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________________ ६० सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम . . इसीलिए सिद्धहेम व्याकरण-(मंगलाचरण), ऋषिमंडल स्तोत्र (श्लो. ३) आदि कई जगह कहा है-जो परमपद में प्रतिष्ठित, परमज्ञान स्वरूप ऐसे अरिहंत परमात्मा का वाचक, अचल-अविनाशी परम ज्ञान स्वरूप, मोक्ष के हेतुरूप तथा सिद्धचक्र का आदि बीज “अहँ" सर्वतः सर्वत्र सर्वकाल में प्रणिधान के योग्य है। जिनराज बीज ___ अरिहंत परमात्मा सर्व जिन (राग-द्वेष के विजेता) में श्रेष्ठ हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान के सर्व जिनेश्वर जिसमें वाच्यरूप से प्रतिष्ठित हैं वह “अहँ" सर्व जिनों का बीज है। अतः इसे जिनराज बीज कहा जाता है। सिद्धबीज अधिष्ठानं शिवश्रियः अर्थात् अर्ह यह शिवलक्ष्मी-सिद्धि मुक्ति का भी बीज है। अक्षर याने मोक्ष, उसका हेतु रूप होने से यह मोक्षबीज कहलाता है। आध्यात्मिक दृष्टि से इस प्रकार यह सिद्धस्थान को दिलाने वाला अर्थात् जैसे बीज के बोने से वह बीज यथासमय फलरूप प्रमाणित होता है वैसे “अहँ" बीज-मन्त्र के ध्यान से सिद्धत्व रूप फल उपलब्ध होता है। भौतिक दृष्टि से अनेकों सुवर्णसिद्धि और महासिद्धियों का कारण रूप होने से भी यह सिद्धबीज कहा जाता है। ज्ञानबीज ___ अहँ यह ब्रह्म स्वरूप होने से ज्ञानबीज है। कलासहित अ-र-ह जिसमें प्रतिष्ठित हैं ऐसे अहँ में अ से ह तक के अक्षरों का समावेश हो जाता है। अतः यह सम्यग् श्रुत ज्ञान का बीज माना जाता है। त्रैलोक्य बीज “अहं" यह त्रैलोक्य बीज है। अहँ अक्षर में वर्णों की रचना इस प्रकार है-“अ, र, ह-कला बिन्दु" इनकी सर्व शास्त्रों और सर्वलोक में व्यापकता है। वह इस प्रकारअहँ में अ से ह तक की सिद्ध मातृका (अनादिसिद्ध बाराक्षरी) रही हुई है। इसका एक-एक अक्षर भी तत्त्व स्वरूप है, फिर भी “अ, र और ह" ये तीन (वर्ण) तत्व अत्यन्त विशिष्टता के धारक हैं। . "अ" तत्त्व की विशिष्टता १. अ-अभय-अकार यह सर्व जीवों को अभय प्रदान करता है। सर्वजीवों के कण्ठस्थान में आश्रित रहने वाला यह प्रथम तत्त्व है। २. अ-अविनाशी-सर्वस्वरूप, सर्वगत, सर्वव्यापी-सनातन और सर्व जीवाश्रित है। अतः इसका चिन्तन पाप नाशक है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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