतु वे जघन्य चार प्रकार से, मध्यम १२ गुणों से और उत्कृष्ट ३४ अतिशयों से स्पष्ट किये गये हैं। इस प्रकार अरिहंत के चौंतीस अतिशय कहे जाते हैं, किन्तु यह केवल बाल जीवों को अरिहंत का स्वरूप जानने के लिए हैं। वास्तव में अतिशय तो अनंत हैं।
जिस प्रकार “निशीथ चूर्णि" में भगवान के १00८ बाह्य लक्षणों को उपलक्षण मानकर सत्वादि अन्तरंग लक्षणों को अनन्त कहा गया है, उसी प्रकार अतिशय परिमित होने पर भी उन्हें अनन्त कहा जा सकता है। इसमें कोई शास्त्र विरोध नहीं है।
जिन गुणों द्वारा अरिहंत परमात्मा समस्त जगत् की अपेक्षा अतिशायी प्रतिभासित होते हैं, उन गुणों को अतिशय कहा जाता है। अर्थात् जगत् में अन्य किसी में इनसे अधिक विशेष गुण, रूप या वैभव नहीं पाया जाता है। अतः अतिशय अतिशय ही है, जो अन्यों की अपेक्षा परमात्मा को विशेष घोषित करते हैं। फिर चाहे वे जन्मकृत हों, कर्मक्षय से हों, या देवकृत हों। . कभी प्रश्न हो सकता है कि जन्म और कर्मक्षय वाले अतिशय अरिहंत में ही उपलब्ध हों, परंतु देवकृत अतिशय अन्य में क्यों नहीं हो सकते? देव स्वेच्छा से यह प्रयोग अन्यत्र क्यों नहीं कर सकते हैं ? इसका उचित समाधान करते हुए कहा गया है कि “जगत् के सर्वजीव एकत्र होकर स्वयं की सर्व शक्ति द्वारा भगवंत के पादांगुष्ठ जितना ही रूप विकुर्वित करें तो भी भगवंत के अंगुष्ठ के सूर्यवत् तेज की तुलना में देवविकुर्वित रूप जानने की तैयारी में हों ऐसे अंगारे जैसा दिखता है।"
परमात्मा की उपस्थिति में समवसरण के भीतर तीन दिशा में तीन रूप (चतुर्मुखता) वाले अतिशय में देव इतने सफल रहते हैं कि अनजान व्यक्ति इसका १. आवश्यक नियुक्ति हारिभद्रीय टीका सहित गा. ५६९
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२१६ स्वरूप-दर्शन निर्णय करने में असमर्थ होते हैं कि इनमें वास्तविक परमात्मा कौन से हैं और उनके रूप कौन से हैं।
इस पर से इतना स्पष्ट हुआ कि उनकी उपस्थिति के अतिरिक्त अवसर पर देव अपने प्रयोग में निष्फल रहते हैं। अतः यह स्पष्ट होता है कि देवों की प्रस्तुत प्रवृत्ति में भी परमात्मा ही विशेष कारण रूप हैं और वह महत्वपूर्ण कारण है उनका तीर्थंकर नाम कर्म। ____ आवश्यक नियुक्ति की टीका में स्पष्ट कहा है-"तप्पभावो" अर्थात् उनके प्रभाव से ऐसा होता है। अतिशय शब्द प्राकृत के अइसेस अथवा संस्कृत के अतिशेष अथवा अतिशेषक शब्द से बना है। समवायांग सूत्र में कहा है-चौतीसं बुद्धाइसेसा पण्णत्ताअतिशय शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है-“शेषण्यतिक्रान्तं सातिशयम्" अर्थात् शेष का जो अतिक्रमण करता है वह अतिशय कहलाता है। संस्कृत के अतिशेष का अर्थ अर्थ अतिशय ही होता है। वैसे अतिशय शब्द के श्रेष्ठता, उत्तमता, महिमा, प्रभाव, बहत, अत्यन्त, चमत्कार आदि कई अर्थ होते हैं. और अतिशेष शब्द के भी महिमा. प्रभाव, आध्यात्मिक सामर्थ्य आदि अर्थ होते हैं। सर्व अतिशयों के मूलरूप चार अतिशय हैं। इन्हें मूलातिशय भी कहते हैं। वे हैं
(१) अपायापगम अतिशय, (२) ज्ञानातिशय, (३) पूजातिशय और (४) यागातिशय-(वचनातिशय) अपायापगमातिशय
रागादि दोष आत्म-विकास में बाधक होने से उन्हें अपाय कहते हैं। अपगम अर्थात् क्षय। परमात्मा ने रागादि रोगों का क्षय कर अरिहंत पद प्राप्त किया है। विज, अन्तराय, मोहादि को भी अपाय कहते हैं। अठारह दोषों को अपाय मानकर उनका भी निवारण अपायापगम अतिशय है। मोहनीय के कारणभूत राग का सर्वथा नाश कर वीतराग और जिन कहलाते हैं। इसी कारण उनके इस अद्वितीय गुण के मूल रूप को अपायापगम अतिशय कहते हैं। ज्ञानातिशय
केवलज्ञान की अनन्ततारूप सामर्थ्य से लोकालोक के स्वभाव एवं प्राणिमात्र के हितों के पूर्ण ज्ञाता होने से भगवान ज्ञानातिशय से युक्त कहलाते हैं। इस ज्ञानातिशय से वे लोक और अलोक के सम्पूर्ण स्वभाव का अवलोकन करते हैं। आचारांग सूत्र में कहा है-“से भगवं अरह जिणे केवली सव्वन्नू सव्वभाव दरिसी सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणई, तं-आगई गई ठिई चवणं उववायं भुत्तं पीयं कउँ पडिसेवियं आविकम्म रहोकम्म लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरइ।
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केवलज्ञान-कल्याणक २१७ ___ वे भगवान अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शीदेव, मनुष्य और असुरकुमार तथा लोक के सभी पर्यायों को जानते हैं, जैसे कि जीवों की आगति, गति, स्थिति, च्यवन, उत्पाद तथा उनके द्वारा खाए पीए गए पदार्थों एवं उनके द्वारा सेवित प्रकट एवं गुप्त सभी क्रियाओं को तथा अनन्त रहस्यों को एवं मानसिक चिन्तन को प्रत्यक्ष रूप से जानते देखते हैं। वे सम्पूर्ण लोक में स्थित सर्व भावों को तथा समस्त पुद्गलों-परमाणुओं को जानते और देखते हैं। लोकालोक में अस्तित्व रूप सर्व वस्तुओं को भूत, भविष्य और वर्तमान की सर्व पर्यायों के साथ जानते हैं। पूजातिशय
सर्व देव, असुर और मनुष्यों द्वारा की जाने वाली भगवंत की पूजा की पराकाष्ठा भगवंत का पूजातिशय है। रागद्वेषादि शत्रुओं का क्षय कर प्रभु ने अरिहंत पद प्राप्त किया, इसी कारण वे समस्त देवों, असुरों और मानवों के पूजनीय (अर्हत्) बने। अष्ट महाप्रातिहार्य और अन्य देवकृत अतिशय इस पूजातिशय में ही गिने जाते हैं। वागातिशय-वचनातिशय
परमात्मा समस्त जीवों की रक्षा के लिए अपना अमृतमय प्रवचन करते हैं, इससे विश्व के सभी प्राणियों को अभयदान मिलने की प्रेरणा प्राप्त होती है। इस रूप में भगवान् का वचनातिशय होता है। परमात्मा के प्रवचन को सर्वप्राणी अपनी अपनी भाषा में समझ लेते हैं। यही कारण है कि अपने सर्वजीवस्पर्शी प्रवचन (धर्मोपदेश) द्वारा भगवान् जगत् के जीवों को जन्म-जरा-मृत्यु आदि से बचने का उपाय बताकर वस्तुतः उनकी आत्मरक्षा करते हैं। अतः वे सारे विश्व के वास्तविक पालक एवं रक्षक हैं। अपने बच्चों का पालन और रक्षण तो सिंह और बाघ भी करते हैं, भगवान के द्वारा सर्व जीवों का पालन रक्षण तो मोहरहित निःस्वार्थभाव से होता है। इसी अतिशय में परमात्मा की वाणी के ३५ गुण आते हैं।
समवायांग सूत्र के अनुसार ३४ अतिशय इस प्रकार हैं१-केश, रोम और स्मश्रु का अवस्थित रहना। २-शरीर का रोगरहित एवं निर्लेप होना। ३-गो-दुग्ध की तरह रक्त-मांस का श्वेत होना। ४-श्वासोच्छ्वास का उत्पल कमल की तरह सुगन्धित होना। ५-आहार, निहार प्रच्छन्न याने चर्मचक्षु से अदृश्य होना। ६-आकाशगत चक्र होना। ७-आकाशगत श्वेत चामर होना। ८-आकाशगत छत्र होना। ९-आकाशस्थ स्फटिक सिंहासन।
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२१८ स्वरूप-दर्शन
१०-हजार पताका वाले इन्द्रध्वज का आकाश में आगे चलना।
११-अर्हन्त भगवान् जहाँ जहाँ ठहरें, वहाँ-वहाँ तत्काल फल-फूल युक्त अशोकवृक्ष का होना।
१२-भगवान् के पीछे की ओर मकुट के स्थान पर तेजोमण्डल होना जो चारों दिशाओं को प्रकाशित कर सके।
१३-भूमिभाग का रमणीक होना। १४-कांटों का अधोमुख होना। १५-ऋतुओं का सब प्रकार से सुखदायी होना। १६-शीतल-सुखद-मंद वायु से चारों ओर चार-चार कोस तक स्वच्छता होना। १७-जल-बिन्दुओं से भूमि की धूलि का शमन होना। १८-पाँच प्रकार के अचित्त फूलों का जानु प्रमाण ढेर लगना। १९-अशुभ शब्द, रूप, गन्धं, रस और स्पर्श का अपकर्ष होना। २०-शुभ वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श आदि का प्रकट होना। : २१-बोलते समय भगवान् के गंभीर स्वर का एक योजन तक पहुँचना। २२-अर्द्धमागधी भाषा में भगवान् का धर्म प्रवचन फरमाना।
२३-अर्धमागधी भाषा का आर्य, अनार्य, मनुष्य और पशुओं की अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत होना।
२४-भगवान् के चरणों में पूर्व के वैरी देव, असुर आदि का वैर भूल कर प्रसन्न मन से धर्म श्रवण करना।
२५-अन्य तीर्थ के वादियों का भी भगवान् के चरणों में आकर वन्दन करना। २६-वाद के लिए आये हुए प्रतिवादी का निरुत्तर हो जाना।
२७-जहाँ-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ-वहाँ से २५ (पच्चीस) योजन तक इति नहीं होती।
२८-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ (२५ योजन तक) मारी नहीं होती। २९-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ स्वचक्र का भय नहीं होता। ३०-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ परचक्र का भय नहीं होता। ३१-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ अतिवृष्टि नहीं होती। ३२-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ अनावृष्टि नहीं होती। ३३-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ दुर्भिक्ष नहीं होता। ३४-जहाँ भगवान् विचरण करें वहाँ पूर्व उत्पन्न उत्पात भी शीघ्र शान्त हो जाते
हैं।
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केवलज्ञान-कल्याणक २१९ अतिशय-विभाजन
समवायांग सूत्र में इन चौंतीस अतिशयों का उल्लेख है। बाद के ग्रन्थों में इन अतिशयों का तीन रूप में विभाजन मिलता है
(१) जन्मकृत (२) कर्मक्षयज (३) देवकृत।
जन्मकृत अर्थात् जन्म से ही तीर्थंकरों को अतिशय होते हैं। हेमचन्द्राचार्य ने "श्री वीतराग स्तव" में जन्मकृत अतिशय को “सहजातिशय" कहा है। · कर्मक्षयज अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय-इन चार घातिकर्मों के क्षय से उत्पन्न अतिशयों को कर्मक्षयज अतिशय कहते हैं।
देवकृत अथवा सुरकृत अतिशय तीर्थंकरों को केवलज्ञान होने के बाद होते हैं। कर्मक्षयज और देवकृत अतिशय में कुछ अन्तर है।
यद्यपि दोनों प्रकार के अतिशय केवलज्ञान के बाद होते हैं परन्तु अन्तर यही है कि कर्मक्षयज अतिशय कर्मक्षय के बाद अपने आप हो जाते हैं जबकि देवकृत अतिशय देवों द्वारा किये जाते हैं।
नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि ने समवायांग सूत्र की वृत्ति में "अन्यच्च" शब्द का उल्लेख कर इन चौंतीस अतिशयों का विभाजन किया है, वह इस प्रकार है।
अनुक्रम नंबर २१ से ३४ तक और १२वाँ प्रभामण्डल ये १५ कर्मक्षयज, २ से ५ तक के ४ अतिशय जन्मकृत और अन्य १५ अतिशय देवकृत हैं। इसका विशेष
निरूपण इस प्रकार है• अभिधान राजेन्द्र कोष, लोकप्रकाश, उपमितिभव प्रपंच कथा आदि ग्रन्थों में इसका विभाजन व्यवस्थित रूप से करने का प्रयल किया है।
दिगम्बर ग्रन्थों में भी विभाजन के विभिन्न तरीके प्रसिद्ध हैं। यहाँ समन्वय रूप तालिका दी गई हैजन्मकृत १० अतिशय
(१) स्वेदरहित तन (२) निर्मल शरीर (३) दूध की तरह रुधिर का श्वेत होना (४) अतिशय रूपवान् शरीर (५) सुगन्धित तन (६) प्रथम उत्तम संहनन (७) प्रथम उत्तम संस्थान (८) एक हजार आठ (१००८) लक्षण
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२२० स्वरूप-दर्शन (९) अमितबल
(१०) हित-प्रिय वचन। कर्मक्षयज ११ अतिशय
(१) भगवान विचरें वहाँ-वहाँ सौ-सौ कोस तक सुमिक्ष होना। (इति नहीं होना) (२) आकाश में गमन। (३) भगवान् के चरणों में प्राणियों का निर्भय होना। (४) कवलाहार (स्थूल आहार) का नहीं होना। (५) भगवान् पर कोई उपसर्ग नहीं होना। (६) समवसरण में चतुर्मुख दिखना। (७) अनन्तज्ञान के कारण सर्व विद्याओं का स्वामित्व होना। (८) शरीर का निर्मल और छाया रहित होना। (९) नेत्रों के पलकों का नहीं गिरना। (१०) नख केशों का सम होना।
(११) १८ महाभाषाएँ, ७०० क्षुद्र भाषा एवं संज्ञी 'जीवों की समस्त अक्षरअनक्षरात्मक भाषाएँ हैं उनमें तालु, दांत, ओष्ठ एवं कंठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भव्य जीवों को दिव्य उपदेश देना। भगवान् श्री जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्य ध्वनि तीनों संध्या कालों में नवों मुहूर्तों तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त श्री गणधर भगवन्त, इन्द्र, चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ यह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। यह दिव्यध्वनि भव्यजीवों के लिए छः द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है। देवकृत १३ अतिशय
(१) श्री तीर्थंकर भगवन्तों के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही पत्र, पुष्प एवं फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है।
(२) कंटक और रेती आदि को दूर करता हुआ सुखदायक वायु चलने लगता है। (३) जीव पूर्व वैर को छोड़कर, मैत्रीभाव से रहने लगते हैं। (४) उतनी भूमि दर्पणतल के सदृश स्वच्छ और रनमय हो जाती है। (५) सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव सुगंधित जल की वर्षा करता है।
(६) देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्य को रचते हैं।
(७) सब जीवों को नित्य आनंद उत्पन्न होता है।
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केवलज्ञान-कल्याणक २२१
(८) वायुकुमार देव विक्रिया से पवन.चलाता है। (९) कूप और तालाब आदि निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं। (१०) आकाश धुआँ और उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है। (११) सम्पूर्ण जीवों को रोगादिक बाधायें नहीं होती हैं।
(१२) यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्मचक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है।
(१३) तीर्थंकरों के चारों दिशाओं में छप्पन्न सुवर्णकमल, एक पादपीठ और दिव्य एवं विविध प्रकार के द्रव्य होते हैं।
समीक्षा की दृष्टि से इति, मारी, वैर, व्याधि.... आदि अतिशयों के लिये निर्देशित क्षेत्र प्रमाण कुछ भिन्न रूप से मिलते हैं-(१) समयायांग सूत्र में २५ योजन का ही उल्लेख है। (२) अभिधान चिंतामणि में चारों ओर सवासौ योजन प्रमाण भूमि। (३) उपदेशप्रासाद में सर्व दिशाओं में पच्चीस पच्चीस योजन और ऊपर नीचे साढ़े बारह योजन-इस प्रकार सवासौ योजन। (४) तिलोयपण्णत्ति में सौ योजन। चौंतीस अतिशयों में विवरण योग्य कुछ अतिशय
निरामय-रोगरहित और निरुपलेप गात्रयष्टि-समवायांग सूत्र में इस अतिशय के वर्णन में कहा है-अरिहंत परमात्मा का शरीर रोग रहित और निरुवलेवा अर्थात् लेप या उपलेप रहित होता है। अरिहंत असामान्य लोकोत्तर महापुरुष हैं। उनके न केवल तन के रोग और लेप ही समाप्त हुए होते हैं, परन्तु मन के रोग और लेप (आसक्ति) आदि भी समाप्त हुए होते हैं। क्योंकि राग-द्वेष के लेप जिनके न हों उनके तन-मन के लेप कैसे हो सकते हैं ? ___ वर्षों तक अनार्य देश में अस्नान अवस्था में घूमे थे श्रमण भगवान महावीर। अनार्य लोगों के धूलि-ढपले-पत्थरों से लेकर भयंकर प्राणियों के असह्य, अकथनीय, उपसर्ग इन्होंने सहे हैं, किन्तु कहीं भी अपनी ध्यान-पर्याय-अवस्था का इन्होंने त्याग नहीं किया। भयंकर लू बरसाती ग्रीष्म की गर्मी में भी ये मुर्भायें नहीं, उनका मन निर्लेप और निरोगी था। हेमचन्द्राचार्य ने इसका विशेष स्वरूप दर्शाते हुए बहुत सुन्दर कहा है
तेषां च देहोऽद्भुतरूपगंधो,
निरामयः स्वेदमलोज्झितश्च । तीर्थंकर परमात्मा का शरीर अद्भुत रूप वाला, अद्भुत गन्ध वाला, रोग रहित, स्वेदरहित और मलरहित होता है। यहाँ परमात्मा के शरीर के पांच विशेषण दर्शाये हैं। - अद्भुत रूप वाला-शरीर-अद्भुत अर्थात लोकोत्तर। तीर्थंकर परमात्मा का रूप लोक में सर्वोत्तम होता है। उनके जैसा रूप सम्पूर्ण जगत् में अन्य किसी का नहीं होता है।
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२२२ स्वरूप-दर्शन बृहत्कल्पभाष्य में कहा है
संघयणरूपसंठाण वण्ण गई सत्त सार उस्सासा ।
एमाइणुत्तराई हन्ति नामोदए तस्स ॥ तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से अरिहंत परमात्मा का संहनन, रूप, संस्थान, वर्ण, गति, सत्व, सार और उश्यास आदि सर्व अनुत्तर होते हैं।
केवलज्ञान के बाद तो इनका रूप अगुणित हो जाता है। सर्व देव मिलकर अपनी सर्व अद्भुत शक्ति से एक अंगुष्ठ प्रमाण रूप विकुर्वित करने में असमर्थ हैं।
वज्रऋषभनाराच संहनन प्रथम संहनन वाले सर्व जीवों में कुछ अपेक्षा से समान होने पर भी उसमें तारतम्य होता है। सम्पूर्ण विश्व में भगवंत जैसा प्रथम संहनन श्वेतादि वर्ण, गति, सत्व और बल अन्य जीवों में नहीं हो सकता है।
