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________________ केवलज्ञान-कल्याणक २२३ मोक्षीरवत श्वेत मांस और रक्त परमात्मा के देह की अद्भुतता का वर्णन करते हुए कहा है- “गोक्खीरपंडुरे . मंससोणिए'"-उनके मांस और शोणित श्वेत वर्ण के होते हैं। भगवन्त के रूप, लावण्य, बल, नैपुण्य, इन्द्र-सेवादि अनुत्तरताओं में से कुछ अल्प अंशों वाली विशेषताएँ अधिक पुण्य वाले किसी व्यक्ति में संभव हो सकती हैं, परन्तु इस अतिशय में वर्णित अद्भुतता तो किसी में अल्पांश में भी संभव नहीं है। वीतरागस्तव की अवचूरि में इन विशेषताओं के साथ ऐसा भी कहा है कि सामान्य लोगों की भांति हे प्रभु आपके मांस और रक्त दुर्गन्ध वाले भी नहीं हैं, परन्तु परम सुवास वाले होते हैं। ___ आवश्यक चूर्णि में श्रमण भगवान महावीर का एक सुन्दर चरित्र कथन आता हैसाधना के द्वितीय वर्ष में प्रभु महावीर दक्षिणवाचाला से उत्तरवाचाला की ओर पधार रहे थे। तब उन्होंने कनकखल आश्रम के भीतर से जाने वाले मार्ग को चुना, लोगों के रोकने पर भी वे उसी राह से निकले। कुछ आगे बढ़ने पर विषधर चंडकौशिक की क्रीड़ा-स्थली रूप देवालय मंडप को उन्होंने ध्यान हेतु चुना। जंगल में घूमकर चंडकौशिक जब अपने देवालय मंडप में आया तो निजस्थान में, जहां कभी कोई नहीं आता ऐसी निर्जन वनभूमि में परमात्मा को ध्यानाश्रित देख स्तब्ध रह गया। उसे असीम क्रोध आया। ऐसी स्थिति में वह भयंकर फुफकार के साथ आगे सरका। आटोप से उछलता हुआ फन, कोप से उफनता हुआ शरीर, विष उगलती हुई आँखें, असि-पलक की भाँति चमचमाती जीभ-इन सबकी ऐसी एकरूपता हुई कि रौद्ररस साकार हो गया। वह भगवान के पैरों के पास पहुँचा। पास पहुँचते ही वह उठ गया। क्रोध जिस किसी को आयेगा वह ऊपर की ओर उठेगा, बाहर फैलेगा। जैसे कोई व्यक्ति लेटा हो-क्रोध आएगा वह बैठा होगा, बैठा होगा वह उठ खड़ा होगा......| चंडकौशिक भी ऊपर की ओर उठा। प्रभु की तरफ देखा। प्रभु की आँखें झुकी हुई थीं, वह और ऊपर हुआ। प्रभु से भी ऊपर उठ गया। उसने सूर्य से अपनी .आँखें मिलाकर उसमें विष घोला और दृष्टिपात से विष का प्रक्षेपण किया। प्रभु पर तो उसका कोई असर न हुआ परन्तु आस-पास के पेड़, पौधे, पत्ते जल गये। - दृष्टिविष से पराभूत करने में निष्फल उसने स्पर्श से अभिभूत करना चाहा। उसने सारी शक्ति लगाकर भगवान के बाँए पैर के अंगूठे को डसा। विष ध्यान की शक्ति से अभिभूत हो गया और उस स्थान से दूध की धार प्रस्फुटित हुई। स्तब्ध हो गया चंडकौशिक। पहला ही अवसर था यह उसे रक्तवर्णी खून के स्थान पर श्वेतवर्णी खून देखने का। आश्चर्य हुआ उसे, कभी किसी में न देखी हो ऐसी अद्भुतता! उसे विश्वास न आया या कौतूहल बढ़ा, उसने दूसरी बार पैर को और तीसरी बार पैरों में लिपटकर
SR No.002263
Book TitleArihant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyaprabhashreji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1992
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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