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अरिहंत परम ध्येय ६१
- ३. अ-अपूर्व (जिससे पूर्व कोई वर्ण नहीं है)-सर्व वर्ण और सर्व स्वरों में सर्वप्रथम होने से ककारादि सर्व वर्गों में इसका प्रयोग होता है। अतः सर्व प्रकारों के मन्त्रतंत्रादि योगों में, सर्व विद्याधरों, सर्व विद्याओं, सर्व पर्वत वनों में शब्द रूप से व्याप्त है। "र" तत्त्व की विशिष्टता
प्रदीप्त अग्नि की तरह सर्व प्राणियों के मस्तक (ब्रह्मरन्ध्र) में रहा हुआ "र" तत्त्व का विधिपूर्वक ध्यान ध्याता को त्रिवर्ग फल प्रदान करता है। "ह" तत्त्व का महत्व
जो सदा सर्व प्राणियों के हृदय में रहता है। सर्व वर्णों के अन्त में रहता है तथा जो. लौकिक शास्त्रों में “महाप्राण" के नाम से प्रतिष्ठित है, पूजित है उस "ह" का विधिपूर्वक ध्यान साधक को सर्वकार्यों में सिद्धि प्रदान करता है। "बिन्दु" की विशिष्टता
जो "हकार" पर जलबिन्दु की तरह वर्तुलाकार रहा हुआ है, जो सर्व प्राणियों की नासिका के अग्रभाग पर और सर्ववर्णों के मस्तक पर स्थित होता है, जो योगि पुरुषों द्वारा ध्येय-चिन्तन करने योग्य है, वह बिन्दु सर्व जीवों को मोक्ष प्रदान करता है। इस प्रकार महाप्रभावक तत्त्व रूप इसी से जिनागम के अनुसार सम्यक दर्शन और अन्य दर्शनों के अनुसार कुंडलिनीयोग, नादयोग, बिन्दुयोग और लययोग प्राप्त हो सकते हैं। अतः “अहँ" मन्त्र की ध्यान प्रक्रिया में प्रत्येक योगों का समावेश हो जाता है।
गुरु-भक्ति के प्रभाव से और अहँ पद की आराधना से ध्याता अरिहंत परमात्मा के तन्मयतारूप समापत्ति को सिद्ध करता है। और इसी समापत्ति के कारण उसे जिननाम कर्म का निकाचित बन्ध होता है। आगम में दर्शाये गये तीर्थंकर के स्वरूप से ऐसा साधक तीर्थंकर स्वरूप ही माना जाता है; क्योंकि उस उपयोग के साथ उसकी अभेदवृत्ति है।
अरिहंत की भक्ति और उपासना के बाद अब हम अरिहंत ध्यान-पथ पर निकलेंगे। अरिहंत-ध्यान-दर्शन __ध्यानअर्थात् चेतना के अस्तित्व का अनुभव। अनुभूति की उपलब्धि के लिये किये जाने वाले अनुशीलन के विविध प्रयोग इसके माध्यम हैं। अस्तित्व को सिद्ध करने के लिये ज्ञाता की प्रतिष्ठा अनिवार्य है। ज्ञाता की प्रतिष्ठा अस्तित्व की उस स्थिति से सामंजस्य करती है जहाँ आत्मा का देह के साथ जो भेद है, उसे अनुभूति में लावे। ___ आत्मा और देह के अभेद से ही जो ध्यान लगता है उसे आर्तध्यान; रौद्रध्यान कहा जाता है; तथा आत्मा और देह के भेद से जो ध्यान लगता है उसे धर्मध्यान, शुक्लध्यान कहा जाता है।