भगवन्त का परमात्म तत्व तो अन्तर्गत पड़ा हुआ होता है। उसे भले ही कोई जान सके या न जान सके पर इतना तो निश्चित है कि भगवन्त के रूप पर दृष्टि पड़ते ही दृष्टा का अन्तःकरण अद्भुत रस वे वासित हो जाता है और भगवन्त की ओर आकर्षित हो जाता है। देखने वाले की दृष्टि उसमें स्थिर होती जाती है।
भगवन्त का रूप सौन्दर्य इतना अधिक होने पर भी उसमें एक अद्भुत विशेषता है कि-"तीर्थंकर स्वरूपं सर्वेषां वैराग्यजनकं स्यात्, न तु रागादिवर्धकं चेति।" अर्थात् तीर्थंकर का स्वरूप सर्व जीवों के लिए वैराग्य जनक होता है, रागादि बढ़ाने वाला नहीं। तात्पर्य यह कि जो जितने रस पूर्वक परमात्मा के सौन्दर्य का रसपान करता है वह उतने अंश में वैराग्य प्राप्त करता है। अन्य जीवों के सौन्दर्य रागवर्धक होते हैं परन्तु परमात्मा का सौन्दर्य वैराग्यवर्धक होता है। लोकोत्तर सुगंध
अरिहंत जन्म से ही योगी होते हैं। सामान्य योगियों में, जिन्होंने आसन या प्राणायाम सिद्ध किया हो, लोक में देखा जाता है कि उनके पसीने आदि में दुर्गन्ध नहीं आती है। ध्यान करने से हम निज में भी यह गुण पा सकते हैं। तीर्थंकर तो परमयोगी होते हैं। योग तो इनको जन्म से ही सिद्ध होता है।
तीर्थकर नाम कर्म के कारण अन्य कई विशेषताएं इनके इस गुण में सहायक हो सकती हैं। गंध की इस विशेष बात को लेकर उनको गन्धहस्ती का विशेषण दिया जाता है। यहाँ इसके विशेषार्थ में कहा है-"जिस प्रकार गन्धहस्तियों के मद की गंध से ही उस देश में विचरते हुए क्षुद्र हस्ती भाग जाते हैं, उसी प्रकार परमात्मारूप गन्धहस्ती वीतराग रूप गन्ध से हम में रहे मान रूप हाथी या अन्य कषायें अपने आप समाप्त हो जाती हैं।
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केवलज्ञान-कल्याणक २२३
मोक्षीरवत श्वेत मांस और रक्त
परमात्मा के देह की अद्भुतता का वर्णन करते हुए कहा है- “गोक्खीरपंडुरे . मंससोणिए'"-उनके मांस और शोणित श्वेत वर्ण के होते हैं। भगवन्त के रूप, लावण्य, बल, नैपुण्य, इन्द्र-सेवादि अनुत्तरताओं में से कुछ अल्प अंशों वाली विशेषताएँ अधिक पुण्य वाले किसी व्यक्ति में संभव हो सकती हैं, परन्तु इस अतिशय में वर्णित अद्भुतता तो किसी में अल्पांश में भी संभव नहीं है। वीतरागस्तव की अवचूरि में इन विशेषताओं के साथ ऐसा भी कहा है कि सामान्य लोगों की भांति हे प्रभु आपके मांस
और रक्त दुर्गन्ध वाले भी नहीं हैं, परन्तु परम सुवास वाले होते हैं। ___ आवश्यक चूर्णि में श्रमण भगवान महावीर का एक सुन्दर चरित्र कथन आता हैसाधना के द्वितीय वर्ष में प्रभु महावीर दक्षिणवाचाला से उत्तरवाचाला की ओर पधार रहे थे। तब उन्होंने कनकखल आश्रम के भीतर से जाने वाले मार्ग को चुना, लोगों के रोकने पर भी वे उसी राह से निकले। कुछ आगे बढ़ने पर विषधर चंडकौशिक की क्रीड़ा-स्थली रूप देवालय मंडप को उन्होंने ध्यान हेतु चुना।
जंगल में घूमकर चंडकौशिक जब अपने देवालय मंडप में आया तो निजस्थान में, जहां कभी कोई नहीं आता ऐसी निर्जन वनभूमि में परमात्मा को ध्यानाश्रित देख स्तब्ध रह गया। उसे असीम क्रोध आया। ऐसी स्थिति में वह भयंकर फुफकार के साथ आगे सरका। आटोप से उछलता हुआ फन, कोप से उफनता हुआ शरीर, विष उगलती हुई आँखें, असि-पलक की भाँति चमचमाती जीभ-इन सबकी ऐसी एकरूपता हुई कि रौद्ररस साकार हो गया। वह भगवान के पैरों के पास पहुँचा। पास पहुँचते ही वह उठ गया। क्रोध जिस किसी को आयेगा वह ऊपर की ओर उठेगा, बाहर फैलेगा। जैसे कोई व्यक्ति लेटा हो-क्रोध आएगा वह बैठा होगा, बैठा होगा वह उठ खड़ा होगा......| चंडकौशिक भी ऊपर की ओर उठा। प्रभु की तरफ देखा। प्रभु की आँखें झुकी हुई थीं, वह और ऊपर हुआ। प्रभु से भी ऊपर उठ गया। उसने सूर्य से अपनी .आँखें मिलाकर उसमें विष घोला और दृष्टिपात से विष का प्रक्षेपण किया। प्रभु पर तो उसका कोई असर न हुआ परन्तु आस-पास के पेड़, पौधे, पत्ते जल गये। - दृष्टिविष से पराभूत करने में निष्फल उसने स्पर्श से अभिभूत करना चाहा। उसने सारी शक्ति लगाकर भगवान के बाँए पैर के अंगूठे को डसा। विष ध्यान की शक्ति से अभिभूत हो गया और उस स्थान से दूध की धार प्रस्फुटित हुई। स्तब्ध हो गया चंडकौशिक।
पहला ही अवसर था यह उसे रक्तवर्णी खून के स्थान पर श्वेतवर्णी खून देखने का। आश्चर्य हुआ उसे, कभी किसी में न देखी हो ऐसी अद्भुतता! उसे विश्वास न आया या कौतूहल बढ़ा, उसने दूसरी बार पैर को और तीसरी बार पैरों में लिपटकर
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२२४ स्वरूप-दर्शन
गले को डसा, किन्तु पुनः पुनः वही मिष्ट श्वेत रक्त देखकर वह दंग रह गया। वही था जगत् का प्रथम प्राणी, भाग्यवान् चंडकौशिक जिसने परमात्मा का खून देखा था। उसको भी अपनी आँखों पर भरोसा लाना पड़ा। आश्चर्य और ऊहापोह के साथ उसने इस महत्ता पर सोचना शुरू किया और उसकी दृष्टि का सारा विष घुल गया। उसके रोम-रोम में शांति और सुधा व्याप्त हो गई।
उसने अपनी आँखें ऊपर ऊठाई और परमात्मा की झुकी हुई पलकों में एकाग्र उन नयनों के दर्शन किये। इन नजरों में उसने वात्सल्य का कोश पढ़ा। मैत्री की अखंडता के अद्भुत दर्शन कर वह आश्चर्यान्वित हो गया। दर्शन कर श्रवण की इच्छा से वह नजदीक आया। कुछ समय बाद उसे प्रभु की परावाणी सुनाई दी। आश्चर्य बढ़ा। मन्द मुस्कराहट वाले ओठ तो बन्द हैं फिर भी मैं कैसे कुछ सुन रहा हूँ। नहीं पहचान पाया वह उस परावाणी को। जो प्रभु की अंतःस्रावी ग्रंथि के रस से प्लावित थी। वत्स ! प्रतिक्रमण करो, अपने घर लौट आओ.......| आज उसने यह पहली बार सुना। सोचने लगा, कहां लौटू ? यही तो मेरा घर है। आप मेरे घर आये हो। मैं तो अपने ही घर में, दर में या सीमा में हूं........ वह कुछ सोचे इतने में पुनः दुहराई वह वाणी। उसने गहराई से सुनी, धीरे-धीरे वह पराश्रवण तक पहुँचा। उसे लगा. मैं निज आत्मस्वरूप से बहुत दूर निकल गया हूँ। 'वत्स' का सम्बोधन कर यह जगत् जननी मुझे जगाने आयी। वह झुक गया विश्वमाता के चरणों में। दर्शन, स्पर्शन और श्रवण द्वारा उसने वात्सल्य का पान किया। उस ममतामयी दूध का पान उसके निज भान का, भेदविज्ञान का कारण बन गया और उसके रोम-रोम से स्पंदन के साथ निकला “नमो अरिहंताणं"।
आज का विज्ञान भी इतना तो मानता है कि परा वाणी से मानव की पिच्यूटरी ग्रंथि से विशेष रस नावित हो सकते हैं। जिससे उसका प्रभाव बढ़ता है। उस व्यक्ति के अल्फा कण बढ़ते हैं, फैलते हैं। संपर्क में आने वाले व्यक्ति में वह संप्रेषित भी होते हैं। परिणामतः वह व्यक्ति उस महापुरुष की ऊर्जा से प्रसन्न हो उठता है। उसकी उदासीनता वाले बेटा, डेटा आदि कषाय अल्फा कणों के रूप में बदल जाते हैं। प्रभु तो. परा वाणी के अखंड स्रोत थे। अतः आनन्द एवं प्रसन्नता का प्रवाह उनमें निरंतर नावित होता था। यही कारण होता है कि उनका रक्त श्वेत वर्ण का होता है। इसे सिद्ध करने के लिए किसी प्रयोगशाला की आवश्यकता नहीं है। वैर-शमन
पूर्व जन्म में तथा जन्मान्तर में बंधे हुए अथवा निकाचित किये हुए, वैर के कारण अथवा जन्मजात वैर वाले प्राणी भी भगवन्त की पर्षदा में रहते हैं तथा वे भी प्रशांत मन वाले होकर धर्मश्रवण करते हैं। परस्पर अति तीव्र वैर वाले वैमानिक देव, असुर,
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केवलज्ञान-कल्याणक २२५ नाग नामक भवनपति देव, सुन्दर वर्ण वाले ज्योतिष्क देव, यक्ष, राक्षस, किंनर, किंपुरुष, गरुड़ लांछन वाले सुपर्णकुमार नाम के भवनपति देव, गंधर्व एवं महोरग नामक व्यंतरदेव भी अत्यंत प्रशान्त मन वाले होकर अत्यंत ध्यानपूर्वक धर्म देशना श्रवण करते हैं।
वीतरागस्तव की अवचूर्णि में इसका वर्णन करते हुए कहा है कि हे देवाधिदेव ! आपकी निष्कारण करुणा से, अन्य किसी भी साधन से न टूट सके ऐसे अनेक भवों तक प्रज्ज्वलित रहने वाले दुर्धर वैरानुबन्ध भी तत्काल प्रशांत हो जाते हैं। वे वैरानुबन्ध चाहे स्त्री सम्बन्धी हों, भूमि सम्बन्धी हों, ग्रामनगरादि मालिकी आदि के हों, पारिवारिक हों या राजकीय-किसी भी प्रकार के हेतुओं से युक्त हों उनका उपशमन हो जाता है। समवसरण को देखते ही वैर वाले तिर्यंचों के वैर का विस्मरण हो जाता है।
परमात्मा की ऐसी अद्भुत प्रभाव शक्ति में नियोजित योग महिमा कितनी उत्तम है। सर्व जीवों के प्रति रही अपार महिमा का यह परम परिणाम स्वरूप अचिन्त्य पौद्गलिक शक्ति कितनी मंगलमय है। कितने पवित्र एवं प्रेम से परिपूर्ण हैं परमात्मा के परमाणु। ज्ञानार्णव में लिखा है-"क्षीण हो गया है मोह जिसका और शान्त हो गया है कलुष कषाय रूप मैल जिसका ऐसे समभावों में आरूढ़ हुए योगीश्वर को आश्रय करके हरिणी सिंह के बालक को अपने पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती है........ इसी प्रकार अन्य प्राणी भी जन्म के. वैर को मदरहित होकर छोड़ देते हैं। यह सब प्रभु के साम्यभाव का ही प्रभाव है। समवसरण में स्थित सिंह और खरगोश भी उन समतामूर्ति के प्रभाव से परस्पर के जन्मजात के वैर का भी विस्मरण कर वीतरागवाणी का पान करते हैं। वचनातिशय . महान आत्मा की शारीरिक सम्पत्ति भी अलौकिक होती है और वाणी-व्यवहार भी अपूर्व होता है। जिस प्रकार उनकी आत्मा महान् होती है, उसी प्रकार शरीर सम्पत्ति .भी महान होती है और वाणी भी प्रभावयुक्त, निम्न ३५ अतिशयों से सम्पन्न होती है।
(१) संस्कारित वचन-भाषा और व्याकरण की दृष्टि से निर्दोष वचन। (२) उदात्त स्वर-उच्च प्रकार की आवाज, जो एक योजन तक पहुँच सके। (३) उपचारोपपेत-उत्तम प्रकार के विशेषण से युक्त। (४) गंभीरता-मेघगर्जन के समान प्रभावोत्पादक एवं अर्थगांभीर्य युक्त। (५) अनुनादित-प्रतिध्वनि युक्त। (६) दक्षिणत्व-सरलता।
(७) उपनीतरागत्व-मालवकोशिकादि रागयुक्त, श्रोताओं को तल्लीन कर देने वाला स्वर। .
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२२६ स्वरूप-दर्शन (८) महार्थत्व-थोड़े शब्दों में महान् अर्थ होना। (९) पूर्वापर अबाधित-पूर्वापर विरोध नहीं होना।
(१०) शिष्टत्व-अभिमतसिद्धांत प्रतिपादन अथवा शिष्टता सूचक वचनों का उच्चारण करना।
(११) असन्दिग्धता-स्पष्ट एवं निःसंदेह कथन। (१२) अदूषित-भाषा दोष रहित।
(१३) हृदयग्राहित-कठिन विषय भी सरल होकर श्रोताओं के हृदय में उतर जाना।
(१४) देशकालानुरूप-देश और काल के अनुरूप वचन एवं अर्थ कहना। .. (१५) तत्वानुरूपता-वस्तुस्वरूप के अनुकूल वचन। (१६) सार वचन-व्यर्थ के शब्दाडम्बर से रहित और उचित विस्तार युक्त। . (१७) अन्योन्यपग्रहीत-पद और वाक्यों का सापेक्ष होना। (१८) अभिजातत्व-भूमिका के अनुसार विषय और वाणी होना। :
(१९) अति स्निग्ध मधुर-कोमल एवं मधुर वाणी, जो श्रोताओं के लिए सुखप्रद एवं रुचिकर हो।
(२०) अपरमविधित-दूसरों के छुपाये हुए मर्म को प्रकट नहीं करने वाली। (२१) अर्थ धर्मोपेत-श्रुत-चारित्र धर्म और मोक्ष के अर्थ सहित वाणी। (२२) उदारत्व-शब्द और अर्थ की महानता युक्त। (२३) पर निन्दा एवं स्वात्म प्रशंसा से रहित। (२४) उपगत श्लाघत्व-खुशामद युक्त वचनों से रहित। (२५) अनपनीतत्व-कारक, काल, लिंग आदि के विपर्यय रूप दोषों से रहित।
(२६) उत्पादितादि विच्छिन्न कुतूहलत्व-श्रोताओं में निरन्तर कुतूहल बनाये रखने वाली।
(२७) अद्भुतत्व-अश्रुतपूर्व एवं विस्मयकारी। (२८) अनतिविलम्बितत्व-धाराप्रवाह रूप से बोलना।
(२९) विभ्रमविक्षेप-किलिकिंचितादि विप्रयुक्तत्व-प्रतिपाद्य विषय में वक्ता में भ्रान्ति, अरुचि, रोष, भय आदि का नहीं होना।
(३०) विचित्रत्व-वाणी में विषय की विविधता से विचित्रता होना। (३१) अहितविशेषत्व-अन्य वक्ताओं की अपेक्षा विशेषता-विशेष आकर्षण होना। (३२) साकारत्व-वर्ण, पद और वाक्यों का भिन्न-भिन्न होना।
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केवलज्ञान-कल्याणक २२७ (३३) सत्वरिगृहीतत्व-वाणी का प्रभावोत्पादक एवं ओजस्वी होना। (३४) अपरिखेदित्व-उपदेश देते हुए खेद नहीं होना। (३५) अव्युच्छेदित्व-विषय को सिद्ध किये बिना बीच में नहीं छोड़ना।
इस प्रकार पैंतीस प्रकार की विशेषताओं से अरिहंत भगवान् की वाणी बड़ी प्रभावशाली होती है।
देशना-विवरण
देशना समय
बृहत्कल्प भाष्य में देशना समय का उल्लेख करते हुए कहा है"सूरोदयपच्छिमाए" सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के प्रहर में अर्थात् प्रथम अथवा अंतिम प्रहर में प्रभु देशना देते हैं। हारिभद्रीय वृत्ति में पच्छिमाए का अर्थ पश्चिम अर्थात् अंतिम प्रहर अर्थ किया है। ..
महावीर चरियं में प्रथम पौरुषी और अंतिम पौरुषी का उल्लेख मिलता है परन्तु नित्य दोनों प्रहर में होता है या कभी-कभी, ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। क्योंकि अष्टम प्रस्ताव में प्रथम पौरुषी व्यतीत होते ही देशना का विराम होना और द्वितीय प्रहर में, गणधर देशना तथा तृतीय प्रहर में प्रतिदिन आचरण योग्य समाचारी की प्रतिपालना का होना कहा है। यहां चतुर्थ प्रहर का कोई उल्लेख नहीं है। परन्तु इसके पूर्व श्रावस्ती नगरी के समवसरण में प्रभु की अंतिम प्रहर में देशना देने का खास निरूपण मिलता
.. श्रमण भगवान महावीर के बारे में तो अंतिम देशना के निरूपण में सम्पूर्ण २ दिवस अर्थात् १६ प्रहर तक देशना देने का कहा जाता है। उस अंतिम देशना में विपाकसूत्र और अप्रश्नव्याकरण (उत्तराध्ययन सूत्र) अर्थात् किसी के पूछे बिना, अन्तिम प्रधान नामक अध्ययन कहा। प्रस्तुत अवतरण परंपरागत है। प्रमाण में यह घटना त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र में अवश्य है। परन्तु वहां भगवान के अंतिम छठ तप और देशना-श्रुत के नाम दिये हैं। देशना की कोई निश्चित अवधि यहां नहीं दर्शाई गई है। ... अंतिम समय में इतने घंटे तक देशना का चालू रहना संभव हो भी सकता है। क्योंकि परमात्मा की देशना का उद्देश्य यही होता है कि तीर्थंकर नामकर्म का विपाकोदय होने से जितने भाषा वर्गणा के पुद्गल खिरने होते हैं उतनी देशना होती है। स्वयं देशना की इच्छा संकल्पादि कभी नहीं करते हैं। अतः यह कोई गूढ़ पहेली या
१. पत्र-३३०
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२२८ स्वरूप-दर्शन अनबूझ समस्या नहीं है। श्रमण भगवान महावीर की यह अन्तिम देशना सहज अविराम १६ प्रहर तक चली भी हो। आयुष्य-मर्यादा में प्रस्तुत विशेष नामकर्म का विपाक देशना के निश्चित समय की मर्यादा से निबद्ध भी रहा हो। अवसर की अनुचितता से प्रथम देशना का क्षणमात्र देना भी आवश्यक हो सकता है।
दिगम्बर परम्परा में देशना समय का कुछ अलग विधान है। तिलोयपण्णत्ति में कहा है-भगवान जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित और दिव्यध्वनि तीनों संध्याकालों में नवमुहूतों तक चलती है। इनके अतिरिक्त गणधर देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ शेष समय में भी निकलती है। गणधर देशना
प्रथम प्रहर में देशना पूर्ण होने पर परमात्मा उत्तर द्वार से निर्गमन कर द्वितीय वप्र के ईशान कोण में स्थित देवच्छंदक पर विश्राम हेतु पधारते हैं और उस समय अर्थात् द्वितीय प्रहर में “यह हमारा कल्प है" ऐसा सोचकर ज्येष्ठ गणधर अथवा अन्य गणधर जिनेश्वर के लिये मणि रचित पादपीठ अथवा राजा के द्वारा लाये गए सिंहासन पर बैठकर धर्मदेशना करते हैं।
गणधर महाराज की देशना में अनेक गुण, विशेषताएँ एवं अतिशय होते हैं। वे भव्यजीवों के असंख्य भवों को बता सकते हैं। इनके अतिरिक्त वे जीव जो कुछ भी पूछते हैं उन सभी का यथोक्त उत्तर दे सकते हैं। इसमें एक सर्वोपरि विशेषता यह है कि इस समय श्रोता गणधर भगवान छद्मस्थ हैं, ऐसा नहीं समझ सकते हैं। अर्थात् वे उन्हें ही जानते हैं। असुर, सुर, खेचर, किन्नर, नर और तिर्यंच ये सर्व अपने समग्र व्यापारों को त्यागकर श्रवण रूप अंजलि द्वारा उनकी देशना रूप अमृत का पान करते हैं।२ ___ यहाँ एक प्रश्न होता है कि १२ प्रकार की पर्षदा के सामने अरिहंत परमात्मा चार रूप से एक योजन विस्तारगामिनी देशना से धर्मोपदेश करते हैं और तदनन्तर तत्काल ही प्रभु के वहां से पधार जाने पर द्वितीय प्रहर में गणधर भगवान देशना देते हैं। तो उस समय वे चार रूप में देशना करते हैं या एक ही रूप में ? योजनगामिनी विस्तार वाली देशना देते हैं या सहज स्वर से ?
