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अरिहंत परम ध्येय ५९ डीजल या पेट्रोल से नहीं चलती, उसे ऊर्जा में रूपान्तर करना पड़ता है। ऊर्जा एक प्रकार की अग्नि है। इसी प्रकार "रि" गतिमान होकर ऊर्जा में रूपान्तरित होकर अरिहंत परमात्मा की विशुद्ध तरंगों में संयोजित हो जाता है। "रि" निर्जरा का प्रतीक है। यह बीज हमारे दूषणों को, विकारों को, बुरे संस्कारों को जलाने का काम करता
_ "ह" यह व्योम बीज है। यह आनंद का प्रतीक है। इसका काम है विचरना। विस्तार करना। विकसित करना। व्यापकता लाना। नीचे से ऊपर उठाना। तरंगों को फैलाने में सहायक होना। हमारे अनंत चिदाकाश की यह अनुभूति कराता है। .. "त" वायु बीज है। इसका काम पुनः "अ" की तरह ऊपर उठाना है। आर्हन्त्य जो हम में विद्यमान है उसका यह बीज हमें बोध कराता है। __इसके जप की विशेष विधि श्री सकलकीर्तिसूरि कृत "तत्वार्थसार दीपक" और सिंहतिलकसूरि द्वारा संकलित “परमेष्ठिविद्यायन्त्रकल्पः" में अतीव सुंदर रूप से दर्शायी है। आठ दिशारूप अष्ट पत्र वाले कमल का चिन्तन करना, बाद में उस कमल के मध्यभाग (कर्णिका) में ग्रीष्मऋतु के अत्यन्त स्फुरायमान ऐसे स्वयं के आत्मा का अनुचिन्तन करना, तदनंतर उस पद्म के प्रत्येक पत्र में अत्यन्त तेजस्वी “ॐ नमो अरिहंताणं" इस मन्त्र के एक-एक अक्षर को प्रत्येक पत्र में प्रदक्षिणा पूर्वक चिन्तन करना। इस प्रकार मन्त्र-वर्णों की प्रतिष्ठा हो जाने पर पूर्वादि प्रत्येक दिशा में पूर्ण मन्त्र का ११00 (ग्यारह सौ) संख्या प्रमाण जप करना। इसमें एक-एक दिन एक दिशा में करते हुए आठ दिन तक निर्मल मन से जप करना चाहिये। विशिष्ट कार्य हेतु अर्थात् सकाम ध्यान में प्रणव-ॐ-पूर्वक ध्यान करना चाहिये और मात्र मुक्ति हेतु ॐ-रहित ध्यान करना चाहिए। ऐसा कहा है। अहं मन्त्र का अद्भुत रहस्य
· ऋषिमंडल स्तोत्र, नमस्कार महामंत्र स्तोत्र, अरिहंत स्तोत्र आदि कई पुरातन स्तोत्र साहित्य में इस मन्त्र का विशद वर्णन एवं महत्व प्रस्तुत है परंतु विस्तार भय से यहाँ मात्र सार प्रस्तुत किया जा रहा है। जो सर्व पूजनीय आत्माओं और अरिहंतों का प्रतिष्ठान (स्थान) है। जो परमेष्ठिबीज, जिनराजबीज, सिद्धबीज, ज्ञानबीज, त्रैलोक्यबीज और जिनशासन के सारभूत सिद्धचक्र का आदि-बीज है, वह “अहँ" प्रणिधान-ध्यान का उत्तमोत्तम आलम्बन है। परमेष्ठि बीज
तत्त्व से अरिहंत परमात्मा पंचपरमेष्ठी स्वरूप है। उनमें उपचार से द्रव्य-सिद्धत्व होने से वे सिद्ध हैं। उपदेशक होने से वे आचार्य हैं। शास्त्र के पाठक होने से उपाध्याय हैं और निर्विकल्प चित्त वाले होने से साधु हैं। इस प्रकार अहँ यह परमेष्ठि बीज है।