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६२ सम्बन्ध-दर्शन-अरिहंत और हम __इस भेद-ज्ञान के लिये अरिहंत परमात्मा ने कायोत्सर्ग का विधान प्रस्तुत किया है। तप के आभ्यंतर प्रकारों में स्वाध्याय के बाद ध्यान का और ध्यान के बाद कायोत्सर्ग का विधान प्रस्तुत किया गया है। वर्तमान में कुछ लोगों का कहना है कि जैनों में ध्यान की पद्धति नहीं रही है। कायोत्सर्ग को हमने बहुत सामान्य और ध्यान से बहुत अलग चीज समझ रखी है। जब कि ध्यान के बाद कायोत्सर्ग किया जाता है। जहाँ अन्य सर्व दर्शन ध्यान में अटक गये वहाँ जैन दर्शन ने आगे कदम बढ़ाया और ध्यान की परिणति से कायोत्सर्ग का विधान प्रस्तुत कर अयोग का मार्ग अनावृत किया। यदि ध्यान से देखेंगे तो वर्तमान की प्रचलित अनेक ध्यान-साधनाएँ कायोत्सर्ग की ही रूप रही हैं। काया का उत्सर्ग हो जाने पर जो रह जाती है, वह अनुभूति है। वह ध्यान है।
किसी भी साधना, उपासना या आराधना का पथ दो मार्गों से विस्तरता है-भक्ति और अनुभूति। इन दोनों का अन्तर बड़ा अजीब है। एक का लक्ष्य है-साधना का प्रस्थान केन्द्र और दूसरे का लक्ष्य है प्राप्ति का विश्राम केन्द्र। भक्ति की जाती है, अनुभूति हो जाती है। करने और हो जाने में अन्तर है। भक्ति में माना जाता है, अनुभूति में जाना जाता है। मानना believing है और जानना feeling है । मानना कर्तव्य से जुड़ जाता है जो जीवन की नियमितता बन जाता है। परन्तु अनुभूति में ऐसा नहीं होता है, यह भावों से प्रादुर्भूत होता है। प्रकृति से जुड़ता है और स्वभाव में परिणत होता है। ध्यान अनुभूति का अपर नाम है। ध्यान समाधि की पूर्व अवस्था है। समाधि की उपलब्धि अस्तित्व का अभिनन्दन है। __ चेतना हर आयामों से गुजरती है; परन्तु उसकी मौलिक प्रच्छन्नता अत्यन्त गूढ़ है। इसकी गहराइयों को छूने के लिये मानने (believing) से सहायता लेकर feeling में प्रवेश करना होगा। मानना तथ्य से जुड़ना है और अनुभूति में तथ्य को उघाड़ना है।
अरिहंत का ध्यानअर्थात् हमारा अपना ध्यान। अरिहंत का ध्यान अपने अनुभूति जगत का प्रवेशपत्र है। अरिहंत को सिद्धान्तों से, महानिबंधों से माने तो जाते हैं लेकिन जाने नहीं जा सकते हैं। इसकी reality को, तथ्य को पाना ही अरिहंत का ध्यान है। जो क्षेत्र और काल से परे है, अतीत है, निरन्तर चैतन्यशील है उनकी अनुभूति किसी भी काल में, किसी भी क्षेत्र में, किसी भी व्यक्ति को हो सकती है। कोई सीमा, कोई बंधन, कोई काल या क्षेत्र इसमें बाधक नहीं हो सकता। इस अबाध्य परिणति का प्रयास अरिहंत का ध्यान है।
हमारी ऊर्जा निरंतर गतिशील एवं प्रयत्नशील है। चैतन्य एवं संसार इन दोनों से जुड़कर वह गतिशील रहती है। पदार्थ दो हैं-कर्मरूप और कर्तारूप। कर्मरूप पदार्थ object है, कर्तारूप पदार्थ subject है। कर्मरूप पदार्थ external है; बाह्य है। कर्तारूप पदार्थ inner है, आन्तरिक है। बाह्य और आन्तरिक का जुड़ जाना ही संसार