इसके उत्तर में सेनप्रश्न के अन्तर्गत कहा है-गणधर भगवन्त स्वाभाविक और एक रूप में ही देशना देते हैं। क्योंकि चार रूप और योजनगामिनी विस्तार वाली वाणी आदि तो जिनेश्वर के अतिशय हैं और बारह पर्षदा के बारे में यहां अवसर की उचितता के अनुसार समझ लेना योग्य माना है। १. ४-९०३-९०४। २. बृहत्कल्प सटीक गाथा १२१५ ; १२१७ ;
आवश्यक नियुक्ति गाथा ५५८-५९० ; महावीर चरियं प्रस्ताव ८, पत्र ३३०
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केवलज्ञान-कल्याणक २२९ प्रभु की देशना के पश्चात् पर्षदा की उतनी ही संख्या हो ऐसा आवश्यक नहीं है। इस प्रथम देशना से सभी जीव. तृप्त हो ही जाते हैं फिर भी जिन्हें कुछ विशेष प्रश्न, वाद आदि करने हों, तो ऐसी विशेष प्रवृत्ति के हेतु भगवान जिनेश्वर की अनुपस्थिति में गणधर देशना देते हैं। अतः इस देशना में विशेष इच्छुक ही रहते होंगे और इसी कारण अल्प संख्या से बारह पर्षदा और योजनगामिनी वाणी का समायोजन हो सकता
देशना की आवश्यकता एवं परिणाम - केवलज्ञानी और वीतरागी बन जाने के पश्चात् अरिहंत परमात्मा पूर्ण कृतकृत्य हो चुके होते हैं। वे चाहें तो एकान्त साधना से भी अपनी मुक्ति कर सकते हैं, फिर भी वे देशना देते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति के कई कारण हैं। प्रथम तो यह कि जब तक देशना देकर धर्मतीर्थ की स्थापना नहीं की जाती तब तक तीर्थंकर नामकर्म का भोग नहीं होता। दूसरा, जैसा कि प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है-समस्त जगजीवों की रक्षा व दया के लिए भगवान् प्रवचन देते हैं।'
तीर्थंकर वीतराग होने पर भी तीर्थंकर नामकर्म के उदय से उनको धर्मदेशना करने का स्वभाव होता है। जब तक इसका उदय रहता है तब तक वे धर्मदेशना देते
___ अरिहंत भगवान का एक भी वचन असंख्य जीवों के भिन्न-भिन्न प्रश्नों का हितकर एवं स्पष्ट बोध कराता है। इसका कारण उनका तथाप्रकार का अचिन्त्य पुण्य प्रकर्ष का प्रभाव ही है। अतः इसी प्रश्न पर कि "तत्तं कहं वेइज्जई ?" तीर्थंकर नामकर्म कैसे वेदा जाता है ? उत्तर दिया गया है कि “अगिलाए धम्मदेसणाईहिं" ग्लानिरहित धर्म देशना से ही यह कर्म वेदा जाता है।२ . यह देशना ऐसी महत्वपूर्ण होती है तो फिर यह अभव्यों में पूर्ण सफल परिणाम क्यों नहीं लाती ? प्रस्तुत प्रश्न के निवारण हेतु हरिभद्र सूरिजी कहते हैं-इसमें अभव्य आत्मा का ही दोष है। बीज कितना ही उच्चकोटि का हो परन्तु जमीन यदि फलदुरूप नहीं है तो बीज क्या करेगा ? क्योंकि सूर्य के सहज उदय होते ही स्वाभाविक क्लिष्ट कर्मवाले उलूकों को आँखों से दिखना बंद हो जाता है। यहाँ सूर्य की न्यूनता नहीं मानी जाएगी वैसे ही परमात्म देशना का अभव्यों में परिणमन नहीं होने में परमात्मा की न्यूनता नहीं है।
अरिहंत परमात्मा की देशना श्रवण करने वाले श्रोताओं में से कोई जीव सर्वविरत बनता है, कोई देशविरत बनता है, कोई सम्यक्त्व ग्रहण करता है, इस प्रकार तीन में १. आवश्यक नियुक्ति-गा. १८३ पत्र ११९ २. प्रवचनसारोद्धार-भा. १, द्वार १०, गा. ३१०, पत्र ८४ ३. अष्टक प्रकरण-तीर्थकृद्देशनाष्टक-गा. ७.
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२३० स्वरूप-दर्शन से कोई भी एक सामायिक तो कम से कम ग्रहण की ही जाती है। अन्यथा परमात्मा अमूढलक्ष (एक भी अक्षर) नहीं कहते हैं। समवसरण में मनुष्यों में एक सामायिक की प्राप्ति होती है। तिर्यंचों में से दो या तीन सामायिक ग्रहण की जाती हैं। यदि मनुष्यों
और तिर्यंचों में से कोई भी जीव किसी भी प्रकार की सामायिक ग्रहण न करे तो देवों द्वारा अवश्य ही सम्यक्त्व सामायिक ग्रहण की जाती है। यदि यह भी न हो तो उसे आश्चर्य कहा जाता है। यद्यपि ऐसा कभी होता नहीं है। अनेकों तीर्थंकरों के इतिहास में आज तक श्रमण भगवान महावीर के अतिरिक्त किसी भी तीर्थंकर की देशना में ऐसा नहीं हुआ है। ___सर्व जीवों के प्रति समान भाव वाली परमात्म-देशना से असंख्यात संशयी जीवों के संशय का एक साथ विनाश होता है। परमात्मा की अचिन्त्य गुण-विभूति के कारण जीवों को परमात्मा के सर्वज्ञत्व का प्रत्यय प्राप्त होता है। वृष्टि का जल जैसे विविध वर्ण वाले पात्रों से विविध वर्ण का दिखता है, वैसे सर्वज्ञ प्रभु की देशना सर्वभाषाओं में परिणमित होती है। ___इस प्रकार की देशना देते हुए अरिहन्त परमात्मा भव्यात्माओं के पुण्यमय प्रदेशों में विचरते हैं। उनका उद्धार एवं निस्तार करते हैं। कई भव्यात्मा इसके लिए उत्सुक भी होते हैं।
जिनेश्वर के आगमन के समाचार देने वाले को चक्रवर्ती साढ़े बारह लाख-प्रमाण सुवर्णवृत्ति-दान में देते हैं, और उतने ही कोटि-प्रमाण सुवर्ण प्रीति-दान में देते हैं। वासुदेव समाचार लाने वाले को उतने प्रमाण वाला रजत देते हैं, मांडलिक राजा साढ़े बारह हजार प्रमाण वृत्ति दान और साढ़े बारह लाख-प्रमाण प्रीतिदान करते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य धनवान भी अपनी अपनी भक्ति और वैभवानुसार नियुक्त-अनियुक्त पुरुषों को दान देते हैं। इस प्रकार करने में देवानुवृत्ति, भक्ति, स्थिरीकरण, सत्वानुकंपा, सातावेदनीय का बंध और तीर्थ की प्रभावना रूप गुणों की अनुमोदना होती है। अरिहंत देशना
समस्त दर्शन जिन-देशना की ही उपज हैं। अरिहंत-देशना अर्थात् सूक्ष्म विचार संकलनाओं से भरा हुआ विश्व दर्शन।
आत्मा है, वह नित्य है, वह कर्म का कर्ता है, वह कर्म का भोक्ता है, मोक्ष है और मोक्ष के उपाय हैं। इन षट्स्थानकों के द्वारा अरिहंत परमात्मा आत्म स्वरूप को प्रकट करते हैं। इन्हीं षट्स्थानकों में से एक को ही एकांत रूप मानकर अन्य दर्शनों की मान्यताएं सिद्ध होती हैं। जैसे कोई दर्शन आत्मा का अस्तित्व तो मानता है पर उसे नित्य नहीं मानता। कोई नित्य मानता है पर आत्मा को कर्म का कर्ता नहीं, ईश्वर को
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केवलज्ञान-कल्याणक
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२३१ मानता है। आत्मा को कर्म का कर्ता मानता है पर उसे भोक्ता नहीं मानता है। फल को ईश्वराधीन मानता है। कोई आत्मा को मानता है, मोक्ष को नहीं मानता। कोई मोक्ष को मानता है परन्तु मोक्ष के उपाय उसे नहीं मिलते हैं। अरिहंत-देशना समस्त दर्शनों का शुद्ध समाधान रूप अनेकांत दर्शन है। इसकी पूर्णता में समस्त दर्शन प्रतिबिम्बित है और इसकी अखंडता में सब दर्शन का अभेद अस्तित्व समाया हुआ है।
इसकी पूर्णतः प्राप्ति तो दुर्लभ है पर इसमें पूर्णतः प्रवेश भी कठिन है। जिन देशना के एक-एक पवित्र सिद्धान्त पर यदि यावज्जीवन चिन्तन किया जाए तो भी वह पूर्ण नहीं हो सकता है । समस्त आत्मवीर्य का उपयोग कर कई महाज्ञानी इसकी गहराई को छूने में सफल रहे हैं। अन्य दर्शनों के साथ अतुलनीय है।
जिन देशना अथवा अरिहंत परमात्मा का यह झलकता हुआ परम सौभाग्य जिसका पुण्य-प्रकर्ष ही जगत् के जीवों के उद्धार का एक मात्र अवतरण है। पूर्णतः पुण्यशाली . न होने से प्रत्यक्षतः हम उनकी इस पारमार्थिकी जिन देशना का श्रवण-मनन-चिन्तन या आत्म-स्पर्शन नहीं कर पाते हैं परन्तु किसी अंशात्मक पुण्य प्रताप से अन्य आत्मार्थी जनों द्वारा ग्रन्थित उस दिव्य-देशना को अरिहंत के कृपा बल से आज प्राप्त कर रहे हैं।
केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त महोग्रतपध्यान द्वारा विशोधन कर कर्म समुदाय को जला देने वाले चन्द्र और शंख से भी उज्ज्वल ऐसे शुक्लध्यान को प्राप्त चक्रवर्ती राजाधिराज या राजपुत्र होने पर भी संसार को एकांत अनन्त शोक का कारण मानकर उसका त्याग करने वाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिकर्मों को भस्मीभूत कर स्वरूप में विचरण करने वाले, किंचितमात्र सांसारिक वैभव विलास का स्वप्नांश भी जिनमें नहीं है, कर्म एवं विकल्पों . से आकुल व्याकुल पामर प्राणियों को स्वयं के वीतराग भाव से परम शान्ति अर्पित करने वाले, महान् मनोजयी, मौन और अमौन दोनों जिनको सुलभ हैं तथा एक कल्पना की सम्पन्नता जहां एक कल्प में भी दुर्लभ हो, वहाँ अनंत कल्पनाओं को कल्प - के अनन्तवें भाग में ही समा देने वाले परमात्मा परम-विशुद्ध बोधि बीज वाली मेघधारा वाणी से देशना फरमाते हैं।
अरिहंत परमात्मा अति विशाल परिषद् को, ऋषि ( अतिशय ज्ञानी साधु ) - परिषद् को, मुनि (मौनधारी साधु परिषद् को, यति साधु) परिषद् को और देव परिषद् को हृदय में विस्तृत होती हुई, कण्ठ में ठहरती हुई, मस्तिष्क में व्याप्त होती हुई, अलगअलग निज स्थानीय उच्चारण वाले अक्षरों से युक्त, अस्पष्ट उच्चारण से रहित, उत्तम स्पष्ट वर्ण संयोगों से युक्त, स्वरकला से संगीतमय और सभी भाषाओं में परिणत होने वाली सरस्वती के द्वारा एक योजन तक पहुंचने वाले स्वरों से अर्धमागधी भाषा में धर्म को पूर्ण रूप से समझाते हैं।
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२३२ स्वरूप-दर्शन
देशना में विशेषतः लोक-अलोक, नवतत्त्व, अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, तिर्यंचयोनिका, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्धि-सिद्ध और परिनिर्वाण-परिनिवर्त आदि का कथन किया जाता है। नवतत्व
जिनदेशना के सर्वोपरि विचारों की महत्वपूर्ण आधारभूमि है मयतत्व। अन्य सर्वदर्शन एवं धर्ममतों के सूक्ष्म विचार इन नवतत्वों के एक ही देश में समा जाते हैं। समस्त द्वादशांगी का सूक्ष्म ज्ञान इन नवतत्वों के स्वरूप ज्ञान में सहायभूत है। इनका स्वरूप-ज्ञान प्राप्त कर इनके अनन्त भाव भेदों को निःशंक जानने और मानने वाले.. अरिहंत तक बन सकते हैं। इन नवतत्वों में कुछ जानने योग्य (ज्ञेय), कुछ ग्रहण करने .. योग्य (उपादेय) और कुछ तत्व त्यागने योग्य हैं। प्रथम सर्व जानने चाहिए बाद में ही विभाजन संभव है। दशवैकालिक सूत्र के अनुसार जिसने जीव अजीव के भाव न जाने.. हों वह अबुध संयम में स्थिर नहीं रह सकता है। आमा की सर्व प्रच्छन्न सत्त्व सम्पन्न वीर्यशक्ति की निरावरणता इन नवतत्व दर्शन के विशेषज्ञान प्रकाश में झलक उठती'
___अनेकान्तदर्शन-स्याद्वाददर्शन-जैनदर्शन में अनन्त वस्तुओं को अनन्त अपेक्षाओं से जाना जाता है। यद्यपि ये वस्तुएँ सिर्फ मानी ही जाती हैं, जानी नहीं जाती। क्योंकि हर वस्तुओं की सर्व पर्यायें मात्र केवलज्ञानी अपने केवलज्ञान से ही जान सकते हैं। अतः छद्मस्थों को जानने के लिए अरिहंत परमात्मा ने मुख्य वस्तु स्वरूप से उनको दो श्रेणियों में विभाजित किया है-जीव और अजीव। जीव-अजीवादि को प्रकारान्तर से जानने के लिए इन्हें नव विभागों में विभाजित किया गया है-(१).जीव, (२) अजीव, (३) पुण्य, (४) पाप, (५) आश्रव, (६) संवर, (७) निर्जरा, (८) बंध और (९) मोक्ष।
जीव चैतन्य लक्षण एक रूप है तथा देह और द्रव्यरूप से अनंतानंत है। इन्द्रियादि की संसर्ग गृद्धि से इस जीव को देह स्वरूप ही जाना जा सकता है और अजीवतत्व उसके रूपी, अरूपी पुद्गल, आकाशादिक विचित्र भाव तथा कालचक्र आदि से जाना जा सकता है। ___ अजीव-जो पदार्थ चैतन्य रहित होते हैं, वे जड़-अजीव कहलाते हैं। इनके पांच भेद हैं-(१) धर्म, (२) अधर्म, (३) आकाश, (४) पुद्गल और (५) काल। इस प्रकार अन्य तत्वों षड्द्रव्यों आदि का विस्तृत स्वरूप वर्णन इसमें होता है। सर्व प्रकार की सिद्धि, पवित्रता, महानशील, निर्मल गहरे, और गंभीर विचार और स्वच्छ विराग की सौगात जिन-देशना के अतिरिक्त कहाँ संभव हो सकती है ?. नवतत्व, षड्द्रव्य, गुणस्थान-विवरण, कर्म और आत्मा का सम्बन्ध, मुक्ति प्राप्ति के उपाय, आत्मा का विकासक्रम इत्यादि कई मुख्य सिद्धान्तों का स्पष्ट निरूपण इसमें होता है।
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केवलज्ञान-कल्याणक २३३ प्रवृत्तिमुक्त योगीश्वर के सतत वैराग्य वेग से प्रसृत महातत्वज्ञानरूप प्रसादीभूत वचनों का भावन करने पर मन यह निर्विवाद मान लेता है कि जिनदेशनामय दर्शन के अतिरिक्त पूर्ण और परम पवित्र अन्य कोई दर्शन नहीं है। वीतराग परमात्मा से बढ़कर कोई बक्ता नहीं है। अतः इसके अभाव से उपलब्ध आत्मा की अनादि गतिमयता को टालने के लिए अरिहंत देशना रूप प्रशस्त भाव में सदा अन्तर्लीन होना चाहिए, क्योंकि सर्वोच्च एवं सम्पूर्ण अनूभूतिमय अभिव्यक्ति अद्वितीय, अपूर्व और आनंदमय कल्याण
केन्द्र अरिहंत देशना है। - जहाँ आत्मा के विकारमय होने का अनंतांश भी शेष नहीं रहा है ऐसे परमात्मा के शुद्ध स्फटिक और चन्द्र से उज्ज्वल शुक्लध्यान की श्रेणी से प्रवाहित अरिहंत देशना को हमारे अनंत-अनंत नमन हो।
त्रिपदी
तीर्थ अर्थात् प्रवचन सर्वज्ञ पुरुष से प्रसृत होता है इसीलिए कहा जाता है कि तीर्थंकर की आत्मा को पूर्वोक्त ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीय-अंतराय इन चार कर्मजो ज्ञानादि गुणों के घातक होने से घातीकर्म कहलाते हैं, उनका सम्पूर्ण क्षय हो जाने से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त होता है, अर्थात् वे "केवलज्ञान और केवलदर्शन" प्राप्त करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी होते हैं। यहाँ बाकी चार अघाती कर्मों का नाश नहीं होने के कारण वे अभी मुक्त नहीं हुए हैं अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं हो चुके हैं। लेकिन कैवल्य स्वरूप सर्वज्ञता-सर्वदर्शिता प्राप्त होने पर वे “तीर्थंकरनाम कर्म" नाम के उत्कृष्ट पुण्य का उदय होने से वे स्वभावतः आगमों के अर्थ का प्रकाशन करते हैं। उदाहरणार्थ-जैसे सूर्य स्वभावतः विश्व को प्रकाशित करता है। 'आगमों के अर्थ का प्रकाशन करने का मतलब समझाते हुए ललित विस्तरा की पंजिका में कहा है “शास्त्रार्थ प्रणयनात्"-शास्त्रार्थस्य = मातृका पदत्रयलक्षणस्य, प्रणयनांद् = उपदेशनात्
. शास्त्र का अर्थ मातृकापदत्रय और प्रणयन का अर्थ उपदेश करते हुए यह स्पष्ट निर्देशित किया है कि वे अपने गणधर शिष्यों को सकल शास्त्रों के मूलभूत अर्थ तीन "मातृका" पदों से देते हैं जिसे त्रिपदी कहते हैं।
आर्हती दीक्षा अंगीकार कर गणधर अरिहंत को प्रणिपात करके “भयवं! किं तत्तं?" इस प्रकार प्रश्न पूछते हैं और अरिहंत प्रथम “उपन्नेई वा" इस प्रकार उत्तर देते हैं। इसका अर्थ होता है उत्पत्ति तत्व है। तब गणधर मगवन्त एकान्त में जाकर चिन्तन करते हैं कि जीव प्रत्येक समय उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार उत्पन्न होते हुए जीव अन्य
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२३४ स्वरूप-दर्शन
कोई भी गति न हो तो इस तीन भुवन में उनका समावेश किस प्रकार हो सकता है? अतः प्रणिपात कर पुनः पूछते हैं-हे भगवन् तत्त्व क्या है ? तब अरिहंत भगवान पुनः कहते हैं-“विगमेइ वा" अर्थात् विगत (विनाश) तत्व है। तत्त्व पाकर श्री गणधर भगवंतों ने सोचा कि सर्व का विगम (नाश हो) जाय तो शून्यता हो जाती है। ऐसा सोचकर प्रभु को वंदन कर पुनः प्रश्न पूछते हैं "भयवं किं तत्तं?" भगवन्त कहते हैं "धुवेइ वा।" स्थिति तत्त्व है। तब वे जीव का और सृष्टि का समग्र स्वरूप जानते हैं।
इस प्रश्न त्रय को निषद्या कहते हैं। अरिहंत द्वारा दिये जाने वाले इन तीनों उत्तरों को निषद्य त्रिपदी, मातृकापद, या महापद कहते हैं। इस त्रिपदी को सुनकर गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं। दिगम्बर मान्यता इससे भिन्न है। उनमें कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि समवसरण की रचना के बाद तीर्थंकर जब उपदेश करते हैं तब . उनकी देह से दिव्यध्वनि प्रस्फुटित होती है और वह ध्वनि अक्षरात्मक नहीं होती है। फिर भी गणधर उसे समझकर उस आधार से द्वादशांगी की रचना करते हैं।
यापनीय यतियों के अग्रणी समान शाकटायन ने भी प्रवर्तमान श्रुत को निर्देशित कर भगवान महावीर को स्व-पर दर्शन सम्बन्धित सर्व शास्त्रानुगत ज्ञान के कारण रूप गिने हैं-इस पर से यह तो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों मान्यताओं में निर्विवाद सिद्ध होता है कि अरिहंत वाणी के आधार से ही गणधर द्वादशांगी रचते हैं। दार्शनिक परम्परा में त्रिपदी का गौरव एवं महत्व
जैन दर्शन के अनुसार जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त है वही सत् कहलाता है। सत् याने (Existent)। जिसकी सत्ता (Existence) हो वह द्रव्य है। सत् के स्वरूप के विषय में भिन्न-भिन्न दर्शनों में मतभेद है।
जैन दर्शन के अनुसार जिसमें पर्यायों (Modifications) की दृष्टि से उत्पाद (Manifestation) और विनाश (Disappearance) प्रतिसमय होते रहते हों और गुणों (Fundamental Realities) की दृष्टि से प्रतिसमय ध्रौव्य (Continuity) रहता हो वह सत् है।
दार्शनिक परिभाषा में द्रव्य वह है जिसमें गुण और पर्यायें हों। द्रव्य में गुण अपरिवर्तनीय (Non-transferable) और स्थायी रूप से रहते हैं अतः वे द्रव्य के ध्रौव्य के प्रतीक हैं। इस संज्ञातर, भावान्तर या रूपान्तर को पर्याय कहते हैं। अतः..
