SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलज्ञान-कल्याणक २२१ (८) वायुकुमार देव विक्रिया से पवन.चलाता है। (९) कूप और तालाब आदि निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं। (१०) आकाश धुआँ और उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है। (११) सम्पूर्ण जीवों को रोगादिक बाधायें नहीं होती हैं। (१२) यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्मचक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है। (१३) तीर्थंकरों के चारों दिशाओं में छप्पन्न सुवर्णकमल, एक पादपीठ और दिव्य एवं विविध प्रकार के द्रव्य होते हैं। समीक्षा की दृष्टि से इति, मारी, वैर, व्याधि.... आदि अतिशयों के लिये निर्देशित क्षेत्र प्रमाण कुछ भिन्न रूप से मिलते हैं-(१) समयायांग सूत्र में २५ योजन का ही उल्लेख है। (२) अभिधान चिंतामणि में चारों ओर सवासौ योजन प्रमाण भूमि। (३) उपदेशप्रासाद में सर्व दिशाओं में पच्चीस पच्चीस योजन और ऊपर नीचे साढ़े बारह योजन-इस प्रकार सवासौ योजन। (४) तिलोयपण्णत्ति में सौ योजन। चौंतीस अतिशयों में विवरण योग्य कुछ अतिशय निरामय-रोगरहित और निरुपलेप गात्रयष्टि-समवायांग सूत्र में इस अतिशय के वर्णन में कहा है-अरिहंत परमात्मा का शरीर रोग रहित और निरुवलेवा अर्थात् लेप या उपलेप रहित होता है। अरिहंत असामान्य लोकोत्तर महापुरुष हैं। उनके न केवल तन के रोग और लेप ही समाप्त हुए होते हैं, परन्तु मन के रोग और लेप (आसक्ति) आदि भी समाप्त हुए होते हैं। क्योंकि राग-द्वेष के लेप जिनके न हों उनके तन-मन के लेप कैसे हो सकते हैं ? ___ वर्षों तक अनार्य देश में अस्नान अवस्था में घूमे थे श्रमण भगवान महावीर। अनार्य लोगों के धूलि-ढपले-पत्थरों से लेकर भयंकर प्राणियों के असह्य, अकथनीय, उपसर्ग इन्होंने सहे हैं, किन्तु कहीं भी अपनी ध्यान-पर्याय-अवस्था का इन्होंने त्याग नहीं किया। भयंकर लू बरसाती ग्रीष्म की गर्मी में भी ये मुर्भायें नहीं, उनका मन निर्लेप और निरोगी था। हेमचन्द्राचार्य ने इसका विशेष स्वरूप दर्शाते हुए बहुत सुन्दर कहा है तेषां च देहोऽद्भुतरूपगंधो, निरामयः स्वेदमलोज्झितश्च । तीर्थंकर परमात्मा का शरीर अद्भुत रूप वाला, अद्भुत गन्ध वाला, रोग रहित, स्वेदरहित और मलरहित होता है। यहाँ परमात्मा के शरीर के पांच विशेषण दर्शाये हैं। - अद्भुत रूप वाला-शरीर-अद्भुत अर्थात लोकोत्तर। तीर्थंकर परमात्मा का रूप लोक में सर्वोत्तम होता है। उनके जैसा रूप सम्पूर्ण जगत् में अन्य किसी का नहीं होता है।
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy