________________
२२० स्वरूप-दर्शन (९) अमितबल
(१०) हित-प्रिय वचन। कर्मक्षयज ११ अतिशय
(१) भगवान विचरें वहाँ-वहाँ सौ-सौ कोस तक सुमिक्ष होना। (इति नहीं होना) (२) आकाश में गमन। (३) भगवान् के चरणों में प्राणियों का निर्भय होना। (४) कवलाहार (स्थूल आहार) का नहीं होना। (५) भगवान् पर कोई उपसर्ग नहीं होना। (६) समवसरण में चतुर्मुख दिखना। (७) अनन्तज्ञान के कारण सर्व विद्याओं का स्वामित्व होना। (८) शरीर का निर्मल और छाया रहित होना। (९) नेत्रों के पलकों का नहीं गिरना। (१०) नख केशों का सम होना।
(११) १८ महाभाषाएँ, ७०० क्षुद्र भाषा एवं संज्ञी 'जीवों की समस्त अक्षरअनक्षरात्मक भाषाएँ हैं उनमें तालु, दांत, ओष्ठ एवं कंठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भव्य जीवों को दिव्य उपदेश देना। भगवान् श्री जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्य ध्वनि तीनों संध्या कालों में नवों मुहूर्तों तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त श्री गणधर भगवन्त, इन्द्र, चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ यह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। यह दिव्यध्वनि भव्यजीवों के लिए छः द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है। देवकृत १३ अतिशय
(१) श्री तीर्थंकर भगवन्तों के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही पत्र, पुष्प एवं फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है।
(२) कंटक और रेती आदि को दूर करता हुआ सुखदायक वायु चलने लगता है। (३) जीव पूर्व वैर को छोड़कर, मैत्रीभाव से रहने लगते हैं। (४) उतनी भूमि दर्पणतल के सदृश स्वच्छ और रनमय हो जाती है। (५) सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव सुगंधित जल की वर्षा करता है।
(६) देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्य को रचते हैं।
(७) सब जीवों को नित्य आनंद उत्पन्न होता है।