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केवलज्ञान-कल्याणक २३५ उत्पाद और विनाश के प्रतीक हैं। गुण द्रव्य का विधान है और पर्याय उसकी अवस्थाएं हैं। पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाओं में जो व्याप्त रहता है वह द्रव्य है। अवस्थाओं का उत्पाद और विनाश होते रहने पर भी जो ध्रुव रहता है वही द्रव्य है। जो ध्रुव रहता है, अवस्थाएं उसी में उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं। द्रव्य का लक्षण सत् है।'
- किसी द्रव्य का नाश नहीं होता है। जो नाश समझा जाता है वह उसका रूपान्तर और परिणाम मात्र है। विश्व में जितने द्रव्य हैं, उतने ही थे और उतने ही रहेंगे। सब द्रव्य अपनी-अपनी सत्ता की परिधि में उत्पत्ति और नाश पाते रहते हैं। जीव द्रव्य ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। जन्म और मृत्यु उसकी पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती अवस्थाओं के सूचक हैं। द्रव्य का पर्याय रूप में प्रतिक्षण परिवर्तन होने पर भी जो उसकी अनादि अनन्त स्वरूप स्थिति है, जिसके कारण उसका समूलोच्छेद नहीं हो पाता। यह ध्रौव्य है।
वेदान्त और उपनिषद्, शांकर दर्शन सम्पूर्ण सत् पदार्थ को (ब्रह्म) केवल ध्रुव (नित्य ही) मानता है। बौद्ध दर्शन सत् पदार्थ को निरन्वय क्षणिक (मात्र उत्पादविनाशशील) मानता है। सांख्य दर्शन चेतमत्तत्त्व रूप सत् को तो केवल ध्रुव (कूटस्थनित्य) और प्रकृति तत्व रूप सत् को परिणामिनित्य (नित्यानित्य) मानता है। न्याय, वैशेषिक दर्शन अनेक सत् पदार्थों में से परमाणु, काल, आत्मा आदि कुछ सत् तत्वों को कूटस्थनित्य और. घट, पट आदि कुछ सत् को मात्र उत्पादन-व्ययशील (अनित्य) मानता है। -
जैन दर्शन का सत् के स्वरूप से सम्बन्ध रखने वाला मन्तव्य उक्त सब मतों से • भिन्न है। जैन दर्शन मानता है कि जो सत् वस्तु है, वह पूर्ण रूप से सिर्फ कूटस्थनित्य
या सिर्फ निरन्वयविनाशी या उसका अमुक भाग कूटस्थनित्य और अमुक भाग परिणामिनित्य अथवा उसका कोई भाग तो मात्र नित्य और कोई भाग मात्र अनित्य नहीं हो सकता। चेतन, जड़, अमूर्त, मूर्त, सूक्ष्म या स्थूल चाहे कुछ भी हो सभी सत् कहलाने वाली वस्तुएँ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप हैं। मूलतः उत्पाद-व्ययशील और गतिशील परमाणुओं के विशिष्ट-समुदायरूप विभिन्न स्कन्धों का समुदाय यह दृश्य जगत है। इस विश्व की सुनियोजित व्यवस्था स्वतः स्वाभाविक, सुनियंत्रित, सुव्यवस्थित, सुनियोजित और सुसम्बद्ध है, उसे किसी विश्वनियन्ता या अन्तर्यामी की बुद्धि की कोई अपेक्षा नहीं है। विश्व व्यवस्था
विश्व की सुनियोजित व्यवस्था का स्वरूप ज्ञान अर्थात् विश्व-स्वरूप-लोक स्वरूप १. तत्त्वार्थसूत्र अ. ५ सूत्र २९
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२३६ स्वरूप-दर्शन त्रिपदी, षद्रव्य और नवतत्त्व से स्पष्ट होता है। आत्मा का लोक के साथ सम्बन्ध और विच्छेद का मूल इस प्रकार है
पर काम करतात पड का नाम का साथ समाजात
द्रव्य
गुण
पर्याय
ध्रौव्य -----
चेतन - जीव
-जीव
उत्पाद
उत्पाद
व्यय
पुद्गल (जड़)
आश्रव संवर निर्जरा मोक्ष
अजीव पुण्य पाप
बन्ध
धर्म अधर्म आकाश काल :
प्रत्येक जीव का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। अपने अस्तित्व का बोध भी सर्व जीवों को होता है। परंतु अज्ञान के कारण वह देहभाव को जीव के साथ एकरूप प्रतीत करते हैं। परिणामतः क्रिया की प्रवृत्ति भी वैसी होती है। जब भी यह एकरूपता हटती है, जीव अपने अस्तित्व बोध की खोज शुरू करता है। अरिहंत परमात्मा अपनी प्रथम देशना में उसकी अनुसंधान-यात्रा का उद्घाटन करते हैं। इस जिज्ञासा को रहस्य के माध्यम से प्रकट करते हुए कहते हैं, अस्तित्व बोध के बाद सर्वप्रथमं प्रत्येक जीव यह जानना चाहता है कि
"के अहं आसी ? के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि?' मैं कौन था और यहां से च्युत होकर कहां जाऊंगा?
अस्तित्व के इस प्रश्न का समाधान हमें विश्व का स्वरूप क्या है और इसमें हमारा क्या स्थान है, यह सोचने के लिए बाध्य करता है। अतः अरिहंत परमात्मा देशना के माध्यम से संपूर्ण विश्व (Universe) व्यवस्था को छः द्रव्यों (Substances) के माध्यम से प्रतिपादित करते हैं। वे छह द्रव्य हैं
१. जीव (Soul, Substance possessing Consciousness)
२. पुद्गल (Matter and Energy) १. आचारांग सूत्र श्रुतस्कंध १ अ. १ उद्दे. १. सू. २।
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केवलज्ञान-कल्याणक २३७
३. धर्म (Medium of motion of Souls, Matter and Energy) ४. अधर्म (Medium of rest of Souls, Matter and Energy) 4. 34725T2T (Space, Medium of location of Soul etc.) ६. काल (Time) विश्व व्यवस्था की इस वास्तविकता को समझने के लिये ये षद्रव्य अस्तित्व और उपयोगिता का समन्वय प्रस्तुत करते हैं।
प्रत्येक द्रव्य किसी विशेष हेतु के कारण रूप है। छहों द्रव्यों की क्रिया या हेतु की जो. समष्टि है वह विश्व है। जिसमें चैतन्य है, वह जीव है। जो मूर्त है, वह पुद्गल द्रव्य है। द्रव्य का होना अस्तित्त्ववाद है और द्रव्य से होना उपयोगितावाद है। धर्म गति है, गति का हेतु या उपकारक 'धर्म' नामक द्रव्य है। स्थिति है, स्थिति का हेतु या उपकारक, 'अधर्म' नामक द्रव्य है। आधार है, आधार का हेतु या उपकारक 'आकाश' नामक द्रव्य है। परिवर्तन है, परिवर्तन का हेतु या उपकारक 'काल' नामक तत्त्व है।
जीव का लक्षण चैतन्य है और पुद्गल का लक्षण जड़ है। इन छः द्रव्यों में जीव, जीव है और धर्मास्तिकाय आदि पांच अजीव हैं।
धर्मास्तिकाय का लक्षण गतित्व है। धर्मास्तिकाय के बारे में गौतम की जिज्ञासा का समाधान प्रस्तुत करते हुए परमात्मा महावीर ने कहा है-गति के सहारे ही हमारा गगनागमन होता है, शब्द की तरंगें फैलती हैं, पलकें झपकती हैं, चिंतन चलता है, भाषा बोली जाती है, देहक्रिया क्रियाशील रहती है इन सबका आलम्बन गति सहायक तत्त्व ही है। विश्व में जीव और पुद्गल दो द्रव्य गतिशील हैं। वैज्ञानिकों द्वारा कथित Ether गतितत्त्व का ही दूसरा नाम है।
अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थितितत्त्व है। स्थिति की सहायता से हम खड़े रह सकते हैं, बैठते हैं, सोते हैं, मन को एकाग्र करते हैं, मौन कर सकते हैं, निष्पंद हो सकते हैं, आंखें बंद कर सकते हैं। इन सबका आलंबन स्थिति सहायक तत्त्व है।२ ___ आकाश लोक और अलोक दोनों में व्याप्त है। जिसमें जीव आदि सभी द्रव्य होते हैं वह लोक है और जहां केवल आकाश ही आकाश होता है वह अलोक है। जैन दर्शन के अनुसार आकाश स्वतन्त्र द्रव्य है। दिक् उसी का काल्पनिक विभाग है, आकाश का गुण शब्द नहीं अवगाहन है, वह स्वयं अनालम्ब है, शेष सब द्रव्यों का १. भग. श. १३. उद्दे. ४, सू. २४। २. (क) भग. श. १३, उद्दे. ४, सू. २५/
(ख) उत्त. अ. २८, गा. ७/
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२३८ स्वरूप-दर्शन
आलम्बन है। स्वरूप की दृष्टि से सभी द्रव्य स्व-प्रतिष्ठित हैं। किन्तु क्षेत्र या आयतन की दृष्टि से वे आकाश प्रतिष्ठित होते हैं। इसीलिए उसे सब द्रव्यों का भाजन कहते
भगवती सूत्र में कहा है-यदि आकाश नहीं होता तो ये जीव और अजीव कहाँ रहते? ये धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते? काल कहाँ बरसता? पुद्गल कैसे बनता? यह विश्व का आश्रय रूप है।२
काल छह द्रव्यों में एक द्रव्य भी है और जीव-अजीव की पर्याय भी है। ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, विरोधी नहीं। निश्चय दृष्टि में काल जीव-अजीव की पर्याय है और व्यवहार-दृष्टि से वह द्रव्य है। वह परिणाम का हेतु है-इसी उपयोगिता के कारण वह द्रव्य माना जाता है। काल के समय (अविभाज्य-विभाग) अनन्त हैं।
काल को जीव-अजीव की पर्याय या स्वतंत्र द्रव्य मानना, ये दोनों मत आगम-ग्रन्थों में तथा उत्तरवर्ती-साहित्य में पाए जाते हैं। उत्तराध्ययन में काल का लक्षण वर्तना बताया है-'दत्तणालखणो कालो।' उमास्वाति ने काल का लक्षण-'वर्तन परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य५ दिया है।
श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार व्यावहारिक काल मनुष्य क्षेत्र प्रमाण है और औपचारिक द्रव्य है। नैश्चयिक-काल लोक-अलोक-प्रमाण है। दिगम्बर-परम्परा के अनुसार. 'काल' लोकव्यापी और अणुरूप है।६
जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हों तथा जो मिलने-बिछुड़ने के स्वभाव वाला हो उसे पुद्गल कहते हैं।
परमाणु स्वयं गतिशील द्रव्य है। वह एक क्षण में लोक के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जो असंख्य योजन की दूरी पर है, जा सकता है। गति-परिणाम उसका स्वाभाविक धर्म है। धर्मास्तिकाय उसका प्रेरक नहीं, सिर्फ सहायक है। दूसरे शब्दों में गति का . उपादान परमाणु स्वयं है। धर्मास्तिकाय तो उसका निमित्तमात्र है। १. उत्तराध्ययन अ. २८, गा. ९। २. भगवतीसूत्र, श. १३, उद्दे. ४, सू. २६। ३. स्थानांग, २।४।९५ ___समयाति वा, आवलियातिं वा, जीवाति वा, अजीवाति वा, पवुच्चति। ४. तत्वार्थसूत्र ५।४0
सोऽनन्तसमयः । ५. तत्वार्थसूत्र ५।२२ ६. द्रव्यसंग्रह २२
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केवलज्ञान-कल्याणक २३९ ... परमाणु सैज (सकम्प) भी होता है और अनेज (अकम्प) भी। कदाचित् वह चंचल
होता है, कदाचित् नहीं। उनमें न तो निरन्तर कम्प-भाव रहता है और न निरन्तर • अकम्प-भाव भी। ___पुद्गल के १० लक्षण हैं- वर्ण, रस, गंध और स्पर्श, शब्द, अंधकार, उद्योत, प्रभा, छाया और आतप।
पुद्गल के २० गुण हैंस्पर्श - शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध, लघु, गुरु, मृदु और कर्कश। रस - आम्ल, मधुर, कटु, कषाय और तिक्त। गन्ध - - सुगन्ध और दुर्गन्ध। वर्ण. - कृष्ण, नील, रक्त, पीत और श्वेत।
ये बीस पुद्गल के गुण हैं। यद्यपि संस्थान-परिमंडल, वृत्त, त्र्यंश, चतुरंश आदि पुद्गल में ही होता है, फिर भी उसका गुण नहीं है।
- यह पुद्गल कर्म के साथ सम्बद्ध होते हैं। जीव और पुद्गल का यह सम्बन्ध ही संसार है। इसी को विश्वव्यवस्था के माध्यम से देखने पर चेतना का लक्षण, अनादि संक्रमण और आत्मविकास की प्रक्रिया को समझना आसान होता है।
जीव और पुद्गल के संयोग से जो विविधता है उसका नाम ही विश्व है। इस संयोग से अवस्था और परिवर्तन का निर्माण होता है। इसीलिए कहा है कि यह विश्व परिवर्तनशील है। परिवर्तन का उपादान स्वयं द्रव्य है परंतु उसका निमित्त काल है।
जीव के निमित्त से पुद्गल में और पुद्गल के निमित्त से जीव में जो परिवर्तन होता है उसे विभाव परिवर्तन या वैभाविक दशा कहते हैं। इन पुद्गलों को आकर्षित • करने का काम योग करता है और इसे पुष्ट करने का काम आम्नव, बंध, पुण्य और पाप करते हैं। आत्मा के साथ विजातीय तत्त्व का एकरूप हो जाना बंध है। बंध शुभ
और अशुभ दोनों तरह का होता है। शुभ पुद्गल बंध पुण्य है और अशुभ पुद्गल बंध • पाप है। विजातीय तत्व रूप पुद्गलों के स्वीकरण का हेतु आम्रव है। इस प्रकार
आम्रव से बंध होता है। अतः मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग यह बंध के हेतुभूत हैं। ___ आत्मा की विशुद्ध दशा स्वाभाविक है। जिसकी प्रतिपत्ति रूप संवर और निर्जरा तत्त्व है। संवर के द्वारा विजातीय कर्म पुद्गल का आत्मा के साथ संश्लेष होना छूट जाता है। निर्जरा द्वारा पूर्व सम्बन्धित विजातीय तत्त्वों का आत्मा से विश्लेष हो जाता है। विजातीय तत्त्व का आंशिक रूप से अलग होना निर्जरा है और सर्वथा अलग होना मोक्ष है। १. भगवती सूत्र श. ५, उद्दे. ७, सू. १ ।
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२४0 स्वरूप-दर्शन
मोक्ष
मोक्ष का हेतु
विषय कषाय
योग राग-द्वेष
बंध
बंध का हेतु
-संवर
कर्म पुद्गल
कर्मे पुद्गल
-निर्जरा +
कषाय
पुण्य-पाप
आश्रव.
मिथ्यात्व
प्रमाद
अविरति
-क्षायिक भाव
जीव और पुद्गल का यह सम्बन्ध अनादिकाल से है। जब तक यह सम्बन्ध नहीं टूटता है तब तक पुद्गल जीव पर और जीव पुद्गल पर अपना-अपना प्रभाव डालते रहते हैं। जो पुद्गल आत्मा की प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट होकर एकरसीभूत होते हैं वे कर्म कहलाते हैं। अर्थात् कर्म आत्मा के निमित्त से होने वाला पुद्गल परिणाम है। कर्म पुद्गल सर्वप्रथम आकर्षित होते हैं बाद में उनका बंध होता है और परिपाक दशा में ये जीव को प्रभावित करते हैं। सृष्टि का यह नियम है जो परमाणु समूह स्थूल होता है उनकी शक्ति अल्प होती है और जो परमाणु समूह सूक्ष्म होता है उनका सामर्थ्य अधिक होता है। कर्म ग्रहण की प्रवृत्ति सूक्ष्म होती है इसलिए इनका सामर्थ्य प्रचुर होता है। कर्म का आत्मा पर प्रत्यक्ष प्रभाव और शरीर पर परोक्ष प्रभाव होता है। इसलिए जीव के बद्ध कार्मिक-पुद्गलों को द्रव्य कर्म और जीव के राग-द्वेषात्मक परिणाम को
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केवलज्ञान-कल्याणक २४१
भाव कर्म कहा जाता है। द्रव्य और भावकर्म दोनों ही जीव के विकारी परिवर्तन के आंतरिक कारण माने जाते हैं। इसे बाह्य स्थितियां भी प्रभावित करती हैं। कर्मों को कार्मण शरीर कहते हैं।
कार्मण-शरीर, कार्मण-वर्गणा से बनता है। ये वर्गणाएं सबसे अधिक सूक्ष्म होती हैं। वर्गणा का अर्थ है एक जाति के पुद्गल स्कन्धों का समूह। ऐसी वर्गणाएं असंख्य हैं। प्रत्यक्ष उपयोग की दृष्टि से वे आठ मानी जाती हैं- . १. औदारिक - वर्गणा
२. वैक्रिय - वर्गणा ३. आहारक - वर्गणा
४. तैजस् - वर्गणा ५. कार्मण - वर्गणा
६. श्वासोच्छ्वास - वर्गणा ७. भाषा - वर्गणा .
