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केवलज्ञान-कल्याणक २१९ अतिशय-विभाजन
समवायांग सूत्र में इन चौंतीस अतिशयों का उल्लेख है। बाद के ग्रन्थों में इन अतिशयों का तीन रूप में विभाजन मिलता है
(१) जन्मकृत (२) कर्मक्षयज (३) देवकृत।
जन्मकृत अर्थात् जन्म से ही तीर्थंकरों को अतिशय होते हैं। हेमचन्द्राचार्य ने "श्री वीतराग स्तव" में जन्मकृत अतिशय को “सहजातिशय" कहा है। · कर्मक्षयज अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अन्तराय-इन चार घातिकर्मों के क्षय से उत्पन्न अतिशयों को कर्मक्षयज अतिशय कहते हैं।
देवकृत अथवा सुरकृत अतिशय तीर्थंकरों को केवलज्ञान होने के बाद होते हैं। कर्मक्षयज और देवकृत अतिशय में कुछ अन्तर है।
यद्यपि दोनों प्रकार के अतिशय केवलज्ञान के बाद होते हैं परन्तु अन्तर यही है कि कर्मक्षयज अतिशय कर्मक्षय के बाद अपने आप हो जाते हैं जबकि देवकृत अतिशय देवों द्वारा किये जाते हैं।
नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि ने समवायांग सूत्र की वृत्ति में "अन्यच्च" शब्द का उल्लेख कर इन चौंतीस अतिशयों का विभाजन किया है, वह इस प्रकार है।
अनुक्रम नंबर २१ से ३४ तक और १२वाँ प्रभामण्डल ये १५ कर्मक्षयज, २ से ५ तक के ४ अतिशय जन्मकृत और अन्य १५ अतिशय देवकृत हैं। इसका विशेष
निरूपण इस प्रकार है• अभिधान राजेन्द्र कोष, लोकप्रकाश, उपमितिभव प्रपंच कथा आदि ग्रन्थों में इसका विभाजन व्यवस्थित रूप से करने का प्रयल किया है।
दिगम्बर ग्रन्थों में भी विभाजन के विभिन्न तरीके प्रसिद्ध हैं। यहाँ समन्वय रूप तालिका दी गई हैजन्मकृत १० अतिशय
(१) स्वेदरहित तन (२) निर्मल शरीर (३) दूध की तरह रुधिर का श्वेत होना (४) अतिशय रूपवान् शरीर (५) सुगन्धित तन (६) प्रथम उत्तम संहनन (७) प्रथम उत्तम संस्थान (८) एक हजार आठ (१००८) लक्षण