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________________ अरिहंत परम ध्येय ६३ है। पूरे संसार का समायोजन इन दो के संयोग से होता है। दोनों reality हैं। यद्यपि बाह्य पदार्थ external reality जीव-द्रव्य के परिणाम में निमित्तमात्र ही है। external जब तक inner नहीं होता उससे कुछ नहीं होता है। वह inner होकर चेतना में प्रवेश करता है तब चेतना उस बाह्य पदार्थ से जुड़कर वैसा आकार ग्रहण कर लेती है। परमात्मा महावीर ने इसी को चित्तशक्ति का नाम दिया है। इसे जीव-वीर्य का स्फुरण भी कहा जाता है। यह चित्तशक्ति बाहर से जिस आकार को ग्रहण करती है उसे भीतर में आकार दे देती है। उस आकृति धारण में चेतना जब आकार को ग्रहण करती है, तब मूल और बाह्य पदार्थ में कोई भेद या अलगाव नहीं लगता है। चेतना में जो आकार होता है वह इतना सूक्ष्म होता है कि उसका संवेदन चेतना ही करती है। बाह्य पदार्थ स्थूल है सब इसे देखते हैं पर आन्तरिक पदार्थ सूक्ष्म है उसका आकार . पकड़ा नहीं जाता है, संवेदन होता है; feeling होता है। उदाहरणतः मन में हमने किसी भी व्यक्ति को अपने रागी या द्वेषी के रूप में स्थापित किया। उस पात्र में हमारे प्रति राग या द्वेष हो या न भी हो परन्तु हम उस बाह्य को अपने भीतर स्थापित करते हैं तब चेतना वह आकार लेती है। आकार ग्रहण करते समय और ग्रहण कर लेने के बाद वह उसमें इतनी संलग्न हो जाती है कि उसे अपने अस्तित्व का भान नहीं रहता और वह सभी प्रकार के राग और द्वेष का पात्र बन जाता है। सामने पात्र या चीज हो या न हो परन्तु यदि वह भीतर आकार ले ले तब चेतना उससे काफी कुछ परिणाम प्रकट कर लेती है। जिसे हम कल्पना कहते हैं और कल्पना को तथ्यहीन समझते हैं। परन्तु यह कल्पना विकल्पजन्य भाव स्थिति है। भाव कर्म इसी का नाम है और भाव-कर्म हमारी अपनी ही कल्पना है अतः वह चेतनरूप है। इसी का नाम संसार है। बाह्य संसार की अपेक्षा भीतर का यह संसार अति तीव्रता से विस्तरता है और विकास साधता है। 'जैसे कोई व्यक्ति अकेला एक कमरे में है। अचानक उसे अपना एक रागी व्यक्ति याद आया। उसके विचारों में अपने रागी की आकृति उभरी। वह रागी आकृति उसे दिखने बने लगी। विचारों में ही उसने उसके साथ खाया-पिया, बातचीत की और कछ समय बाद उसे विदा दे दी। अब सोचें-क्या दिखा, क्या खाया, क्या पिया ? हकीकत में कुछ नहीं किया फिर भी सब कुछ हुआ। घंटों बीत गये उसे ध्यान न रहा। आँखों से तो देखा नहीं फिर भी दिखा तो कहाँ से दिखा ? इस समय हमारी चेतना ही निजकल्पना से भावकर्म द्वारा उस व्यक्ति की आकृति ग्रहण करती है। यह तब तक रह सकता है जब तक चेतना दूसरा आकार ग्रहण न करे। . अब दूसरा उदाहरण ऐसा. देखें-एक व्यक्ति है। किसी के प्रति उसे घृणा है, तिरस्कार है, गुस्सा है। द्वेष भाव से उद्वेलित होकर किसी प्रसंग से व्यग्र होकर वह
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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