८. मन - वर्गणा पहली पांच वर्गणाओं से पांच प्रकार के शरीरों का निर्माण होता है। शेष तीन वर्गणाओं से श्वास-उच्छ्वास, वाणी और मन की क्रियाएँ होती हैं। __ वैसे तो 'कर्म-वर्गणा' के पुद्गल लोकाकाश में सर्वत्र भरे हुए हैं, परन्तु वे पुद्गल जीव की क्रिया-प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट होकर जब जीव के साथ चिपक जाते हैं- जीव के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं तभी वे 'कर्म' संज्ञा से अभिहित होते हैं।
चैतन्य स्वरूप की दृष्टि से प्राणिमात्र में समान चेतना होती है क्योंकि आत्मा का नैश्चयिक लक्षण चेतना है। किन्तु चेतना का विकास सब में समान नहीं होता है। चैतन्य-विकास के तारतम्य का निमित्त कर्म होता है। जितना ज्ञानावरणीय कर्म मंद होता है चेतना अधिक विकसित होती है और जब वह तीव्र होता है चेतना अल्प होती • है। ऐसे तो आत्मा का स्वभाव सूर्य की तरह प्रकाशवान होता है किन्तु यह प्रकाश चेतना आवृत और अनावृत दो तरह से होती है। अनावृत चेतना अखंड है और आवृत चेतना के अनेक विभाव हैं। अनावरण दशा में चेतना पूर्ण विकसित रहती है। यद्यपि ज्ञानावरणीय के उदय से चेतना आवृत तो रहती है किन्तु वह पूर्णतः आवृत नहीं रहती। उसका कुछ विभाग अनावृत भी रहता है। सभी प्राणियों में न्यूनाधिक मात्रा में चेतना का सद्भाव अवश्य रहता है। यदि ऐसा न होता तो जीव और अजीव में कोई अंतर ही नहीं रहता। “सव्व जीवाणं पि य अक्खरस्स अणंतमो भागो निच्चुग्घाडियो । सो वि पुण आवरेज्जा, तेण जीवा अजीवत्तणं पावेज्जा" केवलज्ञान (पूर्ण ज्ञान) का अनन्तवां भाग तो सब जीवों में विकसित रहता है। यदि वह भी आवृत हो जाए तो जीव अजीव बन जाए।
चेतना का न्यूनतम विकास एकेन्द्रिय जीवों में होता है। उनमें सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय का ज्ञान होता है।
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२४२ स्वरूप-दर्शन ...................................................... ___जीव का निम्नतम विकसित रूप निगोद है, इसे अनादि वनस्पति भी कहते हैं। यह एकेन्द्रिय वनस्पति है। इसके एक-एक शरीर में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं। यह जीवों का अक्षय कोश है। इन जीवों में दो प्रकार के जीव होते हैं
१. व्यवहार राशि और २. अव्यवहार राशि।
जो जीव निगोद को छोड़कर दूसरी काय में जाते हैं वे जीव व्यवहार राशि वाले जीव कहलाते हैं। व्यवहार राशि से बाहर निकलकर जीव विकास के योग्य अनुकूल सामग्रियों को प्राप्त करता है। जो कभी निगोद से बाहर ही नहीं निकलते हैं वे अव्यवहार राशि वाले जीव कहलाते हैं। इन जीवों में अनादि वनस्पति के अतिरिक्त और कोई व्यवहार नहीं पाया जाता। विकास की कोई प्रवृत्ति उनमें नहीं होती है। ये जीव स्त्यानर्द्धि निद्रा की घोरतम निद्रा के उदय से अव्यक्त चेतना वाले होते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय-सम्मूर्छिम और पंचेन्द्रिय गर्भज में क्रमशः ज्ञान . की मात्रा बढ़ती जाती है। एकेन्द्रिय
स्पर्शन। द्वीन्द्रिय
स्पर्शन और रसन। त्रीन्द्रिय
स्पर्शन, रसन और घ्राण। ... चतुरिन्द्रिय
स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु। . पंचेन्द्रिय सम्मूर्छिम __ स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। पंचेन्द्रिय गर्भज
स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन, अतीन्द्रिय
ज्ञान-अवधि-मूर्त पदार्थ का-साक्षात् ज्ञान। पंचेन्द्रिय गर्भज मनुष्य पूर्व के अतिरिक्त परिचित-ज्ञान और केवलज्ञान
चेतना की अनावृत-दशा। शरीर का अत्यंत वियोग विकास की अंतिम भूमिका है। यहां से जीय स्वभाव सिद्ध मुक्त दशा को प्राप्त करता है। जब जीव की ऐसी स्वाभाविक मुक्त दशा के बारे में सोचते हैं तब यह प्रश्न होता है कि जीव के साथ पुद्गल का यह सम्बन्ध कब से हुआ है? क्यों हुआ है? और कब तक रहेगा? । ___ अरिहंत की वाणी से इस का उत्तर इस प्रकार है-संयोग के द्वारा जीव अनेक प्रकार के विकृत परिणमन को निमित्त बनाकर अनेक पुद्गल परमाणुओं को कार्मण वर्गणा के रूप में परिवर्तित कर उसे सम्बद्ध करते हैं। जब तक जीव इन विकृत परिणमन से मुक्त नहीं होता है तब तक इस संयोग के बनने-मिटने की प्रक्रिया. अक्षुण्ण रहती है। ___ कार्मण वर्गणाएँ संगठित होकर आत्मा के साथ चिपक जाती हैं। हर समय अनन्त-अनन्त कार्मण वर्गणाएं आत्मा को आवेष्टित किये रहती हैं। प्रत्येक नूतन कार्मण
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केवलज्ञान-कल्याणक २४३
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वर्गणाएं पुरातन कार्मण वर्गणा के साथ घुल-मिलकर एक हो जाती हैं। सब कर्म वर्गणाओं की योग्यता भी अलग-अलग होती है। कुछ रूखी, कुछ चिकनी, कुछ मंद रसवाली तो कुछ तीव्र रसवाली होती हैं। कोई छूकर रह जाती है, कोई गाढ़ बंधनों से बंध जाती है। बंधन के तुरंत बाद वे फल देती हैं, ऐसा जरूरी नहीं। नियतकाल में परिपक्व होकर प्रभाव डालना निर्धारित होता है।
टाईम बॉम्ब की तरह यह अपने निर्धारित समय में अपना प्रभाव डालकर सामर्थ्य बताती हैं। ___ कार्मण वर्गणाएं जीव द्रव्य के साथ अपना एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध स्थापित करती हैं। आकाश के जितने प्रदेश में जीव स्थित होता है उतने प्रदेश में कार्मण वर्गणाएं अपनी सूक्ष्म परिणमन शक्ति के बल पर स्थित हो जाती हैं। __सबसे महत्वपूर्ण बात तो यही है कि जीव और पुद्गल के संयोग की यह प्रक्रिया संयुक्त होकर भी पृथक-पृथक है। क्योंकि दोनों के अपने-अपने मौलिक गुण (Fundamental attributes) अलग-अलग हैं। अतः जीव की प्रक्रिया जीव में और पुद्गल की प्रक्रिया पुद्गल में ही पाई जाती है। एक की प्रक्रिया दूसरे में या दूसरे के द्वारा कभी संभव नहीं। जीव की प्रक्रिया जीव के द्वारा और पुद्गल की प्रक्रिया पुद्गल के द्वारा सम्पन्न होती है। - कभी भ्रांति, मिथ्यात्व या अज्ञान के द्वारा जीव पुद्गल की प्रक्रिया को स्वयं की और कभी स्वयं की प्रक्रिया को पुद्गल की मान लेता है। इस भ्रमपूर्ण मान्यता से आत्मा में आवेग और कम्पन पैदा होता है। ज्ञान के द्वारा इस भ्रांति से मुक्त होकर आत्मा अपने चैतन्य विकास का प्रारंभ कर सकता है। इसीलिए पुद्गल और जीव का सम्बन्ध अनादि सान्त माना जाता है। जिसकी आदि का पता नहीं परन्तु अंत अवश्य है। कार्मण वर्गणाओं से पूर्णरूपेण मुक्त हो जाना, जीव का मोक्ष कहलाता है। गणधर पद ... ' अरिहंत परमात्मा के प्रथम शिष्यों को गणधर कहा जाता है। इनकी अपनी भी कुछ असामान्य विशेषताएं हैं। परमात्मा द्वारा कथित त्रिपदी को ये बीजरूप में स्वीकार कर द्वादशांगी की रचना करते हैं।
चूर्णिकार और चरित्रकर्ताओं के अनुसार परमात्मा से शिष्यत्व ग्रहण कर गणधर झुककर खड़े होते हैं तब परमात्मा “मैं तुम्हें तीर्थ की अनुज्ञा देता हूं" ऐसा कहकर स्वयं के करकमलों से उनके सिर पर सौगन्धिक रलचूर्ण डालते हैं। . गणधर का शाब्दिक अर्थ गण या श्रमण संघ को धारण करने वाला, गण का अधिपति, स्वामी या आचार्य होता है। आवश्यक वृत्ति में अनुत्तर ज्ञान, दर्शन आदि गुणों के मण-समूह को धारण करने वाले गणधर कहे गये हैं। आगम-वाङ्मय में ।
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२४४ स्वरूप-दर्शन गणधर शब्द मुख्यतः दो अर्थों में प्रयुक्त है। तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य, जो उन (तीर्थंकर) के द्वारा प्ररूपित तत्त्व ज्ञान का द्वादशांगी में संग्रथन करते हैं, उनके धर्म-संघ के विभिन्न गणों की देख-रेख करते हैं, अपने-अपने गण के श्रमणों को आगम-वाचना देते हैं-वे गणधर कहे जाते हैं। अनुयोग द्वार सूत्र में भाव-प्रमाण के अन्तर्गत ज्ञान गुण के आगम नामक प्रमाण भेद में बताया गया है कि गणधरों को सूत्र आत्मगम्य होते हैं। दूसरे शब्दों में वे सूत्रों के कर्ता हैं। __इस उत्तर रूप त्रिपदी को प्राप्त करते ही गणधर को "गणधर नामकर्म" का उदय होता है और उत्कृष्ट मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्राप्त होता है? इस प्रकार अरिहंत के मुख से सुनने का अतिशय समर्थ निमित्त पाकर गणधर विशिष्ट क्षयोपशम की लब्धि . प्राप्त करते हैं और संयम-ग्रहण, विनीतभाव, अर्हत् समर्पण, असाधारण तत्त्व जिज्ञासा, शुषूसा, कुशाग्रबुद्धि और पूर्वभव की प्रबल धर्मसाधना वश श्रुतज्ञानावरण कर्मों का वहीं विशिष्ट क्षयोपशम हो जाता है। गणधर नाम कर्म का उदय होते ही गणधरं . उत्कृष्ट मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान के आधार पर अंतर्मुहूर्त में चौदह पूर्व सहित द्वादशांगी की रचना करते हैं।
इस विषय में ग्रन्थकारों की भिन्न मान्यताएं प्रसिद्ध हैं-कुछ ग्रन्थकारों के अनुसार गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं। कुछ ग्रन्थकारों के अनुसार ग्यारह अंग एवं चौदह पूर्व की रचना करते हैं। एवं कुछ ग्रन्थकारों के अनुसार गणधर चौदह पूर्व सहित द्वादशांगी की रचना करते हैं। ___यहां प्रथम मान्यता में चौदह पूर्वो को द्वादशांगी के अन्तर्गत ही गिन लिया गया है, द्वितीय मान्यता के अनुसार चौदह पूर्वो को बारहवें अंग के अन्तर्गत माना गया है; परंतु अंग १२ न कहकर चौदह पूर्व को अलग और ११ अंग अलग माने गये हैं। तृतीय मान्यता के अनुसार चौदह पूर्वो को द्वादशांगी से अलग माना गया है किन्तु रचना करते समय चौदह पूर्व सहित बारह अंग रचते हैं। पूर्व संस्कृत भाषा में रचित होने से ग्यारह अंगों से अलग माने जाते हैं। वस्तुतः बारहवाँ अंग चौदह पूर्वो का एक समूहात्मक रूप ही है। इस बात का प्रमाण यह है-बारहवाँ अंग निम्नोक्त पांच विभागों में विभक्त किया गया है। (१) परिकर्म, (२) सूत्र, (३) पूर्वानुयोग, (४) पूर्वगत और (५) चूलिका। इन पाँच भेदों में चौथे पूर्वगत प्रकार में चौदह पूर्वो का समावेश हो जाता है। उन चौदह पूर्वी में प्रथम चार पूर्वो में (१) परिकर्म, (२) सूत्र, (३) पूर्वानुयोग और (४) चूलिका ये चारों प्रकार आते हैं। अतः यहां प्रस्तुत करने की पद्धति अलग होने पर भी आशय समान है। प्रायः प्रत्येक ग्रन्थकार बारहवें अंग को. चौदह पूर्वो का समूहात्मक रूप ही मानते हैं।
इसकी पूर्णतः स्पष्टता दर्शाते हुए कहा है-"उन गणधरों ने त्रिपदी द्वारा आचारांग, सूत्रकृतांग, ठाणांग. समवायांग, भगवती अंग, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा,
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अंतकृत्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकश्रुत और दृष्टिवाद-इस प्रकार १२ अंग रचे और दृष्टिवाद के भीतर चौदह पूर्व भी रचे-उनके नाम इस प्रकार हैं-उत्पाद, आग्रयणीय, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्याप्रवाद, कल्याण, प्राणवाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार।
गणधरों ने अंगों की रचना से पूर्व चौदह पूर्व रचे, इसलिये उन्हें पूर्व कहते हैं। कुछ लोगों की मान्यता इससे भिन्न है। इसी प्रकार विधिपूर्वक प्रत्येक गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं। सभी गणधरों की द्वादशांगी समान होती है। फिर भी आसन्नोपकारी वर्तमान शासन प्रणेता श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर की द्वादशांगियों में ग्यारह द्वादशांगी रची गईं, उसमें प्रथम सात गणधरों की सूत्र वाचना अन्यान्य भिन्न थी और अकंपित एवं अचलभ्राता की तथा श्री मेतार्य एवं श्री प्रभास की सूत्र वाचना समान थी। अतः शाब्दिक ऐक्यता के कारण द्वादशांगी ग्यारह होने पर भी गण नौ ही बने।
जैन परम्परा के आगम और आगमेतर साहित्य में विश्ववंद्य, त्रैलोक्यश्रेष्ठ तीर्थंकर-पद के पश्चात् गणधर-पद को ही श्रेष्ठ माना गया है। जिस प्रकार कोई विशिष्ट साधक, अत्युच्च कोटि की साधना के द्वारा त्रैलोक्यपूज्य तीर्थंकर नामगोत्र का उपार्जन करता है, उसी प्रकार गणधर-पद को प्राप्त करने के लिये भी साधक को उच्चकोटि की साधना करनी पड़ती है। यद्यपि तीर्थकर नामगोत्र के उपार्जन के लिए नियुक्त स्थान या कारणों का स्पष्ट उल्लेख है कि अमुक १६ या २० स्थानों में से किसी एक अथवा एक से अधिक स्थानों की उत्कृष्ट साधना करने से साधक तीर्थंकर . नामकर्म का उपार्जन करता है। इस तरह गणधर नाम-कर्म की उपार्जना का कोई . उल्लेख आगम साहित्य में उपलब्ध नहीं होता है। आवश्यक मलयगिरि वृत्ति में इस
प्रकार का उल्लेख अवश्य उपलब्ध है कि भरत चक्रवर्ती का ऋषभसेन नामक पुत्र, • जिसने कि पूर्व भव में गणधर नामगोत्र का उपार्जन किया था।
भद्रेश्वर ने ईसा की ग्यारहवीं शती में रचित अपने प्राकृत भाषा के "कहावली' नामक बृहद् ग्रन्थ में भी भगवान् ऋषभदेव के गणधर ऋषभसेन के प्रव्रजित होने का उल्लेख करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि उन्होंने अपने पूर्वभव में गणधर नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया था। इस सम्बन्ध में कहावलीकार भद्रेश्वर द्वारा उल्लेखित पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
“सामिणो य समोसरणे ससुरासुरमणुवसभाए धम्म साहिन्स्सोसभसेणोनाम भरहपुत्तो पुव्वभवनिबद्धगणहरनामगो जायसंवेगो पव्वइओ।" यहां "पुव्वभवनिबद्ध गणहरनामगो" का विशेषण गणधर पद विशेष का सूचक है।
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२४६ स्वरूप-दर्शन ___ इससे पूर्वकाल में प्रख्यात पर पश्चाद्वर्ती काल में विलुप्त एक परम्परा का आभास होता है कि तीर्थंकरों के जो गणधर होते हैं वे अपने पूर्वभव में एक विशिष्ट प्रकार की उच्चतम साधना से गणधर नाम कर्म का उपार्जन करते हैं।
चिन्तयत्येवमेवैतत्, स्वजनादिगतं तु यः ।
तथाऽनुष्ठानतः सो पि, धीमान् गणधरो भवेत् ॥ अर्थात् प्रशस्त बुद्धिवान् आत्मा स्वयं के स्वजन, मित्र, देशबन्धु आदि के लिए ही भवतारिणी भावरूप परम बोधि का चिन्तवन करे तथा तदनुरूप परोपकार रूप अनुष्ठान का सेवन करे तो वह देव-दानव-मानवादि में महामहिमावान् गणधर पद-. तीर्थंकर देव के मुख्य शिष्य का कर्म उपार्जित करते हैं। गणधर वही हो सकते हैं
(१) जिन्होंने औत्पातिकी आदि विशिष्ट बुद्धि आत्मसात् की हो। (२) जिनकी आत्मा में अरिहंत प्रभु द्वारा प्रथम समवसरण में ही बताए गए तीन
मातृका पद (मूलभूत तीन पद-त्रिपदी) को सुनकर प्रधोत अर्थात् उत्कट
प्रकाश प्रवर्तित होता हो। (३) इससे प्रद्योत के विषयभूत जीव, अजीव इत्यादि नव तत्वों में समाविष्ट होने
वाले समस्त अभीप्सित (शब्द से बताया जा सके ऐसे) पदार्थों का जिन्हें दर्शन
हुआ है, विशिष्ट बोध हुआ है, तथा (४) इसी से जो तत्काल सकल तुस्कन्ध अर्थात् द्वादशांग आगम की रचना करने
वाले बनते हैं, वे गणधर कहे जाते हैं। तीर्थ और तीर्थकर __ "तीर्थंकर" शब्द जैन साहित्य का मुख्य पारिभाषिक शब्द है। यह शब्द कब और किस समय प्रचलित हुआ यह कहना अत्यधिक कठिन है। वर्तमान इतिहास से इसकी आदि नहीं ढूँढ़ी जा सकती। निस्सन्देह यह शब्द उपलब्ध इतिहास से भी बहुत पहले प्राग् ऐतिहासिक काल में भी प्रचलित रहा है। बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलों पर "तीर्थंकर" शब्द व्यवहृत हुआ है। सामञफल सुत्त में छः तीर्थंकरों का उल्लेख किया है। किन्तु यह स्पष्ट है कि जैन साहित्य की तरह मुख्य रूप से यह शब्द वहां प्रचलित नहीं रहा है। कुछ ही स्थलों पर इसका उल्लेख मात्र हुआ है। जब कि जैन साहित्य में इस शब्द का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है। चतुर्विंशतिस्तव और शक्रस्तव में तीर्थंकर के गुणों का जो उत्कीर्तन किया गया है, उसे पढ़कर साधक का हृदय श्रद्धा से नत हो जाता है। ___ तीर्थ की स्थापना करने से ही अरिहंत परमात्मा तीर्थंकर कहलाते हैं-"तीर्थ करोतीति तीर्थंकरः”।
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तीर्थंकर शब्द की व्याख्या करते हुए भद्रबाहु स्वामी कहते हैं
अणुलोमहेउतच्छीया य जे भावतित्थमेयं तु ।
कुव्वति पगासंति ते तित्थयरा हियत्थकरा ॥ उपरोक्त गाथा में हेतुता, तत्शीलता और अनुलोमता ये तीन महत्वपूर्ण एवं तीर्थंकर भाव सिद्धि के कारण बतलाये हैं। "हेतु" का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि श्रेष्ठ धर्म का निरूपण ही तीर्थंकर का लक्ष्य है, क्योंकि “कृञ्" धातु हेतु, ताशील्य और अनुलोम के अर्थों में प्रयुक्त होता है, इसीलिए तीर्थंकर भी ताशील्य भाव वाले होते हुए भी अर्थात् कृतार्थ समर्थ एवं शक्तिमान होकर भी तीर्थंकर नामकर्म के उदय से समग्र प्राणियों के ऊपर अनुकंपावान बनकर सद्धर्म तीर्थ की स्थापना करते हैं। अनुलोम्य शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहते हैं कि-स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध, स्थविर, जिनकल्पी आदि के अनुरूप तथा उत्सर्ग अपवाद से देशना का दायित्व निभाने वाले तीर्थकर होते हैं।
सभी प्राणियों के सर्वथा हेतु से, तशीलता से और अनुकूलता से हितकारी होने वाले तीर्थंकर कहलाते हैं। ये तीर्थंकर केवल तीर्थ के स्थापक ही नहीं बनते हैं अपितु गुणों से भाव तीर्थ को प्रकाशित भी करते रहते हैं।
हेतु" शब्द, का अर्थ कारण है तो तीर्थंकर किस कारण से तीर्थ की प्ररूपणा करते हैं ? इसका एक ही उत्तर टीकाकार देते हैं-सद्धर्म तीर्थंकरणहेतवः ।" अर्थात् संसार में समस्त प्राणियों का श्रेष्ठ आचरण हो-इसी आशय को लेकर सद्धर्म तीर्थ की महत्ता प्रकटाते हैं और स्थापित करते हैं।
• “तशीलता" शब्द का अर्थ यह है कि जो कुछ कह रहे हैं वह कर रहे हैं, अर्थात् कथनी और करनी में जिनकी एकता है, ऐसे भाव से भव्य बने हुए का अर्थ है तत्शील, इसलिए तीर्थंकर वही कहते हैं जो खुद करते हैं। __“अनुलोम" शब्द का अर्थ होता है अनुकूल। किसी भी प्राणी के प्रति विरोधी वचन का कभी भी व्यवहार करना उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं होता है।
तीर्थंकर हितार्थंकर होते हैं, सभी प्राणियों का किस में हित निहित है इसका यथार्थ बोध तीर्थंकरों को होता है। हित शब्द का एक अर्थ मोक्ष भी होता है। तीर्थंकर वही हैं जो हितकारी और मोक्षकारी वाणी का निरूपण करते हैं। इसलिए तीर्थंकर हितार्थकर भी है; जो कर्ता भी है, प्रकाशक भी है, पुनीत भी है और प्रवक्ता भी है; साथ में परात्परब्रह्म का पूर्ण अधिष्ठान भी है।
जो तीर्थ का कर्ता या निर्माता होता है वह तीर्थंकर कहलाता है। जैन परिभाषा के अनुसार तीर्थ शब्द का अर्थ-धर्म शासन है। जो संसार समुद्र से पार करने वाले धर्म तीर्थ की संस्थापना करते हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य
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२४८ स्वरूप-दर्शन और अपरिग्रह ये धर्म हैं। इस धर्म को धारण करने वाले श्रमण-श्रमणी, श्रावक और श्राविकाएं हैं। इस चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा गया है। इस तीर्थ की जो स्थापना करते हैं उन विशिष्ट व्यक्तियों को तीर्थंकर कहा जाता है। ___ गणधर श्री गौतम स्वामीजी ने एक बार परमात्मा महावीर से यह प्रश्न किया कि "हे भगवन् ! तीर्थ कौन है? तीर्थ तीर्थ है, या तीर्थकर तीर्थ है?" प्रभु ने उत्तर देते . हुए कहा कि “गौतम ! अरिहंत तो अवश्य तीर्थ करने वाले हैं, और तीर्थ है साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप संघ।" ___ संस्कृत साहित्य में तीर्थ शब्द "घाट" के लिए भी व्यवहृत हुआ है। जो घाट के... निर्माता हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं। सरिता को पार करने के लिए. घाट की कितनी उपयोगिता है, यह प्रत्येक अनुभवी व्यक्ति जानता है। संसार रूपी एक महान नदी है।. उसमें कहीं पर क्रोध के मगरमच्छ मुँह फाड़े हैं। कहीं पर मान की मछलियाँ उछल . रही हैं। कहीं पर माया के जहरीले साँप (फकार मार रहे हैं तो कहीं पर लोभ के भंवर हैं। इन सभी को पार करना कठिन है। साधारण साधक विकारों के भंवर में फंस जाते हैं। कषाय के मगर उन्हें निगल जाते हैं। अनंत दया के अवतार तीर्थंकर प्रभु ने साधकों की सुविधा के लिए धर्म का घाट बनाया, अणुव्रत और महाव्रतों की निश्चित । नौका प्रस्तुत की। जिससे प्रत्येक साधक इस संसार रूपी भयंकर सागर को पार कर सकता है।
तीर्थ का एक अर्थ-पुल भी है। चाहे जितनी बड़ी से बड़ी नदी को पार करने के लिए धर्मशासन अथवा साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका रूपी संघ-पुल का निर्माण किया। साधक अपनी शक्ति व भक्ति के अनुसार इस पुल पर चढ़कर संसार को पार कर सकता है। धार्मिक साधना के द्वारा अपने जीवन को पावन बना सकता है। तीर्थंकरों के शासन काल में हजारों लाखों व्यक्ति आध्यात्मिक साधना कर जीवन को परम पवित्र बनाकर मुक्त होते हैं। ___ यह एक शाश्वत नियम है, कि सभी तीर्थंकर केवलज्ञान की उपलब्धि होते ही उसी दिन धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं। प्रथम देशना के पश्चात् तत्काल ही वे तीर्थ की स्थापना करते हैं। कभी-कभी इस नियम का अपवाद भी माना है। जैसे श्रमण भगवान महावीर ने केवलज्ञान की प्राप्ति के दूसरे दिन धर्मतीर्थ की स्थापना की।
केवलज्ञान की उपलब्धि तथा तीर्थ प्रवर्तन के बीच काल का व्यवधान तो दोनों परम्पराओं में माना गया है परन्तु यह व्यवधान यहां श्वेताम्बर परम्परा में एक दिन का माना गया है वहां दिगम्बर परम्परा के मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र कृत "गौतम-चरित्र" नामक ग्रंथ में केवल ३ घण्टों का और अन्य कुछ ग्रन्थों में ६६ दिनों के व्यवधान का उल्लेख उपलब्ध होता है।
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___ इस धर्म तीर्थ की स्थापना में मुख्यतः दो प्रकार के धर्म बताये जाते हैं-आगार. धर्म और अणगार धर्म। अणगार धर्म से साधु-साध्वी और आगार धर्म से श्रावकश्राविका रूप धर्म की प्ररूपणा और संघ की स्थापना होती है।
संघ व्यवस्था
परमात्मा अरिहंत ने आत्मसमाधि को महत्त्व देते हुए आत्म व्यवस्था में ही स्थिर होने का और संकल्प विकल्पों के समस्त आंदोलनों को समाप्त करने की दिशा में हमेशा प्रयत्नशील बने रहने का कहा है। इसके लिए साधक को एकान्तवास आदि आवश्यक होता है। लेकिन व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास सदा संघ सापेक्ष रहा है। इसी कारण आत्मव्यवस्था के साथ संघव्यवस्था को संयुक्त कर परमात्मा ने तीर्थसंघ की स्थापना की। जिसकी स्थापना होवे उसकी व्यवस्था भी अनिवार्य होती है। अतः परमात्मा संघ की सुंदृढ़ व्यवस्था के लिए कुछ निश्चित अनुशासन और समाचारी (चर्याएं) के नियम प्रदान करते हैं। धर्मशासन युक्त संघ में अनुशासन सर्वोपरिता के लिये समुदाय को गणों (विभागों) में विभक्त किया। गणों की सारणा-वारणा और शिक्षा-दीक्षा की विशेष सुचारु व्यवस्था के लिए कुछ अन्य पद भी निश्चित किए। जैसे
१. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. स्थविर, ४. प्रवर्तक, ५. गणी, ६. गणधर और ७. गणावच्छेदक। .
सूत्र के अर्थ की वाचना देना और गण का सर्वोपरि संचालन का कार्य आचार्य के . जिम्मे होता है।
सूत्र की वाचना देना, शिक्षा की वृद्धि करना उपाध्याय के जिम्मे होता है। ___ श्रमणों को संयम में स्थिर करना, श्रामण्य से डिगते हुए श्रमणों को पुनः स्थिर करना, उनकी कठिनाइयों का निवारण करना स्थविर के जिम्मे होता है।
आचार्य द्वारा निर्दिष्ट धर्म-प्रवृत्तियों तथा सेवा कार्य में श्रमणों को नियुक्त करना प्रवर्तक का कार्य है।
श्रमणों के छोटे-छोटे समूहों का नेतृत्व करना गणी का कार्य है। श्रमणों की दिनचर्या का ध्यान रखना गणधर का कार्य है।
धर्म-शासन की प्रभावना करना, गण के लिए विहार व उपकरणों की खोज तथा व्यवस्था करने के लिए कुछ साधुओं के साथ संघ के आगे-आगे चलना, गण की सारी व्यवस्था करना गणावच्छेदक का कार्य है। इनकी योग्यता के लिए विशेष मानदण्ड स्थिर किए। इनका निर्वाचन नहीं होता है। स्थविरों की सहमति से ये आचार्य द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।
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२५० स्वरूप-दर्शन __ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार रूप पंचाचार के द्वारा समस्त जीवन कथन की व्यवस्था समझायी जाती है। आगार धर्म के माध्यम से १२ व्रतों का व्रतविधान प्रस्तुत होता है। अणगार धर्म में चातुर्याम या पंचयाम धर्म की व्यवस्था नियुक्त होती है।
इसके अतिरिक्त सामान्य चर्या (समाचारी) का विशेष विधान भी प्रस्तुत किया जाता है। श्रमण-श्रमणियों के लिये नियोजित समाचारी में श्रमण जीवन की समस्त चर्याओं के पालन की विधि समाहित है
प्रथम सामान्यतः दशविध समाचारी का विधान है१. आवश्यकी
उपाश्रय से बाहर जाते समय आवश्यकी
आवश्यक कार्य के लिए जाता हूं-कहे। २. नैषधिकी
कार्य से निवृत्त होकर आए तब नैषधिकी-मैं
निवृत्त हो चुका हूं-कहे। ३. आपृच्छा
अपना कार्य करने की अनुमति लेना। ४. प्रतिपृच्छा
दूसरों का कार्य करने की अनुमति लेना। ५. छन्दना
भिक्षा में लाए आहार के लिए साधर्मिक साधुओं
को आमंत्रित करना। ६. इच्छाकार-.
कार्य करने की इच्छा जताना, जैसे-आप चाहें तो
मैं आपका कार्य करूं? . ७. मिथ्याकार
भूल हो जाने पर स्वयं उसकी आलोचना करना। ८. तथाकार
आचार्य के वचनों को स्वीकार करना। ९. अभ्युत्थान
आचार्य आदि गुरुजनों के आने पर खड़ा होना, सम्मान करना। ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए गुरु के समीप विनीत भाव से रहना अथवा दूसरे साधुगणों में
जाना। दिवस समाचारी में प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में भिक्षाचारी और चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय का विधान है।२ ।
१०. उपसम्पदा
१. क-भग. श. २५, उद्दे. ७, सू. १९४।
ख-स्था. अ. १०, सू. ७४९।
ग-उत्तराध्ययन-अ. २६, गा. २-३-४। २. उत्त. अ. २६, गा.१२।
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केवलज्ञान-कल्याणक २५१ रात्रि-समाचारी में प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे प्रहर में ध्यान, तीसरे प्रहर में निद्रा और चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय करे।
अपर रात्रि में उठकर आत्मालोचन व धर्म जागरिका करना-यह चर्या का पहला अंग है।र स्वाध्याय, ध्यान आदि के पश्चात् आवश्यक कर्म करना। यह आवश्यक क्रिया साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका चारों के लिये होती है। आवश्यक-अवश्य करणीय कर्म छह हैं.१. सामायिक
समभाव का अभ्यास, उसकी प्रतिज्ञा का पुनरावर्तन। २. चतुर्विंशतिस्तव- चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति। ३. वन्दना
गुरु को बारह आवर्त से वन्दना। ४: प्रतिक्रमण- . कृत दोषों की आलोचना। ५. कायोत्सर्ग- - देह में रहकर भी देहभावों से मुक्त रहना। ६. प्रत्याख्यान- त्याग करना।
इस आवश्यक कार्य से निवृत्त होकर सूर्योदय होते-होते मुनि प्रतिलेखन करे, उन्हें देखे। उसके पश्चात् हाथ जोड़कर गुरु से पूछे-मैं क्या करूँ? आप मुझे आज्ञा दें-मैं किसी की सेवा में लगू या स्वाध्याय में? यह पूछने पर आचार्य सेवा में लगाए तो अग्लान-भाव से सेवा करे और यदि स्वाध्याय में लगाए तो स्वाध्याय करे।४ . संघव्यवस्था में शिष्टाचार का बड़ा महत्त्व है। अभ्युत्थान, अभिवादन, प्रियनिमन्त्रण, अभिमुखगमन, आदान-प्रदान, पहुँचाने के लिए जाना, प्रांजलीकरण . आदि.आदि विनय शिष्टाचार है।
१. उत्त. अ. २६, गा. १५। २. दश. चूर्णि २, गा. १२। ३. उत्त. अ. २६, गा. ४८/ ४. उत्त. अ. २६, गा. ८-१०। ५. उत्त. अ. ३०, गा. ३२।
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अध्याय ९
निर्वाण-कल्याणक
'निर्वाण १. योग निरोध की प्रक्रिया २. निर्वाण महोत्सव ३. अंतिम विधि
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|| निर्वाण-कल्याणक |
निर्वाण
अरिहंत परमात्मा का निर्वाण समय जानकर तत्काल ही देवेन्द्र अंतिम समवसरण की रचना करते हैं, उसमें बिराजकर परमात्मा अंतिम धर्म देशना देते हैं। यह अंतिम धर्म देशना केवलोत्पत्ति के बाद की जाने वाली प्रथम धर्म देशना की भांति अत्यंत विस्तृत होती है। ऐसी धर्मदेशना यथासमय सम्पन्न कर परमात्मा (पर्वत के किसी विशेष शिखर पर आरूढ़ होते हैं) अपने ज्ञान से दृष्ट देहत्याग की जगह चले जाते हैं, वह जगह पर्वत, सभागार या निर्जन स्थान आदि होते हैं।
इस समय स्वयं का अंतिम अवसर जानकर कितने ही गणधर एवं श्रमण-समुदाय भी बहुधा अनशनार्थ परमात्मा के साथ प्रस्थित होते हैं। अपने परिवार सहित तीर्थंकर भगवान मोक्षरूपी महल की सीढ़ी के समान उस पर्वत-शिखरं पर आरूढ़ होकर पादपोपगमन (पादप-वृक्ष, उपगमन प्राप्त करना) अर्थात् वृक्ष की तरह स्थिर रहकर अनशन करते हैं।
पर्यंक-कायोत्सर्ग आदि विविध आसनों में बादर काययोग में अवस्थित परमात्मा सर्व प्रथम बादर (स्थूल) मनयोग एवं बादर (स्थूल) वचन योग का रूंधन करते हैं। फिर सूक्ष्म काय योग का आश्रय कर श्वास प्रश्वास रोक कर बादर (स्थूल) काय योग
का रुंधन करते हैं। फिर सूक्ष्म काययोग में रहकर सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचनयोग . का रुंधन करते हैं। इस प्रक्रिया को योग निरोध अथवा योग रुंधन भी कहते हैं। योग निरोध की प्रक्रिया
परम पद मोक्ष प्राप्ति में जब अन्तर्मुहूर्त का समय कम रहे तब योगनिरोध किया -जाता है। भवोपग्राही अर्थात् भव का उपग्रह करने वाले (पकड़ने वाले) जो अघाती (वेदनीय-आयुष्य-नाम-गोत्र) कर्म हैं वे जब समुद्घात द्वारा या स्वाभाविक समस्थिति में आते हैं तब योगनिरोध किया जाता है।
योगनिरोध में सर्वप्रथम मनोयोग का उसके बाद वचनयोग का और तदनन्तर काययोग का निरोध किया जाता है। मनोयोगनिरोध __ औदारिक-वैक्रिय और आहारक शरीर के व्यापार से ग्रहण किये जाने वाले मनोद्रव्य की सहायता से होने वाले जीव व्यापार अर्थात् स्फुट वीर्यात्मक आत्मपरिणाम को मनोयोग कहा जाता है।
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२५६ स्वरूप-दर्शन ___अरिहंत परमात्मा सर्वज्ञ होने से सर्ववस्तु का प्रत्यक्ष निरीक्षण करते हैं अतः इन्हें चिंतन एवं विचार की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार वे मन का उपयोग भी नहीं करते हैं, किन्तु कभी अनुत्तरविमानवासी देव स्वर्ग में स्थित रहकर ही तत्व-चिंतन में शंका जिज्ञासा होने से अरिहंत भगवान् से प्रश्न पूछते हैं, उस समय उन्हें मनोयोग का उपयोग करना पड़ता है। इस समय अरिहंत परमात्मा मनोयोग का उत्तर रूप में उपयोग करते हैं. और अनत्तर विमानवासी देव वहीं रहकर अवधिज्ञान से स्वयं के प्रश्नों के उत्तरों को जानते एवं समझते हैं।
अरिहंत परमात्मा इस मनोयोग के निरोध में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के जघन्य (न्यूनतम) मनोयोग से भी नीचे के असंख्यात गुणहीन प्रथम मनोयोग का निरोध करते. हैं। इस प्रकार करते हुए असंख्य समय व्यतीत होने पर प्रथम मनोयोग का निरोध होता है। वचनयोग निरोध
औदारिक-वैक्रिय-आहारक शरीर के व्यापार से ग्रहण किये जाने वाले वागद्रव्य- : समूह की सहायता से होने वाला आत्मवीर्य परिणाम वचनयोग है। मनोयोग का निरोध . हो जाने पर ऐसे वचनयोग को वचन-पर्याप्ति से प्राप्त द्वीन्द्रिय जीव को प्रथम समय में जो कम से कम वचनयोग होता है उससे भी असंख्य गुणहीन वचनयोग का समय-समय पर निरोध करते हैं, इस प्रकार असंख्य समय जब व्यर्तीत होता है तब वचनयोग का निरोध होता है। काययोग निरोध
निर्वाणगमन के अवसर पर (मनोयोग-वचनयोग का सर्वथा निरोध, होने पर) अर्द्ध काययोग निरुद्ध होने पर जब सूक्ष्म कायक्रिया शेष रहतो. है तब "सूक्ष्मक्रिया
अनिवृत्ति" नामक तृतीय शुक्लध्यान होता है। ____ अनिवृत्ति अर्थात् सम्पूर्ण आत्मस्थिरता की ओर अत्यंत प्रवर्धमान परिणाम से युक्त अर्थात् सूक्ष्म में से बादर रूप में पुनः प्रवेश नहीं करने वाली ऐसी कायक्रिया वाला ध्यान याने "सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति ध्यान।" यह अवस्था ही ध्यान है।
इस "सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति" नामक तृतीय ध्यान में मनोयोग एवं वचनयोग का जब सर्वथा रुंधन हो जाता है तो फिर इसे ध्यान कैसे कहते हैं ? क्योंकि मन से ही तो ध्यान होता है। यहां मन ही समाप्त हो गया है “ध्येय चिन्तायाम्" ऐसे पाठ से "ध्येय" पर से बने हुए ध्यान का अर्थ तो चिन्तन होता है जो मन के अतिरिक्त कैसे संभव हो सकता है? इस प्रश्न का समाधान करते हुए ध्यान शतक में कहा है कि छद्मस्थों के लिए मन की सुस्थिरता ध्यान है जब कि केवली भगवान के लिए काया का सुनिश्चल होना ध्यान है।
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निर्वाण-कल्याणक २५७ - यहां वह द्रव्यमन तो समाप्त हो गया है परंतु चित्त के नहीं होने पर भी जीव के उपयोग परिणाम (भावमन) के उपस्थित होने से केवली भगवान् के लिए सूक्ष्म क्रिया एवं व्युच्छिन्न क्रिया ध्यान रूप कहलाती हैं।
जिस समय काययोग का निरोध किया जाता है उस समय सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त आत्म प्रदेश देह के तृतीय भाग को छोड़कर २/३ भाग में व्याप्त रहते हैं, क्योंकि जिस समय काययोग के निरोध का आत्मप्रयल होता है उस समय देह के रिक्त भाग में जाकर रिक्तता के चारों ओर वे प्रदेश परस्पर अखण्ड एवं संलग्न होते जाते हैं, अतः अंत में वे देह के २/३ भाग में संकुचित हो जाते हैं शेष देहभाग सर्वथा आत्म-प्रदेशों से रहित हो जाता है।
सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद जीव जन्म के प्रथम समय में कम से कम काययोग वाले होते हैं उससे भी असंख्यात गुणहीन काययोग का निरोध असंख्य समय व्यतीत होने पर किया जाता है। इस प्रकार आत्मप्रदेश के संकोच के साथ असंख्य समय में काययोग का सर्वथा निरोध हो जाता है।
समस्त योगों का निरोध हो जाने पर अरिहंत परमात्मा अयोगि अवस्था को प्राप्त होते हैं, उस अवस्था को प्राप्त हो जाने के बाद पांच ह्रस्व अक्षर के उच्चारण काल प्रमाण समय में अर्थात् असंख्यात समय के अंतर्मुहर्त जैसे काल में वे मेरु की तरह स्थिर होकर शैलेशी अवस्था को प्राप्त करते हैं। अतः इस समय वे स्थिर निश्चल
आत्मप्रदेश वाले होकर "व्युच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति" नामक चतुर्थ परम शुक्लध्यान को • प्राप्त करते हैं। .. . इस अवस्था के अलग नाम और व्याख्यायें इस प्रकार हैं
१. शिला याने पाषाण, शिला का बना हुआ शैल अर्थात् पर्वत उसका ईश वह शैलेश अर्थात् “मेरु" इस अवस्था के समय आत्मा में मेरुवत् निश्चलता आती है, आत्म-प्रदेश निष्कंप होते हैं, वही शैलेश। इस प्रकार पहले अशैलेश आत्मप्रदेश अब शैलेश जैसे अर्थात् शैलेशी होते हैं। आत्म प्रदेश के शैलेश होने से आत्मा की अवस्था शैलेशी हो जाती है।
२. “काय"-जोगनिरोहो सेलेसी भावणामेइ" अर्थात् योगनिरोध करने वाला "से" अर्थात् वह अलेशीभावना को प्राप्त करता है। “अलेशी" अर्थात् लेश्या रहित। १३वें गुणस्थान तक लेश्या होती है। क्योंकि लेश्या का योगान्तर्गत पुद्गलों के साथ सम्बन्ध है और योग १३वें गुणस्थान तक ही विद्यमान हैं फिर १४वें गुणस्थान में शैलेशी अवस्था होने से योग नहीं है तथा लेश्या भी नहीं है। अतः वह आत्मा अलेशी अर्थात् प्राकृत भाषानुसार “अलेसी" होती है। १. ध्यान शतक-गा. ८४, ८६
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२५८ स्वरूप-दर्शन ___३. निश्चयनय के अनुसार सर्व संवर शील है-“शील" यानी “समाधान" अर्थात् आत्मप्रदेशों का आत्मस्वभाव का सम्यक् आधान, सम्यक् स्थापन। आत्मा का मूलभूत स्वभाव सर्व-आश्रव रहितता, सर्व संवर स्थिरता है एवं वही शील है। शील के स्वामी शील को और शीलेश शब्द को स्वार्थ में "अ" प्रत्यय लगता है तब प्रथम स्वर "शी" का "शे" होता है। अतः शीलेश से शेलेश हुआ। शैलेश की अवस्था को शैलेशी कहते हैं और प्राकृत में इसका "सेलेसी" होता है। सेलेशी शब्द की इस व्याख्या के अनुसार यह "सर्वसंवर की अवस्था" होती है।
सर्व कर्मों का क्षय होने के पश्चात् परमात्मा औदारिक, तेजस एवं कार्मण इन शरीरों को सर्वथा छोड़कर ऋजु-अवक्र आकाश के प्रदेशों की पंक्तिमय श्रेणी को आश्रित करते हुए, अन्तराल के प्रदेशों को नहीं स्पर्शते हुए एक समय में सीधी गति से सिद्धगति में विराजमान हो जाते हैं। यहां उनका उपयोग साकार होता है अर्थात् ज्ञानोपयोग से युक्त होता है।
अरिहंत परमात्मा के सर्व कल्याणक पर्व में सारे लोक में उद्योत होता है। अतः निर्वाण के समय भी सर्व लोक द्रव्य उद्योत से क्षणभर के लिए झलक उठता है। परंतु इसके साथ ही भावों की विपरीत स्थिति भी पाई जाती है और परमात्मा के निर्वाण से सर्वत्र भावान्धकार व्याप्त हो जाता है। क्योंकि संशयरूप अंधकार का नाश करने वाले तीर्थपति सूर्य के अस्त. हो जाने से नाथ के अभाव में शासन सूना हो जाता है। भवजलतारिणी धर्मदेशना बंद हो जाती है। मोहांधकार एवं मिथ्यात्वांधकार सर्वत्र व्याप्त हो जाता है। परमात्मा के शरण से रहित हुए अरिहंत-प्रेमी जनों, की विरहवेदना से सारी पृथ्वी संवेदनशील हो जाती है। तीनों भुवन मानों पुण्य विहीन बन गये हों वैसे परमात्मा के अभाव में सर्वत्र अंधकार सा ही प्रतीत होता है। . __ ऐसा सब कुछ हेते हुए भी परमात्मा का निर्वाण कल्याणक ही माना जाता है क्योंकि सर्व साधना का परम उद्देश्य तीर्थंकरों का भी मुक्ति का ही होता है। सिद्ध स्थिति से उत्कृष्ट अन्य कोई उच्च स्थिति भी तो नहीं है। जन्म-मरण रूप संसार का परमात्मा ने विच्छेद कर दिया। अतः परमात्मा शोक के पात्र नहीं हैं। उनका नाम लेने से निवृत्ति (मुक्ति) होती है, स्मरण करने से सिद्धि मिलती है और शरण-ग्रहण से मनवांछित पूर्ण होते हैं। इसी कल्याणक स्थिति के कारण सुख का लेश भी नहीं जानने वाले नारकीयों की दुःखाग्नि भी क्षणभर के लिए शांत होती है एवं क्षणमात्र उन्हें भी सुख प्राप्त होता है। निर्वाण महोत्सव
च्यवन से लेकर निर्वाण तक के प्रत्येक कल्याणक के प्रत्येक अवसरों को इन्द्र अपने परिवार सहित महोत्सव रूप में मनाते हैं। निर्वाण-कल्याणक अरिहंत परमात्मा
