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२२२ स्वरूप-दर्शन बृहत्कल्पभाष्य में कहा है
संघयणरूपसंठाण वण्ण गई सत्त सार उस्सासा ।
एमाइणुत्तराई हन्ति नामोदए तस्स ॥ तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से अरिहंत परमात्मा का संहनन, रूप, संस्थान, वर्ण, गति, सत्व, सार और उश्यास आदि सर्व अनुत्तर होते हैं।
केवलज्ञान के बाद तो इनका रूप अगुणित हो जाता है। सर्व देव मिलकर अपनी सर्व अद्भुत शक्ति से एक अंगुष्ठ प्रमाण रूप विकुर्वित करने में असमर्थ हैं।
वज्रऋषभनाराच संहनन प्रथम संहनन वाले सर्व जीवों में कुछ अपेक्षा से समान होने पर भी उसमें तारतम्य होता है। सम्पूर्ण विश्व में भगवंत जैसा प्रथम संहनन श्वेतादि वर्ण, गति, सत्व और बल अन्य जीवों में नहीं हो सकता है।
भगवन्त का परमात्म तत्व तो अन्तर्गत पड़ा हुआ होता है। उसे भले ही कोई जान सके या न जान सके पर इतना तो निश्चित है कि भगवन्त के रूप पर दृष्टि पड़ते ही दृष्टा का अन्तःकरण अद्भुत रस वे वासित हो जाता है और भगवन्त की ओर आकर्षित हो जाता है। देखने वाले की दृष्टि उसमें स्थिर होती जाती है।
भगवन्त का रूप सौन्दर्य इतना अधिक होने पर भी उसमें एक अद्भुत विशेषता है कि-"तीर्थंकर स्वरूपं सर्वेषां वैराग्यजनकं स्यात्, न तु रागादिवर्धकं चेति।" अर्थात् तीर्थंकर का स्वरूप सर्व जीवों के लिए वैराग्य जनक होता है, रागादि बढ़ाने वाला नहीं। तात्पर्य यह कि जो जितने रस पूर्वक परमात्मा के सौन्दर्य का रसपान करता है वह उतने अंश में वैराग्य प्राप्त करता है। अन्य जीवों के सौन्दर्य रागवर्धक होते हैं परन्तु परमात्मा का सौन्दर्य वैराग्यवर्धक होता है। लोकोत्तर सुगंध
अरिहंत जन्म से ही योगी होते हैं। सामान्य योगियों में, जिन्होंने आसन या प्राणायाम सिद्ध किया हो, लोक में देखा जाता है कि उनके पसीने आदि में दुर्गन्ध नहीं आती है। ध्यान करने से हम निज में भी यह गुण पा सकते हैं। तीर्थंकर तो परमयोगी होते हैं। योग तो इनको जन्म से ही सिद्ध होता है।
तीर्थकर नाम कर्म के कारण अन्य कई विशेषताएं इनके इस गुण में सहायक हो सकती हैं। गंध की इस विशेष बात को लेकर उनको गन्धहस्ती का विशेषण दिया जाता है। यहाँ इसके विशेषार्थ में कहा है-"जिस प्रकार गन्धहस्तियों के मद की गंध से ही उस देश में विचरते हुए क्षुद्र हस्ती भाग जाते हैं, उसी प्रकार परमात्मारूप गन्धहस्ती वीतराग रूप गन्ध से हम में रहे मान रूप हाथी या अन्य कषायें अपने आप समाप्त हो जाती हैं।