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निर्वाण-कल्याणक २५९ का अंतिम कल्याणक है, अतः इसे भी इन्द्र अपने जीताचार रूप सर्व अंतिम विधि से यथावत् पालते हैं।
जिस समय अरिहंत भगवान का निर्वाण होता है, वे संसार के कार्य से निवर्तते हैं, जन्म-जरा-मरण का बन्धन छेद कर, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं, सर्व दुःखों से रहित होते हैं। उस समय शक्र देवेन्द्र देवराज का आसन चलित होता है। अवधिज्ञान के प्रयोग से परमात्मा का निर्वाण हुआ जानकर अपने त्रिकालवर्ती जीताचार रूप महोत्सव मनाने के लिये निज-देव देवियों के परिवार सहित उत्कृष्ट-दिव्य देव गति-से असंख्यात द्वीप समुद्रों के मध्य होते हुए जहां तीर्थंकर भगवान का शरीर होता है वहां आते हैं और विमन-शोकाकुल मन से आनंदरहित, अश्रुपूर्ण नयनों से तीर्थंकर के शरीर की तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं। न अधिक दूर से न अधिक नजदीक से सेवा करते हुए पर्युपासना करते हैं।
___ आगम में प्रभु के निर्वाण के बाद ही इन्द्रागमन का उल्लेख है। परंतु कुछ चरित्रकारों के अनुसार परमात्मा के निर्वाण पधारने के पूर्व जब परमात्मा अनशन व्रत अंगीकार करते हैं उसी समय इन्द्रों के आसन कांपते हैं और अवधिज्ञान से आसनों के कांपने का कारण जानकर सर्व (चौंसठ) इन्द्र प्रभु के पास आते हैं।
कुछ चरित्रकारों के अनुसार अनशन के और पर्वतारोहण के पूर्व ही इन्द्र आ जाते हैं और तत्काल परमात्मा के पास जाकर समवसरण की रचना करते हैं, उसमें विराजमान परमात्मा अंतिम देशना देते हैं और बाद में वहां से प्रस्थित होकर पर्वत के किसी शिखर पर आरूढ़ होकर एक मास का अनशन करते हैं। इस समय अत्यंत प्रीति से युक्त सर्व देवेन्द्र अपने परिवार से युक्त त्रिभुवननाथ की सेवा करते हैं। यह सेवा वे कब तक करते हैं एवं कब परमात्मा का सान्निध्य छोड़कर वे स्वस्थान लौट जाते हैं यह तो अव्यक्त है परंतु परमात्मा के निर्वाण के पश्चात् उनके पुनरागमन को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा है कि "परमात्मा के निर्वाण के पश्चात् सर्व देवेन्द्र अपने-अपने देव-देवियों के परिवार से युक्त शोक से अश्रुपात करते हुए प्रभु के गुणों का स्मरण करते हुए वैक्रिय रूप से पृथ्वी पर आते हैं एवं विलाप करते हैं। अंतिम विधि
अरिहंत परमात्मा का देहविलय हो जाने पर देवेन्द्र आभियोगिक देवों द्वारा तीन चिताओं की रचना करवाते हैं। अरिहंत परमात्मा के शरीर के लिए पूर्वदिशा में एकान्त स्थान में एक गोलाकार चिता बनाते हैं, गणधर अथवा इक्ष्वाकुवंश के महर्षियों के लिए दक्षिण दिशा में त्रिकोणाकार चिता रचते हैं और अन्य साधुओं के लिए पश्चिम में चौरस चिता रचते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य चारित्रकार जिनेन्द्रदेव के देह के लिए चिता योग्य दिशा नैऋत्यकोण बताते हैं। दूसरे साधुओं के लिये जो चिता बनाई जाती है, इसकी दिशा का कोई उल्लेख नहीं है।
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२६० स्वरूप-दर्शन
भवनपति, वैमानिक आदि देवों द्वारा निर्मित जिन शिबिका में शक्र देवेन्द्र देवराज शोक सहित आनंद रहित नेत्रों से अश्रुसहित जन्म-जरा-मरण का नाश करने वाले तीर्थंकर भगवान के शरीर को शिबिका में आरूढ़ करते हैं। इस समय इन्द्र परमात्मा के देह को नमस्कार कर उसे अपने मस्तक पर उठाकर पालकी में रखते हैं। एक हजार देवों से उठाई जाए ऐसी उस जिनशिबिका को उठाकर चिता के पास ले जाकर चिता पर रखते हैं।
तीर्थंकर की चिता पर अग्निकुमार देवों द्वारा अग्निकाय की विकुर्वणा कर अग्नि प्रज्वलित की जाती है, वायुकुमार देवों द्वारा वहाँ वायुकाय की विकुर्वणा की जाती है,
और तीर्थंकर के शरीर का अग्निसंस्कार किया जाता है। रक्त एवं मास. के जल जाने पर मेघकुमार देव सुवासित क्षीरोदक की वर्षा करते हैं। चिता के बुझ जाने पर स्वयं के विमान में पूजा करने हेतु तथा जय मंगल हेतु देवेन्द्र दाढ़ों को ग्रहण करते हैं। जिनेन्द्र भगवान की मंगलकारी कल्याण के बीजरूप ऊपर की दाहिनी दाढ़ को शकेन्द्र, ऊपर की बाई दाढ़ को ईशानेन्द्र, नीचे की दाहिनी दाढ़ को चमरेन्द्र (असुरेन्द्र), और नीचे की बाई दाढ़ को बलीन्द्र (वैरोचनेन्द्र) ग्रहण करते हैं। अत्यन्त भक्ति भाव से रोमांचित अवशिष्ट देव-देवेन्द्रों में से कुछ तीर्थंकर की भक्ति के वश होकर, कुछ अपने-अपने मंगलहेतु अवशिष्ट दाढ़, दांत एवं अस्थि के टुकड़ों को ग्रहण करते हैं।
राजादि मानव समुदाय भस्म ग्रहण करते हैं। तत्स्थान पर शक्रेन्द्र की आज्ञा से भवनपति वैमानिकादि देव रत्नमय महाआलयवाले चैत्य स्तूप का निर्माण करते हैं।
पूर्वोक्त प्रवृत्ति के पश्चात् सर्व देव-देवियों के समूह के साथ सर्व देवेन्द्र नन्दीश्वरद्वीप में जाकर वहाँ अंजनगिरि पर्वत पर भिन्न-भिन्न दिशा में आठ दिन तक निर्वाण महोत्सव की महामहिमा करते हैं। इसे अष्टान्हिका महोत्सव कहते हैं। इस महोत्सव को समाप्त कर सर्व देव-देवेन्द्र स्वस्थान. लौटते हैं एवं दाढ़, अस्थि आंदि वस्तुएँ अपने-अपने सदनों (भवनों) अथवा विमानों में सुधर्मा सभाओं के अंदर माणवक स्तंभ पर वज्रमय गोल डिब्बे में रखकर प्रतिदिन उसकी पूजा करते हैं। इसके प्रभाव से उनकी हमेशा विजय होती है, ऐसा उनका मानना है। ___ आदिपुराणादि दिगम्बर ग्रन्थों में भी निर्वाण-विधि की प्रायः वैसी ही योजना प्रस्तुत की गई है। यहां केवल भस्मादि ग्रहण में इन्द्रादि के द्वारा भस्म उठाकर "हम लोग भी ऐसे ही हों" ऐसा सोचकर बड़ी भक्ति से अपने ललाट पर, दोनों भुजाओं पर, गले में
और वक्षस्थल पर लगाते हैं, ऐसा कहा है। भरतेश वैभव में इससे बिलकुल विपरीत कहा है। यहां भगवान ऋषभदेव के मुक्तिगमन संधि में इन्द्रों द्वारा देहिक अग्नि संस्कार विधि का कोई उल्लेख नहीं है परंतु इस अवसर पर जिन देह के अदृश्य हो जाने की नयी बात बताई है।
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निर्वाण-कल्याणक २६१ . इस प्रकार तीर्थंकर नामकर्म का विपाकोदय सम्पन्न होने पर प्राप्त अवस्था सिद्ध-अवस्था है। वस्तुतः सिद्धस्थिति यानी-अवस्थातीत स्थिति। यह अरिहंत की उत्तरावस्था है। यह अवस्था प्रत्येक सिद्धात्मा की समान होती है। इस अवस्था में अब कोई भेद नहीं पाया जाता है। देह के साथ ही सारे भेद समाप्त हो जाते हैं। सम्पूर्ण निष्क्रिय हो जाने पर भी इनकी भाव-करुणा पारमार्थिकं भाव वालों के लिये सक्रिय रहती है। आत्मभावों की रमणता में साधक उनका स्मरण कर प्यार भरे नमस्कार कर देहातीत अवस्था का अनुभव करते हैं। उनके साथ उस अन्तिम अपार्थिव आत्म-ऐश्वर्य के अनंत आनंद की अनुभूति करते हैं। ऐसी परम अनुभूति को अभिव्यक्ति का रूप देने वाले अनंत सिद्धों के साथ सिद्धत्व में लीन अरिहंतों को नमन हो, अनंत सिद्धों को नमन हो।
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परिशिष्ट
सहायक ग्रन्थों की सूची ||
. १. श्री अनुयोगद्वार सूत्र : श्री मलधारी हेमचन्द्रसूरिनिर्मित वृत्ति युक्तम्, __ (अर्धमागधी)
शाह वेणीचंद सूरचंद आगमोदय समिति। वीर
संवत् २४५०, विक्रम संवत् १९४० २. अनुयोगद्वारचूर्णि : श्री जिनदासगणि महत्तर, ई. स. १९२८ (प्राकृत) . . श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी, जैन श्वेताम्बर
संस्था, रतलाम। ३. अनुयोगद्वारसूत्रवृत्ति : श्री मलधारी हेमचन्द्रसूरि, वि. सं. १९७२ (संस्कृत)
देवचंद लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, सूरत। ४. अभिधान राजेन्द्र : श्री विजयराजेन्द्रसूरि विरचित भाग(प्राकृत-संस्कृत) . १-२-३-४-५-६-७. श्री जैन प्रभाकर प्रिंटिंग
प्रेस, रतलाम। वी. सं. २५३६; विक्रमाब्द
१९६७, राजेन्द्र सं. ४ ५. अभिधानचिन्तामणिनाममाला : कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित . (संस्कृत)
सम्पादक : हेमचन्द्रविजयगणि; जैन साहित्य वर्धक सभा, वीर संवत २५०२ विक्रम संवत
२०३२ । ६. अल्पपरिचितसैद्धान्तिक शब्द- आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरि . .. कोष (प्राकृत-गुजराती) सम्पादक : विजयक्षेमसागर, देवचंद लालभाई
जैन पुस्तकोद्धार, सूरत, वीराब्द २४८०,
वैक्रमाब्द : २०१०। शाकाब्द : २४८० ७. अजितनाथ चरित्र : हेमचन्द्रसूरिप्रणीत ..
(संस्कृत) ८. अनेकान्त जयपताका : श्री हरिभद्रसूरिकृत (स्वोपज्ञटीका सहित) श्री (संस्कृत)
यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, ऑफिस-हरीष रोड, भावनगर।.
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___ (प्राकृत)
२६४ परिशिष्ट ९. श्री आचारांगसूत्र (पूर्वभाग) : सुधर्मस्वामीप्रणीत, भद्रबाहुस्वामी कृत नियुक्ति (अर्धमागधी)
युक्त, शाह वेणीचंद सूरचंद, आगमोदय समिति, वीर संवत् : २४४२, विक्रम संवत् १९७२, ई.
स. १९१६ । १०. आचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध) : भद्रबाहुस्वामीकृत नियुक्ति; शीलांकाचार्य कृत (संस्कृत)
वृत्ति, सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति, बम्बई। ११. आचारांग चूर्णि
श्री जिनदास मणि, सेठ देवचन्द' लालभाई जैन पुस्तकोद्धार सूरत,
विक्रम संवत् १९९८, वीर सं २४६८। १२. आचारांगसूत्रदीपिका श्री अभयदेवरि कृत, संशोधक : विजय(संस्कृत)
कुमुदसूरि, प. पू. पन्यासगणि विजयजी गणिवर
ग्रन्थमाला नं. ११, भावनगर।। १३. आवस्सगनिज्जुत्तिचुण्णी : . श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी पेढ़ी रतलाम (प्राकृत)
विक्रम संवत : १९८५ । १४. आवश्यक सूत्र चूर्णि : श्री ऋषभदेवजी केशरीमंलजी, श्वेताम्बर संस्था (प्राकृत)
रतलाम वि. संवत् १९८६ । , १५. आवश्यक टीका : श्री मलयगिरिजी, श्री आगमोदय समिति (संस्कृत)
वि. सं. १९८४ । १६. आत्मानुशासन : श्रीमद् गुणभद्राचार्य कृत, अनुवाद : टोडरमलजी
(संस्कृत - हिन्दी) कृत, श्रीमद् राजचंद्र निजाभ्यास मंडप, खंभात | १७. आदिपुराण भाग १-२ : संपादक : पं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, (संस्कृत)
भारतीय ज्ञानपीठ काशी, सन् १९६३ । १८. आर्हतदर्शन दीपिका : उपाध्याय श्री मंगलविजयकृत, जैन तत्व प्रदीपनो (गुजराती)
विवेचनात्मक अनुवाद, संशोधक, भाषांतर तेमज विवेचनकार :प्रो. हीरालाल रसिकदास कापड़िया
श्री यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, वि. सं. १९८८। १९. उत्तराध्ययन सूत्र : भावविजयगणिविरचित, जैन आत्मानंद सभा, . (अर्द्धमागधी-संस्कृत) भावनगर, ईस्वी सन् १९१८ । ' २०. उत्तराध्ययनानि : नेमिचन्द्राचार्य विरचित | संपादक संशोधक : (अर्द्धमागधी-संस्कृत) विजयमंगसूरि, श्री आत्म वल्लभ ग्रन्थांक- १२,
ईस्वी सन् १९३७ ।
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परिशिष्ट २६५ २१. उपदेशपद :
श्री हरिभद्रसूरि कृत, श्री ऋषभदेव केशरीमलजी (प्राकृत)
श्वेताम्बर संस्था रतलाम, वि. सं. १९८४ । • २२. उपदेशमाला :
श्री धर्मदासगणि कृत,श्री ऋषभदेव केशरीमलजी (प्राकृत)
श्वेताम्बर संस्था रतलाम, वि. सं. १९८४ । २३. उपदेश प्रासाद (तृतीयोविभागः) श्री विजयलक्ष्मी सूरि विरचित,
(संस्कृत) (१३ से १८ स्तम्भ जैन प्रचारक सभा भावनगर, ई. सन् १९२१ । . पर्यन्त) २४. उपमितिभव प्रपंचकथा सिद्धर्षिगणि कृत; विक्रम सं. १९७६ ।
(उत्तरार्द्धम्) (संस्कृत) श्री जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई । २५. औपपातिकसूत्रम् :
अभयदेवसूरि विहित, (अर्द्धमागधी-संस्कृत) जैनानंद प्रिटिंग प्रेस, सूरत, वि. सं. १९९४ । २६. कल्पसूत्रम् :
श्री शान्तिसागर विरचित कल्पकौमुदी विवरण (संस्कृत)
संचालित श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर
संस्था, रतलाम। २७. कल्पसूत्रम् :
श्री विनयविजयोपाध्याय विरचितं, (संस्कृत)
(सुबोधिकाख्यवृत्तियुतम्), सन् १९२३ । २८. कल्पसूत्र-बालावबोध :: ले. भट्टारक-राजेन्द्रसूरि ... (जूनी गुजराती) - मुद्रक : निर्णयसागर, बम्बई। . २९. कर्मप्रकृति :
ग्रंथकर्ता श्रीमद् शिवशर्मसूरि; . (प्राकृत) . . ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था
रतलाम, विक्रम संवत् १९८४ । .३0. कर्मप्रकृति :
आचार्य मलयगिरि कृत वृत्ति; यशथोविजयगणि(संस्कृत)
विरचित टीका, संपादक-संशोधक : आचार्य विजयदानसूरिजी तथा आचार्य विजय प्रेमसूरि, श्री मुक्ताबाई ज्ञान मंदिर (गुजरात) ई. सन्.
१९३७ । ३१. कर्मग्रन्थ (प्रथम विभाग) देवेन्द्रसूरिविरचित-स्वोपज्ञ-टीकायुक्त, जैन
(१, २, ३, ४) (संस्कृत) धर्मप्रचारक सभा भावनगर । ३२. कर्मग्रन्थ (द्वितीय विभाग) : देवेन्द्रसूरिविरचित-स्वोपज्ञ-टीकायुक्त, जैन
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२६६ परिशिष्ट ३३. बन्धस्वामित्व-तीसरा कर्मग्रन्थ : श्रीमद् देवेन्द्रसूरि विरचित, श्री आत्मानन्द जैन (हिन्दी)
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श्री विनयविजयजी उपाध्याय विरचित, जैन धर्म
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४३. जैनागमों में परमात्मवाद
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४४. श्री जैन तत्त्व प्रकाश
(गुजराती)
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परिशिष्ट २६७ ४५. श्री जिनसहस्रनाम . संपादक-पं हीरालाल जैन (संस्कृत)
टीकाकार-श्रुतसागरसूरि
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि. सं. २०१०। ४६. णायाधम्मकहा
सुधर्मास्वामी (अर्धमागधी-संस्कृत) वृत्तिकार-अभयदेवसूरि
प्रकाशक-श्री सिद्धचक्र साहित्य प्रचार समिति
वि. सं. २००८, वी. सं. २४७८ । ४७-४८. तत्वार्थसूत्र-भा. १-२ उमास्वातिप्रणीत-स्वोपज्ञ, (संस्कृत)
वृत्तिकार :-श्री देवगुप्तसूरि, श्री सिद्धसेनगणि
देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार। ४९. तत्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार- श्री विद्यानन्दस्वामी विरचित, कुंथुसागर ग्रंथमाला
(संस्कृत) खं. २ . सोलापुर वी. सं. २४७७, ई. सन् १९५१ । ५०. तिलोयपण्णत्ति
यतिवृषभाचार्य विरचित (प्राकृत-हिन्दी)
श्री सोलोपुरीय जैन संस्कृति, वि. सं. १९९९ ५१. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित (संस्कृत)-पर्व १ . जैन आत्मानंद सभा, भावनगर,
वि.सं. १९९२, वी. सं. २४६२ ई.स. १९३६। ५२. त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित .. (संस्कृत) पर्व १०
गंगाबाई जैन चैरिटेबल ट्रस्ट पार्ला,
वी. सं. २५०३, वि. सं. २०३३ । .. ५३. श्रीदशवैकालिकसूत्र भाग ३-४ प्रसिद्धकर्ता-श्वेताम्बर जैन ज्ञान भण्डार
गोपीपुरा, सूरत। - ५४. देवाधिदेव भगवान महावीर लेखक प. पू. मुनिवर तत्वानंदविजयजी म. सा.
(गुजराती) ५५. देवनंदन भाष्य
देवेन्द्रसूरि (संघाचार वृत्ति) (संस्कृत)
ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था
रतलाम, वि. सं. १९९४ । ५६. धर्मरत्नप्रकरण
श्री शांतिसूरि कल्पित स्वोपज्ञ वृत्ति. (प्राकृत)
संशोधित : मुनि चतुरविजय, आत्मानन्द सभा, भावनगर, वि. सं. १९७० ।
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.................................
२६८ परिशिष्ट ५७. श्री धर्मसंग्रह (पूर्वभाग)
(संस्कृत) ५८. धर्मसंग्रहणि .
(संस्कृत) ५९. नमस्कार स्वाध्याय
(प्राकृत) ६०. नमस्कार स्वाध्याय
(संस्कृत) २१. नवतत्व प्रकरण
(प्राकृत, गुजराती)(सार्थ) ६२-६३. निशीथ सूत्रम् (प्राकृत)
(प्रथम, तृतीय विभाग) ।
उपाध्याय श्री मानविजयप्रणीत संशोधक, पन्यास श्री आनंदसागर विक्रम संवत् १९७१। हरिभद्रसूरि विरचित, आचार्य मलयगिरि प्रणीत टीका देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सूरत। जैन साहित्य विकास मंडल ई. स. १९६१ । जैन साहित्य विकास मण्डल। ई. स. १९६२ । प्रकाशक : श्री जैन श्रेयस्कर मण्डल, म्हेसाणा, सन् १९३४ । श्री विसाहगणिमहत्तरप्रणीतम् श्री जिनदासमहत्तर विरचित चूर्णि सम्पादक : उपाध्याय कवि श्री अमरमुनिजी, मुनिश्री कन्हैयालाल "कमल" सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामण्डी आगरा, ई. स. १९५८ । . ग्रंथकार श्री हरिभद्रसूरि स्वोपज्ञ व्याख्या देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ई. स. १९२७ । पू. श्री चन्द्रर्षिमहत्तरप्रणीत स्वोपज्ञवृत्ति आचार्य मलयगिरिकृत वृत्ति, संपादक-आचार्य विजयप्रेमसूरि प्रकाशक : मुक्ताबाई ज्ञान मंदिर, उभाई (गुजरात) सं. १९९३. श्री चंद्रर्षिमहत्तराचार्यविरचित : मलयगिरि कृत टीका सहित : अनुवादक : हीरालाल देवचंद, संपादक-पं. पुखराजजी अभीचंदजी कोठारी, श्री जैन श्रेयस्कर मण्डल-महेसाणा सन् १९७१. चिरंतनाचार्य कृत : श्री हरिभद्रसूरि कृत टीका परथी अनुवादक, प्रकाशक : श्राविका समाज, भावनगर, संवत् १९८३.
६४. पंचवस्तुकग्रंथ .
(प्राकृत)
६५. पंचसंग्रह (प्राकृत)
(कर्मप्रकृति द्वितीय विभाग)
६६-६७ पंचसंग्रह (प्रथम खण्ड)
(द्वितीय खण्ड) (प्राकृत)
६८. पंचसूत्रम् (प्राकृत)
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परिशिष्ट २६९
.
.
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.
.
.
६९. पंचस्तोत्र संग्रह
(संस्कृत दिगम्बर)
७०. पद्मानंद महाकाव्य
(संस्कृत)
७१. पंचाशकप्रकरणम्
(प्राकृत)
७२. परमात्म प्रकाश (प्राकृत)
सम्पादक : पं पन्नालाल शास्त्री प्रकाशक : वीरेन्द्रकुमार-देवेन्द्रकुमार जैन, बम्बई ४. वी. सं. २४८७. ग्रंथकार : अमरचंद सूरि, संपादक : एच. आर. कापडिया, ओरियण्टल इन्स्टिट्यूट, बरोडा १९३२. ग्रंथकर्ता : हरिभद्रसूरि प्रकाशक : श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम, विक्रम संवत १९८४. श्रीमद्योगीन्दुदेव विरचित, ब्रह्मदेवस्य संस्कृत वृत्ति, प्रकाशक : रावजीभाई छगनभाई देसाई. आचार्य विमलसूरि विरचित, हिन्दी अनुवादसहित, सम्पादक : डॉ. हर्मन जेकोबी प्राकृत ग्रन्थ परिषद, वाराणसी-५, श्री प्रभाचन्द्राचार्य विरचित, सम्पादक : जिनविजय मुनि, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, वि.सं. १९९७. धीरजलाल टोकरशी शाह, प्रबोध टीका, जैन साहित्य विकास मंडल, बम्बई २४, वि. स. २०१०. मास्तर जगजीवन मानचंद देसाई, अहमदाबाद ई. स. १९२०.
७३. पउमचरियं.
(हिन्दी)
. ७४. प्रभावक चरित
(संस्कृत).
.
७५. श्री प्रतिक्रमण सूत्र
. (गुजराती-भाग-१)
७६. श्री प्रकरण रन
(दंडक प्रकरण)
(संस्कृत) ७७. प्रवचनसारोद्धार (पूर्वभाग) ७८. (उत्तर भाग)
(संस्कृत) ७९. सिरि पासनाह चरियं
(प्राकृत सं. ११६८)
सिद्धसेनसूरिशेखर रचित वृत्ति सहित श्रेष्ठी देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार, सूरत। श्री देवभद्रसूरि विरचित प्रकाशक : मणिविजय गणि ग्रंथमाला ई. स. १९४५. ले. उदयवीर गणि
८०. पार्श्वनाथ चरित
(संस्कृत) सं. १६५४
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२७० परिशिष्ट ८१. पाइअ सद्द महण्णवो कर्ता पं. हरगोविंददास त्रिकमचंद शेठ (प्राकृत, हिन्दी) प्रकाशक, प्राकृत ग्रन्थ परिषद,
वाराणसी ५, संपादक डॉ. वासुदेव शरण
अग्रवाल, ई. स. १९६३. ८२. पाइअ-लच्छीनाममाल प्रणेता-महाकवि धनपाल, (प्राकृत)
संपादक-बेचरदास जीवराज दोशी, प्रकाशक-श्री शादीलाल जैन, बम्बई ३,
ई. स. १९६०. ८३. प्राकृत व्याकरण
आचार्य हेमचन्द्र प्रणीतम् (संस्कृत)
संपादक : पं. रतनलाल संघवी,
विक्रमाब्द २०२0. ८४. भगवती सूत्रम् (१-४ खण्ड) पुंजाभाई हीराचन्द संस्थापित (अर्द्धमागधी) प्रकाशक मनसुखलाल खजीभाई मेहता।
वि. स. १९७९. ८५. भरतेश वैभव (३, ४ भाग) वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री कल्याण ___(हिन्दी)
भवन, सोलापुर फरवरी १९५३. ८६. भारतीय दर्शन (हिन्दी) बलदेव उपाध्याय। ८७. महानिशीथ सूत्र : (प्राकृत) हस्तलिखित प्रति, प्राच्यविद्यामंदिर, वडोदरा। ८८. श्री महावीर चरित्रम् गुणचन्द्र गणिकृत-श्रेष्ठि देवचंद लालभाई जैन
(प्राकृत) ११३९ पुस्तकोद्धार संस्था, सन् १९२९. मल्लिनाहचरियं विनयचन्द्र सूरि
(संस्कृत, सं. १३०) ९०. महाप्रभाविक नवस्मरण : पूर्वाचार्य विरचित-संपादक प्रकाशक : (संस्कृत)
साराभाई मणिलाल नवाब,
अहमदाबाद, ई. स. १९३८. ९१. मूलाचार
अनन्तकीर्ति ग्रंथमाला वि. सं. १९७६ - ९२. मूलाचार
वट्टकेराचार्य कृत माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन
ग्रंथमाला बम्बई; वि. सं. १९७७. ९३. मुनिसुव्रतस्वामि चरितम् : लब्धिसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला (वड़ोदरा) . (संस्कृत)
सम्पादक : विक्रम विजयगणि ई. स. १९५७ ।
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परिशिष्ट २७१
.
.
.
.
__(संस्कृत)
९४. योगबिन्दु सटीक
श्री हरिभद्रसूरि, जैन धर्म प्रसारक सभा • (संस्कृत)
भावनगर वि. संवत् १९६७. ९५. योगदृष्टि समुच्चय श्री हरिभद्र सूरि भगवत्प्रणीतौ स्वोपज्ञविवरण योगबिन्दुक्य
श्री जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा सन् १९४४. ९६. योगदृष्टि समुच्चय ग्रंथकर्ता-श्री हरिभद्राचार्य (संस्कृत-गुजराती) प्रकाशक-मनसुखलाल ताराचंद महेता,.
होर्नबी रोड, बम्बई १ ९७. योगबिन्दु सटीक
श्रीमान् हरिभद्रसूरि विरचित (संस्कृत)
लेखक-एल. स्वेली
जैन प्रकाशक सभा भावनगर, वि. सं. १९६७. ९८. योगशास्त्र (स्वोपज्ञ विवरण) श्री हेमचन्द्रसूरि,
जैन प्रसारक सभा, भावनगर, वि. सं. १९८२. ९९. योगशास्त्र
ग्रंथकर्ता-कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य (संस्कृत-हिन्दी)
अनुवादक : मुनि श्री पद्मविजयजी . संशोधक एवं संपादक, मुनि श्री नेमिचन्द्रजी
संजय साहित्य प्रकाशन-जयपुर ई. सन् १९७५ १00. रत्नकरण्ड श्रावकाचार की समंतभद्राचार्य विरचित टीकाकार-पं. .: भाषा टीका
खूबचन्द्रजी जैन शास्त्री (रत्नत्रय चन्द्रिका प्रथम भाग) (संस्कृत-हिन्दी) श्रीमद् राजचन्द्र प्रकाशक : रावजीभाई छगनभाई देसाई (गुजराती)
सन् १९६४. १०२. रायपसेणइय-सुत्तं मलयगिरिकृत वृत्ति सहित,. (अर्धमागधी-संस्कृत) संपादक पं. बेचरदास जीवराज दोशी,
प्रकाशक-शंभुलाल जगशी शाह, अहमदाबाद.
वि.सं. १९९४. . १0३. लब्धिसार : (संस्कृत) श्री नेमिचन्द्राचार्य सिद्धांत चक्रवर्ती विरचित
(क्षपणासारगर्भित) पं. मनोहरलाल शास्त्रीकृत संस्कृत छाया प्रकाशक निर्णयसागर प्रेस, मुंबई सन् १९१६
.१०१.
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२७२ परिशिष्ट १०४. ललित विस्तरा : श्री. हरिभद्रसूरि (संस्कृत)
ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बरी संस्था
रतलाम, वि. सं. १९९० १०५. लोगस्ससूत्र स्वाध्याय आचार्य श्री विजय विक्रम सूरीश्वरजी संशोधन (गुजराती) मुनिवर्य श्री तत्वानंदविजयजी म.
प्रकाशक : जैन साहित्य विकास मंडल,
बम्बई ५९. ई. स. १९६५. १०६. श्रीवन्दारुवृन्ति : आचार्य प्रवर श्री देवेन्द्रसूरि निर्मित . (श्रावकविधि) : (संस्कृत) श्रावकषडावश्यकसूत्र विवरणमयी
प्रकाशक : ऋषभदेवजी केसरीमलजी
रतलाम, वि. सं. १९८५. १०७. श्री वर्धमान देशना श्री शुभवर्द्धनगणि विरचित (प्राकृत)
श्री जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर, :
वीर संवत् २४५८. श्री वासुपूज्य चरितम् श्री वर्द्धमानसूरि विरचित (सं. १२९९) (संस्कृत) प्रकाशक-जैन प्रसारक सभा, भावनगर
सं. १९६६.. १०८. विनयपिटक महावग्ग प्रकाशक-पाली पब्लिकेशन बौद्ध (पाली) बिहार राज्य ·
, १०९. विनयपिटक (हिन्दी) प्रकाशक-महाबोधि सभा-सारनाथ ११०. विशेषावश्यकभाष्यम् - मलधारी हेमचन्द्रसूरि कृत शिष्य । (भा.१) (संस्कृत-प्राकृत) हितानाम्न्या बृहवृत्ति सह (११८०).
संशोधक, पं. हरगोविन्ददास .. प्रकाशक, हरखचंद भूराभाई,
बनारस सिटी, वीर संवत २४४१. १११. विशेषावश्यक भाष्यम् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण विरचितम् (भा.२) (संस्कृत) मलधारि हेमचन्द्रसूरि विरचितया ।
बृहत्वृत्ति वीर संवत २४३८. ११२. विमलनाथचरित्रं (१५१७) ग्रन्थकर्ता ज्ञान सागर सूरि (संस्कृत)
हीरालाल हंसराज (जामनगरवाला) संवत १९६६.
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परिशिष्ट २७३
११३. विंशतिविंशिका
श्री हरिभद्रसूरिकृत के. वी. आभ्यंकर _ (संस्कृत)
संवत १९८९ ११४. वीतरागस्तोत्रम् कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य कृत (संस्कृत)
प्रसिद्धकर्ता : नगीनभाई घेलाभाई झबेरी, प्रकाशक देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार, ई. स
१९११. ११५. वीतरागस्तोत्रम् हेमचन्द्राचार्य विरचित __ (संस्कृत)
सोमोदयगणिकृत चूर्णि और प्रभानन्दसूरिकृत विवरण सहित
प्रकाशक-ज्ञानमंदिर. ११६. समवायांगसूत्रम् सुधर्मास्वामीप्रणीत, वृत्तिकार-अभयदेवसूरि (अर्धमागधी-संस्कृत) प्रकाशक-आगमोदय समिति, निर्णयसागर बम्बई
वि. सं. १९७४ ई. स. १९१८ ११७. श्री समवसरणस्तव ग्रंथकर्ता-धर्मघोषसूरि, प्रकाशक-श्री जैन
आत्मानन्दं सभा (भावनगर), वी. सं. २४३७,
वि. सं. १९६७. ११८. समवसरणरचनाकल्प .. कर्ता-जिनप्रभसूरि, प्रकाशक सिंधी
(विविध तीर्थकल्प के जैन ज्ञानपीठ, शांतिनिकेतन (बंगाल)
अंतर्गत) (प्राकृत) ग्रंथ १0, वि. स. १९९०, ई.स. १९३४. ११९. सम्यक्त्वसप्तति
कर्ता-हरिभद्रसूरि-वृत्तिकार-तिलकाचार्य - (संस्कृत)
निर्णयसागर, झबेरी बजार, मुंबई देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार फंड, ग्रंथ ३५, वि. सं. १९७२, वी. सं. २४४२,
ई. स. १९१६. १२०. सप्ततिशतस्थान प्रकरणम् कर्ता श्री सोमतिलकसूरि, वृत्तिकार-देवविजयजी, (संस्कृत)
आत्मानंद जैन सभा, भावनगर, वि. सं.
१९७५, ई. स. १९१८, वी. सं. २४४५. १२१. सप्तरिसयस्थान प्रकरण । अनुवादक-ऋद्धिसागरजी, बुद्धिसागर (गुजराती)
जैन ज्ञानमंदिर, वी.सं.२४६०, वि. सं. १९९०. १२२. समकितना सड़सठबोलनी कर्ता-उपाध्याय यशोविजयजी
सज्झाय (गुजराती) श्री जीवनश्रेयस्कर मंडल म्हेसाणा,
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२७४ परिशिष्ट १२३. सम्यक्त्वसुधा
लेखक-चुनीभाई देसाई-(राजकोट), (गुजराती)
श्री जैन ग्रंथ प्रकाशनमाला, ई. स. १९५३,
वी. सं. २४८० १२४. सिद्धान्त कौमुदी भाग-३ चौखम्बा संस्कृत सिरीज वाराणसी-१.
व्याकरण (संस्कृत) ईस्वी सन् १९६९. १२५. सुपार्श्वनाथ चरित्र भाग-३ श्री लक्ष्मणगणि विरचित (संस्कृत)
जैन विविध साहित्य शास्त्रमाला
वी. सं. २४४५ १२६. श्री सूत्रकृतांगसूत्रम् सम्पादक-पं. अम्बिकादत्त ओझा
श्रुतस्कंध-२, खण्ड ४ । प्रकाशक-शम्भूलाल गंगाराम मुथा
(अर्धमागधी-हिन्दी) बेंगलोर, सं. १९९७. १२७. सूरिमन्त्रकल्पसमुच्चय- संपादक-जम्बूविजयजी भा. १ (संस्कृत) प्रकाशक-जैन साहित्य विकास मंडल
विलेपारले, बम्बई. ... १२८. सन्मतितर्कप्रकरणम् कर्ता-सिद्धसेन दिवाकर (संस्कृत)
वृत्तिकार-अभयदेवसूरि,
गुजरात पुरातत्त्व मंदिर-अहमदाबाद, १२९. श्री स्थानांगसूत्र भाग १-२ सुधर्मास्वामी, वृत्तिकार-अभयदेवसूरि (अर्धमागधी-संस्कृत) आगमोदय समिति
वी. सं. २४४५, वि. सं. १९७५,
ई. स. १९१८. भाग दूसरा ई. स. १९२० १३०. स्वयंभूस्तोत्र कर्ता-स्वामी समन्तभद्र पं. जुगलकिशोर (संस्कृत)
मुख्तार द्वारा संपादित वीर सेवामंदिर
सरसावा, सहारनपुर वि. सं. २00८. १३१. स्तुतिविद्या
कर्ता-स्वामी समन्तभद्र (संस्कृत)
वीर सेवा मंदिर-सरसावा, वि. सं. २00७. १३२. श्री संग्रहणी सूत्रम् संकलनकर्ता श्री चन्द्रसूरि, वृत्तिकार (संस्कृत)
देवभद्रमुनि, प्रकाशक-नवीनभाई घेलाभाई झव्हेरी १३३. संबोधप्रकरणम् कर्ता-हरिभद्रसूरि, प्रकाशक-अमृतसागर (संस्कृत)
सूरि, ज्ञानमंदिर-दौलतनगर, बम्बई. वी. सं. २४९९-वि. सं. २०२९, ई. स. १९७३
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परिशिष्ट २७५
१३४. श्रावकधर्मविधिप्रकरणम् कर्ता-हरिभद्रसूरि वृत्तिकार मानदेवसूरि (संस्कृत)
प्रकाशक-केशरबाई जैन मंदिर पाटण वी. सं.
२४६६ वि. १९९६. १३५. श्रावक प्रज्ञप्ति
कर्ता हरिभद्रसूरि
निर्णयसागर प्रेस-बम्बई सं. १९६१. १३६. श्री. श्रेणिक चरित्रम् देवेन्द्रसूरि विरचित - (संस्कृत)
प्रकाशक : ऋषभदेवजी केशरीमलजी
श्वेतांबर संस्था रतलाम, विक्रम संवत १९९४. १३७. श्रेयांसनाथ चरितम् ग्रंथकर्ता-मानतुंगाचार्य (सं. १३३२) संपादक : मुनिश्री विक्रम विजय भास्कर
विजयौ; प्रकाशक श्री लब्धिसूरीश्वर
जैन ग्रन्थमाला ईसवी सन् १९४९. १३८. शक्रस्तव
श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरि (संस्कृत)
नमस्कार स्वाध्याय संस्कृत विभाग अन्तर्गत. १३९. शांतिनाथ चरित्रम् श्री अजितप्रभसूरि विरचितम्
(१३७६) (संस्कृत) . संशोधक पन्यास कंचनविजय, ई. स. १९४0. १४0. शांतिनाथ चरित्र - भावचंद्रसूरि • (संस्कृत) (वि. सं. १४१०) १४१. शास्त्रवार्ता समुच्चय हरिभद्रसूरि विरचित-वृत्तिकार-पुरन्दरसूरि . (संस्कृत) स्वोपज्ञ । गोड़ीजी-जैन-उपाश्रय, पायधुनि, बम्बई.
सन् १९२९. ___१४२. शास्त्रवार्ता समुच्चय वृत्तिकार यशोविजयजी
देवचंद लालभाई जैन पु. संस्था सूरत.
वि. सं. १९७० '१४३. षट्खंडागम :
मूल कर्ता पुष्पदन्त भूतबलि, डा. हीरालाल जैन धवलाटीका सहित द्वारा सम्पादित, अमरावती, वि. सं. १९९६. (संस्कृत-हिन्दी) षट्पुरुष चरित्र ले. क्षेमंकर गणि
(संस्कृत) १४५. षोडशकप्रकरण हरिभद्रसूरि, वृत्तिकार यशोभद्रसूरि
जैनानंद पुस्तकालय, गोपीपुरा (सूरत)
-
१
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8988
अरिहंत-प्रीति
अरिहंत-स्मृति
॥
अरिहंत से प्रीति यानी समस्त जीवसृष्टि से प्रीति ! ! अरिहंत की स्मृति यानी हमारी अपनी स्मृति !! अरिहंत की स्मृति यानी अन्य समस्त की विस्मृति ! अरिहंत की स्मृति यानी सहजानन्द की अनुभूति ! अरिहंत की स्मृति यानी परम प्रसन्नता की प्राप्ति ! अरिहंत की स्मृति यानी जनम-जनम की जागृति ! अरिहंत की स्मृति यानी समस्त विकारों की समाप्ति ! अरिहंत की स्मृति यानी समस्त तनावों से मुक्ति ! अरिहंत की स्मृति यानी समस्त विकल्पों से निवृत्ति !
प्रीति + स्मृति = शांति - शांति - शांति !
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